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सोमवार, 28 अगस्त 2023

जयशंकर प्रसाद की दो कविताएं (गीत)

1. हिमाद्रि तुंग शृंग से

हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती–
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती–

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्यदाह-सी,
सपूत मातृभूमि के–
रुको न शूर साहसी!

अराति सैन्य–सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो, जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!



2. अरुण यह मधुमय देश हमारा।


अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।


#KathaVarta की प्रस्तुति, बी ए तृतीय सेमस्टर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित.

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

विद्यापति के पाँच पद

राधा की वन्दना


देख-देख राधा रूप अपार।
अपुरूब के बिहि आनि मिलाओलखिति-तल लावनि-सार॥
अंगहि अंग-अनंग मुरछायतहेरए पडए अथीर॥
मनमथ कोटि-मथन करू जे जनसे हेरि महि-मधि गीर॥
कत कत लखिमी चरन-तल ने ओछरंगिन हेरि विभोरि॥
करू अभिलाख मनहि पद पंकजअहनिसि कोर अगोरि॥


विद्यापति


श्रीकृष्ण प्रेम

जहं-जहं पग जुग धरई। तहिं-तहिं सरोरूह झरई।

जहं-जहं झलकत अंग। तहिं-तहिं बिजुरि तरंग।।

कि हेरल अपरुब गोरि। पैठलि हियमधि मोरि।।

जहं-जहं नयन बिकास। तहिं-तहिं कमल प्रकाश।।

जहं लहु हास संचार। तहिं-तहिं अमिय बिकार।।

जहं-जहं कुटिल कटाख। ततहिं मदन सर लाख।।

हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर।।

पुनु किए दरसन पाब। अब मोहे इत दुख जाब।।

विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि।।


राधा का प्रेम


 सखि पेखलि एक अपरूप। सुनइत मानबि सपन सरूप।।

कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजत तरुन तमाला।।

तापर बेढ़लि बीजुरि लता। कालिंदी तट धीरे चलि जाता।।

साखा सिखर सुधाकर पाति। ताहि नब पल्लव अरुनक भांति।।

बिमल बिंबफल जुगल विकास। थापर कीर थीर करू बास॥

थापर चंचल खंजन-जोर।  तापर सांपिनी झापल मोर।।

ए सखि रंगिनि कहल निसान। हेरइत पुनि मोर हरल गेआन।।

कवि विद्यापति एह रस भान। सपुरुख मरम तुहुं भल जान।।



(4)


सैसव जौबन दुहु मिली गेल। स्रवन क पाठ दुः लोचन लेल॥

वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास॥

मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखी पूछए कइसे सुरत-बिहार॥

निरजन उरज हेरए कत बेरि।बिहंसए अपन पयोधर हेरि॥
पहिलें बदरि समपुनि नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग॥
माधव पेखल अपरुब बाला। सईसव जौबन दुहु एक भेला॥
भनई विद्यापति हे अगेयानी। दुहु एक जोग के कह सेयानी॥
(5)

सखि हे, कि पूछसि अनुभव मोए।
से पिरिति अनुराग बखानिअतिल-तिल नूतन होए॥
जनम अबधि हम रूप निहारलनयन  तिरपित भेल॥
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनलस्रुति पथ परसन गेल॥
कत मधु-जामिनि राभास गमाओलि, न बूझल कइसन केलि॥
लाख लाख जुगहिअ-हिअराखलतइओहि अजर निन गेल॥
कत बिदगध जनरस अनुमोदएअनुभव काहु  पेख॥
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइतेलाखे  मीलल एक॥




गुरुवार, 24 नवंबर 2022

त्रिलोचन की ग्यारह कविताएं

 (1)

ताप के ताए हुए दिन

 

ताप के ताए हुए दिन ये
क्षण के लघु मान से
मौन नपा किए ।

चौंध के अक्षर
पल्लव-पल्लव के उर में
चुपचाप छपा किए ।

कोमलता के सुकोमल प्राण
यहाँ उपताप में
नित्य तपा किए ।

क्या मिला-क्या मिला
जो भटके-अटके
फिर मंगल-मंत्र जपा किए ।

 

(2)

अन्तर

 

तुलसी और त्रिलोचन में अन्तर जो झलके

वे कालान्तर के कारण हैं । देश वही है,

लेकिन तुलसी ने जब-जब जो बात कही है,

उसे समझना होगा सन्दर्भों में कल के।

वह कल, कब का बीत चुका है .. आँखें मल के

ज़रा देखिए, इस घेरे से कहीं निकल के,

पहली स्वरधारा साँसों में कहाँ रही है;

धीरे-धीरे इधर से किधर आज बही है।

क्या इस घटना पर आँसू ही आँसू ही ढलके।


और त्रिलोचन के सन्दर्भों का पहनावा

युग ही समझे, तुलसी को भी नहीं सजेगा,

सुखद हास्यरस हो जाएगा। जीवन अब का

फुटकर मेल दिखाकर भी कुछ और बनावा

रखता है। अब बाज पुराना नहीं बजेगा

उसके मन का। मान चाहिए, सबको सबका।

 

(3)

फिर न हारा

 

मैं तुम्हारा

बन गया तो

फिर न हारा


आँख तक कर

फिरी थक कर

डाल का फल

गिरा पक कर

वर्ण दृग को

स्पर्श कर को

स्वाद मुख को

हुआ प्यारा ।


फूल फूला

मैं न भूला

गंध-वर्णों

का बगूला

उठा करता

गिरा करता

फिरा करता

नित्य न्यारा ।

 

(4)

जलरुद्ध दूब

 

मौन के सागर में

गहरे गहरे

निशिवासर डूब रहा हूँ


जीवन की

जो उपाधियाँ हैं

उनसे मन ही मन ऊब रहा हूँ


हो गया ख़ाना ख़राब कहीं

तो कहीं

कुछ में कुछ ख़ूब रहा हूँ


बाढ़ में जो

कहीं न जा सकी

जलरुद्ध रही वही दूब रहा हूँ ।

 

(5)

सहस्रदल कमल

 

जब तक यह पृथ्वी रसवती है

और

जब तक सूर्य की प्रदक्षिणा में लग्न है,

तब तक आकाश में

उमड़ते रहेंगे बादल मंडल बाँध कर;

जीवन ही जीवन

बरसा करेगा देशों में, दिशाओं में;

दौड़ेगा प्रवाह

इस ओर उस ओर चारों ओर;

नयन देखेंगे

जीवन के अंकुरों को

उठ कर अभिवादन करते प्रभात काल का ।

बाढ़ में

आँखो के आँसू बहा करेंगे,

किन्तु जल थिराने पर,

कमल भी खिलेंगे

सहस्रदल ।

 

(6)

पाहुन

बना बना कर चित्र सलौने
यह सूना आकाश सजाया
राग दिखाया
क्षण-क्षण छवि में चित्त चुराया
बादल चले गए वे

आसमान जब नीला-नीला
एक रंग रस श्याम सजीला
धरती पीली हरी रसीली
शिशिर -प्रभात समुज्ज्वल गीला
बादल चले गए वे

दो दिन दुःख का दो दिन सुख का
दुःख सुख दोनों संगी जग में
कभी हास है अभी अश्रु हैं
जीवन नवल तरंगी जग में
बादल चले गए वे
दो दिन पाहुन जैसे रह कर ।

 

(7)

यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने


यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की वो गाँठ लगा दी !

था पथ पर मैं भूला-भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी ।

कभी कभी यूँ हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी ।

जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्-तरँग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा
छवि के शर से दूर भगा दी ।

 

(8)

तुलसी बाबा

 

तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी

मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो।कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी तीखी।

प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो।

और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो।

कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया,

देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो।

विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया,

तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया,

मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया,

विघ्न विपद के घन सरके, मुँह नहीं चुराया।

आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया।

यज्ञ रहा, तप रहा तुम्हारा जीवन भू पर।

भक्त हुए, उठ गए राम से भी, यों ऊपर ।

 

(9)

भाषा की लहरें

 

भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहन
मैंने किया। मुझे मानवजीवन की माया
सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहन

सुन सुनकर धायाधूपा, मन में भर लाया
ध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पाया
शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनिरूप हो गया।
मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,
जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।

सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।
भाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गया
कवि मानव का, जगा नया नूतन अभिलाषा।

भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है

 

(10)

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

 

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैंसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है

चम्पा अच्छी है
चंचल है
न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ

चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें
चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूंगी
तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूँगी

मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी

कलकत्ते पर बजर गिरे।

 

 

(11)

सॉनेट पथ

 

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।

सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,

जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।


त्रिलोचन


(त्रिलोचन (1917-2007ई0) प्रगतिवादी कवियों की त्रयी के प्रधान कवि हैं। त्रयी के अन्य स्तम्भ हैं- नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल। त्रिलोचन शास्त्री का असली नाम वासुदेव सिंह था। वह हिन्दी कविता में सोनेट के जन्मदाता माने जाते हैं। उन्होने अपनी कविताओं में कई प्रयोग किए हैं। गुलाब और बुलबुल, ताप के ताए हुए दिन,  उस जनपद का कवि हूँ उनके चर्चित कविता संकलन हैं। यहाँ त्रिलोचन की ग्यारह कवितायें दी गयी हैं। इनमें से प्रारम्भिक पाँच कवितायें छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर के बी ए तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में भी हैं। शेष कवितायें त्रिलोचन के विविध रूप का निदर्शन कराती हैं। - सम्पादक)

मंगलवार, 6 सितंबर 2022

भोलाराम का जीव : हरिशंकर परसाई का व्यंग्य

   

ऐसा कभी नहीं हुआ था। धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश  के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास-स्थान अलाटकरते या रहे थे- पर ऐसा कभी नहीं हुआ था।

         सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछबार-बार थूक से पन्ने पलटरजिस्टर देख रहे थे। गलती पकड में ही नहीं आरही थी। आखिर उन्होंने खीझकर रजिस्टर इतनी ज़ोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोले, “महाराजरिकार्ड सब ठीक है। भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना हुआपर यहाँ अभी तक नहीं पहुंचा।

          धर्मराज ने पूछा, “और वह दूत कहां है?”

          महाराजवह भी लापता है।

         इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बडा बदहवास-सा वहाँ आया। उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रमपरेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे, “अरे तू कहाँ रहा इतने दिनभोलाराम का जीव कहाँ है?”

          यमदूत हाथ जोडक़र बोला, “दयानिधानमैं कैसे बतलाऊँ कि क्या हो गया। आज तक मैंने धोखा नहीं खाया थापर इस बार भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया। पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागीतब मैंने उसे पकडा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ, त्यों ही वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहाँ गायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैने सारा ब्रह्यांड छान डालापर उसका कहीं पता नहीं चला।

          धर्मराज क्रोध से बोले, “मूर्खजीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गयाफिर एक मामूली आदमी ने चकमा दे दिया।” दूत ने सिर झुकाकर कहा, “महाराजमेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सकेपर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया।

          चित्रगुप्त ने कहा, “महाराजआजकल पृथ्वी पर इसका व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को फल भेजते हैऔर वे रास्ते में ही रेलवेवाले उड़ा लेते हैं। हौज़री के पार्सलों के मोज़े रेलवे आफिसर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे-के-डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ा कर कहीं बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी किसी विरोधी नेमरने के बाद भी खराबी करने के लिए नहीं उड़ा दिया?

         धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा, “तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई। भलाभोलाराम जैसे दीन आदमी को किसी से क्या लेना-देना?”

         इसी समय कहीं से घूमते-फिमते नारद मुनि वहाँ आ गए। धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, “क्यों धर्मराजकैसे चिंतित बेठे हैंक्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?”

          धर्मराज ने कहा, “वहाँ समस्या तो कभी की हल हो गई, मुनिवर। नर्क में पिछले सालों से बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैंजिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर भारत की पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवरसीयर हैंजिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़री भरकर पैसा हडपाजो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गईपर एक विकट उलझन आ गई है। भोलाराम के नाम के आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यमदूत यहाँ ला रहा थाकि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्यांड छान डालापर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगातो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।

          नारद ने पूछा, “उस पर इनकम-टैक्स तो बकाया नहीं थाहो सकता हैउन लोगों ने उसे रोक लिया हो।

         चित्रगुप्त ने कहा, “इनकम होती तो टैक्स होता। भुखमरा था।

         नारद बोले, “मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छामुझे उसका नामपता बतलाओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।

         चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बतलाया – ”भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर के घमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ क़मरे के टूटे-फूटे मकान पर वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थीदो लडक़े और एक लड़की। उम्र लगभग 60 वर्ष। सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया थामकान का उसने एक साल से किराया नहीं दिया था इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने मे भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत संभव है किअगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक हैतो उसने भोलाराम के मरते हीउसके परिवार को निकाल दिया होगा। इसलिए आपको परिवार की तलाश में घूमना होगा।

          माँ बेटी के सम्मिलित क्रंदन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।

हरिशंकर परसाई (22-08-1922 से 10-08-1995)

         द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, “नारायण नारायण !” लड़की ने देखकर कहा, “आगे जाओ महाराज।

        नारद ने कहा, “मुझे भिक्षा नहीं चाहिएमुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है। अपनी माँ को ज़रा बाहर भेजो बेटी।

         भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, “माताभोलाराम को क्या बीमारी थी?”

         क्या बताऊँगरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए पैन्शन पर बैठे थेपर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर 10-15 दिन में दरख्वास्त देते थेपर वहाँ से जवाब नहीं आता था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बर्तन बिके। अब कुछ नहीं बचा। फाके होने लगे थे। चिन्ता मे घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड दिया।

          नारद ने कहा, “क्या करोगी माँउनकी इतनी ही उम्र थी।

          ऐसा मत कहोमहाराज। उम्र तो बहुत थी। 50-60 रूपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करेंपाँच साल नौकरी से बैठे हो गए और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।

          दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, “माँयह बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम थाजिसमें उनका जी लगा हो?”

          पत्नी बोली, “लगाव तो महाराजबाल-बच्चों से होता है।

          नहींपरिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब हैकोई स्त्री….?”

          स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा। बोली, “बको मत महाराज ! साधु होकोई लुच्चे-लफंगे नहीं हो। जिन्दगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आँख उठाकर नहीं देखा।

          नारद हँस कर बोले, “हाँतुम्हारा सोचना भी ठीक है। यही भ्रम अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा मातामैं चला।” 

          स्त्री ने कहा, “महाराजआप तो साधु हैंसिध्द पुरूष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी पेंशन मिल जाय। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए?”

          नारद को दया आ गई। वे कहने लगे, “साधुओं की बात कौन मानता हैमेरा यहाँ कोई मठ तो है नहींफिर भी सरकारी दफ्तर में जाकर कोशिश करूँगा।

वहाँ से चलकर नारद सरकारी दफ्तर में पहुँचे। वहाँ पहले कमरे में बैठे बाबू से भोलाराम के केस के बारे में बातें की। उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला, “भोलाराम ने दरखास्तें तो भेजी थींपर उनपर वज़न नहीं रखा थाइसलिए कहीं उड ग़ई होंगी।

नारद ने कहा, “भईये पेपरवेट तो रखे हैंइन्हें क्यों नहीं रख दिया?”

बाबू हँसा, “आप साधु हैंआपको दुनियादारी समझ में नहीं आती। दरखास्तें पेपरवेट से नहीं दबती। खैरआप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए।

नारद उस बाबू के पास गये। उसने तीसरे के पास भेजाचौथे ने पाँचवें के पास। जब नारद 25-30 बाबुओं और अफसरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा, “ महाराजआप क्यों इस झंझट में पड ग़ए। आप यहाँ साल-भर भी चक्कर लगाते रहेंतो भी काम नहीं होगा। आप तो सीधा बड़े साहब से मिलिए। उन्हें खुश कर लियातो अभी काम हो जाएगा।

नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे। बाहर चपरासी ऊंघ रहे थेइसलिए उन्हें किसी ने छेडा नहीं। उन्हें एकदम विजिटिंग कार्ड के बिना आया देख साहब बड़े नाराज़ हुए।बोलेइसे कोई मन्दिर-वन्दिर समझ लिया है क्याधड़धड़ाते चले आए ! चिट क्यों नहीं भेजी?”

नारद ने कहा, “कैसे भेजताचपरासी सो रहा है।

क्या काम है?” साहब ने रौब से पूछा।

नारद ने भोलाराम का पेंशन-केस बतलाया।

साहब बोले, “आप हैं बैरागी। दफ्तरों के रीत-रिवाज नहीं जानते। असल मे भोलाराम ने गलती की। भईयह भी मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पडता हैभेंट चढानी पडती है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैंउन पर वज़न रखिए।

नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई। साहब बोले, “भईसरकारी पैसे का मामला है। पेंशन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है। देर लग जाती है। हज़ारों बार एक ही बात को हज़ारों बार लिखना पडता हैतब पक्की होती है। हाँजल्दी भी हो सकती हैमगर साहब रूके।

नारद ने कहा, “मगर क्या?”

साहब ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, “मगर वज़न चाहिए। आप समझे नहीं। जैसे आप की यह सुन्दर वीणा हैइसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है। मेरी लड़की गाना सीखती है। यह मैं उसे दे दूंगा। साधुओं की वीणा के अच्छे स्वर निकलते हैं। लड़की जल्दी संगीत सीख गई तो शादी हो जाएगी।

नारद अपनी वीणा छिनते देख ज़रा घबराए। पर फिर सँभलकर उन्होंने वीणा टेबिल पर रखकर कहा, “यह लीजिए। अब ज़रा जल्दी उसकी पेंशन का आर्डर निकाल दीजिए।

साहब ने प्रसन्नता से उन्हें कुर्सी दीवीणा को एक कोने में रखा और घंटी बजाई। चपरासी हाजिर हुआ।

साहब ने हुक्म दिया, “बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फाइल लाओ।

थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की फाइल लेकर आया। उसमें पेंशन के कागज़ भी थे। साहब ने फाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा, “क्या नाम बताया साधुजी आपने?”

नारद समझे कि ऊँचा सुनता है। इसलिए ज़ोर से बोले, “भोलाराम।

सहसा फाइल में से आवाज़ आई, “कौन पुकार रहा है मुझेपोस्टमैन है क्यापेंशन का आर्डर आ गया क्या?”

साहब डरकर कुर्सी से लुढक़ गए। नारद भी चौंके। पर दूसरे क्षण समझ गए। बोले, “भोलाराम! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?”

हाँ।” आवाज़ आई।

नारद ने कहा, “मैं नारद हूँ। मैं तुम्हें लेने आया हूँ। स्वर्ग में तुम्हारा इन्तजार हो रहा है।

आवाज़ आई, “मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरखास्तों में अटका हूँ। वहीं मेरा मन लगा है। मैं दरख्वास्तों को छोडक़र नहीं आ सकता।

 हरिशंकर परसाई

 

सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

(हरिशंकर परसाई का यह व्यंग्य भोलाराम का जीव उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बीए द्वितीय वर्ष (तृतीय सेमेस्टर) के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखा गया है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह व्यंग्य। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता Kathavarta के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे।


            कथावार्ता पर हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 

                  भोलाराम का जीव (मूल पाठ)


-        पाठ्यक्रम की कहानियाँ यहाँ क्लिक करके पढ़ें-

1.    प्रेमचन्द की कहानी पंच परमेश्वर

2.    जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

3.    अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

4.    यशपाल की कहानी परदा

5.    फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी- तीसरीकसम उर्फ मारे गए गुलफाम

6.    ज्ञानरंजन की कहानी पिता

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बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में निर्धारित निबंधों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है

1.    भारतेन्दु हरिश्चंद्र का निबंध भारतवर्षोन्नतिकैसे हो सकती है।

2.    रामचन्द्र शुक्ल का निबंध मित्रता

3.    हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध अशोकके फूल

4.    कुबेरनाथ राय का निबंध उत्तरा फाल्गुनीके आस-पास

5.    विद्यानिवास मिश्र का निबंध तुम चन्दनहम पानी

- सम्पादक)

सद्य: आलोकित!

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