मुझे तान्हाजी अच्छी लगी।
इसमें सबसे दिलचस्प प्रसंग चुत्या वाला है। जब
चुत्या दगाबाजी कर उदयभान के पास जाता है तो उदयभान उससे नाम पूछने के बाद उच्चारण
ऐसे करता है कि यह नाम एक गाली की तरह गूँजने लगता है।- हर भितरघाती 'चुत्या' है।
फ़िल्म में सब अपने निजी एजेण्डे के साथ हैं। उदयभान
इसलिए औरंगजेब के साथ हो गया है कि उसके प्यार को ठुकराया गया है। उसका अजीज साथी
जगत सिंह अपनी बहन को छुड़ाने के लिए उदयभान के साथ है (हालांकि यह प्रसंग
अस्वाभाविक सा है)। औरंगजेब की चिन्ता भारत को एकछत्र में करने की है और वह किसी
का उपयोग कर सकता है। फ़िल्म में उसकी भूमिका नाहक है। उदयभान एक टूल भर है।
तान्हा जी वीर है। उसने अपने पिता से 'स्वराज' देने का वायदा किया है। मराठा उस किले को
जीतना चाहते हैं जिसे एक संधि के तहत शिवाजी को देना पड़ा है। यह संधि होने के बाद
किले को वापस लेने का कारण ठीक से कहानी में नहीं जुड़ पाया है। जिस शिवाजी ने किला
संधिवश दिया था, वह वापस क्यों पाना चाहते हैं और इसका क्या
परिणाम होगा, इसकी तरफ संकेत भी नहीं है। तान्हा जी
अतिउत्साही है। वह उदयभान को देखने के लिए नाटकीय तरीके से चुत्या को मार देता है।
उसे कारावास मिलता है, जहां से वह भागता है। यह कहानी भी
अतिरंजित है।
तान्हा जी उसके बाद अपनी सेना के साथ
अष्टमी की तिथि पर आक्रमण करता है- उदयभान अपने साथ लाये हुए तोप 'नागिन' को अंत तक नहीं चला पाता। यह इस फ़िल्म की कई विडंबनाओं
में से एक है।
लेकिन
तान्हा जी एक विशिष्ट फ़िल्म है। यह अपने 3D रूप में बहुत
अच्छे से बाँधती है। हमें अचंभित करती है। उन सैनिकों के पराक्रम से अभिभूत करती
है। हमें अपनी कुर्सी से चिपकाए रखती है और उन वीरों से अच्छे से कनेक्ट करती है।
अगर 'तान्हाजी'
फ़िल्म पर इसका दबाव नहीं रहता कि इस फ़िल्म को विवाद रहित बनाना है
तो यह फ़िल्म बेहतरीन बन जाती। इसमें फिल्मकार पर दबाव है कि वह प्रतिपक्ष को
अतिरंजित तो क्या, सच स्वरूप में भी न दिखाए इसलिए वैसे
दृश्य नहीं आये हैं, जिसे हम मुगल सेना का अत्याचार मान लें
और कहें कि 'स्वराज' आवश्यक है। उदयभान
का अत्याचार भी नहीं दिखता। वह एक प्रशासक है। प्रशासन को चुस्त दुरुस्त रखने के
लिए उसे क्रूर बनना पड़ता है। ऐसा होने पर भी वह धोखा खा जाता है।
तो यह कि फिल्मकार भारी दबाव में दिखा
मुझे, यद्यपि वह 'हर हर महादेव',
'भगवा', 'हिन्दू', 'जय
श्रीराम' 'स्वराज' और 'आजादी' जैसे पदों का खूब प्रयोग करता है। तान्हाजी
एक प्रसंग में आजादी छिनने की बात करता है और वही हमारे लिए एक सूत्र है। लेकिन हम
दर्शकों के लिए फ़िल्म में 'सूत्र' उतना
मायने नहीं रखता जितना एक मार्मिक प्रसंग।
मैंने 'रजिया
सुल्तान' देखी तो इसका रूप देखा। फिल्मकार को इल्तुतमिश की
सदाशयता दिखानी थी, उसके बेटे की अय्याशी दिखानी थी तो उसने
एक प्रसंग गढ़ा था। तान्हाजी में शिवाजी और औरंगजेब से सम्बद्ध एक भी प्रसंग नहीं
हैं। कल्पना और विज़न यहीं समझ में आते हैं।
तान्हाजी का दृश्यांकन अच्छा है। यह फ़िल्म 3D तकनीक
में अच्छी है। कुछेक दृश्य तो बहुत शानदार हैं। यह देखने के लिए ही इस फ़िल्म को
देखना चाहिए। यह देखने के लिए भी यह फ़िल्म देखनी चाहिए कि इतिहास में बहुत से
योद्धा पन्नों में खो गए हैं। तान्हाजी भी उनमें से एक हैं। उनकी बहादुरी हमारी
स्मृति में अंकित हो जाएगी।
फ़िल्म इसलिए भी देखनी चाहिए कि इसमें आजादी और
स्वराज का मतलब समझाने की कोशिश हुई है। खेद की बात है कि देश भर में डफली बजाकर
आजादी मांगने वाला 'टुकड़े टुकड़े गैंग' इसे
देखकर चिढ़ता है।
यह फ़िल्म देखते हुए मुझे यह बात परेशान करती
रही कि महाराष्ट्र में शिवाजी को लेकर राजनीति करने वाली शिवसेना और उसके सुप्रीमो
उद्धवजी बाला साहेब ठाकरे इस फ़िल्म को लेकर कितना दबाव में होंगे। वह इसे टैक्स
फ्री नहीं कर पा रहे। उत्तर प्रदेश और हरियाणा ने टैक्स फ्री कर थोड़ा दबाव और बढ़ा
दिया है। वैसे मेरा मानना है कि वह फिल्में टैक्स फ्री नहीं होनी चाहिए जिनमें
अभिनेता मोटी रकम वसूल करते हैं।
अंत में, सबका
अभिनय अच्छा है। सैफ़ अली खान का अभिनय थोड़ा नाटकीय हो गया है इसलिए वह हल्का हो
गया है। अजय देवगन से ज्यादा गंभीर किरदार शिवाजी का बना है लेकिन उसमें स्पेस
नहीं है।
सबको यह फ़िल्म जरूर देखना चाहिए!