(हिन्दी की एक बहुत
चर्चित और विशिष्ट कविता नदी के द्वीप का भाष्य प्रस्तुत कर रहे हैं डॉ गौरव
तिवारी- सम्पादक)
आधुनिक
हिंदी साहित्य में अज्ञेय का व्यक्तित्व
विशिष्ट है । हम उनकी एक
बहुचर्चित काव्य कृति "नदी के द्वीप" की चर्चा कर रहे हैं । ('नदी के द्वीप'
कविता को यहाँ क्लिक करके पढ़ें) "नदी के द्वीप" कविता अज्ञेय द्वारा 11 दिसम्बर, 1949 को तत्कालीन इलाहाबाद में
लिखी गई कविता है। यह कविता 1965 में आए उनके
काव्य संग्रह 'हरी घास पर क्षण भर' में संकलित है। अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं जो
साहित्य में नए-नए प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते रहे हैं । उनका मानना है की कई शताब्दियों से साहित्य
में एक ही प्रकार के प्रतीकों और बिंबों के प्रयोग से विचारों और भावों के संप्रेषण
में बाधा हुई है। अपनी एक कविता "कलगी बाजरे की" में वह कहते भी हैं कि जिस
प्रकार वासन को अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है उसी प्रकार किसी भी शब्द को प्रतीक या बिंब के रूप में एक सीमा से ज्यादा
प्रयोग करने पर उसकी अर्थवत्ता वह नहीं रह जाती जो रचनाकार चाहता है। अपने
इस विचार के मद्देनजर वे अपने साहित्य में प्रतीकों और बिंबों के स्तरों पर ढेर सारे
प्रयोग करते हैं । उनके सभी प्रयोग बड़े सार्थक और उनके भावों का वहन करने वाले हैं ।
"नदी के द्वीप" कविता व्यक्ति, संस्कृति/परंपरा, इतिहास और समाज के संबंधों को व्यक्त करने वाली कविता है। अज्ञेय के साहित्य के प्रत्येक रूप चाहें वह कविता हो, कहानी हो, उपन्यास हो, निबंध साहित्य हो यात्रा या संस्मरण साहित्य- सभी में व्यक्तित्व, संस्कृति/ परम्परा, समाज आदि के अंतर्संबंधों को पर्याप्त
स्थान प्राप्त हुआ है। अज्ञेय के साहित्यिक के रूप में आरम्भ से अंत तक ये विषय
उनके चिन्तना के केंद्र में रहे हैं।
कविता पर आने के पहले इस
बात पर भी चर्चा कर लेना आवश्यक है कि अज्ञेय के साहित्य पर अंग्रेजी कवि और आलोचक टी एस इलियट का बहुत ज्यादा प्रभाव है । टी एस इलियट ने अपने साहित्य में परम्परा को
बहुत महत्व दिया है। 'परंपरा का सिद्धांत' देते हुए वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने व्यक्तित्व का
निर्माण करता है तो उस व्यक्तित्व की निर्मित में ना सिर्फ उसकी मेधा, उसकी समझ, उसके ज्ञान, उसके परिवेश का प्रभाव होता है बल्कि वह अपने इतिहास और परंपरा से भी निर्मित
होता है। अज्ञेय इलियट की इस बात से न सिर्फ प्रभावित हैं बल्कि बहुत सहमत भी हैं।
इसके अतिरिक्त इनकी यह भी मान्यता है कि ' संस्कृति
मूलतः एक मूल्य दृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने
वाले निर्माता प्रभावों का नाम है- उन सभी निर्माता
प्रभावों का जो समाज को, व्यक्ति को, परिवार को, सबके
आपसी सम्बन्धों को, श्रम और सम्पत्ति के विभाजन और
उपयोग को, प्राणिमात्र से ही नहीं, वस्तुमात्र से हमारे सम्बन्धों को, निरूपित और
निर्धारित करते हैं।' उनका यह भी मानना है कि 'संस्कृतियाँ लगातार बदलती हैं, क्योंकि भौतिक
परिस्थितियाँ भी लगातार बदलती हैं।' (संस्कृति की चेतना, निबंध)
यह पूरी कविता
प्रतीकात्मक है। इस कविता में नदी परंपरा या संस्कृति का
प्रतीक है तो द्वीप
व्यक्तित्व का प्रतीक है। नदी के किनारे हमारा इतिहास भी हो
सकते हैं और समाज भी। कविता शुरू होती है- 'हम नदी के द्वीप हैं।/हम नहीं कहते कि हम को छोड़कर
स्रोतस्विनी बह जाय।/वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ अंतरीप, उभार, सैकत कूल/सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।' कवि बताता है कि हम नदी के द्वीप के समान हैं। चारो तरफ से जल से घिरा
भूस्थल द्वीप कहलाता है। जिस प्रकार नदी द्वारा
लाई गई मिट्टी, बालू आदि से द्वीप को एक रूप और आकार की
प्राप्ति होती है उसी प्रकार हमारा व्यक्तित्व भी हमारी परम्परा या संस्कृति से
रूप और आकार प्राप्त करता है। अपने उद्गम स्थल से द्वीप तक पहुँचते-पहुँचते नदी विभिन्न परिस्थितियों और अनुभवों से गुजरती है। जिस प्रकार
विभिन्न उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई नदी अपने साथ विभिन्न
प्रकार की मिट्टी और रेत आदि से द्वीप का निर्माण करती है उसी प्रकार हमारी
परम्परा भी अपने लंबे और विभिन्न प्रकार के ज्ञान अनुभवों से हमारा निर्माण करती
है। हमारे चाहे अनचाहे हमारा व्यक्तित्व हमारी परम्परा से जुड़ जाता है। हमारे
व्यक्तित्व के विभिन्न रूप (कोण), हमारे मन का सकरापन या तुच्छता (गलियां), हमारी हरे-भरेपन और जीवंतता से युक्त टापू रूपी कोई
विशिष्टता (अंतरीप), हमारी
उदात्तता (उभार) और हमारे
व्यक्तित्व का वह रेतीलापन जो हमें बंजर सा बना देता है (सैकत कूल) ये सब अपनी-अपनी
इयत्ता के साथ इसी परम्परा द्वारा निर्मित हैं। इसलिए हम अपनी परम्परा को खुद से
अलगाने की बात कह ही नहीं सकते। कवि यहाँ यह सीधे
बताता है कि किसी के व्यक्तित्व की जो भी विशिष्टता, बड़प्पन, अच्छाई, न्यूनता या बुराई होती है उसके निर्माण
में उसकी परम्परा का भी हाथ होता है । इसलिए अपनी परम्परा से खुद को एकदम से काट
लेना सम्भव नहीं है।
कवि कहता है - 'माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।' कविता का यह वाक्य अपने पहले और बाद के अन्तरे से अलग है। मतलब सीधा है।
कवि इस बात को अपनी विशिष्ट बात की तरह जोर देते हुए प्रस्तुत कर रहा है। वह एक
व्यक्ति के लिए उसकी परम्परा का स्थान माँ के बराबर मानता है। जिस प्रकार माँ न
सिर्फ अपने बच्चे को जन्म देती है बल्कि उसका भरण पोषण करके उसे तैयार करती है उसी
प्रकार परम्परा भी एक व्यक्तित्व को रूप देती है और अपने विभिन्न तत्वों से उसका
पोषण करती है।
अपनी परम्परा के प्रति इतनी आस्था
के बावजूद कवि का, व्यक्तित्व की विशिष्टता के प्रति और
उसकी स्वतंत्र पहचान के प्रति सजगता है। अज्ञेय का मानना है कि एक ही संस्कृति या
परम्परा से एक ही समय में अनेक व्यक्तित्वों की निर्मिति होती है। ये सभी
व्यक्तित्व या रूप किसी सांचे में ढले नहीं होते। ये अपनी परम्परा के भिन्न-भिन्न तत्वों से अलग अलग प्रकार से निर्मित होते हैं। इनकी विशिष्टता अलग-अलग होती है इसलिए प्रत्येक व्यक्तित्व परम्परा का अंग होता हुआ भी अपनी
एक अलग पहचान रखता है। इसलिए वह कहता है- 'किंतु हम
हैं द्वीप।/हम धारा नहीं हैं।/ स्थिर
समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के/ किंतु
हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।/ हम
बहेंगे तो हम रहेंगे ही नहीं।/पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा।
ढहेंगे। सहेंगे। बह जायेंगे।/ और फिर हम चूर्ण होकर भी
कभी क्या धार बन सकते?/ रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला
ही करेंगे।/ अनुपयोगी ही बनाएंगे।' यहाँ कवि द्वीप होना और धारा होने की विशिष्टता को अलग अलग रेखांकित कर
रहा है और बता रहा है कि जिस प्रकार धारा का अंग या धारा की निर्मिति होते हुए भी
द्वीप की अपनी वह विशिष्टता होती है जो उसकी पहचान को धारा से अलग आधार देती है
उसी प्रकार परम्परा की निर्मित होते हुए भी व्यक्तित्व की एक विशिष्ट पहचान होती
है । इसलिए परम्परा के प्रति व्यक्तित्व के समर्पण की सीमा निश्चित है। अगर हम
गाँधी और बुद्ध के उदाहरण से समझें तो दिखेगा कि
महात्मा गाँधी ने अपनी परम्परा के बुद्ध से अहिंसा को ग्रहण किया। यह अहिंसा बुद्ध
की भी एक पहचान बनी थी और बाद में गांधी की भी पहचान बनी। गाँधी की निर्मिति में
बुद्ध की भी भूमिका है। लेकिन गाँधी का बुद्ध के प्रति एक स्थिर समर्पण है। गाँधी
बुद्ध की ज्यों की त्यों नकल नहीं करते। अगर गाँधी बुद्ध का ज्यों का त्यों नकल
करते तो उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान नहीं बनती। सम्भव है ज्यों का त्यों नकल में
वे बौद्ध भिक्षुओं की भीड़ का कोई भिक्षु बनकर रह जाते। वे अहिंसा को मन की वृत्ति
से बड़ा फलक देते हैं। वे उसे आंदोलन बनाते हैं। हथियार बनाते हैं। उसे सत्याग्रह
से भी जोड़ते हैं। बुद्ध से गाँधी तक आते आते अहिंसा की मूल आत्मा तो वही रहती है
लेकिन युग के अनुरूप उसकी शक्ति का विस्तार होता है। और यही बात गांधी को अलग
व्यक्तित्व का रूप भी देती है। इसीलिए कवि कहता है कि परम्परा के अंग तो हैं किंतु
परम्परा का अंग होते हुए भी एकदम से परम्परा ही नहीं हैं। हमारे अंदर कुछ और
विशिष्टताएं हैं जो हमारी अलग पहचान बनाती हैं। हमारी यदि अलग विशिष्टता नहीं हुई
तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रह जाएगा। हम नदी की रेत की तरह भीड़ का शुष्क, अनुपजाऊ हिस्सा बनकर ही रह जाएंगे। अपनी अलग विशिष्टता के कारण ही हमारा
वजूद है। अन्यथा हमारी न कोई पहचान होगी और न वजूद। हम भीड़ बनकर बह जाएंगे। कवि
यहाँ एक और महत्वपूर्ण बात रेखांकित करता है। वह कहता है कि अपनी परम्परा से पोषण
पाकर जो लोग अपनी अलग पहचान नहीं बनाते, रेत के समान
सिर्फ बहते या जीते चले जाते हैं वे अपनी परम्परा को गन्दा ही करते हैं।
कवि आगे कहता है- 'द्वीप हैं हम। / यह नहीं है शाप। यह अपनी
नियति है।/ हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में। / वह बृहद भूखंड से हमको मिलाती है। / और वह
भूखंड अपना पितर है।' यहाँ कवि ने परम्परा और
व्यक्तित्व को नदी और द्वीप के प्रतीक से प्रस्तुत करते हुए बताया है कि विशिष्ट
व्यक्तित्व होना दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य की बात है। वह कहता है कि हमारे व्यक्तित्व को हमारी परम्परा हमारे समाज और इतिहास से जोड़ती है। वह
यदि परम्परा और संस्कृति को माँ का स्थान देता है तो हमारे समाज और इतिहास को पिता
के रूप में रखता है। वह कहता है कि जैसे नदी अपने गोद में द्वीप को धारण करती है
उसी प्रकार एक परम्परा की गोद में एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। और जिस प्रकार
नदी द्वीप और बड़े भूखंड को जोड़ती है उसी प्रकार हमारी परम्परा भी हमारे समाज और
हमारे इतिहास से हमें जोड़ती है। यहाँ कवि स्पष्ट करता हुआ दिखता है कि किसी
व्यक्तित्व के निर्माण में सिर्फ परम्परा की नहीं बल्कि समाज और इतिहास की भी बड़ी
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बाप होना माँ होने से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
कवि परम्परा के आगे बढ़ते
चले जाने की बात करता हुआ कहता है कि - 'नदी, तुम बहती चलो। / भूखंड से जो दाय हमको
मिला है, मिलता रहा है, / माँजती, संस्कार देती चलो' अर्थात परम्परा
प्रवाहमान रहे। समाज और इतिहास से व्यक्ति जो प्राप्त करता है उसकी कमियों, बुराइयों, गंदगियों को साफ करती और सुन्दर रूप
देती चले। प्रत्येक समाज के अंदर समय के साथ अनेक बुराइयाँ आ जाती हैं। कवि स्पष्ट
कह रहा है कि हमारे समाज के अंदर आयी बुराइयों को दूर करने के तत्व हमारी परम्परा
में ही मौजूद होते हैं और इन तत्वों के सहारे समाज में आ गई बुराइयों से मुक्ति
पाई जा सकती है।
एक निबंध में अज्ञेय
संस्कृति पर चर्चा करते हुए कहते हैं - 'संस्कृति
व्यक्तित्व का विस्तार और प्रसार माँगती है, संकोच या
छँटाव नहीं। संस्कारी व्यक्ति बराबर नयी उपलब्धियों को आत्मसात करता चलता है।'
(प्राची-प्रतीची)। वे
सिर्फ आंतरिक कारणों से समाज में आ गई बुराइयों पर नजर नहीं
रखते। वे कहते हैं - 'यदि ऐसा कभी हो / तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से - अतिचार से-/ तुम बढ़ो, प्लवन तुम्हारा घरघरा उठे, / यह स्रोतस्विनी ही
कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय / तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर / फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे। / कहीं फिर खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार। / मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।' - कभी-कभी कोई समाज अति-आत्मविश्वास
से इतना भर जाता है कि वह इसके कारण अनेक बातों पर नजर नहीं रख पाता। हमारी
अत्यधिक प्रसन्नता या अत्यधिक श्रेष्ठता का भाव भी कई बार समाज में अनेक कमियों के
आने का कारण बन जाता है। हम खुद को बड़ा और श्रेष्ठ मानने के कारण इतने लापरवाह या
दम्भी हो जाते हैं कि सब कुछ नष्ट होना अनिवार्य हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने
कामायनी के चिन्ता सर्ग में ऐसी ही स्थिति की देव संस्कृति के ध्वंस की बात की है
जो जीवन के विभिन्न आयामों की श्रेष्ठता को प्राप्त करने के बाद अपनी वासना के
आह्लाद में ऐसी डूबी की सब कुछ नष्ट हो गया। वे लिखते हैं कि देवताओं की संस्कृति
का रूप ऐसा था कि - 'कीर्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती अरुण किरण सी चारो ओर,/ सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम दल में, आनंद विभोर।/ शक्ति रही हाँ शक्ति- प्रकृति थी पड़-तल में विनम्र विश्रांत, / कँपती धरणी उन चरणों से होकर प्रतिदिन ही आक्रांत!' प्रसाद वर्णन करते हैं कि मनु कहते है - 'स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल
होती सृष्टि?' कामायनी में देव संस्कृति के नष्ट
होने का प्रसंग आह्लाद के कारण किसी संस्कृति के नष्ट होने का श्रेष्ठ उदाहरण है।
आगे कवि बताता है कि कभी
किसी देश या समाज को किसी दूसरे देश या समाज के क्रूर स्वेच्छाचारिता या अत्याचार
का सामना करना पड़ता है। ऐसे में कोई परम्परा किसी बाहरी तत्व, किसी विस्तारवादी नीति वाली संस्कृति, किसी
आक्रमणकारी, किसी आततायी या किसी भी अन्य के
सम्पर्क में आकर भी अनेक बुराइयों से युक्त हो जाती है। कभी सत्ता के बल पर या कभी
किसी अन्य प्रकार की कुटिलता के द्वारा भिन्न-भिन्न तरीके से
जैसे किसी संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है। इसके लिए वह बारिश या
अन्य बाहरी कारणों से उफनाई हुई नदी द्वारा किसी द्वीप या समाज को डुबो देने का
उदाहरण देता है। वह कहता है कि यह सब कर्मनाशा नदी की तरह भी हो सकता है, कि उसके जल के स्पर्श मात्र से सभी पुण्य समाप्त हो जाते हैं । इसी प्रकार
का कोई झंझा भी यदि संस्कृति या परम्परा को वह रूप को प्रदान कर ले कि उसके अंदर
समाजहंता बुराइयां आ जाएं, वह परम्परा कई युगों में
प्राप्त सभी अच्छाइयों को नाश करने वाली हो जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं है।
हम इस स्थिति को भी यह सोचकर स्वीकार कर लेंगेकि हमें अपने अंदर आई इन कमियों से
मुक्त होना है। हमारे व्यक्तित्व की विशिष्टता यदि इस विपरीत स्थिति में समाप्त हो
जाए तो भी घबराने की कोई बात नहीं। हमें इस बात के लिए धैर्य धारण करना होगा कि
हमारी परम्परा या संस्कृति में इतनी शक्ति है कि अपने आंतरिक सकारात्मक तत्वों के
सहयोग से वह हमें फिर कोई रूप देगी। हमारे अंदर की गंदगियों को वह दूर करेगी। फिर
कोई व्यक्ति अपने लिए किसी आधार को बनाएगा और इस आधार पर किसी बड़े व्यक्तित्व का
निर्माण होगा जो समाज में आ चुकी कमियों और बुराइयों को दूर करने का प्रयास करेगा
और दूसरों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा।
कविता की अंतिम पंक्ति
में अज्ञेय अपनी परम्परा और संस्कृति को बड़ी आत्मीयता से माँ सम्बोधन देते हैं। और
कहते हैं कि ऐ मेरी संस्कृति/ परम्परा रूपी माता! इस नए बनते व्यक्तित्व के निर्माण में फिर तुम्हारी आवश्यकता होगी और तुम
उसे अपने संस्कारो से निर्मित करना। इस कविता के आरम्भ में भी उन्होंने एक पंक्ति
के अलग बन्ध में नदी रूपी संस्कृति को माँ सम्बोधन देते हुए कहा है कि एक
व्यक्तित्व की सभी अच्छाईयों और न्यूनताओं के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका
माँ की होती है।
जिस
प्रकार "असाध्य वीणा" महान रचना की निर्माण प्रक्रिया और उसके आस्वादन की प्रक्रिया को बताने
वाली महान रचना है उसी प्रकार "नदी के द्वीप" कविता, परम्परा और सांस्कृति के अंदर आए उतार
चढ़ावों के बीच सार्थक व्यक्तित्वों के निर्माण में उसकी भूमिका को बताने वाली
कविता है। कवि इस कविता में संस्कृति के तत्वों को ग्रहण करके खुद को सार्थक
व्यक्तित्व बनाने की बात कर रहा है और कह रहा है कि यदि हम खुद को सार्थक नहीं
बनाए तो जिस प्रकार रेत नदी के जल को गन्दा करता है उसी प्रकार निरर्थक व्यक्ति के
रूप में हम अपनी परम्परा और संस्कृति को गन्दा करेंगे।
लेखक परिचय-
डॉ गौरव तिवारी भगवान बुद्ध
और प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय की पावन धरती कुशीनगर के निवासी हैं। वह हिंदी
साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य समीक्षक और गंभीर अध्येता हैं।
साहित्यिक रचनाएं आपके संस्पर्श से अपने भाव और संवेदना के साथ खिल उठती हैं। डॉ गौरव तिवारी ने
उच्च शिक्षा 'हिंदी साहित्य के तीर्थ' इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, प्रयागराज से प्राप्त की है। उन्हें हिंदी
साहित्य के ख्यातिलब्ध विद्वान आचार्य सत्यप्रकाश मिश्र के सानिध्य में डी. फिल.
की उपाधि प्राप्त हुई। आपकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मुस्लिम
उपन्यासकार : परिवेश और उपन्यास' प्रकाशित हो चुकी है
तथा लगभग दो दर्जन से अधिक आलेख एवं शोध-आलेख विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
और पुस्तकों में प्रकाशित हैं। आपके कुशल सम्पादन में शीघ्र ही निबंध विधा पर
आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। आप देश-प्रदेश की अनेक
सभा, संगोष्ठियों एवं संस्थाओं में मुख्य वक्ता के तौर पर
आमंत्रित होते रहते हैं। सम्प्रति बुद्ध पी जी कॉलेज,
कुशीनगर में सहायक आचार्य, हिन्दी के रूप में समाज और
साहित्य की सेवा में समर्पित हैं।