शनिवार, 18 जनवरी 2020

कथावार्ता : तान्हाजी- वीर योद्धा की अप्रतिम कहानी

    
     मुझे तान्हाजी अच्छी लगी।

       इसमें सबसे दिलचस्प प्रसंग चुत्या वाला है। जब चुत्या दगाबाजी कर उदयभान के पास जाता है तो उदयभान उससे नाम पूछने के बाद उच्चारण ऐसे करता है कि यह नाम एक गाली की तरह गूँजने लगता है।- हर भितरघाती 'चुत्या' है।
      फ़िल्म में सब अपने निजी एजेण्डे के साथ हैं। उदयभान इसलिए औरंगजेब के साथ हो गया है कि उसके प्यार को ठुकराया गया है। उसका अजीज साथी जगत सिंह अपनी बहन को छुड़ाने के लिए उदयभान के साथ है (हालांकि यह प्रसंग अस्वाभाविक सा है)। औरंगजेब की चिन्ता भारत को एकछत्र में करने की है और वह किसी का उपयोग कर सकता है। फ़िल्म में उसकी भूमिका नाहक है। उदयभान एक टूल भर है।
        तान्हा जी वीर है। उसने अपने पिता से 'स्वराज' देने का वायदा किया है। मराठा उस किले को जीतना चाहते हैं जिसे एक संधि के तहत शिवाजी को देना पड़ा है। यह संधि होने के बाद किले को वापस लेने का कारण ठीक से कहानी में नहीं जुड़ पाया है। जिस शिवाजी ने किला संधिवश दिया था, वह वापस क्यों पाना चाहते हैं और इसका क्या परिणाम होगा, इसकी तरफ संकेत भी नहीं है। तान्हा जी अतिउत्साही है। वह उदयभान को देखने के लिए नाटकीय तरीके से चुत्या को मार देता है। उसे कारावास मिलता है, जहां से वह भागता है। यह कहानी भी अतिरंजित है।
         तान्हा जी उसके बाद अपनी सेना के साथ अष्टमी की तिथि पर आक्रमण करता है- उदयभान अपने साथ लाये हुए तोप 'नागिन' को अंत तक नहीं चला पाता। यह इस फ़िल्म की कई विडंबनाओं में से एक है।
लेकिन तान्हा जी एक विशिष्ट फ़िल्म है। यह अपने 3D रूप में बहुत अच्छे से बाँधती है। हमें अचंभित करती है। उन सैनिकों के पराक्रम से अभिभूत करती है। हमें अपनी कुर्सी से चिपकाए रखती है और उन वीरों से अच्छे से कनेक्ट करती है।
           अगर 'तान्हाजी' फ़िल्म पर इसका दबाव नहीं रहता कि इस फ़िल्म को विवाद रहित बनाना है तो यह फ़िल्म बेहतरीन बन जाती। इसमें फिल्मकार पर दबाव है कि वह प्रतिपक्ष को अतिरंजित तो क्या, सच स्वरूप में भी न दिखाए इसलिए वैसे दृश्य नहीं आये हैं, जिसे हम मुगल सेना का अत्याचार मान लें और कहें कि 'स्वराज' आवश्यक है। उदयभान का अत्याचार भी नहीं दिखता। वह एक प्रशासक है। प्रशासन को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए उसे क्रूर बनना पड़ता है। ऐसा होने पर भी वह धोखा खा जाता है। 
         तो यह कि फिल्मकार भारी दबाव में दिखा मुझे, यद्यपि वह 'हर हर महादेव', 'भगवा', 'हिन्दू', 'जय श्रीराम' 'स्वराज' और 'आजादी' जैसे पदों का खूब प्रयोग करता है। तान्हाजी एक प्रसंग में आजादी छिनने की बात करता है और वही हमारे लिए एक सूत्र है। लेकिन हम दर्शकों के लिए फ़िल्म में 'सूत्र' उतना मायने नहीं रखता जितना एक मार्मिक प्रसंग।
         मैंने 'रजिया सुल्तान' देखी तो इसका रूप देखा। फिल्मकार को इल्तुतमिश की सदाशयता दिखानी थी, उसके बेटे की अय्याशी दिखानी थी तो उसने एक प्रसंग गढ़ा था। तान्हाजी में शिवाजी और औरंगजेब से सम्बद्ध एक भी प्रसंग नहीं हैं। कल्पना और विज़न यहीं समझ में आते हैं।


  तान्हाजी का दृश्यांकन अच्छा है। यह फ़िल्म 3D तकनीक में अच्छी है। कुछेक दृश्य तो बहुत शानदार हैं। यह देखने के लिए ही इस फ़िल्म को देखना चाहिए। यह देखने के लिए भी यह फ़िल्म देखनी चाहिए कि इतिहास में बहुत से योद्धा पन्नों में खो गए हैं। तान्हाजी भी उनमें से एक हैं। उनकी बहादुरी हमारी स्मृति में अंकित हो जाएगी।
        फ़िल्म इसलिए भी देखनी चाहिए कि इसमें आजादी और स्वराज का मतलब समझाने की कोशिश हुई है। खेद की बात है कि देश भर में डफली बजाकर आजादी मांगने वाला 'टुकड़े टुकड़े गैंग' इसे देखकर चिढ़ता है।
        यह फ़िल्म देखते हुए मुझे यह बात परेशान करती रही कि महाराष्ट्र में शिवाजी को लेकर राजनीति करने वाली शिवसेना और उसके सुप्रीमो उद्धवजी बाला साहेब ठाकरे इस फ़िल्म को लेकर कितना दबाव में होंगे। वह इसे टैक्स फ्री नहीं कर पा रहे। उत्तर प्रदेश और हरियाणा ने टैक्स फ्री कर थोड़ा दबाव और बढ़ा दिया है। वैसे मेरा मानना है कि वह फिल्में टैक्स फ्री नहीं होनी चाहिए जिनमें अभिनेता मोटी रकम वसूल करते हैं।
           अंत में, सबका अभिनय अच्छा है। सैफ़ अली खान का अभिनय थोड़ा नाटकीय हो गया है इसलिए वह हल्का हो गया है। अजय देवगन से ज्यादा गंभीर किरदार शिवाजी का बना है लेकिन उसमें स्पेस नहीं है।
           
           सबको यह फ़िल्म जरूर देखना चाहिए!

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

कथावार्ता : किस्सा किस्सा लखनउआ : अज़ीम शहर के अजीज किस्से

       किस्सा और चुटकुला में बुनियादी अंतर है। दोनों ही कहन की चतुराई चाहते हैं और दोनों में एक ऐसा बिन्दु रहता है-जहां से बात खुलती है। चुटकुले में खुलती है तो हास्य बनता है और किस्सा में आश्चर्य अथवा हास्य अथवा चौंकाने वाली कोई चीज हो सकती है। किस्सा में तफसील अधिक रहती है। किस्सागो का ध्यान उन वर्णन पर अधिक रहता है जिससे माहौल बनता है। चुटकुला में माहौल उतना  मायने नहीं रखता जितना किस्से में। किस्सा इस बात पर अधिक रोचक हो जाता है, जब यह हमारे जाने/अनजाने के किसी शख्सियत से सम्बद्ध हो जाता है।
       राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हिमांशु बाजपेयी की किताब "किस्सा किस्सा लखनउआ" लखनऊ के किस्सों की विशिष्ट पुस्तक है। इस किताब को पढ़ने के बाद आपको अपने शहर से प्यार हो जाएगा और  लखनऊ से रश्क। आप इन्हें पढ़ते हुए बारम्बार अपने शहर के किस्सों को याद करने की कोशिश करेंगे। लखनऊ के किस्सों को पढ़ते हुए मुझे अपने गाँव, शहर गाजीपुर, प्रयागराज, दुद्धी और इटावा के कई ऐसे वाकये याद आये जो बैठकबाज़ लोग रस ले लेकर सुनाते थे/हैं। हमलोगों ने मुल्ला नसीरुद्दीन, हातिमताई, तेनालीराम, अकबर-बीरबल आदि के किस्से खूब पढ़े/सुने हैं।  हमलोगों ने ग्रामीण लोगों से अकिला फुआ के बहुत से किस्से सुने हैं। किस्सा किस्सा लखनउआ इस मामले में विशिष्ट है कि यह किसी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं है। यह शहर पर केंद्रित है। और शहर भी कैसा? संस्कृति का एक जीता-जागता बाड़ा। लखनऊ इस मामले में भी विशिष्ट है कि इस शहर में पुराने के प्रति गहरा लगाव है तो नया बनने की गहरी छटपटाहट। नवाबी शान इतनी जबर चीज है और इसको इतना ग्लैमराइज किया गया है कि यह लखनऊ की विशेष पहचान बन गया है। शहर बनारस में फक्कड़पन है, मस्ती है जबकि लखनऊ में एक अदा है। यह अदा ही इस शहर को अद्भुत बनाता है। यहां का नवाब वाजिद अली शाह एक मिसाल बन गया है तो इस शहर के किस्से भी उसी के अनुरूप दिलचस्प और रोचक बन गए हैं।


     
        हिमांशु बाजपेयी की विशिष्टता यह है कि वह शहर लखनऊ के किस्से कहते हुए हर तरह के 'टेस्ट' को जगह देते चलते हैं। अमृतलाल नागर, 'सुरियाकांत तिरपाठा निराली', बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस से लेकर अदब की दुनिया के कई लोगों की कहानियों से लेकर पनेड़ी, चायवाले, इक्केवाले, कोठागोई आदि की कहानियां भी इसमें आ गयी हैं। अदब की दुनिया जहाँ नफासत वाली है, सड़क और गलियों की दुनिया वहीं रोचक हैं। हिमांशु बाजपेयी सबको उसी रस और भावभंगिमा के साथ सुनाते चलते हैं। हर किस्सा एक उम्दा शेर के साथ और मानीखेज होता गया है। लखनऊ की संस्कृति को अभिव्यक्त करते छोटे छोटे किस्से एक बैठक में पढ़/सुन लिए जाने के लिए उकसाते हैं।
       "किस्सा किस्सा लखनउआ" में लखनऊ है और अवध है। इसमें जो अवध है और जो जनसंख्या है वह मुग़लिया सल्तनत, इस्लाम और उर्दू के प्रभाव में है। शायद किस्सों की यही सीमा होगी। इस किताब में  जो अवध है वह पुराना तो है लेकिन बहुत पुराना नहीं है। इसमें मूल अवध का कोई किस्सा नहीं। शायद शासन ने लोगों की स्मृति पर एक कूँचा फेर दिया है।
"किस्सा किस्सा लखनउआ" एक बैठक में पढ़ जाने वाली किताब है। यह एक से एक किस्सों की पोटली है। इसे पढ़कर आपको उर्दू पोइट्री से और प्यार हो जाएगा। क्योंकि हर किस्से में किसी न किसी शायर की एक झलक है। इस शहर से प्यार हो जाएगा। आप लखनऊ जाएंगे तो वहां इसमें वर्णित तहजीब और तरतीब खोजेंगे। लेकिन जैसा कि नियति है- किसी भी शहर को जानना हो तो उस शहर में रमना पड़ता है- उसमें समय देना पड़ता है। आप पर्यटक बनकर उस शहर की नब्ज को नहीं पकड़ सकते। उस नब्ज को जानने/पकड़ने के लिए उस शहर का होना पड़ता है। आज जब हम एक ऐसी ग्लोबल और आवारा पूँजी प्रवाह के दौर में हैं, जहां एकरेखीय संस्कृति का हरओर विस्तार हो रहा है तब इस नब्ज को पकड़ना और भी कठिन है। हिमांशु बाजपेयी ने किस्सा किस्सा लखनउआ में उसे पकड़ने की कोशिश की है और यह बेहतरीन प्रयास है। हर उस व्यक्ति को, जो अपने आसपास को शिद्दत से चाहता है, उसे आसपास के किस्सों को लिपिबद्ध करना चाहिए। और जिसे यह प्यार करना सीखना है- उसे "किस्सा किस्सा लखनउआ" जरूर पढ़ना चाहिए।

फेसबुक पोस्ट और उसपर आई टिप्पणियों को यहाँ भी पढ़ सकते हैं। किस्सा किस्सा लखनउआ

शनिवार, 4 जनवरी 2020

कथावार्ता : साहित्य की धर्मवादी राजनीति

   
बीते दिन एक शॉपिंग मॉल के पास से निकल रहा था तो बुल्ले शाह का वह प्रसिद्ध गीत पॉप धुन में सुनाई पड़ा- बुल्ला की जाणा मैं कौण। बुल्लेशाह का यह और अन्य कुछ दूसरे गीत गायकों की पसंद हैं। अमीर खुसरो के गीत भी धुन बदल-बदल कर बहुतों द्वारा गाई गयी है। इस्लामी (सूफी) गायकों ने और उससे प्रभावित हो कर दूसरे गायकों ने भी कई ऐसे साधकों के गीत भिन्न-भिन्न अंदाज में पेश किया है। पिछले दिनों फैज़ अहमद फैज़ की वह नज़्म भी पाकिस्तान की टोली 'कोक स्टूडियो' ने खूब झूमकर गाया था और वह  खूब मकबूल हुआ। इकबाल बानों का गाया हुआ और उनका किस्सा तो रोमानियत की मिसाल बन गयी है। मज़ाज़, इक़बाल, टिन्ना पिन्ना के गाने भी बहुत मन से गाये गए हैं। हिंदी फिल्मों में भी इनका बोलबाला रहा है।
        उसके मुकाबिले हिंदी/संस्कृत के गीतों को साधने की कोशिश बहुत कम है। तुलसी-सूर को कोई गाने की कोशिश करता है तो 'चंचल' बन जाता है। उनका तरीका भी वही भ्रष्ट शास्त्रीय रहता है। पॉप और जैज़ के खाँचे में डालने की बात सोचना भी हमने जरूरी नहीं समझा है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले और रवीन्द्र जैन ने कुछ ढंग का गाया तो है लेकिन वह "भक्ति" के दायरे में रख दिया गया है और युवाओं से परे कर दिया गया है। कोई नया आयाम देकर गाने की कोशिश भी नहीं करता।
        इसके पीछे एक बड़ी वजह "मानसिकता" की है। ट्रेंड बनाने की है। राजकीय प्रश्रय की है। इस्लामी गायकों ने 'रूढ़ि' को भी ताकत बना लिया। हम मठ और गढ़ तोड़ने में मशगूल रहे। किसी कवि ने नहीं कहा कि हम शरिया आदि का भी ख़ात्मा करेंगे। हम कुरआन और हदीस के आसमानी मान्यताओं को नहीं मानते। यह सब बकवास है। बल्कि "मार्क्सवादी शायर" फैज़ तो "बस नाम रहेगा अल्लाह का" लिखकर और "सब बुत उठवाए जाएंगे" लिखकर भी "क्रांतिकारी" हैं।
     तो कहने का आशय यह है कि यह पैराडाइम एक लंबे डिस्कोर्स से बना है। उसे ध्वस्त करने के लिए सूक्ष्म और तार्किक तथा संगठित और रचनात्मक लड़ाई करनी होगी। उटपटांग के आरोप-प्रत्यारोप से यह और मजबूत होगा।
    आइए सैय्यद इब्राहिम रसखान की यह कविता पढ़ते हैं- मनुष्य के जीवन की सार्थकता क्या है-

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

#Faiz

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

कथावार्ता : चल टमकिया टामक टुम


(डिक्लेरेशन-इस कहानी के कई संस्करण हो सकते हैं)

     चल टमकिया टामक टुम

एक थी बुढ़िया।
बहुत सयानी।
घाट घाट का पीकर पानी।
बन गयी थी सबकी नानी।
एक दिन की बात है।
सच्ची-सच्ची बात है।
नहीं है कुछ भी झूठा-मूठा
पतियाओ या चूसो अंगूठा।
वह चली अपने मायके।
बहुत समय बितायके।
राह में मिल गया एक सियार।
बोला अपना दाँत चियार।
'बुड्ढी तुझको खाऊंगा।
अपनी क्षुधा मिटाऊंगा।'
बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार!
मैं जाती अपने गाँव
लौटूंगी उलटे पाँव।
जब मैं वापस आऊँगी
तब मुझको खा लेना
अभी बहुते काम है
बाद में क्षुधा मिटा लेना।
सियार का दिल पसीज गया
  वह कुछ सोचा फिर रीझ गया।

बुढ़िया उसके बाद अपने गाँव गयी। वह थोड़ा परेशान थी। उसके भाई-भतीजे मिले। सबने आशीष लिया। सबने कुशल क्षेम जाना। भौजाई ने ठिठोली की। भाई ने चिन्ता का कारण पूछा। बुढ़िया ने सब कहानी कह सुनाई।
तब भाई ने मंगाया एक कद्दू। 
एक बड़ा कद्दू। 
एक बहुत बड़ा कद्दू।
कद्दू को काटकर बनाई गई एक टमकी। बुढ़िया उसी में बैठकर वापस लौटी।
वह टमकी गाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?
टमकी गाती जाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?

तब बुढ़िया संगत करती और जवाब देती-
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।

टमकी लुढ़कते लुढ़कते चली। सियार का डेरा आ गया। वह जबर खुश हो गया। उसने गाना सुना तो नाचने लगा।- 'आज सुरन्ह मोहि दीन्हि अहारा'...

बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार, हमने अपना वचन पूरा किया है। अब तुम मुझे अपना आहार बना सकते हो। लेकिन अच्छा यह रहेगा कि मैं गंगा स्नान कर आऊँ। पवित्र हो जाऊँ और आखिरी प्रार्थना भी कर लूं।'

सियार ने कहा- 'ठीक बात! आई विल वेट!'

बुढ़िया गंगा स्नान को गयी और जितना नहाया- उससे अधिक समय उसने अपने पिछवाड़े में बालू भरने में लगाया। जब खूब बालू भर लिया तो आयी। सियार अपने दांत तेज कर चुका था। बुढ़िया ने अपने को प्रस्तुत करते हुए पूछा- 'सिर की तरफ से खाओगे या धुसू की तरफ से?' 

अब सियार का माथा चकराया।
इसका रहस्य क्या है, उसने हाथ नचाया।
बुढ़िया ने कहा-
जो तीता-तीता खाना है तो सिर की तरफ से खाओ।
और मीठा मीठा पाना है तो धुसू की तरफ़ मुंह लाओ।
सियार ने सोचा-इसमें क्या बुरा है।
अच्छा शिकार है और डेरे में सुरा है।
तो उसने कहा- धुसू की तरफ से खाऊँगा।
बुढ़िया ने कहा- तब हो जाओ तैयार।
ज्योंहि सियार ने मुँह लगाया- 
बुढ़िया बोली भड़ाम
बालू छोड़ी धड़ाम!

सब बालू सियार के आंख-मुँह में भर गया। वह रोते बिलखते भागा..


शनिवार, 30 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण जीवन का आईना है - लोकऋण

        ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास लोकऋण कई मायने में विवेकी राय के ललित निबंधकार व्यक्तित्व का आईना है। ग्रामीण जीवन विवेकी राय के समूचे रचनाकर्म में बसा हुआ है और उसकी अभिव्यक्ति भी उन्होंने बहुत मार्मिक तथा ग्रामीण प्रगल्भता के साथ की है। उनके ललित निबंधों- विशेषकर- फिर बैतलवा डाल पर और मनबोध मास्टर की डायरी तथा वृहदाकार उपन्यास सोना-माटी में विवेकी राय का ग्रामीण जीवन बहुत कलात्मक अभिरुचि के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इस उपन्यास में भी यह यत्र-तत्र देखी जा सकती है।
     लोकऋण; देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण की तर्ज पर परिकल्पित है। जहाँ की मिट्टी में जन्म लिया, पले-बढ़े, यश और गौरव हासिल किया। एक निर्बाध और सफल जिंदगी जी, उस मिट्टी का, उस वातावरण का, उस परिवेश का, उसमें रचे-बसे आब-ओ-बतास का कर्ज लोकऋण है।
      उपन्यास में आजादी के बाद बह रहे विकास की अनियंत्रित बयार में गाँव में हो रहे बदलाव को रेखांकित करने की कोशिश की गयी है। आजादी के बाद लोगों में सामूहिकता की भावना के क्षय के कारण ग्रामीण जीवन में आ रही क्षुद्रताओं और उससे उत्पन्न स्थितियों की कथा इस उपन्यास में कही गयी है। यह उपन्यास सन 1971-72 के आस पास के समय को अपनी कथा का काल और गाजीपुर के एक गाँव 'रामपुर' को केंद्र ने रखकर लिखा गया है। कथा का प्रमुख चरित्र गिरीश इलाहाबाद में अध्यापन करता है और अपनी तमाम क्षुद्रताओं के बावजूद ग्रामीण जीवन के प्रति मोहाविष्ट है। वह गाँव की दिक्कतों से आजिज आकर इलाहाबाद में बसने की पूरी तैयारी कर लेता है, यहाँ तक की अवकाश की प्राप्ति के कुछ समय पहले वह एक घर अपने नाम लिखवा भी लेता है लेकिन मन उसका गाँव में रमता है।
       गाँव में सभापति का चुनाव होने को होता है और गिरीश सहित गाँव के गणमान्य व्यक्तियों का मानना है कि यह चुनाव सर्वसम्मति से होना चाहिए। लेखक गाँधीवादी विचारधारा का हिमायती है अतः वह स्पष्ट रूप से मानता है कि ग्रामीण समस्याएं आपस में मिल बैठकर हल की जानी चाहिए। इसीलिए चकबंदी के प्रकरण में या सुरेंद्र के रेहन रखे खेत के प्रकरण में यही होता दीखता भी है। सभापति के चयन में पूर्व सभापति और गिरीश के दबंग भाई के बीच मुकाबला होना लगभग तय हो जाता है और इसके लिए तमाम दुरभिसंधियां होने भी लगती हैं। गाँव खेमे में बंट जाता है और ऐसे माहौल में बहुत सी अप्रिय घटनाएं हो जाती हैं। गिरीश को ऐसे माहौल में ऐसे द्वंद्व का सामना करना पड़ता है कि वह आजिज आकर भाग जाता है लेकिन ऐन नामांकन से पहले लौटता है। गाँव के प्रबुद्ध लोगों की गंभीर सभा में यह तय होता है कि वह निर्विरोध सभापति बनेगा। इस निर्वाचन के समय ही उसकी अवकाश प्राप्ति है अतः कोई दूसरी बाधा भी नहीं है।
       अचानक, गिरीश के सभापति बनने की बात से एक चीज तो स्पष्ट लगती है और कथाकार ने ऐसी मान्यता रखी भी है कि पढ़े लिखे लोगों को वापस गाँव लौटना चाहिए ताकि वह 'लोकऋण' उतार सकें और अपनी सूझबूझ और दूरदृष्टि से ग्रामीण जीवन में उजाला भर सकें। सबको वापस लौटना ही चाहिए। गिरीश का लौटना इसी ऋण को उतारने के लिए है। वह शिक्षा की रोशनी को पुनः गाँव में लाना चाहता है और समरसता बनाने का इच्छुक है। पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान कोशिशों में एक पहल ग्रामीण जीवन में वापसी भी है, जहां अभी भी समाज पूरी तरह से उपभोक्तावादी नहीं हुआ है और प्रकृति की एक स्वाभाविक कड़ी गतिमान है।
        उपन्यास में विवेकी राय ने बहुत चतुराई से ऐसी संरचना की है कि आखिर में गिरीश गाँव लौट आये। यद्यपि रामपुर गाँव गाँधीवादी आंदोलनों से संचालित होता रहा है और ग्रामीण उत्थान के तमाम काम वहां शुरू हो चुके थे लेकिन कालांतर में यह क्षीण पड़ रही थी, जिसे और धार देने की जरूरत सब महसूस करते हैं।यह उपन्यास गाँधीवादी विचारधारा को लेकर चलता है और उसका सम्यक निर्वाह करता है। उपन्यास में ग्रामीण जीवन अपने कहन में बहुत ईमानदारी से मौजूद है और गाँव की सोंधी सुगंध को लेकर चलता है। कथाकार गाँव की कथाएं, कहावत और मुहावरे तथा लोकोक्तियों को बहुत रस लेकर कहता-सुनता चलता है। खासकर जहाँ सुर्ती-बीड़ी, नसा-पताई का जिक्र होता है, जहाँ कउड़ा जलने की बात होती है, पहल पड़ने और कथा कहने सुनने की बात होती है, वहां उनका ग्रामीण और निबंधकार मन खूब रमता है।
       गाँव की संस्कृति को जानना समझना हो तो इसे जरूर पढ़ा जाय।

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

कथावार्ता : आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की

     
दोपहर को भोजन पर बैठे तो थाली सामने आने से पहले ही वसु ने जल ग्रहण करना शुरू कर दिया। उन्हें सबने मना किया कि 'खाना खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए।
          "क्यों?" वसु का सहज और तुरंता सवाल था। सब मेरा मुँह देखने लगे। मैंने कहा कि, "भोजन से पहले जल ग्रहण करने से जठराग्नि मद्धिम पड़ जाती है। अतएव भोजन ठीक से नहीं पचता।" 
          "पापा, यह जठराग्नि क्या होती है?" वसु पूछ बैठे। हमने कहा कि, भोजन कर लेने के बाद इसका उत्तर दिया जाएगा। हमारी परम्परा में भोजन के समय वार्तालाप की मनाही है। यद्यपि मैंने कुछ विदेशी संस्कृति को रेखांकित करने वाली पुस्तकें पढ़ीं तो उसमें देखा कि कठिन मसले डाइनिंग टेबल पर ही सुलझाए जाते हैं। खैर, तो हमने कहा कि खाना खा लिया जाए तो बताऊंगा। भोजन के उपरांत वही सवाल मेरे सामने था। अग्नि के स्थान भेद से कई रूप हैं। जंगल में लगे तो दावाग्नि, पानी में लगे तो बड़वाग्नि, पेट में लगे तो जठराग्नि। तुलसी बाबा का एक बहुत प्रसिद्ध पद है। 'आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की।' बहुत पहले एक अध्यापक ने बड़वाग्नि के बारे में बताया था कि वह आग जो पानी में लगती है। 
          "पानी में कौन आग लगती है भला?" 
          "समुद्र में कई बार खनिज तेल तिरते रहते हैं, उन्हीं में आग लग जाती है, वही बड़वाग्नि है। बहुत खतरनाक होती है।" शिक्षक ने बताया था। हमने वही मान लिया था। बाद में इस व्याख्या को अक्षम माना हमने और अग्नि का अर्थ ऊर्जा, क्षमता, पॉवर से लगाया और पानी की ताकत को बड़वाग्नि कहा। तुलसीदास कहते हैं कि पेट की आग, पानी की आग से भी बड़ी होती है। सही बात है। पेट की आग तो मानवीयता तक को भस्म कर सकती है। खैर
          "जठराग्नि, भूख लगने पर जाग्रत होती है। जब हम पानी पी लेते हैं तो क्षुधा कुछ समय के लिए तृप्त हो जाती है। और फिर खाद्य पदार्थ पेट में जाकर सही पाचन नहीं कर पाते।" वसु मुँह खुला रखकर कुछ सोचते रहे तो मैंने महाभारत से अग्नि देवता से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया। -"एक बार अग्नि देवता को यज्ञ का घी खाते खाते अजीर्ण हो गया।" 
          "अजीर्ण माने?" वसु ने पूछा। 
          "भूख न लगने की बीमारी।" 
          "यह क्या होता है?"
       "एक बीमारी होती है, जिसमें भोजन करने की इच्छा नहीं होती।"
          ......

          "तो अग्नि अजीर्ण के कारण पीले पड़ गए। जब अग्नि सबसे मद्धिम होती है तो उसकी लौ पीली होती है। "अच्छा बताओ, जब सबसे तेज होती है तो किस रंग की होती है?"
          "नीले रंग की!" वसु की माँ ने वसु की मदद की। 
          "हाँ! नीला रंग सबसे शक्तिशाली और रहस्यमयी होता है। 
          "तो, अग्नि ने इसकी शिकायत अश्विनी कुमारों से की। अश्विनी कुमारों ने इन्द्र को बताया और इन्द्र ने कहा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण से मिलिए। वह लोग खाण्डव वन जला देंगे। यह वह समय था जब अर्जुन पांडवों को ताकतवर बनाने के लिए गली गली घूम रहे थे और सबसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर रहे थे। अग्नि ने अर्जुन से कहा। अर्जुन और कृष्ण ने खाण्डव वन को घेर लिया और आग लगा दी। जीव जन्तु जलकर भस्म होने लगे। हाहाकार मच गया। वन में ही तक्षक नाग परिवार सहित रहता था। उसने इन्द्र को पुकारा। इन्द्र मदद के लिए भागे आये। वह वर्षा के देवता हैं तो बारिश शुरू कर दी। आग मद्धिम पड़ने लगी। अग्नि ने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने कृष्ण की तरफ। अब अर्जुन और इन्द्र में द्वन्द्व छिड़ गया। किसी किसी तरह तक्षक को बचाने पर सहमति बनी। खाण्डव जलकर खाक हो गया। अग्नि ताकतवर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को कई आग्नेयास्त्र दिए। उधर तक्षक नाग ने अर्जुन से दुश्मनी साध ली। और जब महाभारत युद्ध हुआ तो वह कर्ण के पास पहुँचा। उसने कहा कि मुझे एक बाण पर संधान करके छोड़ो। मैं जाकर अर्जुन को डंस लूंगा। कर्ण ने ऐसा ही किया। कृष्ण अच्छे सारथी थे। उन्होंने ऐन वक्त पर रथ एक बित्ता जमीन में गड़ा दिया। बाण सहित तक्षक अर्जुन के मुकुट को ले उड़ा। अर्जुन बच गए। तक्षक ने फिर से कर्ण से अनुरोध किया लेकिन इस बार कर्ण ने उसकी बात न मानी। "तो इस तरह से अग्नि को भी प्रज्ज्वलित करने के लिए खाद्य सामग्री चाहिए होती है।" 
          कहानी खत्म हो गई थी। भोजन भी सम्पन्न हो चुका था। सब अपने काम पर लग गए।


बुधवार, 27 नवंबर 2019

कथावार्ता : पितृभक्त कुणाल

       
कल शाम वसु के साथ यूँ ही बेसबब घूमते हुए हम एक होटल के नजदीक से गुजरे। बड़े अक्षरों में वहाँ KUNAL लिखा हुआ था। वसु इन अक्षरों को पहचानने लगे हैं तो हिज्जे करने के बाद उन्होंने पूछा कि इसका क्या हुआ?
         "कुणाल" मैंने बताया। "इसका मतलब"- उनका बहुत भला प्रश्न था। "जिसकी आँखें हमेशा 'सुंदर' देखती हैं। इसका एक अर्थ सुंदर आंखों वाली एक चिड़िया भी है।" 
       "किसकी आँखें पापा?" -वसु के पास बात जारी रखने के लिए प्रश्नों की अंतहीन सीरीज हैं। 
        "कुणाल की।" मैंने कहा। "कुणाल, सम्राट अशोक का बेटा था। उसकी माँ तिष्यरक्षिता ने उसकी आँखें फोड़वा दी थीं।"
            कहानी दिलचस्प हो गयी थी। अब वसु के पास स्वाभाविक प्रश्न थे। -"क्यों?" मैंने कहानी याद करने की कोशिश की। हमलोगों के पास अपने इतिहास को कहने-जानने के लिए कहानियों का अभाव है। बल्कि कहा जाए तो कहानियों को कहने-सुनने के अभ्यास का अभाव है। हम किस्से और गप्प में भरोसा रखने वाले लोग हैं। तो याद आने के बाद मैंने कुछ खिचड़ी बनाकर कहानी सुना दी।- "कुणाल जब बड़ा हुआ तो उसके विवाह का प्रस्ताव आया। कपड़े, गहने और नारियल लेकर तिष्यरक्षिता के पिता अशोक के पास आये। मजाक मजाक में अधेड़ अशोक ने कहा कि 'क्या यह प्रस्ताव मेरे लिए है?' राजसभा में यह बात हँसी के फव्वारे में उड़ गई किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति के कुणाल ने इसे गंभीरता से लिया। उसने कहा कि मजाक मजाक में ही पिता ने तिष्यरक्षिता को अपनी पत्नी के रूप में कामना की है। अतः मैं तिष्यरक्षिता से विवाह कैसे कर सकता हूँ? राजसभा में यह हड़कम्प मचा देने वाला मसला बन गया।" 
       वसु के लिए यह सब अब अझेल होने लगा और समझ से बाहर लेकिन वह हुँकारी भरते रहे और अपनी उत्सुकता प्रकट करते रहे तो मैंने कहानी आगे बढ़ा दी। "राजसभा में इस स्थिति की मीमांसा हुई और तय पाया गया कि कुणाल ठीक कह रहे हैं। एक विद्वान ने महाभारत की एक कथा सुनाई।" 
       अब वसु को एक अन्य सिरा मिल गया था। उन्होंने चहकते हुए कहा- "एक और कहानी?" -"हाँ, महाभारत में एक कहानी आती है कि दो भाई थे। एक संन्यासी और एक गृहस्थ। एक बार संन्यासी अपने गृहस्थ भाई से मिलने आया। गृहस्थ के बगीचे में अमरूद के पेड़ थे। उनपर अमरूद फला हुआ था। संन्यासी के मन में इच्छा हुई कि काश यह खाने को मिल जाता। और यह इच्छा प्रकट करते ही वह 'धर्मच्युत' हो गया। उसे अपनी मानसिक पतन का आभास हो गया। तो भाई के आने के बाद उसने इस गलती की बात बताई। भाई ने विचार किया और दण्ड का विधान किया कि संन्यासी के दोनों हाथ काट दिए जाएं। ऐसा ही हुआ। लेकिन उस कहानी में फिर सब चीजें सामान्य हो गयीं क्योंकि दोनों भाइयों की धर्मपरायणता ने यथास्थिति कर दिया।" 
          वसु को कुछ समझ में आया बहुत कुछ नहीं। लेकिन उन्होंने पूछ लिया कि कैसे हुआ यह। तो मैंने पूछा कि कुणाल की कहानी सुननी है या नहीं
    "सुननी है।" 
   "तो, तय हुआ कि तिष्यरक्षिता का विवाह अशोक के साथ हो। तिष्यरक्षिता कुणाल की सौतेली माँ बनकर आयी। वह क्रोध में थी। कुणाल से विवाह नहीं होने से दुःखी थी। 
    "एक बार कुणाल पढ़ने के लिए उज्जैन गए। राजा अशोक ने एक पत्र लिखा और भेजा। उस पत्र में तिष्यरक्षिता ने कुछ हेर फेर कर दिया। 'अधीयु' की जगह 'अंधीयु' कर दिया था। कुणाल ने यह पढ़ा तो स्वयं ही अपनी आँखें फोड़ लीं।" 
     "खुद से?" 
    "हाँ! खुद से। पापा की बात कैसे न मानता? फिर वह संन्यासी बन गया। बहुत साल बाद अशोक के राजसभा में लौटा। अशोक ने उसके नवजात बेटे 'सम्प्रति' को मौर्य वंश का उत्तराधिकारी बना दिया। अशोक का एक बेटा महेन्द्र और बेटी संघमित्रा श्रीलंका गए।" 
        हम वापस लौट आये थे। वसु के पास कई दूसरे काम थे। मैं कुणाल के बहाने कई दुनियावी बातों में उलझ गया। भारत में प्राचीन काल में बहुत से प्रतापी राजा हुए हैं लेकिन उनके प्रति उपेक्षा और विशेष दृष्टि सम्पन्न इतिहासकारों ने उनका ठीक मूल्यांकन नहीं किया। हमारी पीढ़ी और बाद की पीढ़ी शायद ही उन्हें जान पाए।

सद्य: आलोकित!

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