पुस्तक समीक्षा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पुस्तक समीक्षा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

तरुणाई का आख्यान चांदपुर की चंदा

किशोरवय की कहानियां लिखना बहुत चुनौती का काम है। जो उफान उस समय भावनाओं का रहता है और जितने सपने तरूणों के पास होते हैं, उसे कागज में उतारना और कथा के प्रवाह में बांध देना एक कौशल है। हिन्दी में किशोरवय को केंद्र में रखकर गिने चुने उपन्यास लिखे गए हैं। गुनाहों का देवता, कसप, तुम्हारे लिए और कोहबर की शर्त इनमें मील का पत्थर की तरह हैं।

कोहबर की शर्त, केशव प्रसाद मिश्र ने बलिया की पृष्ठभूमि में लिखा है और अब बलिया के ही एक गांव चांदपुर को केन्द्र में रखकर अतुल कुमार राय ने चांदपुर की चंदा लिखा है। यह उनका पहला ही उपन्यास है और मुझे कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यह अपने ढंग का अनूठा उपन्यास है।

जहां इस बदल रहे समय में आमतौर पर गांव का चित्रण हिन्दी में अधिकतर उद्दीपन के लिए हो रहा है, वहां "चांदपुर की चंदा" बहुत गहरे स्तर तक गांव में ही है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप गांव के संक्रमणशील स्वरूप को देख सकते हैं। गांव बहुत तेजी से बदल रहे हैं। सूचना, प्रौद्योगिकी, तंत्र और दुनिया के रंग ढंग गांव का कायाकल्प कर रहे हैं। गला काट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में लोग आगे निकलने के लिए किसी भी मर्यादा के पार चले जाने के उद्धत हैं। इस हेतु शिक्षा, संस्कृति, शासन, प्रशासन और तंत्र से मनमाने तरीके से काम लिया जा रहा है। चांदपुर इससे अछूता नहीं है। वहां एक विद्यालय है, उसमें नकल कराने का ठेका लिया जाता है और दूर दराज के लोगों को पास कराया जाता है। चांदपुर के नायक मंटू और नायिका चंदा उसी विद्यालय के विद्यार्थी हैं। शिक्षा का जो स्वरूप देश भर में है, चांदपुर में उसकी एक बानगी देखी जा सकती है। राग दरबारी में जिस छंगामल विद्यालय की चर्चा श्रीलाल शुक्ल ने की है, चांदपुर का विद्यालय उससे भी एकाध कदम आगे निकल आया है। इसमें सामूहिक नकल होती है और लोग अपने होनहार बच्चों को नकल सामग्री उपलब्ध कराने के लिए व्यग्र दिखाई देते हैं। विद्यालय स्ववित्त पोषित योजना के अंतर्गत चल रहा है जहां धन उगाही ही एकमात्र लक्ष्य है।

उपन्यास में एक चट्टी है जहां झोला छाप चिकित्सक हैं, रोजमर्रा के जिंस की बिक्री होती है, इलेक्ट्रिक-इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि सुधारे जाते हैं और जो टाइम पास का सबसे बड़ा अड्डा है। यहां खलिहर लोग, युवक हंसी ठठ्ठा करते हुए, एक दूसरे का मजाक उड़ाते हुए, जीवन के बोझ को ढो रहे हैं। यहां शारीरिक और मानसिक व्याधियों का झोला छाप और कामचलाऊ इलाज होता है। यह चांदपुर का केन्द्रीय स्थान है। गांव की हर गतिविधि का यह चट्टी साक्षी बनता है।

चांदपुर गांव सरयू नदी के किनारे बसा है और इसमें हर साल इतनी बाढ़ आती है कि हर साल एक नया चांदपुर बन जाता है।

          चांदपुर कुछ मास के लिए विस्थापित हो जाता है और पुनः उठ खड़ा होता है, दुगुनी जिजीविषा के साथ। जीवन इसी उजड़ने और बसने के बीच चलता जाता है। इसी में पर्व त्योहार और बरिस बरिस के दिन आते जाते हैं। उपन्यास में चांदपुर गांव के बारहमासे का बहुत महीन चित्रण है जिसे किंचित ध्यान देकर परिलक्षित किया जा सकता है।

          इसी में मंटू और चंदा का प्यार परवान चढ़ता है। प्रेम कथाकारों का प्रिय विषय रहा है किंतु इसे कैसे परोसना है, इसे अतुल बखूबी जानते हैं। इस प्यार में मर्यादा, शील और लाज है और भावनाओं का चरम भी। इससे उठते चटखारे हैं और उस अप्रिय स्थिति से जूझते प्रेमी जीव।

          चांदपुर की चंदा, गांव के जीवन, चंदा और मंटू की प्रेम कहानी के साथ साथ साथ गांव की बदलती संस्कृति, वृद्ध हो रहे लोगों की पीड़ा, प्रवासी होने का दर्द, वैवाहिक संबंध, विवाहेतर संबंध, दहेज, प्रधानी के दांव पेंच आदि का एक भावुक और आत्मीय आख्यान है। इसमें गुदगुदाने वाले बहुत से प्रसंग हैं तो पलकें नम कर देने वाले भी। इस उपन्यास ने गांव के जीवन की धड़कन को समेट लिया है।

 रामलीला के मंचन का प्रकरण हो अथवा बसंत पंचमी का, हरेक वर्णन अनूठा है और आपको गांव के जन जीवन में ले जाने वाला है।

          उपन्यासकार अतुल कुमार राय की विशेषता यह है कि वह तथाकथित आधुनिकता के प्रवाह में बहे नहीं हैं अपितु भारतीयता की डोर को मजबूती से पकड़े हुए हैं, इसलिए बदल रही परंपराएं उनके लिए मजाक का विषय नहीं हैं। यदि उसमें हास्य का पुट है तो इसमें भी एक पीड़ा है। वह भारतीयता के सूत्र को सहेजने वाले रचनाकार हैं। उनके विवरण सुने सुनाए नहीं हैं, उसमें भोक्ता होने की सुगंध है। उनका दायरा भी बहुत विस्तृत है। आजकल के लेखन में विषय को समझने की जो गहराई अपेक्षित है, उससे लेखक किनारा कर लेता है और डिटेल में पड़ने से बचता है जबकि अतुल उसे जीते हैं। इसलिए चांदपुर की चंदा पढ़ते हुए हम मोहाविष्ट हो जाते हैं और उसकी खुमारी में डूबने उतराने लगते हैं। अतुल कुमार राय के यहां विवरण में जो तफसील है, वह दिल को छू लेने वाला है।

          यह अतुल का पहला उपन्यास है। इसे पढ़ते हुए हम इस तरह साधारणीकृत करते हैं कि उसका पात्र बन जाते हैं। अतुल को इसमें विशेष दक्षता मिली है कि वह एक कलाकार की आंखों देखी जिंदगी को दूसरे के समक्ष अधिक रंगीन बना दें। सिनेमा और साहित्य इस उपन्यास में धड़कता है। प्रेम कहानी ऐसे ही किसी स्वप्न में पलती है, जो चलचित्र की रूपहली दुनिया पर जन्म लेती है और बहुतेरे तरूणों के आंखों में जवान होती है।

          इस उपन्यास का संदेश बहुत साफ है। गांव बदल रहा है और इसका भविष्य वहीं पल रहे युवाओं के हाथ से संवरने वाला है। चंदा और मंटू की आखों से होता हुआ यह किस रूप रंग में ढलेगा, वह आने वाला समय बताएगा किंतु यह निश्चित है कि गांव के सबसे बुजुर्ग और बरगद की छवि रखने वाले झाँझा बाबा ने इसे अपनी सहमति दे दी है।

          आपको यह उपन्यास पढ़ना चाहिए। यह देखने के लिए कि आजकल के लेखन से यह कैसे अलग है। एक सच्ची कहानी कैसे उतरती है और हम सबके आसपास की कहानी बन जाती है। अतुल इस कहानी को इस तरह ले गए हैं कि पाठक इसमें बहता जाता है। मैं अभी किनारे लगा हूं, जहां एक नाव बीच धारा में चली जा रही है और लोग उसे नम आंखों से विदा कर रहे हैं।

          हिन्द युग्म प्रकाशन की इस प्रस्तुति का स्वागत किया जाना चाहिए।

 

- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

                                                                                              ट्वीटर - @ramakroy


बुधवार, 9 जून 2021

नन्हें राजकुमार की बड़ी बातें


पीयूष कान्त राय

"नन्हा राजकुमार" फ्रांसीसी लेखक सैंतेक्जूपैरि द्वारा मूलतः बच्चों के लिए लिखी गयी किताब हैजिसमें एक 6-7 साल के बच्चे के माध्यम से तथाकथित द्वितीय विश्व युद्ध के कतिपय गंभीर विषयों को व्यंग्य द्वारा पेश किया गया है।

सर्वप्रथम सन 1943 ई० में अमेरिका में प्रकाशित हुई इस किताब का पहला पन्ना ही आकर्षित करता हैजहाँ लेखक यह पुस्तक अपने वयस्क मित्र को समर्पित करने से पहले बच्चों से क्षमा माँगते हुए कहता है कि फ्रांस का वयस्क फिलहाल भूख और सर्दी से जूझ रहा है। किसी वयस्क को समर्पित करने हेतु लेखक दूसरा तर्क यह देता है कि "वह सब कुछ समझ सकता है।" दूसरे, तर्क में छिपे व्यंग्य का पता तब चलता है जब लेखक कथावाचक के माध्यम से यह दर्शाता है कि छः साल की उम्र में उसके द्वारा बनाई गई तस्वीर को आज तक किसी वयस्क ने नहीं समझा जिसमें अजगर एक हाथी को निगलकर पचाने की कोशिश करता है। अजगर के पेट में हाथी एक विशेष प्रतीक है।अजगर के पेट में हाथी दिखाने के पीछे शायद लेखक की संभवत: मंशा यह भी रही हो कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने फ्रांस के एक बड़े भाग को अपने कब्जे में ले रखा था जिसे पचा पाना उसे मुश्किल हो रहा था।

नन्हा राजकुमार

इस कहानी का रोमांच शुरू होता है सहारा के रेगिस्तान सेजहाँ कथावाचक का जहाज़ खराब हो गया है और उस जहाज़ में वह अकेला होता है। उसके पास सिर्फ 8 दिन तक पीने योग्य पानी बचा है। उसे एक बच्चा मिलता हैप्यारा साजो उस निर्जन स्थान पर बिना डर या भय की मुद्रा के कथावाचक को एक भेंड़ की तस्वीर बनाने के लिए कहता है। भेड़ों की एक खास बात होती है कि जहाँ एक भेंड़ चलने लगे सभी उसका अनुसरण करने लगती हैं। यहाँ भी लेखक ने भेंड़ का जिक्र करके दुनिया के अन्धानुसरण की तरफ संकेत किया है और इस तरह कथावाचक का उस बच्चे (नन्हें राजकुमार ) साथ परिचय होता है। जब नन्हें राजकुमार को पता चलता है कि कथावाचक हवाई जहाज़ सहित नीचे गिरा है तब वह हँसता हुआ पूछता है, “तू आसमान से गिरा है?” इसके माध्यम से लेखक ने इस उपन्यास में भद्र लोगों की निकृष्ट सोच को भी बड़े ही कोमलता से दिखाया है।

बातचीत मेंकथावाचक को उस 'नन्हें राजकुमारके विषय मे पता चलता है कि वह किसी दूसरे ग्रह से आया है जो बहुत छोटा है और एक घर जितना ही बड़ा है। वह अपने ग्रह पर बाओबाब के पौधों को लेकर चिंतित है क्योंकि बाओबाब के पौधे बहुत विशाल होते हैं। बाओबाब के पौधों से उसके ग्रह के फटने की भी संभावना है। इन पौधों के एक बार बड़े हो जाने पर नष्ट करना भी मुश्किल होता है। नन्हा राजकुमार बताता है कि प्रत्येक ग्रह पर अच्छे और बुरे दोनों तरह के बीज होते हैं जिन्हें काफी संभाल कर रोपण की आवश्यकता होती है। वास्तव में लेखक यहाँ बच्चों की शिक्षा एवं संस्कारों की बात करता हैजिसे समय-समय पर देखते रहने और उसमें सुधार करते रहने की जरूरत होती है।

उपन्यास में कथावाचक ने कुछ नन्हें राजकुमार की बातों और कुछ अपनी कल्पना से  सोचना शुरू किया कि कैसे वह राजकुमार अपने द्वारा लगाए लगे किसी फूल से नाराज होकर अपना ग्रह छोड़  दिया होगा। अनेकों ग्रहों का चक्कर लगाते हुए वह इस ग्रह पर आ गया होगा। आगे की कहानी में एक-एक ग्रह पर नन्हें राजकुमार की उपस्थिति के एवं वहाँ रह रहे लोगों से उसकी बातचीत के द्वारा राज्यसत्तान्यायसामाजिक व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार इत्यादि के विषय मे बात की गई है ।

कई ग्रहों पर अपना ठिकाना ढूंढने में असफल होने के पश्चात यात्रा के सातवें चरण में राजकुमार पृथ्वी पर आता है। राजकुमार का फूललोमड़ी एवं लाइनमैन के साथ वार्तालाप के माध्यम से लेखक सामाजिकआर्थिक एवं राजनैतिक मूल्यों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है और इस तरह "बच्चों के लिए लिखे गएइस उपन्यास की गंभीरता का आभास होता है और यह आज 21वीं सदी के तथाकथित आधुनिक दौर में भी प्रासंगिक लगता है।

मूल रूप से फ्रेंच में लिखा गया यह उपन्यास दुनिया के लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हो चुका है। इसकी भाषा न सिर्फ सहजता से कथ्य का बोध कराती है बल्कि इसकी व्यंग्यात्मक शैली पाठकों को बाँधे रखती है।

यह उपन्यास इतना छोटा है कि किसी बड़ी कहानी जैसा लगता है। इतने कम शब्दों में समाज में उपजी कुरीतियों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों को उजागर करना दुनियाँ के कुछ ही लेखकों के सामर्थ्य में है और सैंतेक्जूपैरि को इस कला में महारत हासिल है।

पीयूष कान्त राय

पाद-टिप्पणी- 

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) का अन्त जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ 08 मई1945 में हुआ। हिटलर ने 1933ई० के अक्तूबर में ब्रिटेन और फ्रांस के साथ निरस्त्रीकरण की वार्ताएं भंग कर दी और लीग ऑफ नेशन्स की सदस्यता भी छोड़ दी। इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी पर कई अपमानजनक संधियाँ थोप दी गयी थींजिसके बोझ तले जर्मनी कराह रहा था। समूचा यूरोप दुनियाभर में अपना उपनिवेश बनाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध कर निकल पड़ा था जिसमें इंग्लैण्डफ्रांसपुर्तगाल और हॉलैंड ने सबसे अधिक सफलता प्राप्त की। अधिकार की इस अंतहीन लड़ाई में जर्मनी कसमसा रहा था। इसकी प्रतिक्रिया में हिटलर ने कुछ ऐसे कदम उठाए जो विश्व के दूसरे कई देशों को नागवार गुजरे। आस्ट्रिया और जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही अपमानित अनुभव कर रहे थे।

       जब हिटलर प्रतिकार करने के लिए उठ खड़ा हुआ तो तथाकथित मित्र राष्ट्रों ने अपने औपनिवेशिक राज्य विस्तार पर भी खतरा अनुभव किया। इसके अतिरिक्त हिटलर बहुत तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा था। यदि हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध घृणा नहीं की होती तो दुनिया की तस्वीर कुछ दूसरी होती और इस पुस्तक का नैरेशन भी पृथक होता। तब हाथी और अजगर का प्रतीक दूसरी कहानी कह रहा होता।

       हम इतिहास की घटनाओं को यदि प्रचलित मान्यताओं से किंचित इतर देखें तो कई चीजें विमर्श का विषय बनेंगी और ज्ञान जगत में नए गवाक्ष खुलेंगे।

      इस कृति और समीक्षा को उक्त के आलोक में भी पढ़ने की आवश्यकता है- संपादक

      (पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुरउत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयकाशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषायात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहाससंस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है।

          सैंतेक्जूपैरि की पुस्तक नन्हा राजकुमार को उन्होंने मूल रूप में यानि फ्रेंच वर्जन पढ़ा है और कथावार्ता के लिए विशेष रूप से यह समीक्षा लिखी है। इससे पहले वह रामचन्द्र गुहा की पुस्तक भारत : गांधी के बाद की समीक्षा कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी कथावार्ता के लिए कर चुके हैं।

          इस समीक्षा पर आपकी प्रतिक्रिया उन्हें उत्साहित करेगी।)

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

कथावार्ता : चौरी-चौरा प्रतिरोध के सौ वर्ष और इतिहास की गुत्थियाँ

इतिहास लेखन एक चुनौती है। इसलिए कि इसे निरपेक्ष होकर नहीं लिखा जा सकता है और उपलब्ध संसाधनों और तथ्यों का पाठ कभी भी इतना वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता कि घटना की वास्तविकता को ज्यों का त्यों रख सके। फिर लिखे हुए कि भी एक सीमा है। उसके पाठ की और अंतर्पाठ की भी। यह और कठिन तब हो जाता है जब हम एक औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए हों। औपनिवेशिक शासन अपनी सत्ता को वैध बनाने और स्थायित्व देने के लिए कई तरह के छल-छद्म रचता है। उसमें एक है, घटनाओं को प्रस्तुत करने का औपनिवेशिक तरीका। इस तरीके में सत्ता विरोधी घटनाएँ इस स्याही से लिखी जाती हैं कि उनकी कालिमा मिटाने में तथ्यों के अंतर्पाठ भी सहायक नहीं हो पाते। औपनिवेशिक शासन अपने लिए इतिहासकारों को गढ़ता है ताकि वे उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर सकें।

भारत में इतिहास लेखन का एक दूसरा पहलू यह है कि इसे कांग्रेसी सरकारों ने अपने मनमुताबिक करवाया। हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा है कि इस देश के मुक्ति का संग्राम लड़ने वाली अग्रणी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने मूल चरित्र में जनविरोधी रही है। इसकी स्थापना ही अंग्रेजी सत्ता के लिए सेफ्टी वाल्व के उद्देश्य से हुई। इस पार्टी में जमींदारों, रजवाड़े और सत्ता के लोलुप अवसरवादी भरे हुए थे। जिन महात्मा गांधी के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने इस पार्टी को आमजन से जोड़ा, उन महात्मा गांधी का मूल रुझान भी बहुत जनवादी नहीं था। वे व्यवस्था के पोषक चरित्रों में से एक थे। जमींदारों और पूंजीपतियों के लिए ट्रस्टीशिप वाला उनका सिद्धांत कोई परिवर्तनकामी नहीं था। इस तरह से देश का इतिहास कांग्रेसी इतिहास बन कर रह गया। इसके उलट वामपंथी इतिहास सबाल्टर्न और जनवादी होने के अतिशय आग्रह में भी उस तरह का नहीं रह गया है जिसे स्वीकार्य कहा जा सके। राष्ट्रवादियों का इतिहास लेखन तो अतीत के स्वर्णिम नास्टेल्जिया में उलझ जाता है। इस तरह देश में कम से कम चार तरह के इतिहास बनते हैं। औपनिवेशिक, कांग्रेसी, वामपंथी और राष्ट्रवादी। इसमें अपनी मान्यता के लिए सबसे अधिक संघर्ष राष्ट्रवादी इतिहासकार करते हैं। यही कारण है कि जब इतिहास की पूर्व प्रचलित मान्यताएं जब खतरे में पड़ती हैं या आधी अधूरी-अधकचरी सिद्ध होने लगती हैं तो राष्ट्रवादी इतिहासकार इतिहास के पुनर्लेखन की मांग करने लगते हैं। इसके अलावा एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इतिहास के लिए और आधुनिक इतिहास के लिए उपलब्ध अधिकांश सामग्री भी उस मनोयोग और श्रमसाध्य तरीके से उपयोग में नहीं लाई जाती कि कम से कम तथ्य और घटनाएं सही हों।

इतिहास के साथ एक समस्या यह भी है, जिसे साहित्य के साथ रखकर अक्सर कहा जाता है कि साहित्य में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब सही होता है और इतिहास में तिथियों और तथ्यों के अलावा सब गलत। बहस में आगे न बढ़ते हुए सुभाष चन्द्र कुशवाहा की किताब “चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन” पर बात की जाए जो चौरी चौरा मसले का विधिवत, तथ्य सहित और बहुत परिश्रम से तैयार किये हुए इतिहास पर गवेषणापूर्वक बात करती है। किस्सागोई की हद तक की रोचक यह किताब बहुत गहराई से जाँच पड़ताल करती है और कई पुरानी मान्यताओं पर प्रश्न खड़े करती है।

चौरी-चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन

          चौरी चौरा का स्वाधीनता आन्दोलन इतिहास की उन चुनिन्दा घटनाओं में से एक है, जिसके मूल्यांकन में इतिहासकार चूक गए हैं। कई ऐतिहासिक स्मारक स्थलों, अभिलेखों और प्रस्तुतियों में इस घटना का जो विवरण दर्ज है वह सच्चाई को तोड़ता-मरोड़ता है। कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक पुस्तक में चौरी चौरा विद्रोह के पहलुओं का बहुत विचारोत्तेजक और हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस पुस्तक में बताया है कि उन्होंने इसे तैयार करने में तमाम उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रयोग किया है और उनका साम्य बिठाने और तर्क आधारित व्याख्या करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्होंने न सिर्फ सरकारी, गैरसरकारी तथ्यों का अपितु स्थानीय साक्ष्यों का प्रयोग भी किया है। इस पुस्तक के निर्माण में उन्होंने चौरी चौरा स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों के परिजनों से मिलकर उन सूत्रों को गूंथने की कोशिश की है, जो इतिहास और तत्कालीन सरकारी दमन तथा दूर दराज के क्षेत्रों में बैठकर गढ़ने में ओझल कर दिया गया है।

          चौरी चौरा स्वाधीनता संघर्ष इतिहास की एक बहुत चर्चित घटना है जिसमें दिनांक ०४ फ़रवरी, १९२२ को चौरी चौरा थाना, जिला गोरखपुर, को २४ सिपाहियों समेत लगभग २००० ग्रामीणों ने फूंक दिया था। इस घटना से भारतीय इतिहास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पन्ना जुड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि इस घटना में हुई हिंसा के फलस्वरूप क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया था, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस आन्दोलन ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी थी और अगर वह आन्दोलन चलता रहता तो देश को स्वाधीनता उसी के आसपास मिल गयी होती।

चौरी चौरा विद्रोह की स्मृति

          सुभाष चन्द्र कुशवाहा अपनी पुस्तक में उन तमाम विसंगतियों और तथ्यात्मक भूलों की तरफ संकेत कराते हैं, जिनकी वजह से एक त्रुटिपूर्ण इतिहास की नींव रखी जा रही है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इस विद्रोह का सही और समुचित मूल्यांकन के न होने के लिए जिस महत्त्वपूर्ण कारक का उल्लेख किया है वह सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने तमाम साक्ष्यों को रखकर स्थापना की है कि “जिस समाज ने चौरी चौरा विद्रोह का नेतृत्व किया, वह मूलतः दलित समाज ही था।” (पृष्ठ-९१) वे लिखते हैं, “चौरी चौरा के मूल्यांकन में अस्पृश्यता ने दशकों तक भारी भूमिका निभाई। कांग्रेस इस नतीजे पर पहुँची थी कि गोरखपुर के आसपास स्वयंसेवकों की भर्ती के समय उनके सामजिक स्तर का ख्याल नहीं रखे जाने से वैसा काण्ड हुआ।” (पृष्ठ-९३) चौरी चौरा के विद्रोह को गांधीजी ने गुंडों का कृत्य कहा। सुभाष चन्द्र कुशवाहा चौरी चौरा विद्रोह के बहाने उस साजिश की तरफ भी संकेत करते हैं जिसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन को कुछ जमींदारों, ऊँची जाति के लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया। किताब बहुत तर्कपूर्ण तरीके से गांधीजी के आन्दोलन और औचित्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। लेखक इस बात की तरफ अनेकशः ध्यान आकृष्ट कराता है कि गांधीजी के विरोधी और अनुयायी भी उनके सिद्धांतों के अंतर्विरोधों को पहचानते थे। उनका विरोध करने के बावजूद, “उनका चमत्कारी व्यक्तित्व जनता के दिलो दिमाग पर छाया हुआ था। वह (जनता) अपने सारे आन्दोलन महात्मा गांधी के नाम और नारों से ही करने लगी थी।, क्योंकि वह जानती थी कि इसी करिश्माई व्यक्तित्व ने देश को आंदोलित किया है।” (पृष्ठ- ४९)

चौरी चौरा स्मारक

          चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक इस किताब में सबसे रोचक, तार्किक लाग्ने वाला और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण किन्तु उलझाऊ अध्याय वह है, जिसमें 4 फरवरी, १९२२ की घटना के कारणों को खोजने की कवायद हुई है। उक्त तिथि को लगभग दो हजार लोगों के समूह ने थाना को फूंक दिया था और सिपाहियों को पीटकर मार डाला था तथा उन्हें आग में फेंक दिया था। सुभाष चन्द्र कुशवाहा बताते हैं कि इसका तात्कालिक कारण तो यह था कि सिर्फ दो दिन पहले थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने भगवान अहीर नामक एक स्वयंसेवक को बुरी तरह पीटा था, जिसके विरोध में लोग इकठ्ठा हो रहे थे। वे यह भी बताते हैं कि यह स्वतःस्फूर्त था लेकिन इस स्वतःस्फूर्तता में वे गांधीजी के असहयोग आन्दोलन की भूमिका भी बताते हैं। उनके दिए गए विवरण के अनुसार गांधी जी के इस असहयोग आन्दोलन वाले स्वरूप को कतिपय स्थानीय नेताओं ने अपनी व्याख्या से संचालित किया था और लोगों को इस स्वयंसेवक बनने के लिए डर और प्रलोभन भी दिया। स्वयंसेवक जहाँ बाजार में दारू की दुकानों पर पिकेटिंग करने के लिए कार्ययोजना बनाते थे वहीँ लोगों को यह भी बताते थे कि- “जब स्वराज आ जायेगा तो सभी स्वयंसेवकों को प्रति बीघा चार आना कर देना होगा और उसे आठ आना की आमदनी होगी।” (पृष्ठ- ९९) लेखक यह भी बताते हैं कि ०४ फरवरी को स्वयंसेवक जिस समूह के साथ चल रहे थे वह बहुत अहिंसक था और दारोगा के उकसाने तथा लाठी चार्ज करने से उत्तेजित हुआ था। फिर यह भी कि इस आन्दोलनकारी समूह पर गांधी जी के चमत्कारी व्यक्तित्व का प्रभाव कम था। यह सही है कि चौरी चौरा के विद्रोहियों का समूचा अभियान महज विरोध जताने के लिए था और वे शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात मनवाना चाहते थे लेकिन वहां इस तरह का घटनाक्रम हुआ कि जनता उत्तेजित हो गयी और हिंसा पर उतारू हो आई। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने लिखा है कि इस घटना के पीछे बरसों से सुलग रही उस चिनगारी को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए जो अंग्रेजी शासन और जमींदारों के अत्याचार से जनता के दिलो-दिमाग में सुलग रही थी।

          लेखक ने बहुत मार्मिक तरीके से बताया है कि चौरी चौरा के विद्रोहियों को असहाय अवस्था में छोड़ दिया गया और उन्हें न तो ठिकाने की कानूनी सहायता दी गयी और न ही उनकी रिहाई का समुचित प्रयास किया गया। यह कोशिश भी नहीं की गयी कि इस घटना के बाद जो पुलिसिया अत्याचार बढ़ा उसपर कोई प्रतिरोध दर्ज कराया जाए। इस घटना के बाद जिला कांग्रेस के सचिव, उपाध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी खिलाफत कमिटी के सदस्यों के साथ चौरी चौरा पहुँचे तो थे लेकिन लेखक के अनुसार, “आश्चर्य का विषय तो यह है कि जांचकर्ताओं और मौलवी सुभानुल्लाह ने एक बार भी स्वयंसेवकों से मिलने, उनका पक्ष जानने की आवश्यकता नहीं समझी। ०५ फ़रवरी को सुभानुल्लाह डुमरी खुर्द गाँव गए थे। वहां २०-२५ मिनट तक रुके भी लेकिन उन्होंने किसी से बात नहीं की थी।” लोग उस घटना के बाद न सिर्फ पुलिस के जुर्म से बल्कि अवसरवादियों के हाथों प्रताड़ित हुए। जमींदारों का खौफ और बढ़ा। यह तथ्य भी इस पुस्तक में उल्लेखित है कि इस घटना के बाद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विद्रोही स्वयंसेवकों से विलग ही रहने में अपनी भलाई समझता रहा। गांधी जी ने तो स्पष्ट रूप से माना था कि स्वयंसेवकों ने स्वराज के रास्ते में बाधा पहुंचाई है।

          चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक इस किताब में असहयोग आन्दोलन के स्थगित किये जाने के औचित्य पर प्रश्न उठाया गया है। लेखक ने साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी है कि असहयोग आन्दोलन स्थगित किये जाने का कारण दूसरा था। अंग्रेजों के साथ साथ स्वयं गांधी जी और तमाम जमींदार भी नहीं चाहते थे कि चौरी चौरा विद्रोह की आँच पूरे देश में धधके और अंग्रेजी हुकूमत को खतरा हो। लेखक के अनुसार “गांधीजी के असहयोग आन्दोलन से जमींदारों का नुक्सान हो रहा था। लगान देने या न देने से हिंसा नहीं हो रही थी। मामला उस वर्ग हित का था जिसको इस आन्दोलन से नुकसान हो रहा था और गांधी जी कतई नहीं चाहते थे कि जमींदारों के हितों पर कुठाराघात हो। कांग्रेसियों को इस बात  का अनुमान ही न था कि असहयोग आन्दोलन में जनता इतनी व्यग्रता से भाग लेगी कि जमींदारों को खतरा महसूस होने लगेगा।”

           चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन नामक यह पुस्तक बहुत रोचक है और कई नए तथ्यों का उद्घाटन करती है। लेखक ने बहुत प्रतिबद्धता से इस बात को रखा है कि चौरी चौरा विद्रोह का मूल्यांकन इसलिए सही से नहीं किया गया और यह आन्दोलन इसीलिए सबके डर का कारक बना कि इसमें मुख्य भूमिका किसानों और दलितों की थी। फिर इतिहास को जिन स्वार्थों के तहत तैयार किया गया है वह भी ध्यातव्य है।

स्वाधीनता आंदोलन में जनप्रतिरोध की एक झलक

          आखिर में, इसी किताब में उल्लिखित इतिहास की न्यूनताओं को संज्ञान में रखकर यह कहना है कि देश का इतिहास फिर से लिखे जाने की आवश्यकता है ताकि उसमें सबको पर्याप्त स्थान मिल सके और उन सबकी भूमिकाओं का सही मूल्यांकन हो सके जिन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई किन्तु जिनके योगदान को रेखांकित नहीं किया गया। इस पुस्तक को पढ़ते हुए हम सहज ही अनुमान कर पाते हैं कि लेखक ने सबाल्टर्न सिद्धांतों का उपयोग करते हुए इतिहास लेखन का प्रयास किया है। उनका एक विशेष कोण दलित और किसानों की भूमिका को रेखांकित करना है। कई बार ऐसा करते हुए उनके शब्द अति की सीमा तक पहुँच जाते हैं और दुर्भावना झलकने लगती है।

          अब जबकि चौरी चौरा की घटना शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रही है, तब ऐसी कृतियों का महत्त्व बढ़ जाता है। यह कृति लोगों को उकसाएगी कि वह स्वाधीनता आन्दोलन ही नहीं, इतिहास की बहुतेरी स्थापनाओं की जांच करें और उसके न्यून पक्षों का परिहार करते हुए सबल पक्षों को रेखांकित करें। हमें अपने देश का इतिहास नए सिरे से निर्मित करने की महती आवश्यकता है।

         

पुस्तक- चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन

लेखक- सुभाष चन्द्र कुशवाहा

पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली

मूल्य- २९९rs

 

समीक्षक- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com

 

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

कथावार्ता : यादगारे फिराक़ : लीजेण्ड फ़िराक़

आज फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्मदिन है। लीजेण्ड फ़िराक़। किम्बदंती फ़िराक़। इलाहाबाद में रहने वाला, तनिक भी साहित्यिक अभिरुचि का व्यक्ति फ़िराक़ साहब के बारे में गजब की जानकारी रखता/शेयर करता है। रघुपति सहाय फ़िराक़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। उर्दूअदब में बहुत आदर से गिने जाते हैं। उनकी पुस्तक गुल-ए-नगमा को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। किताबी हिंदी के प्रखर विरोधी फ़िराक़ साहब तहजीब के प्रति अव्वल दर्जे तक जुनूनी थे। उज्जडता की हद तक जुनूनी थे।

फिराक गोरखपुरी ने गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी आदि शायरी की पुस्तकों के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया भी लिखा। 


फ़िराक़ गोरखपुरी ने भारतीयता को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। उनके यहाँ कविता में पारंपरिक उर्दू कविता की तरह साकी, हाला, ग़म और इश्क-मुश्क भर नहीं है। उनकी कविता में उच्च स्तर की दार्शनिक प्रतिपत्ति, वात्सल्य की अभिव्यक्ति और देश-प्रेम की भावना की प्रधानता है। उनकी सांस्कृतिक विरासत की हद भारतीय सनातन परम्परा से जुड़ती है और इस तरह विशिष्ट हो जाती है। वह लिखते हैं-

          खेतों को संवारा तो सँवरते गए ख़ुद भी

          फ़सलों को उभारा तो उभरते गए ख़ुद भी

          फ़ित्रत को निखारा तो निखरते गए ख़ुद भी

          नित अपने बनाए हुए साँचों में ढलेंगे।

 

          हम ज़िंदा थे, हम ज़िंदा हैं, हम ज़िंदा रहेंगे।

 

बीते दिन फ़िराक़ साहब पर केंद्रित कॉमरेड रामजी राय की पुस्तिका 'यादगारे फ़िराक़' मिली। फ़िराक़ साहब के जीवन, अदब, शायरी और चिंतन को केंद्र में रखकर संस्मरण की शैली में लिखी यह पुस्तिका बहुत रोचक और शानदार बन पड़ी है। फ़िराक़ साहब के बारे में जानने, समझने के लिहाज से यह विशिष्ट पुस्तिका है। इसमें आये उनके संस्मरण फ़िराक़ साहब के व्यक्तित्व को बखूबी उजागर करते हैं। उनके विट, उनकी अदा, सोचने और समझने की काबिलियत और व्यवहार को स्पष्ट करती है। यों ही फ़िराक़ साहब नहीं कहा करते थे कि आने वाली नस्लें उनपर फक्र करेंगी।


पुस्तिका उनकी शायरी, उनके लिखे पर बहुत आत्मीयता किन्तु बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करती है। यह मिसाल है कि एक पुस्तिका कैसे अपनत्व रखकर भी निर्मम हो सकती है। अपने को अस्सी फीसद मार्क्सवादी मानने वाले फ़िराक़ साहब को समझने के लिहाज से यह पुस्तिका बहुत मानीखेज है।

          उनकी एक रुबाई से यह बात खत्म करता हूँ। उनकी इस रुबाई में माँ और बालक के वात्सल्य भरे व्यवहार में जो सरलता और तरलता है, वह फ़िराक़ को अत्यंत ऊँचे स्तर पर स्थापित करती है। जन्मदिवस पर भावपूर्ण स्मरण- 

                    “किस प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से

                    कुछ त्योरी चढ़ाये हुए मुँह फेरे हुए

                    इस रुठने पर प्रेम का संसार निसार

                    कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे”।


शनिवार, 23 मई 2020

कथावार्ता : दूसरी परम्परा की खोज का एक नया आयाम : मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता

- डॉ रमाकान्त राय


भारत में मुग़ल बादशाहों के शासनकाल को कई इतिहासकारों ने स्वर्ण काल की संज्ञा दी है। यह स्वर्णकाल महज एकीकृत शासन प्रणाली और प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना के लिए नहीं बल्कि महान सांस्कृतिक विरासत को अधिक समृद्ध करने के दृष्टिकोण से भी तर्कसंगत कहा जा सकता है। यद्यपि सही मायने में मुग़लिया सल्तनत जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के समय स्थापित हुई और औरंगजेब के समय तक शबाब पर रही लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह सही है कि बाबर ने मुगल वंश की स्थापना की और बहादुर शाह जफ़र (सानी) इस राजवंश का आखिरी सम्राट हुआ। सांस्कृतिक दृष्टि से मुग़लों का प्रमुख योगदान उनकी अनूठी वास्तुकला थी। मुग़ल काल के दौरान मुस्लिम सम्राटों द्वारा ताजमहल, लालकिला, जामा मस्जिद सहित कई महान स्मारक बनाए गए थे। मुग़ल राजवंश ने भव्य महलों, कब्रों, मीनारों और किलों को निर्मित किया था। उन्होंने पर्सियन शैली को भारतीय शैली से मिलाकर एक अनूठी भारतीय वास्तुकारी को जन्म दिया था। चित्रकला और संगीत तथा साहित्य में भी यह काल सबसे समृद्ध था। हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाने वाला भक्ति साहित्य इसी राजवंश के समय रचित है। यद्यपि आचार्य शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इस अवधि को “पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान् की शक्ति और करुणा के लिए ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग” न होने को के रूप में रेखांकित किया है और “मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो” जाने और परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्यों के न रहने को इस समय की राजनीतिक स्थिति से जोड़कर रखा है लेकिन इस तथ्य को भी उल्लिखित किया है कि दिल्ली के बादशाह कवियों का संरक्षण करते थे और हिन्दू-मुसलमान दोनों ने भक्ति की रसधार में डुबकी लगाईं थी।


मुगल बादशाह कला प्रेमी तो थे ही। सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्न, जहाँगीर और शाहजहाँ के दरबार के कलावंतों का संरक्षण और संगीत, चित्रकला, साहित्य तथा वास्तु की गहरी अभिरुचि इन मुग़लिया शहंशाहों को अनूठा बनाती हैं। इस क्रम में एक चीज उल्लेखनीय है कि “भारतीय मुगल राजवंश के बादशाहों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन में कविता हमेशा मौजूद रही है। यहाँ तक की उनके बारे में जो इतिहास-लेखन हुआ है उसमें भी कविता मिलती है। भारत में मुगल राजवंश का संस्थापक बाबर था। वह चागताई तुर्की और फारसी में कविता लिखता था।” मुग़ल बादशाहों में मुहम्मद शाह रंगीला की ठुमरियां तथा होलीगीत और बहादुर शाह जफ़र की शायरी साहित्यिक दुनिया में बहुत मकबूल हुई है। “उम्रे दराज मांग के लाये थे चार दिन/ दो आरजू में कट गए दो इंतिजार में” का शायर अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफ़र ही है।
प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने मुगल बादशाहों के जिस विशिष्ट पक्ष को अपनी इस समीक्ष्य कृति में संकलित किया है, वह है मुगल बादशाहों की हिंदी कविता। इस संग्रह में मुग़ल बादशाह अकबर से लेकर अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र की हिंदी कवितायेँ संकलित हैं। इससे पहले की मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता पर कुछ बात की जाए, मैनेजर पाण्डेय द्वारा लिखी भूमिका पर कुछ बात करना नितांत आवश्यक है। उन्होंने अपनी भूमिका में तीन खण्ड करके कुछ मूल्यवान और बहसतलब विवेचन किया है। भारतीय मुग़ल राजवंश और कविता खण्ड में उन्होंने मुग़ल राजवंश के बादशाह और उनके सम्बन्धियों के कविता प्रेम को संकेतित किया गया है। दूसरे खण्ड में भारतीय मुग़ल दरबार में आश्रय पाकर समृद्ध हुई हिंदी कविता और उसके कवियों का उल्लेख किया गया है। कहना न होगा कि इसमें अब्दुर्रहीम खानखाना, तानसेन, बीरबल, टोडरमल और फैजी का उल्लेख तो है ही, वृन्द, कालिदास, और कृष्ण कवि का आश्रय पाकर कविता करना रेखांकित किया गया है और मुगल बादशाहों की दरियादिली और कलाप्रेमी व्यक्तित्व की चर्चा की गयी है। तीसरे खण्ड में उन्होंने भारतीय मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता के संकलन, सम्पादन की कठिनाइयों का जिक्र करते हुए इन राजाओं की कविता पर विद्वतापूर्ण टिप्पणी दी है। वह सचेत भी करते हैं कि “इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि ये पद, गीत और गान जिस ग्रन्थ से लिए गए हैं, वह संगीत का ग्रन्थ है।" (पृष्ठ-21) इस संग्रह में चुनी गयी अधिकांश कवितायेँ ‘संगीत रागकल्पद्रुम’ नामक ग्रन्थ से ली गयी हैं, जिसे कृष्णानन्द व्यास देव ने एकत्रित किया था। इन कविताओं के पाठ का वही प्रभाव नहीं है, जो इनके श्रवण से मिलेगा। विशेषकर गीतों में, जहाँ कोई कोई पंक्ति कई बार और भिन्न आलाप के साथ गायी जाती है।
मुगल बादशाहों की हिंदी कविता पढ़ते हुए कई बातें ज़ेहन में उभरती हैं, मसलन-मुसलमानों के आक्रमण, कत्लेआम और मंदिरों को गिराकर हिन्दू जाति में हताशा का भाव भरने वाले मुग़ल बादशाह हिन्दी (ब्रजभाषा) में कविता किया करते थे? यह तो पता ही है कि अकबर के नवरत्नों में शामिल रहीम ने भक्ति की कवितायेँ लिखी हैं, लेकिन औरंगजेब सरीखा बादशाह भी हिंदी में कवितायेँ लिखता था! कवि ह्रदय था उसके पास? तब हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि इतिहास का पाठ कुछ दूसरा ही किया जाना चाहिए। जिस इतिहास को अंग्रेजों ने लिखा और लिखवाया, उसकी मंशा को समझा जाना चाहिए। जिस इतिहास का निर्माण वर्तमान समय में करने की कोशिश हो रही है, उसे अधिक सतर्क होकर लिखा जाना चाहिए और इस पक्ष को जरुर ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।
मैनेजर पाण्डेय द्वारा संकलित और सम्पादित इस संग्रह की कवितायेँ संगीतमय पदों, गीत और गान के साथ साथ दोहा आदि छंद में भी हैं। संगीतमय पदों, गीत और गान से यह अंदाज करना सहज है कि मुगल बादशाह संगीत प्रेमी ही नहीं थे बल्कि राग-रागिनियों की अच्छी समझ भी रखते थे। राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर रचना करना संगीत की बारीक समझ के अभाव में असंभव है। इसके अतिरिक्त छन्द का ज्ञान होना भी आवश्यक है। मुग़ल बादशाहों द्वारा लिखित यह कवितायेँ संगीत रागकल्पद्रुम में संकलित किये जाने का मतलब भी यही है कि यह कवितायेँ सांगीतिक दृष्टिकोण से खरी हैं।
प्रस्तुत किताब में सबसे अधिक कवितायेँ शाह आलम सानी द्वारा लिखित हैं। शाह आलम सानी द्वारा लिखित कवितायेँ ‘नदिराते शाही’ से भी ली गयी हैं। सम्राट अकबर द्वारा लिखित कवितायेँ संख्या के हिसाब से दूसरे नंबर पर हैं। इसमें जिन बारह मुग़ल बादशाहों की हिंदी कवितायेँ संकलित की गयी हैं, वह हैं- अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, आजमशाह, ‘मोजमशाह’ शाहआलम बहादुरशाह, मुइजउद्दीन जहाँदार शाह ‘मौज’ मोहम्मदशाह, अहमदशाह, अजीज अल-दीन आलमगीर, आलमशाह सानी और बहादुरशाह जफ़र। बाबर और हुमायूँ का कविता प्रेम मिलता तो है लेकिन हिंदी में उनकी कवितायेँ नहीं मिल सकी हैं।
संग्रह में संकलित कविताओं को पढ़ते हुए कहीं भी इसका कोई संकेत नहीं मिलता कि तत्कालीन समाज में हिन्दू-मुसलमान को लेकर धार्मिक स्तर पर कोई द्वंद्व था। इन बादशाहों की कविताओं में इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता जैसा आचार्य शुक्ल ने हताश हिन्दू जाति के लिए जिम्मेदार बताते हुए लिखा है। अलबत्ता अकबर बादशाह की कविताओं में श्रीकृष्ण की आराधना करता हुआ तो दीखता ही है, कई कविताओं में खुद को भी ईश्वर के स्थान पर रखकर प्रस्तुत करता है।
अकबर प्राणनाथ अनाथन को यहनाथ ए जापै अष्टसिद्ध नव निध पाइए।
परमदाता ज्ञाता सबही को मनरंजन यह दुखभंजन कल्पवृक्ष प्रतक्ष धाइये।।
अन्तरयामी खामीजग काज करबे को ए रस नाल बनाइये।
जलालदी महम्मद ऐसे दाता किये तिंहूँ लोक में यश गाइए।।
उसकी कविताओं में संगीत की गहरी समझ तो मिलती ही है, आत्मप्रशंसा और भक्ति भावना भी मिलती है। उसके यहाँ अनेक पदों में ईश्वर की वंदना है और कई में खुद को वन्दनीय बनाकर की गयी प्रस्तुति। शाहजहाँ और औरंगजेब लगायत लगभग सभी मुग़ल बादशाहों की कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है। औरंगजेब का उदयपुरी बेगम से प्रेम उसकी कविताओं में भी जाहिर हुआ है-
तुव गुण रवि उदै कीनो याही तें कहत तुमकों बाई उदैपुरी।।
जानन मन जान शाह औरंगजेब रीझ रहे याही तें कहत तुमकों विद्यारूप चातुरी।।
औरंगजेब सरीखे कट्टर शासक का यह पक्ष उसके मूल्यांकन के लिए एक नया आयाम उपलब्ध कराता है और उसकी कट्टरता को साम्प्रदायिकता से पृथक करके देखने को उकसाता है। आजमशाह की कविताओं में भी प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है। मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ तो रसिक मिजाजी के लिए मशहूर ही था, इसलिए उसकी कविताओं में प्रेम की भावना का अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है। उसकी कविताओं में होली के गीत भारतीय संस्कृति से मुग़ल बादशाहों के गहरे लगाव को प्रकट करते हैं। बादशाह अकबर द्वारा होली और जन्माष्टमी मनाये जाने के ऐतिहासिक साक्ष्य तो मिलते ही हैं। प्रेम की इन अभिव्यक्तियों में वैसा द्वंद्व और तड़प तो नहीं है और न ही वह प्रगाढ़ता, जिसे प्रेम की उत्कट अभियक्ति माना गया है किन्तु अहमदशाह की एकाध कविताओं में इसे देखा जा सकता है।
संकलित कविताओं में सबसे विशिष्ट कवितायेँ शाह आलम सानी की हैं। उनकी कविताओं में लोक का गहरा रंग देखा जा सकता है। संकलन में सबसे अधिक कवितायेँ शाह आलम सानी की ही हैं। उनकी कवितायेँ निर्दिष्ट राग रागिनियों में रचित हैं। होली, कवित्त, दोहरा आदि तो उनकी कविताओं में हैं ही, जैसा कि मैनेजर पाण्डेय ने संकेत किया है, उनकी कविताओं में लोक का पक्ष बहुत गाढा होकर आया है, खासकर सीठने वाली कविताओं में। सीठने विवाह संगीत के द्विअर्थी संवाद, हँसी-ठिठोली और अश्लील चुटकुलों से भरे हुए होते हैं और शाह आलम सानी के सीठने बहुत चर्चित हुए हैं। “ऐसी कवितायेँ लिखने के लिए देश के लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का आत्मीय ज्ञान होना जरुरी है। शाह आलम के सीठने यह साबित करते हैं कि उनको भारतीय लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की पूरी और गहरी जानकारी थी।” (पृष्ठ-29) रीतिकाल की अवधि का यह कवि लोक रंग के साथ-साथ नायिकाभेद आदि में भी बहुत उम्दा रचनाएँ कर सका है।
मुग़ल बादशाहों की कवितायेँ यद्यपि काव्य की कसौटी पर बहुत उत्तम नहीं कही जा सकती हैं लेकिन तब भी शाह आलम सानी की कवितायेँ ध्यान खींचती हैं। उनकी कई कविताओं में ब्रजभाषा का माधुरी भी देखा जा सकता है। शाहजहाँ की एक कविता अपने रचना-विधान और प्रकृति-चित्रण में बहुत विशिष्ट बन पड़ी है। इसका भाषिक सौन्दर्य भी बहुत निखर कर अभिव्यक्त हुआ है-
दादुर चातक मोर करो किन सर सुहावन को भरू है,
नाह तेही सोई पायो सखी मोंहिं भाग सोहागहु को बरु है।
जानी सिरोमनि साहिजहाँ ढिग बैठो महा विरहा-हरु है,
चपला चमको, गरजो बरसो घन, पास पिया तो कहा डरु है।।
मुगल बादशाहों की हिंदी कवितायेँ ब्रजभाषा में हैं। छंदबद्ध हैं, राग रागिनियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी हैं। इन कविताओं में एक बेहद शांत समाज की प्रतिच्छाया महसूस की जा सकती है। किसी भी तरह के सांप्रदायिक भाव को यहाँ नहीं महसूस किया जा सकता। कुछेक कविताओं को छोड़ दिया जाय तो कहा जा सकता है कि अधिकांश कवितायेँ विशिष्ट होने के भाव बोध से लिखी गयी हैं और इस बात का प्रमाण देती हैं कि मुग़ल बादशाह गायन-वादन का रियाज भी करते रहे होंगे। संकलन की कवितायेँ मुग़ल बादशाहों के काव्य रसिक होने का परिचय तो देती ही हैं, यह सोचने के लिए अवकाश भी देती हैं कि उन्होंने अपने शासन काल में कला-साहित्य और संगीत को जो इतना प्रश्रय दिया, शान्ति का वातावरण बनाया और विद्वानों को संरक्षण दिया वह उनके सह्रदय शासक होने का भी परिचायक है। इस संकलन से मुग़ल शासकों के बारे में एक सर्वथा ही नई और मानवीय छवि निर्मित होती है।
आखिर में, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की शिष्य परम्परा में एक दूसरी परम्परा की खोज की जो ललक विरासत में मिली हुई है, मैनेजर पाण्डेय ने इस संकलन से उसे और समृद्ध किया है। यह संकलन मुग़ल बादशाहों के विषय में एक दूसरी ही छवि निर्मित करता है और उनके खानदान में काव्य की परम्परा को रेखांकित करता है। विशेष यह है कि यह संकलन हिंदी कविता की परम्परा से जुड़ता है और विशुद्ध भारतीय अवधारणा से नाभि-नालबद्ध दिखता है। मैनेजर पाण्डेय का यह संकलन भारतीय कविता परम्परा और इतिहास बोध के निर्माण के लिहाज से बहुत मूल्यवान है।
समीक्षित कृति- मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता
संकलन और संपादन- मैनेजर पाण्डेय
प्रकाशक- राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली
मूल्य- 125 रु.
पहला संस्करण- 2016
(पक्षधर पत्रिका में प्रकाशित)

मंगलवार, 19 मई 2020

कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी


-पीयूष कान्त राय

वैचारिक निरपेक्षता के साथ अपने आप को किसी कालखंड विशेष में रखकर इतिहास लेखन करना दुरूह कार्य है। यह काम तब और कठिन हो जाता है जब हमारे पास बहुस्तरीय सामग्री मौजूद हो। हालांकि इस किताब की प्रस्तावना में लेखक खुद को किसी विचारधारा से न जोड़कर तथा व्यक्ति विशेष से प्रेरित हुए बिना आज़ादी मिलने के बाद के भारत का इतिहास लिखने की पुष्टि करते हैं लेकिन प्रस्तावना का शीर्षक ही 'एक अस्वाभाविक राष्ट्र" रखकर वैचारिक पृष्ठभूमि पर सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। एक अस्वाभाविक राष्ट्र के पक्ष में यूरोपीय विद्वानों एवं राजनीतिज्ञों के कथनों को रखा गया है। यूरोपीय लोगों के कथनों के साथ समस्या यह है कि पूर्वी यूरोप से पश्चिमी यूरोप तक सम्पूर्ण क्षेत्र में शायद उतनी विविधता नहीं है जितनी अकेले भारत देश में है। भारत की विविधता को उसकी अस्वाभाविकता मानने से पहले 1857 की महान क्रांति के एक पक्ष को समझना जरूरी है, जहाँ अलग-अलग जगहों के क्रांतिकारियों ने एकमत में दिल्ली में बैठे मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को अपना शासक माना। यह एकमात्र तथ्य भी इसका संकेतक हो सकता है कि हमारा देश एक स्वाभाविक राष्ट्र है। हम पेंगुइन बुक्स से छपी, जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब 'भारत : गांधी के बाद' की चर्चा कर रहे हैं।


                यह पुस्तक "आज़ादी और राष्ट्रपिता की हत्या" अध्याय के साथ शुरू होती है और बड़े ही रोचक एवं व्यवस्थित ढंग से घटनाओं एवं तथ्यों की जाँच करते हुए आगे बढ़ती है। उसके बाद देश के विभाजन का विश्लेषण "विभाजन का तर्क'' नामक अध्याय में करती हुई रियासतों एवं रजवाड़ों के एकीकरण का विवरण "टोकरी में सेब" शीर्षक में होता है। इसके बाद कश्मीर समस्या पर लिखे अध्याय "एक रक्तरंजित हसीन वादी" और शरणार्थी समस्या पर "शरणार्थी समस्या और गणराज्य" नामक शीर्षकों वाले अध्याय को गहन शोध के बाद लिखा गया है । हालांकि सभी घटनाओं एवं तथ्यों को तात्कालिक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संदर्भ में परखा जाना इस पुस्तक को इतिहास की जगह इतिवृत्तात्मक उपन्यास की शक्ल में बदल देता है जहाँ एक केंद्रीय पात्र के इर्दगिर्द सभी घटनाएं घूम रही हैं एवं उसके मरणोपरांत सब खत्म हो गया है।
          इस पुस्तक में रामचंद्र गुहा ने देश के बंटवारे के बाद के दर्द को तथ्यात्मक रूप से बखूबी उल्लिखित किया है, बंटवारे के बाद पलायन कर रहे लाखों लोगों को मुख्य धारा में जोड़ने के प्रयासों के राजनैतिक संघर्ष को भी लेखक ने बेहद खूबसूरत एवं व्यवस्थित तरीके से सामने रखा है जो पाठक को बांधे रखता है। तात्कालिक परिस्थितियों में राजनैतिक संघर्षों के उस दौर में भिन्न-भिन्न मुद्दों पर नियमित रूप से चल रहे हड़ताल एवं उग्र आंदोलनों का पूरा विवरण इस पुस्तक में मिलता है जिनमें मुख्य रूप से भाषायी आधार पर राज्यों का बंटवारा, उत्तर-पूर्वी भारत में अलग देश को लेकर चल रहा आंदोलन एवं कश्मीर मुद्दे शामिल हैं। इस पुस्तक में आज़ादी मिलने के तुरंत बाद के भारत में जहाँ एक तरफ स्वाभाविक व्याकुलता,अराजकता एवं झुंझलाहट को दर्शाया गया है, वहीं उस कालखंड की प्रमुख उपलब्धियों पर भी विशेष रूप से बल दिया गया है जैसे देश को एकता के सूत्र में बंधना हो या उत्तर-पूर्वी राज्यों के आंदोलनों को शांत करना, भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा हो अथवा आत्मनिर्भर बनने के प्रयासों पर अमल करना इन सभी मुद्दों पर लेखक ने बड़ी बेबाकी से अपना मत दिया है। हालांकि इसके बावजूद लेखक कई मुद्दों से बचता नजर आया है, जैसे कश्मीर एवं तात्कालिक भारतीय गुटनिरपेक्षता की वास्तविकता को ऊपर- ऊपर ही विश्लेषित किया गया है।
          भारत से तात्कालिक अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक आयामों को "राष्ट्र और विश्व" अध्याय में व्यवस्थित एवं गहन शोध के बाद रखा गया है। जिसमें अमेरिका, रूस, ब्रिटेन के साथ रिश्तों को तर्कों की कसौटी पर कसा है एवं भारत के पड़ोसी देश चीन के साथ ऐतिहासिक रिश्ते को पूर्ण रूप से निरपेक्षता के साथ दर्शाया गया है।
          भारतीय आर्थिक नीतियों के व्यवहार पर भी यह पुस्तक एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जैसे पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत, कल कारखानों की तरफ आकर्षण एवं ब्रिटेन, रूस तथा अमेरिका जैसे परस्पर विरोधी स्वभाव के आर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों वाले देशों के साथ आर्थिक सहयोग पर विवेचना मिलती है।
      "एक नए भारत की परिकल्पना" नाम से लिखे एक अध्याय में संविधान सभा के गठन, उसके स्वरूप, भिन्न-भिन्न समुदाय से आने वाले लोगों का चित्रण एवं संविधान सभा के विषय में विद्वानों के व्यक्तव्यों को बड़े ही रोचक ढंग से दिखाया गया है, जिसे पढ़ते वक्त पाठक को अपने सामने घटनाओं के सजीव चित्रण का आभास होता है। वहीं "इतिहास का सबसे बड़ा दाँव" अध्याय में भारत में हुए पहले आम चुनावों में तथ्यों और घटनाओं का दिलचस्प वर्णन मिलता है। जहाँ एक तरफ इस पुस्तक में चुनाव कराने में सरकार की दिक्कतों का जिक्र है तो दूसरी तरफ लोगों का देश के पहले आम चुनाव में बढ़- चढ़कर भागीदारी करने का काफी मनोरंजक दृश्य प्रस्तुत किया गया है। "देश का पुनर्गठन" अध्याय में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की गंभीरता को दर्शाया गया है जिसके तुरंत बाद "प्रकृति पर विजय" में भारतीय अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि का वर्णन मिलता है। भारतीय संविधान के कुछ विवादास्पद एवं चटपटे विषय जैसे समान नागरिक संहिता एवं हिन्दू कोड बिल के संदर्भ में जानकारी "कानून और इसके निर्माता" अध्याय में मिलती है। कश्मीर समस्या पर लिखे एक और अध्याय "कश्मीर की रक्षा में” लेखक ने मुख्य रूप से शेख अब्दुल्ला की लोकप्रियता तथा डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर अभियान  का जिक्र किया है। "आदिवासी समस्या" अध्याय में आदिवासियों की समस्याओं पर भी एक विस्तृत जानकारी दी गयी है।
            अपनी पुस्तक के तीसरे एवं अंतिम भाग में लेखक ने चार महत्वपूर्ण अध्यायों को रखा है जिनमें पहले "दक्षिण से चुनौती" अध्याय में केरल में कम्युनिस्टों की जीत का राष्ट्रीय प्रभावों पर मुख्य रूप से चर्चा की गई है।  भारत-चीन युद्ध का विवरण "पराजय का अनुभव" एवं उसके बाद शांति के लिए किए जा रहे प्रयासों पर "शांति का प्रयास" नामक अध्याय में गहनता के साथ विवरण प्रस्तुत किया गया है। और अंत में "अल्पसंख्यक और दलित" नामक अध्याय में बड़े ही रोचक और दिलचस्प विवरणों सहित तात्कालिक भारत मे मुसलमान एवं दलित समाज का जिक्र मिलता है।
          आज़ादी मिलने के बाद के भारत के इतिहास पर व्यवस्थित तरीके से लिखित इतिहास कम ही मिलता है । ऐसे में इस पुस्तक के व्यवस्थित एवं सुसंगठित लेखनी से यह कमी दूर होती दिखती है। हालाँकि यह पुस्तक बहुत हद तक नेहरूवाद की तरफ झुकी हुई नजर आती है एवं पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि 20वीं सदी के दूसरे भाग में नेहरू के सम्मुख न सिर्फ भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में कोई बड़ा नेता नहीं है। राष्ट्रीय,अन्तराष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत सभी तरह की घटनाओं को पंडित नेहरू के संदर्भ में विश्लेषण करने के कारण यह पुस्तक एक खास मानसिकता का आईना हो गयी है जिसे पढ़ते हुए इसकी निरपेक्षता के संदर्भ में किये जा रहे दावों पर शंका होने लगती है। नेहरूवाद की तरफ अत्यधिक झुकाव के कारण इस पुस्तक के शीर्षक पर भी सवालिया निशान खड़ा होता है एवं "भारत गांधी के बाद" के स्थान पर "नेहरू का भारत" शीर्षक ज्यादा सार्थक लगता है। "इस पुस्तक में व्यक्त दिए गए विचार लेखक के हैं और इसके लिए प्रकाशक जिम्मेदार नहीं है" इस कथन के साथ प्रकाशक ने अपने आप को जिम्मेदारियों से अलग कर लिया है लेकिन मूल पुस्तक के सुशांत झा द्वारा किये गए हिंदी अनुवाद में वर्तनी की अनगिनत अशुद्धियाँ हैं जो इसे पढ़ते हुए हिंदी भाषी पाठक के मन में खीझ पैदा करती हैं। और तो और, इसकी जिम्मेदारी न तो अनुवादक ने और न ही प्रकाशक ने ली है।
     हालांकि उपरोक्त खामियों के बावजूद 525 पृष्ठों की यह भारी-भरकम पुस्तक भारत की आज़ादी के बाद के तात्कालिक राजनैतिक हालातों, सामाजिक संघर्षों, जनसांखिकी एवं अर्थव्यवस्था के आधार को समझने का एक उपयोगी माध्यम है। पुस्तक की मुख्य विशेषता घटनाचक्र को क्रमबद्ध करने के बजाए मुद्दों को क्रमबद्ध किया जाना है जिससे एक आम पाठक भी अपने आप को इस किताब से जुड़ा हुआ पाता है।

समीक्षित कृति- भारत : गांधी के बाद
लेखक- रामचन्द्र गुहा
अनुवाद- सुशांत झा
प्रकाशक- पैंगविन बुक्स
मूल्य- 450रु



(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। वह साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में स्नातक तृतीय वर्ष के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। उनका एक विशेष नजरिया है। यहाँ उन्होंने हमारे अनुरोध पर यह उत्कृष्ट समीक्षा की है। आप पढ़कर अपनी सम्मति दें और उनकी हौसला-अफजाई करें- संपादक)


सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.