बुधवार, 20 जुलाई 2022

महामारी और हिन्दी साहित्य

-डॉ रमाकान्त राय

वर्तमान समय में समूचा विश्व एक विशेष किस्म की महामारी से जूझ रहा है। इसका नाम कोविड_19 रखा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड_19 को वैश्विक महामारी घोषित किया है। कोविड_19 तीन शब्दों का एक संक्षिप्त नाम है- को का आशय है- कोरोना, वि का अर्थ वायरस और डी से अभिप्राय डिजिज़ है। इस प्रकार यह कोरोना वाइरस डिजिज़ है। इसका पता 2019 के दिसंबर में लगा इसलिए इसमें 19 भी जुड़ा है। सबसे पहले वैज्ञानिकों ने यही परिलक्षित किया कि यह फ्लू का ही एक प्रकार है। फ्लू का अन्य रूप स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इन्फ़्लुएंजा आदि भी है। खांसी जुकाम भी एक किस्म का फ्लू ही है। कोविड_19 की एक विशेष बात यह है कि यह एक संक्रामक व्याधि है। संक्रामक व्याधि उसे कहते हैं जो संक्रमण करते हुए एक दूसरे को चपेट में लेता है। हैजा, चेचक, फ्लू , मलेरिया आदि संक्रामक व्याधियाँ हैं। यह व्याधियाँ किसी प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणु अथवा विषाणु के माध्यम से फैलती हैं। अपने संक्रामक चरित्र के कारण यह व्याधियाँ महामारी का रूप धारण कर लेती हैं।

          फ्रांसीसी साहित्यकार अल्बेर कामू का बहुत प्रसिद्ध उपन्यास प्लेग है। यह प्लेग महामारी पर आधारित है। इसी प्रकार रूसी उपन्यासकर अलेक्षान्द्र कुप्रिन ने गाड़ी वालों का कटरा नाम से उपन्यास लिखा है जिसमें यौन संक्रामक बीमारी की विभीषिका वर्णित है। हिन्दी साहित्य में महामारी का उल्लेख कई प्रसिद्ध रचनाओं मे हुआ है। हिन्दी की पहली आत्मकथा मानी जाने वाली बनारसी दास जैन की  “अर्धकथानक” में लेखक के महामारी से ग्रस्त होने का प्रसंग आया है। हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों मे परिगणित की जाने वाली मास्टर भगवान दास की कहानी प्लेग की चुड़ैल तो प्लेग की महामारी पर ही आधारित है। यह कहानी सन 1902 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में गाँव में प्लेग का प्रकोप फैलने और लोगों के भय, आशंका, डर और अमानवीयता का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है। यह कहानी हालांकि घटना प्रधान है और चमत्कार के प्रभाव से आगे बढ़ती है लेकिन प्लेग महामारी से लोगों में उपज रहे डर और उसकी विभीषिका को यह बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करती है।

          महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में दो छोटे-छोटे अध्याय महामारी को केन्द्रित कर लिखे हैं। जब वह दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में थे तब फेफड़ों की बीमारी प्लेग का प्रकोप हुआ था। गांधी जी ने इस व्याधि से ग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा शुरू की। उनके देखभाल की परिधि में कुल तेईस लोग थे। इनमें 21 काल कवलित हुए थे। गांधी जी ने अङ्ग्रेज़ी सरकार द्वारा महामारी से बचाव के लिए पैसा पानी की तरह बहाये जाने का उल्लेख किया है और महामारी के समाप्त हो जाने पर उस लोकेशन की होली करने की बात लिखी है, जहां यह महामारी थी। इस क्रम में म्यूनिसपैलिटी को इस होली में लगभग दस हजार पौंड का नुकसान हुआ।

          1918-19 में इन्फ़्लुएञ्जा नामक महामारी का प्रकोप भारत में हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 1939 में प्रकाशित अपने आत्मकथात्मक उपन्यास कुल्ली भाट में इस महामारी के प्रकोप का कारुणिक वर्णन किया है। परिवार के लोगों के एक-एक कर मरने, गंगा नदी में बहती लाशों का विवरण रोंगटे खड़ा कर देता है। इसी महामारी में उनकी पत्नी का भी देहांत हुआ। उनके उपन्यास “अलका” का आरंभ भी एक महामारी के वर्णन से होता है। “महासमर का अंत हो गया है, भारत में महाव्याधि फैली हुई है। एकाएक महासमर की जहरीली गैस ने भारत को घर के धुएँ की तरह घेर लिया है, चारो ओर त्राहि त्राहि, हाय हाय – विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं, सब अपने घरवालों की अचानक बीमारी का हाल पाकर। युक्त प्रांत में इसका और भी प्रकोप, गंगा, यमुना, सरयू, बेतवा, बड़ी-बड़ी नदियों में लाशों के मारे जल का प्रवाह रुक गया है। .... गंगा के दोनों ओर दो-दो तीन-तीन कोस दूर तक जो मरघट हैं, उनमें एक-एक दिन में दो-दो हजार तक लाशें पहुँचती हैं। जलमय दोनों किनारे शवों से ठसे हुए, बीच में प्रवाह की बहुत ही क्षीण रेखा, घोर दुर्गंध, दोनों ओर एक-एक मील तक रहा नहीं जाता। जल-जन्तु, कुत्ते, गीध, सियार लाश छूते तक नहीं”। महामारी का यह वर्णन रोंगटे खड़े कर देता है। इस रचना में बड़ी संख्या में हुई मौतों का कारुणिक वर्णन है।

          फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास “मैला आँचल” में मलेरिया का मार्मिक वर्णन है। मेरीगंज का नाम जिस मार्टिन की पत्नी मेरी के नाम पर पड़ा है, उसकी मृत्यु मलेरिया ग्रस्त होने से हुई। मार्टिन इस आघात के बाद मेरीगंज में डिस्पेन्सरी खुलवाने के लिए बहुत प्रयास करता है। समूचे उपन्यास में मलेरिया और कालाआजार नामक बीमारियों का अनेकश: उल्लेख है और डॉ प्रशांत उससे मुक्ति के लिए शोधरत है। वह इसमें कुछ हद तक सफल भी होता है हालांकि यह अलग बात है कि वह अपने अनुसंधान में एक अन्य ही व्याधि की तरफ संकेत करता है- “गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु हैं। एनोफिलीज़ से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ़्लाइ (कालाआजार का मच्छर) से ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के...”। महामारी को केन्द्रीकृत करके फणीश्वर नाथ रेणु ने “पहलवान की ढोलक” शीर्षक से एक कहानी लिखी है। यह कहानी दिसंबर 1944 में साप्ताहिक विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में समूचे गाँव में पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे के प्रकोप का वर्णन किया गया है। इस वज्रपात के कारण समूचे गाँव में लोग काल कवलित होने लगे थे। जब पहलवान के दोनों बेटे भी एक दिन हैजे की भेंट चढ़ जाते हैं तो भी पहलवान गाँव वालों को ढाढ़स बंधाने के लिए रात-रात भर ढोलक बजाता रहता है लेकिन एक सुबह पहलवान की चित लाश मिलती है। उसके ढोलक को सियारों ने फाड़ डाला था और पहलवान की जांघ भी काट खाया था। यह कहानी महामारी की विभीषिका में पहलवान की जीवटता का बेहतरीन आख्यान है।

          हिन्दी में कमलाकांत त्रिपाठी ने अपने तीन उपन्यासों- पाहीघर, सरयू से गंगा और तरंग में महामारी को कथानक का अंग बनाया है। पाहीघर और सरयू से गंगा में हैजे से गाँव के गाँव नष्ट हो जाने की बात कथानक का अंश बनकर आई है तो तरंग में सन 1896 में फैले प्लेग को एक फ्लैश बैक के रूप मे याद किया गया है। पाहीघर उपन्यास में गुरुदत्त बैशाख के एक दिन भीलमपुर से हैजा लेकर लौटते हैं और अपने डेरे पर आकर दम तोड़ देते हैं। हैजा इस कदर संयुक्त प्रान्त में जानलेवा हो गया था कि उससे हुई मृत्यु पर रोना वर्जित था। ग्रामवासियों में दस्तूर था कि हैजे की लाश जलायी नहीं जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के सामयिक में प्रकाशित

   राही मासूम रज़ा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “आधा गाँव” में गंगौली में फैली चेचक का जिक्र किया है। शहर से लौटा मासूम जब मुमताज़ को देखने जाता है तो उसे बताया जाता है कि मुमताज़ को माता निकल आई हैं। यह माता चेचक का ग्रामीण संस्करण है। चेचक भी एक महामारी की तरह ही आई और देश में रही। मुमताज़ को चेचक निकल आई हैं तो घर भर में उससे बचाव के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। मरीज से किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा, फुन्नन मियां नीम की टहनी से हवा कर रहे हैं और घर की रसोई बहुत सादा भोजन वाली हो गयी है क्योंकि रुकय्ये की शिकायत है कि “चार दिन से तरकारी खाते खाते नाक में दम आ गवा है”।

          इन साहित्यिक कृतियों में एक बात ध्यान देने योग्य है कि सबमें यह महामारी किसी न किसी रूप में बाहर से आई होती है। जान-माल की बेतरह क्षति के बाद यह महामारी अपना प्रकोप तभी समेटती है जब मौसम बदल जाता है। इन व्याधियों के आगमन से गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। महामारी के फैलने पर समाज में इससे लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं है। लोग देसी उपचार करते हैं और कई बार सफल भी हो जाते हैं। महात्मा गांधी की आत्मकथा से पता चलता है कि संक्रामक बीमारी के प्रकोप से बचाने के क्रम में बहुत खर्चीला उपाय किया जाता था। महात्मा गांधी ने देसी उपाय कर ही दो बीमारों को प्लेग के प्रकोप से बचा लिया जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उपयोग करके सभी बीस मरीज बचाए नहीं जा सके। उनकी सेवा शुश्रूषा में रत नर्स भी इस संक्रमण और ब्राण्डी का सेवन करने के बावजूद बचाई नहीं जा सकी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए अपनी बात समाप्त करूंगा। जिन भी रचनाओं का उल्लेख इस आलेख में किया गया है उसमें अधिकांश औपन्यासिक रचनाओं के आरंभ में ही महामारी के प्रकोप का वर्णन है- यह इसलिए कि महामारी एक जीवन के अन्त की घोषणा और दूसरे जीवन के आगमन की उम्मीद का नाम है। कोविड_19 का यह नवीनतम संस्करण भी इसी तरह के एक नए जीवन की उम्मीद का अध्याय बनेगा।

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

 इटावा, उ०प्र०
  9838952426, royramakantrk@gmail.com

बुधवार, 13 जुलाई 2022

तत्त्वदर्शी होने के कारण गुरु विज्ञान से श्रेष्ठ है।

 -डॉ रमाकान्त राय

              आज गुरु पूर्णिमा है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि सभी गुरु पूर्णिमा को ही अवतरित हुए हैं क्योंकि उसमें पूर्णता भाव है।

          पूर्ण होते ही सरलता, स्वाभाविकता और सहजता का प्रशांत वातावरण निर्मित हो जाता है।त ब गुरु सहज ही मार्गदर्शक हो जाता है। गुरु कोई भी हो सकता है। गौतम बुद्ध गुरु की खोज में किस किसकी शरण में नहीं गए, नहीं मिला कोई। खुद भगवान बन गए। मेल मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में हीरामन तोते को गुरु कहा है। कहते हैं - गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा। मार्गदर्शन करने वाला ही गुरु है। सारा उद्योग आपको करना है। चलना, दौड़ना, गिरना सब आपके पैरों से होगा। आंखें भी आपकी होंगी। शक्ति आपकी। सामर्थ्य आपका। सबकुछ आपके पास है लेकिन एक तत्त्व का अभाव है। अभाव नहीं कहेंगे, अभाव में अनुपस्थिति अनिवार्य रूप से है। वह है, जो आपको गतिमान कर देती है। जो आपको सही मार्ग पर लाकर खड़ा कर देती है। गुरु उसी मार्ग की तरफ संकेत कर देता है। आपका मुंह उसी दिशा की तरफ कर देता है।

          यह बहुत अराजक बात है कि सभी रास्ते ईश्वर के पास जाते हैं, इसलिए कोई भी चुन लो। ऐसा कहने वाला गुरु नहीं है, गुरु घंटाल है। अव्वल तो यह बात ही मिथ्या है। सभी रास्ते ईश्वर के पास जाते हैं तो जिनने निरीश्वरवादी प्रतिपत्ति की, वह घास नहीं खोद रहे थे। उनके पास भी दृष्टि है। ज्ञान है। एक निष्पत्ति है। इसलिए यह बात मिथ्या है। और यदि मान लें कि जाते होंगे सभी रास्ते ईश्वर के पास। तो भी इसका बहुत महत्त्व है कि आपने कौन सा मार्ग चुना है।

    मेरी मां अपनी कहानियों से सिखाती थीं, "बेटा, कुछ आगे चलने पर दो राह मिलेगी। एक छह मास वाली, एक छह दिन वाली। तुम छह मास वाली चुनना।" सभी रास्ते (लक्ष्य) ईश्वर के पास जाते हैं तो वह बार बार छह मास वाला रास्ता चुनने को क्यों कहती थीं। वह मेरी पहली गुरु हैं। उनका बताया रास्ता एक पंथ है। आज कह सकता हूं कि वही रास्ता लेकर चल रहा हूं।

     तो यह कहना है कि जीवन में इसका बहुत महत्त्व है कि आपने कौन सा रास्ता चुना है। गुरु कौन है? एक व्यक्ति ट्रेनिंग लेकर आया और अपने पेट में बम बांधकर खुद को उड़ा लिया। उसके गुरु ने बताया था कि इससे तुम्हें सहज ही वह मिल जाएगा, जिसे तुम इस जहन्नुम में नहीं खोज पा रहे। एक दूसरा है जो बता रहा है कि बाहर कुछ नहीं है। कबीर गुरु नहीं हैं लेकिन यह यह अवश्य देखते हैं कि अरे इन दोउ राह न पाई! वह अपना अनुभव साझा करते हैं, जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ! पानी में कौन सा रास्ता होगा? क्या पाना है पानी के भीतर? बात अभिधा में नहीं समझी जा सकती। तो व्यंजना से अर्थ लेना पड़ता है, रत्न, मोती, मूल्यवान वस्तुएं। सांसारिक लोगों का धन यही है। लोग यही तो खोज रहे हैं। गहरे पानी में पैठने पर मिलेगा। लेकिन कबीर के बारे में तो यह ठीक नहीं हुआ! उन्हें इन पत्थरों से क्या लेना। तब इस मूल्यवान का अर्थ उस दृष्टि से जुड़ जाता है। अर्थ झन्न से खुल जाता है। मार्ग महत्त्वपूर्ण है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कहते हैं, स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। यहां जो धर्म है, वह उसी मार्ग से परिचालित है।

     पुनः दुहरा दूं कि मार्ग महत्त्वपूर्ण है। गुरु मार्गदर्शक है। वह हमारी उंगली पकड़कर सही मार्ग में डाल देता है। वह जो कुछ बताता है, गुर है। आवश्यक नहीं है कि वह उस मार्ग का पथिक हो ही। सिगरेट पीने वाले एक व्यक्ति ने कहा कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। वह पी रहा है तो जानता है। एक बिना फूंके बता रहा है क्योंकि उसका पर्यवेक्षण है। भोक्ता का पर्यवेक्षण अधिक प्रामाणिक है लेकिन उसका दायरा सीमित है। द्रष्टा का पर्यवेक्षण उसकी व्यापक दृष्टि में है। वह प्रत्यक्ष भोक्ता नहीं है, तथापि वह जानता है।

    यह जानना बहुत विशेष है। ज्ञान का ही लोकप्रिय संस्करण है जानना। गुरु जानता है। वह तत्त्वदर्शी है। उसके संज्ञान में चीजें आती हैं और वह जान जाता है। विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन उसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है। उसके पास तो वह सूक्ष्म दृष्टि भी नहीं है जिससे वह तत्त्व दर्शन कर ले। हमारे मित्र डॉ मुकेश गौतम होम्योपैथी की दवाओं के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं कि बेलाडौना 1M की दवा की शीशी पर से लेबल हटा दीजिए और प्रयोगशाला में भेज दीजिए। विज्ञान थक जाएगा किंतु बता नहीं पाएगा कि इसमें दवा कौन सी है। विज्ञान की अक्षमता बहुधा प्रकट होती रहती है किंतु गुरु तो सिद्ध है। वह निरूपण कर देता है।

  विदेह राजा जनक ने मुनि अष्टावक्र से पूछा, "यह ज्ञान कितनी अवधि में प्राप्त किया जा सकता है?"अ ष्टावक्र ने कहा, "राजन! ज्ञान एक कल्प, एक युग, एक वर्ष, एक मास, एक दिन, एक घड़ी, एक क्षण, एक निमिष मात्र में पाया जा सकता है।" उन्होंने बताते बताते क्रमश: समयावधि कम की। एक निमिष मात्र में? पलक झपकने में जितना समय लगता है, उतने में? अष्टावक्र ने कहा हां, उतने में ही।

    मैं कुंग फू पांडा देख रहा था। उसमें पांडा के साथी बुरी तरह घायल होकर लौटे हैं। अंग भंग हुआ पड़ा है। शिफू आते हैं, वह बिंदु छूते हैं, जहां मूल है। सब भले चंगे हो जाते हैं। उस तत्त्व को जानना है। डॉ मुकेश भी उसी तत्त्व की चर्चा करते हैं। मुझे एक समस्या होती है तो घंटों बातें करते हैं, जानते हैं। कान की समस्या थी, पूछा,"बादल घिरता है तो कैसा लगता है?" भाई, कान की दिक्कत है! बादलों से क्या लेना देना! लेकिन उन्हें इसका उत्तर चाहिए। प्रकृति की पहचान हो तो काम आसान हो जाता है। 

     मार्ग दिखाने वाला गुरु है। उसके महत्त्व को बताया नहीं जा सकता। कबीर तो कहते हैं कि सात समद की मसि, जंगली वृक्षों की लेखनी से भी गुरु का बखान नहीं हो सकता।

   एक नया वर्ग जन्मा है। धन से सब कुछ खरीद लेना चाहता है। ज्ञान भी। गुरु भी। एक दूसरा है जो गुरु को ग्रू, ग्रु कहकर थोड़ा मित्रवत हो गया है। बहुतेरे रूप हो गए हैं। लेकिन उसकी महिमा बनी हुई है। उसका महत्त्व बना हुआ है।

    गुरु को मेरा प्रणाम है।

 🙏🙏

रविवार, 10 जुलाई 2022

हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते और कट्टरता

 - डॉ रमाकान्त राय

    वर्तमान समय में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एक विशेष सम्बन्ध देखने को मिल रहा है, जहां मुस्लिम कट्टरता के प्रत्युत्तर में एक उग्र नवहिन्दू स्वर है। भारत में इस तरह का व्यवहार सर्वथा नया है। हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु समाज के रूप में जाना जाता रहा है, जो अपने साम्प्रदायिक प्रतीकों और मान्यताओं पर किए जाने वाले प्रहार को बहुत सहजता से झेलता रहा है। इसके पीछे उच्च और समृद्ध ज्ञान-विज्ञान तथा समावेशी जीवन दर्शन प्रमुख कारक तो रहा ही है, लंबे समय से केंद्रीय सत्ता से दूरी से उपजी दासता भी इसके लिए बराबर ज़िम्मेवार रही है। गुजरात के गोधरा नरसंहार के बाद एक विशिष्ट भाव-भंगिमा देखी गयी है। बीते दिन नूपुर शर्मा से संबन्धित विवाद में भी दुनिया भर के लिए अनपेक्षित था कि कोई इस प्रकार उग्र और कटु वचन व्यक्त करेगा। इससे समाज में एक नयी बहस चली है और दोनों समुदायों में कट्टरता पर विमर्श होने लगा है। हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों और सामुदायिक कट्टरता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।

ऐतिहासिक सम्बन्ध और कट्टरता का स्वरूप-

          भारत के पश्चिमी तट पर इस्लाम के उदय देश अरब के समुद्री मार्ग से आनेवाले व्यापारी अच्छा व्यवसाय करते थे। काली मिर्च और चन्दन का निर्यात होता था और अरब में पाये जाने वाले उत्कृष्ट कोटि के घोड़े की भारत में बहुत मांग थी। जब अरबों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो उनके व्यवहार और उद्देश्य में बदलाव देखा गया। वह राजनीतिक और सांप्रदायिक शक्ति के विस्तार के लिए उद्धत दिखने लगे। राजनीतिक रूप से सबसे पहले सन 656ई0 में खलीफा उमर के शासनकाल में मुंबई के निकट थाणे पर आक्रमण हुआ जिसमें अरब पराजित हुए और खदेड़ दिये गए। पराजित होने के बाद भी अरब साम्राज्य विस्तार में लगे रहे और 712 ई0 में उन्हें सबसे पहले मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सफलता मिली, जब उन्होंने सिंध के शासक दाहिर को हराया। दाहिर की सेना बहादुरी से लड़ी। उनकी पत्नी ने भी संघर्ष किया किन्तु पराजित हुए। कासिम ने संपत्ति लूटने के बाद सिंध के निवासियों को इस्लाम अथवा मृत्यु में से एक चुनने के लिए बाध्य किया। सामान्य जन के साथ इस्लाम का यह पहला संपर्क था। बड़ी संख्या में लोगों ने मृत्यु का वरण किया।

          नवीं सदी में केरल के मालाबार का राजा चेरामन पेरूमल को धोखे से मुसलमान बना दिया गया। उसने अरबों को धर्म प्रसार के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कीं। जामोरिन के शासनकाल में तो धीवर (जुलाहा) परिवार के लिए शासनादेश आया कि घर का एक व्यक्ति इस्लाम अवश्य स्वीकार करे। फिर तो राजनीतिक संरक्षण में मस्जिद आदि का निर्माण होने लगा। पीर-औलिया आदि अस्तित्व में आ गए। उनका एकेश्वरवाद और भेदभाव रहित समाज की संकल्पना वाला सम्प्रदाय अपने दर्शन से प्रभावित भी करने लगा। इस्लाम और उसके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। अरबों के काम को तुर्कों ने आगे बढ़ाया और व्यवस्थित तरीके से पूर्ण किया। तुर्क आक्रमणकारी सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी ने भारत में इस्लाम के लिए राजमार्ग बनाया। महमूद गजनवी के अत्याचार की कहानियाँ तो किंवदंती हैं। उसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा और अकूत धन लेकर गया। तुर्कों का एक अन्य शक्तिशाली आक्रमण मुहम्मद गोरी ने किया और तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराया। यह विजय भारत में मुसलमानों के स्थायी शासन की शुरुआत थी। यहीं से दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी जिसे मुगलों ने और अधिक मजबूत किया।

सस्कृतिक विस्तार और भागीदारी-

          हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों में राजनीतिक विस्तार सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। केंद्रीय सत्ता की स्थापना के बाद इन सम्बन्धों में अधिक निकटता हुई। फिर सांस्कृतिक विस्तार अधिक प्रभावी बना। मुगल बादशाहों ने हिन्दू परिवारों में वैवाहिक सम्बन्ध बनाए। जन्माष्टमी, होली-दीपावली आदि उत्सवों में सहभागिता की तथा भारतीय धर्म-दर्शन आदि को समझने के लिए गंभीर प्रयास किए। धर्मग्रंथों का अनुवाद हुआ और उनके संरक्षण आदि पर ध्यान दिया। राजनीतिक संरक्षण में विदेश से आया एक समुदाय तेजी से अपना विस्तार करता रहा। सूफी, संत और फकीर तथा औलिया विभिन्न माध्यमों से हिंदुओं के संपर्क में आते रहे। इस्लाम एक विशेष कट्टर सोच के साथ चल रहा था तो सूफी-पीर-औलिया उसमें प्रेम का रस भरने का प्रयास कर रहे थे। चूंकि केंद्रीय सत्ता उनका संरक्षण कर रही थी इसलिए उनकी कट्टरता को स्वाभाविक माना जा रहा था। तैमूर, नादिरशाह, औरंगजेब आदि आक्रमणकारी/शासक की गतिविधियां शासकीय क्रूरता मानकर निबाही जा रही थीं। हिन्दू भी पराजित जाति की तरह इसे सहने के लिए बाध्य थे।

अंग्रेजों का आगमन और सांप्रदायिकता-

          18वीं सदी में जब केंद्रीय सत्ता पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होने लगा तो हिन्दू और मुस्लिम समाज में एक नए सम्प्रदाय का प्रवेश हुआ। यह ईसाई थे। कायदे से तो सामाजिक स्तर पर क्लेश ईसाई और हिन्दू-मुसलिम समुदाय में होना चाहिए था किन्तु अंग्रेजों की चतुराई और फूट डालो, राज्य करो के क्रियान्वयन में यह सांप्रदायिक भाव हिन्दू और मुसलमानों में सतह पर दिखने लगा। अंग्रेज़ निरंतर इसे प्रज्ज्वलित करते रहे और इन दोनों समुदायों के बीच जो खाई थी, उसे ठीक से खोदकर रख दिया। हिन्दू और मुस्लिम समुदाय में एक बड़ा अंतर समाज के खुलेपन से जुड़ा था। मुस्लिम समाज हद दर्जे तक बंद समाज था। अपने धर्म की रक्षा के अनुक्रम में केंद्रीय सत्ता से विहीन हिन्दू भी कछुआ धर्म अपना रहे थे, तथापि उनका समाज बहुत खुला और उदार था। इसाइयों को अपने विस्तार के लिए यह समुदाय सॉफ्ट केक की तरह मिला। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों ने अपने सम्प्रदाय के विस्तार के लिए हिन्दू और मुसलमान समुदायों के विभेद को हवा दी। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की स्थापना को प्रोत्साहित किया और सांप्रदायिकता के बीज बोये। अंग्रेजों के जाने के बाद भी यह भाव बहुत गहराई तक पैठा हुआ है।

उदारीकरण की विसंगतियाँ-

          विगत कुछ सालों से, उदारीकरण के बाद, जब से पूंजी का स्वरूप आवारा किस्म का हुआ है, इसने दुनिया के दूसरे देशों को सांप्रदायिक आधार पर प्रभावित करना शुरू किया है। जब से शक्ति विस्तार में मूलतः सांप्रदायिक चेतना को पाया गया है, तब से हिन्दू-मुसलमान सम्बन्धों में एक नया मोड़ दिखाई देने लगा है। दुनिया लगभग दो ध्रुवीय हो गयी है। ईसाइयत और इस्लाम का द्वंद्व बहुत तेजी से दुनिया में फैला है। इससे अलग साम्प्रदायिक पहचान रखने वाले समाज तीसरी दुनिया के समाज हैं। अमेरिका के खाड़ी के देशों पर आक्रमण के बाद से यह ध्रुव बहुत स्पष्ट देखे गए हैं। ईसाइयत का केंद्र वेटिकन है और इस्लाम का अरब अथवा तुर्की। भारत में मैकाले की शिक्षा नीति के बावजूद हिन्दू समुदाय विविध तरीके से अपने को बचाने की कोशिश में संलग्न है।

रिश्तों का वर्तमान और भविष्य-

          लंबे समय से सत्ता से च्युत समुदाय पहली बार मुखर होने के लिए छटपटा रहा है। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के आरोप से दो चार हो रहा है, अपनी अस्मिता और प्राचीन धरोहरों के लिए एकत्र हो रहा है और स्वयं का ध्रुवीकरण कर रहा है। इस ध्रुवीकरण से एक संकीर्णता उदित हुई है जिससे आपसी सम्बन्ध की कटुता सतह पर आ गयी है। देश और दुनिया में बीते दिनों हुए कई घटनाक्रमों ने हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के एक नए युग में प्रवेश की पटकथा रच दी है जो दोनों समुदायों में अधिक कट्टरता, विभेद और संघर्ष की तरफ ले जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 
 राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में आलेख का लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा

9838952426

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

आदिवासी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बनेंगी महामहिम!

 -डॉ रमाकान्त राय

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा आदिवासी समुदाय की संघर्षशील महिला और झारखंड के राज्यपाल पद को सुशोभित कर चुकी महिला द्रोपदी मुर्मू को महामहिम के लिए अपना प्रत्याशी बनाकर एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। भारतीय जनता पार्टी को अपने शासन काल में तीन बार राष्ट्रपति चुनाव के लिए अवसर मिला और उसने ए पी जे अब्दुल कलाम, रामनाथ कोविन्द और द्रोपदी मुर्मू का नाम आगे करके हाशिया पर रहने वाले वंचित समाज को उच्च पद पर आसीन करने का एक उल्लेखनीय काम किया है। पहले मुसलमान फिर अनुसूचित जाति और अब अनुसूचित जनजाति की महिला उम्मीदवार खड़ा करके उसने वंचित और शोषित समुदाय को अवसर देने का श्रेय लिया है।

      द्रोपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं और उनका सम्बन्ध ओडिसा से है। ओडिसा के मयूरभंज जनपद के एक संताल परिवार में जन्मीं द्रोपदी मुर्मू ने अध्यापक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ किया और अपने पति तथा पुत्रों की अकाल मृत्यु के बाद भी अदम्य साहस और राजनीतिक क्षमता का परिचय देते हुए विधानसभा, मंत्रिपद और राज्यपाल के रूप में सेवाएँ देकर शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया। वह झारखंड की पहली महिला और आदिवासी राज्यपाल होने का गौरव रखती हैं। अब जबकि राष्ट्रपति पद पर उनका चुना जाना लगभग सुनिश्चित है, देश और शोषित वंचित आदिवासी समुदाय को उनसे अपेक्षाएँ बढ़ गयी हैं।

          द्रोपदी मुर्मू के देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के साथ ही आदिवासी समुदाय को एक महत्त्वपूर्ण पहचान मिलने की उम्मीद रहेगी। आदिवासी और दलित समुदाय में यह बहुत बड़ा द्वंद्व रहा है कि आदिवासी समुदाय, तथाकथित मुख्यधारा से इतर एक पृथक जीवन प्रणाली का अंग रहा है और कई बार उसकी अपेक्षा रही है कि उसकी स्वायत्तता और स्वतन्त्रता तथा जीवन पद्धति में अनावश्यक दखल न किया जाय। जबकि दलित समुदाय मुख्य धारा के समाज के बीच में उपेक्षा और अश्पृश्यता से मुक्त होने के लिए छटपटाता रहा है। आदिवासी समुदाय की सबसे बड़ी चुनौती है मुख्यधारा से जुड़ना। अपने सामुदायिक प्रतीकों और रीति-रिवाजों को सर्व समाज में स्वीकृत कराना। देश के सर्वोच्च पद पर बैठने से लोगों का दृष्टिकोण बदलेगा और इन पहचानों को मान्यता मिलेगी। द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन होने के बाद आदिवासी समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने में बहुत बड़ी सफलता मिलने वाली है।

       वर्तमान समय में आदिवासियों का शोषण, उनके जल, जंगल और जमीन पर बढ़ता अतिक्रमण एक बड़ा मुद्दा है। देश के विभिन्न भागों में आदिवासी समुदाय इस अतिक्रमण से बहुत क्षुब्ध है और इसीलिए नक्सलियों के प्रति सहानुभूतिशील भी। झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओडिसा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में नक्सलियों की रीढ़ यह समुदाय इसीलिए बना हुआ है क्योंकि उसे आशंका है कि तथाकथित विकास की यह प्रक्रिया और अतिक्रमणवादी भावना उनकी स्वायतत्ता और स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगी और उनके जंगल, आवास आदि को नष्ट कर डालेगी। राष्ट्रपति के रूप में द्रोपदी मुर्मू के समक्ष यह चुनौती होगी कि वह आदिवासियों को विश्वास में लें और उनकी आशंकाओं को दूर करें। आज आदिवासी समुदाय तथाकथित दिकु लोगों के संपर्क में आकर ऋण के ऐसे चंगुल में फंसा हुआ है जिसमें वह लगभग तबाह हो जाता है। औने-पौने कीमत पर उनकी जमीन हड़प ली जाती है, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है और यह सब शोषण स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से निर्बाध चल रहा है। देश के एक बड़े समूह को आशा है कि इस सब शोषण आदि पर रोक लगेगी और आदिवासी समुदाय को परेशान करने वाली मानसिकता क्षरित होगी। नक्सली समस्या से निजात मिलेगी।

         शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सुधार होने की राह प्रशस्त होगी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1991 में भारत में अनुसूचित जनजातियों की साक्षारता दर 29.6 प्रतिशत थी जो वर्ष 2001 में बढ़कर 47.1 प्रतिशत तक पहुंची है किन्तु यह एक सतोषजनक आंकड़ा नहीं है। यह देश भर में साक्षारता के औसत दर 74 प्रतिशत से बहुत कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी यह समुदाय बहुत आशा भरी दृष्टि से देख रहा है।

आदिवासी समुदाय अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर भी संघर्ष कर रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में यह माँग ज़ोरों पर है कि आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा का भाषाई माध्यम स्थानीय हो जिसके लिए प्रयास जारी हैं। आदिवासी समुदाय अपने साहित्य को लेकर भी विमर्श के केन्द्र में है। उनका अधिकांश साहित्य वाचिक परंपरा का है और धीरे धीरे लुप्त होने के कगार पर है। लिखित साहित्य को भी मुख्य धारा में स्थान बनाने में संघर्ष करना पड़ रहा है। जो गिने चुने साहित्यकार हैं, उनकी रचनाओं को एक वृहद संसार मिलेगा और उनका स्वर देश-देशान्तर में पहुंचेगा।

         आदिवासी समाज में धर्मांतरण एक बहुत बड़ा विषय है। जितनी तेजी से ईसाई मिशनरियाँ इन दुर्गम क्षेत्रों में पहुँचकर अपना अभियान चला रही हैं, वह सुरसा की तरह विकराल होता जा रहा है। मैं जब सोनभद्र में कार्यरत था तो देखा करता था कि स्वास्थ्य और शिक्षा तथा पोषण को दृष्टिगत कर मिशनरी के लोग आदिवासियों को धर्मांतरित करते रहते थे और जब तब इसके लिए अभियान चलाते थे। आज देश में आदिवासी, ईसाइयों के सबसे आसान शिकार हैं। द्रोपदी मुर्मू बनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ी रही हैं और आदिवासियों की विभिन्न समस्याओं से बखूबी परिचित हैं। उन्हें इस समुदाय की आशाओं/आकांक्षाओं का ज्ञान है। वह आदिवासी समुदाय की महिला नेता और अध्यापक रही हैं। यह सब कुछ उन्हें बहुत संवेदनशील, मर्मज्ञ और चुनौतियों के प्रति सदय बनाता है।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में

यद्यपि देश का एक अन्य बौद्धिक वर्ग तंज़ करते हुए यह कह रहा है कि राष्ट्रपति रहते हुए दलितों का जितना उपकार रामनाथ कोविन्द ने किया, आदिवासियों का द्रोपदी मुर्मू करेंगी। इस तंज़ में कोई सकारात्मक भाव नहीं है। रामनाथ कोविन्द के सर्वोच्च पदासीन होने का एक प्रतीकात्मक महत्त्व है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव कम और अप्रत्यक्ष प्रभाव अधिक है। समाज के शोषित, वंचित समुदाय का आत्मविश्वास प्रबल होता है, उन्हें यह विश्वास होता है कि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में वह भी देश का महामहिम बन सकते हैं। स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारे देश में यह एक शानदार पहल हो रही है कि आदिवासी समुदाय की एक महिला को पहली बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने का अवसर मिल रहा है। समूचे विश्व को इस पहल का स्वागत करना चाहिए।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप का ऑनलाइन लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

9838952426

royramakantrk@gmail.com

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

चंडीदास और चार आम

ओड़िया कवि चंडीदास की कविता में राधा, कृष्ण के साथ रति के प्रगाढ़ क्षणों में भी व्याकुल रहती हैं कि यह मिलन चरम पर होगा और फिर विरह ही शेष रहेगा।

आम के साथ भी ऐसी ही भावना साथ चल रही है। #चार_आम के साथ संसर्ग हो रहा होता है कि 'जल्दी ही आम के

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

दिन चले जायेंगे', भाव उमगता रहता है।

सोमवार, 4 जुलाई 2022

रामचरितमानस में प्रकृति की पहचान


    मैं राम की वानर सेना की कल्पना कर बहुत मुदित हो जाता हूँ। प्रत्यक्षत: वानर देख, उनकी प्रकृति का अवलोकन करता हूँ तो यह मोद और बढ़ जाता है।
    रामसेतु पार करने के क्रम में कई कपि उड़तेहुए जाने लगे। सेतु समीप जुटे जलचरों पर चढ़कर, कूदते फाँदते बढ़ गये। और राम-लक्ष्मण? दोनों को पता है! -
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई।
बिहँसि चले कृपाल रघुराई।।
सेन सहित उतरे रघुवीरा।
कहि न जाइ कपि जूथप भीरा।।
       प्रकृति की पहचान हो तो प्रबन्धन आसान हो जाता है। दोनों भाइयों ने यह शानदार तरीके से कर रखा है। इसलिए अगला आदेश भी मनोबल बढ़ाने वाला है -
खाहु जाहि फल मूल सुहाए।
    और फिर वानरों, कपि और भालुओं ने खूब मनमानी की। कुछ खाया, कुछ फेंका। इस उद्योग से उनकी थकान मिट गयी।



#लंकाकाण्ड

शनिवार, 2 जुलाई 2022

कविता : चार_आम

#चार_आम पर मेरी कालजयी कविता पढ़िए- #चार_आम


सुबह हुई, नाश्ते में मार दिए चार आम

और थोड़ा दिन चढ़ा तो नाप दिए चार आम।


दोपहर में भोजन के साथ लिए चार आम

जब थोड़ा लेटे तो सपने में चार आम।


शाम को आम आम कह कह के चार आम।

गदबेला में राम राम कह कह के चार आम।


रात को भिगो दिए बाल्टी में चार आम

और रात बीती तो चू गए चार आम।


हरे राम हरे राम कहकह के चार आम

हुए थोड़ा दक्खिन से वाम तो चार आम।


पका आम देखा तो चिंचोड़ दिए चार आम

मार दिया पालथी, निचोड़ दिए चार आम।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष


- डॉ रमाकान्त राय

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

चार _आम और मिर्जा गालिब

 "मिर्ज़ा ग़ालिब" नाम से जो टीवी बायोपिक है, उसमें मिर्ज़ा आम खा रहे हैं। एक सज्जन यह कहकर कि वह आम नहीं खाते, महफिल में हैं।


तभी कहीं से एक गधा उन लोगों के पास आता है। हजरात कहते हैं- "गधे ने आम सूंघकर छोड़ दिया। मिर्ज़ा, आम तो गधे भी नहीं खाते।"

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष


मिर्ज़ा कहते हैं- "गधे हैं, तभी आम नहीं खाते।"


#चार_आम

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.