हला'हल'
- सम्यक् शर्मा
ज्यों-ज्यों विरोधाभास बलवान हो रहा था, त्यों-त्यों बलवती हो रही थी
चिंता की बेड़ियाँ और तोड़ रही थीं मुझ सुख में अधबैठे-अधलेटे मनुज के आलस्य को। तन्द्रा
स्वयं मूर्छित पड़ी थी। सुप्तावस्था में जल-छिड़काव कार्य से जाग्रत हुए एक भड़भड़ाए श्वान
की भाँति हम अचंभित व सतर्कता से ओतप्रोत थे। रीढ़ की हड्डी ऋजु रेखा (स्ट्रेट लाइन)
में रूपांतरित हो चुकी थी जिसका समीकरण : 'x = C' था, जहाँ C एक स्थिर राशि थी। निर्देशांक
ज्यामिति यू नो!
स्मरण हुआ एक और स्कूली प्रसंग। बात होगी कक्षा 1 या 2 की, हिंदी श्रुतलेखन
(कॉमनली नोन ऐज़ डिक्टेशन) का घंटा चालू था। महोदया ने ऊँचे स्वर में कहा "बच्चो,
लिखो हिरणी। 'ह' के पीछे छोटी 'ई' की मात्रा, 'र' और 'ण' के आगे बड़ी 'ई' की मात्रा।"
'दीर्घ और ह्रस्व के चक्कर में कौन पड़े?' यह सोचकर अध्यापक-अध्यापिकाएँ प्रायः ही मात्राओं
के लिए 'छोटे' और 'बड़े' शब्दों का प्रयोग करते हैं। ठीक ही है, 6-7 वर्षीय जूनियर जी
के दर्शक क्या ही जान पाते दीर्घ-ह्रस्व का मर्म। हमने भी रट लिया था। मस्तिष्क में
छाप लिया था कि 'ह' के 'पीछे' छोटी 'ई' की मात्रा लगाने से 'हि' बन जाता है और 'ण'
के 'आगे' बड़ी 'ई' की मात्रा लगाने से 'णी' बन जाता है।
फिर हम बड़े हुए (जो कि होना ही था, स्वाभाविक है!) और बात कक्षा 5 तक
पहुँच गयी। अब हम कॉपी के पन्ने मरोड़कर उसे बिल्ली का स्वरूप देकर उस पर ग्लिटर पेन
से 'IInd Term' और 'IIIrd Term लिखने में उस्ताद हो गए थे। अब लगता है कि यदि हम
वही लय बरक़रार रखते तो आज दिशाभेद और विरोधाभास के भँवरजाल से परे एक नामचीन पच्चीकार
होते। ख़ैर...एक बार आंग्ल भाषा साहित्य का घंटा चालू था और महोदया ने उवाचा "राइट
अहैड।" (यानी 'आगे' लिखिए) और फ़लाँ-फ़लाँ लिखवाने लगीं। तात्पश्चात् वे फिर उवाचीं
"टर्न बैक टू पेजेज़।" एंड आइ वॉज़ लाइक "ओकेएएएय्...!"
फिर सोचे कि अब समय-रेखा और नोटबुक में भी एक अदद तुलना
तो बनती ही है। जिस प्रकार समय-रेखा का आदि था वृहत्काय विस्फोट, उसी प्रकार नोटबुक का आदि है उसका सर्वप्रथम/पूर्वतम/अग्र पृष्ठ, वहीं से तो नोटबुक का आरम्भ है न! तो यदि हम नोटबुक के आदि (अग्रपृष्ठ) से उसके अंत (अंतिम पृष्ठ) की ओर बढ़ेंगे, तब हम समय-रेखा
के समान 'आगे से पीछे' की दिशा में ही बढ़ रहे होंगे। इसी के अनुसार देखें तो महोदया
का 'ह' के 'पीछे' छोटी 'ई' और 'ण' के 'आगे' बड़ी 'ई' कहना एवं 'राइट अहैड' व 'टर्न टू
पेजेज़ बैक' कहना बिलकुल विपरीत है। वास्तविकता यह है ' नोटबुक के आगे' से ' नोटबुक के पीछे' की ओर बढ़ने
वाली दिशा ही हमारे लिखने की दिशा है।
यहीं हमारा विरोधाभास चरम
पर पहुँच चुका था, और चरमपंथी तो हमें किसी भी कोण से नहीं भाते। इससे पहले कि ये श्याल
विरोधाभास हमारे हिय के लिए हलाहल बनता, हमें हर हाल में हल निकालना था। चैन इक पल
नहीं (था), और कोई हल नहीं (था)। डाका तो बहुत दूर की बात है, चोरी तक भी तो नहीं हुई
थी, फिर भी हंगामा बरपा था, हमारे चित्त में। इस हंगामे से पार पाने हेतु हमने छत पर
श्री सोनू निगम और श्री मोहित चौहान के अवलंबन
से घंटा-सवा घंटा पदयात्रा करी। तरावट न मिलने पर नीचे आकर किरकिट के सजीव प्रसारण
के आभाव में B4U चैनल की सूर्यवंशम अर्थात् 'बादशाह' फ़िल्म का आनंद लिया। तनाव घट रहा
था और हम फिर से माथापच्ची करने को दम भर रहे थे।
विद्यालय का पुनः स्मरण हुआ। स्कूल में एक खेल-कूद व शारीरिक शिक्षा के
अध्यापक हुआ करते थे अर्थात् पी.टी. सर। वे ड्रम बजाकर छात्रों से परेड का (जबरन) अभ्यास
कराया करते थे। सर ड्रम बजाने के इतने आदी थे कि ड्रम बजाने वाली डंडी भी प्रायः अपने
साथ ही रखते थे। पी.टी. सर हास-परिहास से कोसों दूर रहते थे इसलिए अधिकांश लड़कों की
जाँघों के पश्च भाग पर वह डंडी मुद्रित रहती ही थी। ख़ैर... अधिक नहीं कहेंगे, बस इतना
और कि पुरवइया चलने के समय थोड़ी सावधानी
आज भी बरतते हैं।
नईं होणा था, नईं होणा था, लेकिन हो गया (था)....विषयांतर! फ़िल्म 'बड़े मियाँ - छोटे मियाँ' के असरानी का
संवाद "तो क्या हुआ? हहा!" सोचकर हम 'आगे' बढ़े। लंबाई के अनुसार प्रार्थना
सभा में पंक्ति लग चुकी थी, पी.टी. सर हमारे (मेरे) समक्ष अपनी वृहत् काया लिए जमे
हुए थे यह निरिक्षण करने के लिए कि पंक्ति ऋजु है या नहीं? इस समय कोई सर से पूछे कि
उनके आगे/पूर्व/सामने कौन है, तो हमारी ओर तर्जनी करके उनका उत्तर होता "ये छोटा
चेतन !" क्योंकि पंक्ति में सबसे आगे/पूर्व हम ही हैं। अब ज्यों ही आगे से छठा
बालक दूसरी कक्षा की पंक्ति में लगे आगे से छठे बालक के संग ठिठोली करने हेतु उसके
निकट जाता है, त्यों ही पंक्ति ऋजु न रहकर वक्र हो जाती है। ज्यामिति, ऐज़ यू नो! अब
उन्हें 'सीधा' करने के लिए डंडी उपयोग में लाई जानी है, इसलिए अब पी.टी. सर हमारी पंक्ति
के पाँचवे और छठे बालक के मध्य खड़े हैं। फिर क्या हुआ, ये ना पूछो, कुछ ऐसी बात, हो
गयी... क्योंकि इसका वर्णन करना कष्टदायक तो होगा ही, अनचाहा विषयांतर और हो जायेगा।
तो काहे करें भाई! अतः वीडियो यहीं पॉज़ करते हैं।
तो यदि इस क्षण मास्साब से पूछे कि अब उनके आगे/सामने/पूर्व कौन है? तो
वे कहेंगे " यही 'छठा' हुआ नालायक जिसे हम अभी 'छठी' का दूध याद दिलाये दे रहे
हैं।" यहाँ से ज्ञानिवर्ग दो निष्कर्ष निकाल सकता है, पहला यह कि मास्टरजी केवल
लड़कों को ही नहीं बल्कि लड़कों पर तंज़ भी अच्छा कस लेते हैं। दूसरा यह कि स्थानान्तर
होने पर मास्टरजी के दृष्टिकोण में स्पष्ट अंतर आ गया है। पहले इनके 'आगे' हम थे, अब
वो छठा (हुआ) छात्र है, कल को कोई और होगा।
मास्टरजी अपने दृष्टिकोण के अनुसार ठीक हैं किन्तु प्रिंसिपल महोदय जो
कि थोड़ी दूर, तटस्थ खड़े, मंच पर 'छात्र जीवन में आत्मानुशासन' की महत्ता
समझते हुए छात्रों को संबोधित कर रहे हैं, उनके दृष्टिकोण से गलत हैं। पूर्णतः विपरीत।
मास्टरजी के सापेक्ष (अर्थात् रिलेटिव) दृष्टिकोण से छठा बालक उनके 'आगे' खड़ा है जबकि
प्रिंसिपल महोदय के तटस्थ दृष्टिकोण से वही छठा बालक मास्टरजी के 'पीछे' है। हमारे
विचार में दोनों दृष्टिकोण अपने में सही हैं, यदि गूढ़ता से इन्हें समझें तो।
कुल जमा यह है कि यही हल है क्योंकि अत्यधिक अंतर्द्वंद्व से केवल बाल ही झड़ते हैं, कोई विशेष बुद्धत्व की प्राप्ति
नहीं होती। किसी को हो जाये तो वह "अयम् अन्तिमा जाति, नत्थिदानी पुनब्भवोति"
कहकर 'आगे' बढ़ सकता है, हम कतई नहीं रोकेंगे।
जय दाऊजी की।
(सम्यक युवा हैं और बहुत सधा हुआ, सुविचारित लिखते हैं। किंचित संकोची हैं। दिशा-भेद पर उन्होंने यह ललित निबन्ध
लिखा है। यह तीन भागों में है- तीनों स्वतन्त्र हैं परन्तु एक दूसरे से गहरे
सम्बद्ध। यह तीसरा भाग हला'हल' शीर्षक से है।
सम्यक शर्मा पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच
का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद
के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी।
फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।"- सम्पादक)