परमाल रासो, (#आल्हा) के नैनागढ़ लड़ाई के खंड में जगनिक लिखते हैं -
गया न कीन्हीं जिन कलियुग में, काशी घोड़ा दान न दीन।
हाँकि के बैरी जिन मारा न, नाहक जनम जगत में लीन।।
पूजा किन्हीं नहिं शंभू की, अक्षत चन्दन फूल चढाय।
फिरी गलमंदरी जिनबाजी ना, मुख ना बंब बंब गा छाय।।
भसम रमायो नहिं देही मा, कबहूं लीन सुमरनी हाथ।
सोचन लायक ते आरय हैं, जिन नहिं कबो नवायो माथ।।
(जिसने गया की यात्रा नहीं की, जिसने काशी में घोड़े का दान नहीं किया। जिसने अपने शत्रु को दौड़ाकर नहीं मारा, उसका जन्म व्यर्थ समझो। जिसने भगवान शिव की पूजा अक्षत, चंदन और पुष्प चढ़ाकर नहीं किया। जिसके गले से बम बम (भोले) की आवाज नहीं गूंजी, जिसने अपनी देह में भस्म नहीं रमाया, जिसने हाथ में सुमिरनी नहीं ली; वह आर्य सोचनीय हैं, जिन्होंने कभी इष्ट के समक्ष शीश नहीं झुकाया।)
जगनिक ने ऐसे आदर्श रखे हैं, जो एक हिंदू की पहचान है। आर्य की पहचान है। इसमें वैसे तो सब महत्त्व के हैं, पर हांक कर बैरी यानी शत्रु को मारना, भगवान शिव की पूजा और बम बम भोले का उद्घोष (आज सावन का अंतिम सोमवार और अंतिम दिन है, इसलिए विशेष रूप से उल्लेखनीय) तो बहुत विशेष है। मुझे जगनिक द्वारा भगवान श्रीराम के स्मरण का तरीका भी बहुत अच्छा लगा। वह कहते हैं कि जो भगवान शिव के पूज्य हैं और जो स्वयं भगवान शिव की पूजा करते हैं, ऐसे #श्रीराम की वंदना करता हूं।
-"को अस देवता रहें शंभू सम, जिनको पूज्यो राम उदार।"
दुर्भाग्यवश जगनिक को कुछ अधिक उल्लेखनीय छंदों के लिए ही याद किया जाता है जिसमें एक है -
बारह बरस ले कुक्कुर जीवे, और तेरह ले जिए सियार।
बरस अठारह क्षत्री जीवे, आगे जीवे को धिक्कार।।
श्रावण मास की अंतिम तिथि पर भगवान शिव के अनन्य उपासक #जगनिक को आप भी याद करें!🙏