आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी 'कुटज' निबंध में नाम चर्चा करते हुए लिखते हैं- 'नाम इसलिए
बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली
होती है। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य। नाम उस पद
को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक
शिक्षित लोग जिसे 'सोशल सैंक्सन' कहा
करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत,
इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि मानव की चित्त
गंगा में स्नात।' वह कह रहे हैं कि नाम का संबंध सोशल सैंक्सन से है।
इलाहाबाद
का नाम प्रयागराज क्यों हो? यह सवाल
बहुत से लोगों को फिजूल लग रहा है। जहां हम रोटी कपड़ा मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं
के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहां नाम बदलने से क्या हासिल?
लेकिन थोड़ा पलट कर पूछिये कि नाम बदल दिया तो दिक्कत क्या हो गयी?
हर संस्कृतिकर्मी को इतिहास में, सांस्कृतिक
विरासत में बदलाव चुभता है। यह बदलाव अपनी संस्कृति को ताकतवर बनाती है। वरना
संस्कृत वाङ्गमय में वर्णित और भारी महात्म्य वाले प्रयाग का नाम अकबर क्यों बदलता?
‘प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः' जहां विशाल
यज्ञ सम्पन्न हुआ था इसके कारण वह भूमि प्रयाग कही गयी। कुम्भ की सांस्कृतिक धारा
इस पुण्य स्थल पर है। राम वनगमन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। तो जब अकबर ने प्रयाग
का नाम बदल दिया तो रामकथा के सबसे बड़े प्रस्तोता तुलसीदास ने अपना मत इन शब्दों
में प्रकट किया।
'को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥'
अर्थात
पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव
(महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के
समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया।
जरा
सोचिए तो कि तुलसीदास पापों के समूह रूपी हाथी का उल्लेख किसके लिए कर रहे हैं? 'म्लेच्छाक्रान्त देशेषु' याद है? छटपटाहट थी। सूरदास के यहां यह ऐसे हैं कि उन्होंने और उनके गुरु
बल्लभाचार्य तथा विट्ठलदास ने फतेहपुर सीकरी के समानांतर एक दूसरी ही गद्दी स्थापित
की जिसके पादशाह श्रीकृष्ण हुए जिनकी आठ प्रहर की सेवा नियत हुई।
बाद के
कवियों के यहां भी प्रयाग जोर मारता रहा। उसकी हुड़क थी। प्रयाग के न रहने का दुख
था। बिहारीलाल ने तो प्रयाग की अद्भुत संकल्पना रच दी। यद्यपि उनका ध्यान 'तन-दुति' पर अधिक है फिर भी उनका दोहा देखने लायक
है।
'तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।
जिहिं
ब्रज-केलि निकुंज-मग पग-पग होत प्रयाग॥'
तीर्थ
व्रत छोड़ो, राधा कृष्ण में मन लगाओ। उन्होंने जहां-जहां केलि की है, वन, बाग़, तड़ाग में विहार किया है, उसके कदम कदम पर ही प्रयाग है। तब मथुरा-वृंदावन में वैसी
समस्या नहीं थी। इसका नाम नहीं बदला उनने।
नाम
बदलने की राजनीति अपनी जगह है। सब उसके प्रभाव से वाकिफ हैं। यह बदलाव एक बड़े
सांस्कृतिक बदलाव का सूचक है। अभी तो सरकार को पहला काम यह करना चाहिए कि अंग्रेजी
अवशेष को समाप्त करने की कोशिश करे। वह ज्यादा जरूरी है। बिना नाम बदले हम
उपनिवेशवादी मानसिकता से भी बाहर नहीं नकल सकेंगे। अंग्रेजी संस्थानों को / शहरों
को भारतीय पहचान दे।
मुझे इस
बदलाव से प्रसन्नता हुई है। कुढ़ने वालों पर ध्यान न दीजिए।