लोक और रंगकर्म से परिचित कौन है जो भिखारी ठाकुर को नहीं जानता? उनका जन्म १८ दिसम्बर, १८८७ बिहार के सारण जिले (छपरा) के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। जीविका के लिए वे खड़गपुर गए और वहां से उन्होंने बंगाल असम और अन्यान्य जगहों की यात्राएं कीं। वे एक रंगमंच की मण्डली से जुड़े और उसके सूत्रदार कहे गए। उन्होंने कई नाटक मंचन के लिए लिखे और उनका मंचन किया. उनकी एक कृति विदेसिया सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। १०जुलाई, १९७१ई० को चौरासी वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
वे
सच्चे मायने में लोक के कलाकार थे। उनके यहाँ लोक अपने समूचे रूप में
सांगीतिक तरीके से आता है। वह समूचा दुःख-सुख उनके यहाँ जिस खूबसूरती से
व्यक्त हुआ है वह अप्रतिम है। यह हिन्दी की दरिद्रता है कि इस महान लोक
कलाकार को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहती है। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे।
प्रस्तुत हैं, उनकी दो रचनाएं. एक बारहमासा है. जैसा कि सर्वविदित है कि बारहमासा विरह वर्णन की प्रविधि में आता है। हिन्दी में जायसी का बारहमासा बहुत प्रसिद्ध है। बीसलदेव रासो में आया नरपति नाल्ह का भी। भिखारी ठाकुर का यह बारहमासा किसी मायने में जायसी के बारहमासा से कम नहीं है। जायसी और नरपति के बारहमासा में जहाँ विस्तार ज्यादा है, जबकि भिखारी ठाकुर के यहाँ यह रंगमंच को ध्यान में रखकर लिखा जाने के कारण छोटा और मार्मिक है। इस बारहमासे का आरम्भ आषाढ़ महीने से हुआ है। कालिदास के काव्य मेघदूत में भी अषाढ़ास्य प्रथम दिवसे की चर्चा है। मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' में जो बारहमासा है, वह आषाढ़ माह से शुरू होता है- चढ़ा असाढ़ गगन घन बाजा।
इस प्रस्तुति में दूसरा एक विरह गीत है। इसमें प्रिय के पूर्व दिशा में जाने पर हो रहे कष्ट का वर्णन है। जाने के लिए 'परईलन' क्रिया का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है- दायित्व से विमुख हो कर पलायन करना।
आज भिखारी ठाकुर की रचनाओं को सहेजने वाले बहुतेरे लोग आगे आये हैं. प्रसिद्ध उपन्यासकार संजीव ने 'सूत्रधार' नाम से एक बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास लिखा है। बलिया की 'संकल्प' की टीम भिखारी ठाकुर के कई नाटकों का मंचन कर चुकी है। मेरे मित्र अतुल कुमार राय इसी संस्था से जुड़े हैं। उन्होंने ही इन गीतों को मुझे उपलब्ध करवाया। अब आप इन्हें पढ़ें।
(१)
बारहमासा
आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस, बरखा में पिया रहितन पासवा बटोहिया।
पिया अइतन बुनिया में,राखि लिहतन दुनिया में,अखरेला अधिका सवनवाँ बटोहिया।
आई जब मास भादों, सभे खेली दही-कादो, कृस्न के जनम बीती असहीं बटोहिया।
आसिन महीनवाँ के, कड़ा घाम दिनवाँ के, लूकवा समानवाँ बुझाला हो बटोहिया।
कातिक के मासवा में, पियऊ का फाँसवा
में, हाड़ में से रसवा चुअत बा बटोहिया।
अगहन- पूस मासे, दुख कहीं केकरा से? बनवाँ सरिस बा भवनवाँ बटोहिया।
मास आई बाघवा, कँपावे लागी माघवा, त हाड़वा में जाड़वा समाई हो बटोहिया।
पलंग बा सूनवाँ, का कइली अयगुनवाँ से, भारी ह महिनवाँ फगुनवाँ बटोहिया।
अबीर के घोरि-घोरि, सब लोग खेली होरी, रँगवा में भँगवा परल हो बटोहिया।
कोइलि के मीठी बोली, लागेला करेजे गोली, पिया बिनु भावे ना चइतवा बटोहिया।
चढ़ी बइसाख जब, लगन पहुँची तब, जेठवा दबाई हमें हेठवा बटोहिया।
मंगल करी कलोल, घरे-घरे बाजी ढोल, कहत ‘भिखारी’ खोजऽ पिया के बटोहिया।
(२)
करिके गवनवा,
भवनवा में छोडि कर, अपने परईलन पुरूबवा बलमुआ।
अंखिया से दिन भर, गिरे लोर ढर ढर, बटिया जोहत दिन बितेला बलमुआ।
गुलमा के नतिया, आवेला जब रतिया, तिल भर कल नाही परेला बलमुआ।
का कईनी चूकवा, कि छोडल मुलुकवा, कहल ना दिलवा के हलिया बलमुआ।
सांवली सुरतिया, सालत बाटे छतिया, में एको नाही पतिया भेजवल बलमुआ।
घर में अकेले बानी, ईश्वरजी राख पानी, चढ़ल जवानी माटी मिलेला बलमुआ।
ताक तानी चारू ओर, पिया आके कर सोर, लवटो अभागिन के भगिया बलमुआ।
कहत 'भिखारी' नाई, आस नइखे एको पाई, हमरा से होखे के दीदार हो बलमुआ।
अंखिया से दिन भर, गिरे लोर ढर ढर, बटिया जोहत दिन बितेला बलमुआ।
गुलमा के नतिया, आवेला जब रतिया, तिल भर कल नाही परेला बलमुआ।
का कईनी चूकवा, कि छोडल मुलुकवा, कहल ना दिलवा के हलिया बलमुआ।
सांवली सुरतिया, सालत बाटे छतिया, में एको नाही पतिया भेजवल बलमुआ।
घर में अकेले बानी, ईश्वरजी राख पानी, चढ़ल जवानी माटी मिलेला बलमुआ।
ताक तानी चारू ओर, पिया आके कर सोर, लवटो अभागिन के भगिया बलमुआ।
कहत 'भिखारी' नाई, आस नइखे एको पाई, हमरा से होखे के दीदार हो बलमुआ।