कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 02
-ऋषिकेश कुमार
"अकेला निर्माण ?
वह भी है,
अगर उसकी चाह
सभी के कल्याण के हित
छोड़ी गई हो।”
-‘अज्ञेय’
आधुनिक काल के प्रसिद्ध आर्ष-मनीषा के
अन्वीक्षक आख्याता, सारस्वत साधना के साधक, ललित निबंध लेखक, ‘देशी’ क़िस्म
के ग्रामीण बुद्धिजीवी, चिंतक, आचार्य कुबेरनाथ राय हिन्दी साहित्य में अपने
ढंग से अकेला निर्माण करने वाले लेखक हैं, जिनके यहाँ सभी के कल्याण की भावना निहित
है। कुबेरनाथ राय ने बदलते समय और परिवेश को ध्यान में रखते हुए, भारतीय चिंतन परंपरा
में जहां सुधार कि गुंजाइश दिखाई दी वहाँ सुधार हेतु सुझाव दिए और जहां व्याख्या की
आवश्यकता थी, वहां संदर्भ सहित व्याख्या की। “नीलकंठ की नगरी
वाराणसी और प्राग-भारती का प्रभामय प्रांगण कामरूप दोनों कुबेरनाथ राय के स्वाध्याय
और वांग्मय तपस्या का केंद्र हैं। प्रसन्न पुण्य सलिला भगवती भागीरथी ने कुबेरनाथ को
‘रस’ प्रदान किया तो असम की आत्मीयता ने उनको ‘तत्त्वबोध’ कराया । दोनों का मंजुल सामंजस्य
श्री कुबेरनाथ राय की लेखनी में विद्यमान है ।”[1] जिसका
आनंद पाठक ले सकते हैं लेकिन हाँ, शर्त यह
है की पाठक को सजग रहना होगा अन्यथा कुछ खास प्राप्त नहीं होने वाला है । जिस लेखक
को “अपनी भाषिक संस्कृति का आदर्श तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ से मिला है ।”[2] जो यह
साफ शब्दों में लिखता हों कि “ मेरा उद्देश्य रहा है पाठक के चित्त को परिमार्जित भव्यता
देना और साथ ही उसकी चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना ।”[3] उनके प्रति
सतर्क तो रहना ही पड़ेगा अन्यथा कुछ हाथ नहीं आने वाला है, ‘परिमार्जित भव्यता, चित्त-ऋद्धि
का विस्तार’ तो दूर की बात है । कुबेरनाथ
राय के साहित्य के मर्मज्ञ और गांधीवादी विचारक डॉ मनोज राय अपने आलेख ‘लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए’ में लिखते हैं कि
“श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि
उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके
निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने
से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय
ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है । यह लगभग असामान्य
घटना है । उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों
का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो ।”[4]
कुबेरनाथ राय विषय के अनुसार, उसकी स्वभाविक अभिव्यक्ति के अनुरूप शैली ग्रहण करते
हुए अपने चिंतन प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों पर ललित निबंध लिखा
आत्मकथात्मक शैली में, गांधी जी के विचारों को केंद्र में रखकर निबंध लिखा पत्रात्मक
शैली में, असम के प्रकृति को केंद्र में रखकर निबंध लिखा संस्मरणात्मक शैली में। कुबेरनाथ जी का
उदेश्य साफ था, सोचने समझने वाला पाठक तैयार करना है न कि ‘आधुनिक चरण’ रखने वाला पाठक
। अपने निबंध संग्रह ‘किरात नदी में चन्द्र मधु’ में कुबेरनाथ राय लिखते हैं- “पुस्तक
का प्रथम उद्देश्य है ‘भारतीय संस्कृति के अन्दर आर्येतर तत्वों की महिमा का उद्घाटन।
द्वितीय उदेश्य है किरात तन्मात्राओं (रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द) का स्वाद हिंदी पाठक
के लिए सुलभ करना ।”[5] ताकि वह उन महानुभावों के सामने सीना तान कर खड़े
हो कर उन्हें बता सके, जब वे कहते हों की भारत को ‘भारत’ हमने बनाया है। जब तक समाज
के लोगों को पता नहीं होगा कि भारत जिसमें हम रहते हैं, इसमें मेरा क्या है? मेरे पूर्वजों
का क्या योगदान है? जब तक वह जान नहीं लेगा तब तक वह बस, रेल आदि को जलाता ही रहने
वाला है। क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि जिसे वह जला रहा है वह तो उसकी अपनी, अपने
पूर्वजो की धरोहर है। उसे तो यह बताया गया है कि तुम अल्पसंख्यक हो, तुम शोषित हो,
तुम्हें सुविधाओं से जान बूझकर वंचित रखा गया है। किन्तु कुबेरनाथ अपने चिंतन मनन के
बाद उन्हें बताते है- “मैं सत्त्ताईस-अट्ठाईस वर्ष हिन्दी क्षेत्रों से बाहर रहा
और मैंने पग-पग पर अनुभव किया कि भारतवर्ष को ‘भारतवर्ष’ बनाने की प्रक्रिया में पिछड़े
से पिछड़े वर्ग का भी सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक योगदान रहा है। सबने मिल जुलकर इसके
इतिहास, इसकी भाषा और इसकी संस्कृति की रचना की है और सहस्राब्दियों से इसका लोक-जीवन
दर्शन और रस-बोध की दृष्टि से सबने मिलजुलकर हमारी एक अलग ‘पहचान’ बनायी है”।[6] पर आज
की विडम्बना यह है कि इस ‘पहचान’ को पहचानने वाले कम हैं और जो उनको भारत की पहचान
कराने की क्षमता रखते भी हैं, उन पर आरोप लगाया जाता है कि उनके निबंध के विषय और उसमें
उपयोग किए गए शब्दों के कारण पाठक को पढ़ने समझने में कष्ट होता है! यह बात किसी और
लेखक के बारे में नहीं कुबेरनाथ राय के बारे में वे लोग कहते हैं जो न तो कुबेरनाथ
राय जी को पढ़ते हैं न उनपर कार्य करने वाले लोगों को। युवा आलोचक डॉ. रमाकांत राय,
कुबेरनाथ राय के लेखन के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “कुबेरनाथ
राय के निबंधों में पण्डिताई कूट-कूट कर भरी हुई है। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक
है। उनके निबंधों में भारतीय और पाश्चात्य, दोनों
सन्दर्भ खूब आते हैं। भारतीय पौराणिकता का पूरा सम्मान करते हुए अपने बहाव में वे वेद, उपनिषद्, पुराण और लौकिक साहित्य से उद्धरण और उदाहरण
देते चलते हैं। उनकी प्रस्तुति इस उदाहरणों में उदात्तता से भरपूर होती है। वे भारतीय
संस्कृति के उन मौलिक तत्त्वों की ओर लगातार संकेत करते चलते हैं, जिन्हें हमने अपने क्षुद्र स्वार्थों और जीवन की जटिलताओं से घबराकर सरलीकृत
कर लिया है”।[7] और जो हर क्षेत्र में ‘सरलीकृत’
विचार-दृष्टि अपनाता है वह सत्य से दूर, बहुत दूर रह जाता है।
निबंधकार के कुछ अपने महत्वपूर्ण दायित्व हैं। कुबेरनाथ राय के शब्दों में- “निबंधकार का
एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना।
यदि वह पाठक के बौद्धिक स्तर को ही लक्ष्मण रेखा मानकर चलेगा तो यह संभव नहीं है ।”[8]
कुबेरनाथ राय अपने और लेखक के दायित्वबोध को जानने और समझने वाले रचनाकर हैं। अपने दायित्वों
के सम्बन्ध में वह लिखते हैं- “मैं शुद्धतः ललित निबंधकार हूँ और लालित्य के साथ बौद्धिक
रस का सम्प्रेषण एवं इसके द्वारा पाठक के मानसिक क्षितिज का विस्तार, यही मेरा उद्देश्य
रहा है ।”[9] उनके यहाँ
कोई लाग लपेट नहीं। बहुत साफ शब्दों में बता देते हैं कि मेरा उद्देश्य क्या है । असल
में कुबेरनाथ राय के लेखन का आरंभ ही चुनौती से होता है। उन्हीं के शब्दों में- “बचपन
में कभी लिखता था– ‘माधुरी’, ‘विशाल भारत’ आदि अच्छे पत्रों में। बीच में मौन रहा।
सन् 1962 में प्रोफेसर हिमायूँ कबीर की इतिहास सम्बन्धी ऊलजलूल मान्यताओं पर मेरा एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध
को पढ़कर पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में
धनुष बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक-उत्तरदायित्व के प्रति सजग
था। मैं सरस्वती में लगातार लिखने लगा।”[10] ‘बीच
में मौन’ अकारण नहीं था, सकारण था। जब
चीजें अपने वश में नहीं रहतीं, तब हमें अपनी जीवनचर्या पर रूक कर विचार करना चाहिए। कुछ समय के लिए रूकना
भी पड़े तो रुक जाना चाहिए। रुकना भी एक तरह का बदलाव है। हम रुकते हैं, चिंतन मनन करने के लिए, नई योजना बनाने के लिए। बदलते
समय और समाज में अपने को क़ायम रखने के लिए, परिवर्तित काल में
अपने को लगातार परिष्कृत और परिमार्जित करने के लिए। हमें अपने को समय के साथ बदलना
बहुत जरुरी है। सकारात्मक मौन परिष्कृत और
परिमार्जित रूप में ‘प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बांसुरी, विषाद योग,
पर्ण मुकुट , महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन पवन की नौका, किरात नदी में
चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु, मराल , उत्तरकुरु, चिन्मय
भारत, वाणी का क्षीरसागर, कंथामणि, अंधकार में अग्निशिखा, रामायण महातीर्थम और आगम
की नाव’ लेकर उपस्थित होते हैं। जिसमें “भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान,
अर्थात भारत की सही ‘आइडेन्टिटी’ का पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हज़ार वर्षों से आत्महीनता
की तमसा में आबद्ध रहे हैं, इस बात को जाने कि यह भारत और भारतीयता का उत्तराधिकार
उनके ही ‘महिदास’ जैसे पूर्वजों की रचना है और इस तथ्य को जानकर वे अपने खोए आत्म-विश्वास
को प्राप्त करें, उनका सुप्त आत्मबल पुनः जागे”।[11]
कुबेरनाथ
राय ने रामायण और राम को केंद्र में रखकर जितने
भी निबंध लिखे उन सब के उदेश्य उनके सामने साफ थे। उन्होंने अपने ‘त्रेता का बृहत्साम’
निबंध संग्रह में लिखा कि “पुस्तक का उदेश्य राम भक्ति का प्रचार नहीं है, बल्कि ‘रामत्व’
की कुछ विशिष्टताओं का उद्घाटन है। ... रामत्व के उस सौन्दर्य का उद्धाटन जो तप, संकल्प, पुरुषार्थ,
त्याग, ज्ञान और तेज से जुड़ा है।”[12] ‘तप,
संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज कुबेरनाथ राय का व्यक्तित्व है जिसे राम के
समान ही तिरस्कृत किया गया है। उस समय के प्रसिद्ध आलोचक साहित्यकार आदि में कुछ को
छोड़ कर सब ने उनके साथ, राम, गाँधी और भारतीय जनता के साथ अन्याय किया, पाप कर्म किया।
पर कौन सोचता करता है इस ओर? साहित्य जगत में आज तो ‘हम सुन्दरी हमार पिया सुन्दर और
गऊंआ के लोग बनरा बनरी’ यही देखने को मिलता है। आज भी उनका ही बोलबाला है जिन्होंने
देह का साहित्य में सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया । जब तक, वे थे; देह का आनंद लेते रहे!! अब जो तब उनके सहयोगी थे देह विमर्श पर चर्चा करते
नहीं थकते!! इसओर, इस चिंतन की ओर कितनों ने ध्यान दिया जो आत्मा को उन्नयन की ओर
ले जाए, जिससे हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि “हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य
की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं, उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने
और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का विशेषतः
साहित्य का मूलधर्म है ।”[13] किन्तु उपभोक्तावादी दृष्टिकोण वाले लोगों को देह से फुर्सत ही कहाँ है जो ‘चित्त’
की ओर दृष्टि डालें!! टॉलस्टॉय ने लिखा- “कला का लक्ष्य है नैतिक परिपूर्णता।”[14] कुबेरनाथ
राय भी लिखते हैं “साहित्य की नींव है ‘शील’, इसके गर्भगृह की प्रतिमा है ‘रस’ पर,
शिखर कलश है; एक ‘आत्मिक निरुजता और मुक्ति’ जिसे पुरानी भाषा
में कहा गया है । सौन्दर्यबोध मध्य की कड़ी- ‘हीर’ या ह्रदय होते हुए भी आदि और अन्त
के संकेतों से रिक्त होने पर त्याज्य है।”[15] किन्तु
तथाकथित लोगों ने कुबेरनाथ के लेखन को ही उपेक्षित कर दिया !! क्योंकि कुबेरनाथ राय
ने जितना लिखा, जहाँ बोले, जिस किसी को भी जबाब दिया दो टूक जबाब दिया। मिसाल के तौर
पर उनके निबंध ‘मराल’ की भूमिका में वह लिखते हैं- “निबंधकार फ़िल्म-निर्माता नहीं है।
उसका कर्तव्य है कि वह फ़िल्म-निर्माता से भिन्न हो कर सोचे। वह तो अंतिम विश्लेषण में
अध्यापक है। उसका काम है मन बुद्धि के आयामों को विस्तार देना- शब्दों और संदर्भों
के माध्यम से।...मैंने अपनी क्षुद्र सामर्थ्य में जो कुछ किया है वह पाठक के भाषिक
क्षमता को समृद्ध करने और उसे अपनी देशी भाषिक संस्कृति से मूल-संलग्न करने की दृष्टि
से किया है।”[16]
बदलते समय और परिवेश के साथ गौरवशाली चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाना एक चुनौती
भरा कार्य रहा है। इस मंगल चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाने
का कार्य इस देश के चिंतक, समाज-सुधारक, साहित्यकार आरम्भ काल से करते चले आ रहे हैं। इस चिंतन परंपरा में कुबेरनाथ
राय का योगदान भी स्तुत्य है । उन्होंने अपने ललित निबंधों में पुरातन और नवीनतम के
समन्वय के साथ युगबोध के चिंतन, संस्कृति की परिवर्तनशीलता,
लोकसंस्कृति की झांकी, मानव मूल्यों के बनते-बिगड़ते
संबंधों और तिथि पर्वो को अपने निबंधों में स्थान देकर भारतीय चिंतन परंपरा को सुदृढ़
किया है । कुबेरनाथ राय के निबंधों को पढ़ने के
बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है वह यह कि ‘भद्र मनुष्य अपने मांगलिक कोष से मंगलमय वस्तुओं
को प्रस्तुत करता है’।
[1] कुबेरनाथ
राय, मराल, पृष्ठ संख्या –4
[2] कुबेरनाथ
राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[3] कुबेरनाथ
राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[4] डॉ. मनोज राय, लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ
राय को पढ़ते हुए- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
[5] कुबेरनाथ राय, किरात नदी में
चन्द्रमधु - 155
[6] कुबेरनाथ राय, उत्तरकुरु, पृष्ठ संख्या- 9
[7] डॉ. रमाकांत राय, रस आखेटक : ललित निबन्ध का रम्य दारुण स्वर-
मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
[8] कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या- 348,49
[9] कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या-
338
[10] कुबेरनाथ
राय, प्रिया नीलकंठी, पृष्ठ संख्या-
126
[11] कुबेरनाथ
राय, निषाद बांसुरी, पृष्ठ संख्या- 262
[12] कुबेरनाथ
राय, त्रेता का बृहत्साम, पृष्ठ संख्या-
7
[13] कुबेरनाथ राय, कामधेनु, पृष्ठ संख्या- 8
[14] तोलस्तोय- कला क्या है, 55
[15] कुबेरनाथ राय, पर्ण–मुकुट, पृष्ठ संख्या- 216
[16] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या- 8
ऋषिकेश कुमार |
(ऋषिकेश कुमार युवा हैं, उत्साही किन्तु पर्याप्त संकोची। वह सुरुचि सम्पन्न पाठक हैं। मिथक, सौंदर्य और प्रेम के विषय उनके प्रिय क्षेत्र हैं। वह मूलतः औरंगाबाद, बिहार के
हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई की है
और वर्तमान में जामिया मिल्लिया
इस्लामिया, नयी दिल्ली में "कुबेरनाथ राय के निबंधों में मिथक और सौंदर्य का अध्ययन" विषय पर शोधरत हैं। मेरा गाँव मेरा देश ब्लॉग पर यह उनका पहला आलेख है।)