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मंगलवार, 17 सितंबर 2019

कथावार्ता : ढेलहिया चौथ- 2

"की हम सांझ क एकसर तारा, की भादव चऊथ क ससि।
इथि दुहु माँझ कओन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।"
(विद्यापति की नायिका (राधा) कहती है कि क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ या भाद्रपद महीने के चतुर्थी का चंद्रमा, जो प्रभु (श्रीकृष्ण) मुझे न तो देखते हैं न मुझपर हँसते हैं।)

भाद्रपद के चतुर्थी के चंद्रमा को देखने की मनाही है। कहते हैं- इसे देखने पर कलंक लगता है। श्रीकृष्ण ने इसे गलती से देख लिया था तो उनपर स्यमंतक मणि की चोरी का कलंक लग गया था और उसके चक्कर में उन्हें जाम्बवती से विवाह करना पड़ा।

कथा है कि जब सत्राजित ने सूर्य की उपासना की तो उसे दिव्य मणि स्यमंतक उपहार में मिली। इस मणि को सब पाना चाहते थे। द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सत्राजित से उस मणि को पाने की इच्छा प्रकट की तो सत्राजित ने इसका अनादर किया और मणि अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। प्रसेनजित मणि लेकर शिकार के लिए वन में गया तो वहाँ उसे सिंह ने मार डाला। सिंह मणि लेकर चला ही था कि जाम्बवंत ने उसे मारकर मणि छीन ली। इधर जब लम्बी अवधि तक प्रसेनजित घर नहीं लौटा तो सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर लांछन किया कि मणि के लोभ में उन्होंने प्रसेनजित को मार दिया है। श्रीकृष्ण इसका पता लगाने निकले और सिंह द्वारा प्रसेनजित को मार डालने का साक्ष्य जुटाया।

इस क्रम में उन्हें जाम्बवंत की गुफा का पता चला और वह मणि की तलाश में जाम्बवन्त से भिड़ गए। गुफा के भीतर 21 दिन तक युद्ध होता रहा। तब जाम्बवन्त को प्रभु के कृष्णअवतार का अन्देशा हुआ। यह पता लगते ही रीछराज ने अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया और उपहारस्वरूप वह मणि दी।

कृष्ण ने वह मणि लौटाकर कलंक दूर किया। सत्राजित ने अपप्रचार से  लज्जित हो अपनी पुत्री का विवाह कृष्ण से कर दिया। हालांकि यह प्रकरण आगे भी बन्द नहीं हुआ। जब श्रीकृष्ण एक बार इन्द्रप्रस्थ गये तो अक्रूर की राय पर शतधन्वा ने सत्राजित को मारकर मणि हस्तगत कर ली। कृष्ण तत्काल लौटे। बलराम की मदद से वह शतधन्वा पर आक्रमण करने की तैयारी ही कर रहे थे कि उसने मणि अक्रूर को दे दी और भाग गया। शतधन्वा मारा गया किन्तु मणि न मिली। क्षोभवश बलराम विदर्भ चले गए तो श्रीकृष्ण पर पुन: कलंक लगा कि मणि के लालच में उन्होंने भाई को भी त्याग दिया है।

श्रीकृष्ण इस समूचे घटनाक्रम से व्यथित थे। तब महर्षि नारद ने उन्हें बताया कि वास्तव में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा को देखने से लांछित होना पड़ रहा है। उन्होंने गणेश जी की आराधना करने को कहा। पूजन के उपरांत श्रीकृष्ण इससे मुक्त हो सके।

बात यह है कि गणेश जी की भूमिका कहाँ से है?

हुआ यूँ था कि गणपति की उपासना ब्रह्मा ने की और वर मांगा कि मुझे इस सृष्टि की रचना का कभी घमंड न हो। विनायक ने तथास्तु कहा। इसपर चन्द्रमा ने गणपति के रूप-रचना की खिल्ली उड़ाई। गणपति ने चन्द्रमा को शाप दे दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।

बस चन्द्रमा को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह जाकर कुमुदनियों के बीच छिप गया। तीनो लोक में खलबली मच गयी। तब ब्रह्मा के कहने पर गणेश ने शाप में रियायत कर दी और इसे इस एक दिन के लिये नियत कर दिया। इस दिन चांद देखने पर कलंक लगना तय है।

लोक ब्रह्मा और गणपति से बड़ा स्रष्टा है तो उसने इस कलंक से मुक्ति के लिये उपाय खोज लिया। मान्यता है कि अगर किसी ने इस तिथि के चांद को देख लिया है तो उसे चाहिए कि वह पड़ोसी के छत पर पत्थरबाजी करे। पड़ोसी इस हरकत से खिन्न होकर गालियां देगा। यह गाली उसे कलंक मुक्त कर देगी। पत्थर/ढेला फेंकने से कलंक मुक्ति का उपाय इतना रोचक और मनोरंजक हो गया कि कालांतर में यह चतुर्थी लोक में ढेलहिया चौथ के रूप में विख्यात हो गयी।

गणपति का दिन इस तरह भी लोक में प्रचलित है। हमने आज शाम चाँद देख लिया। देखने के बाद याद आया कि नहीं देखना था। हर बार यही होता है। अब उपाय एक ही है- पत्थरबाजी। लेकिन यह पत्थरबाजी stone pelting नहीं है!

आप सबको गजानन, विघ्न हर्ता भगवान गणेश की तिथि पर हार्दिक शुभेच्छा!

सोमवार, 9 सितंबर 2013

ढेलहिया चौथ- गालीगलौज वाला चौथ


कि हम सांझ क एकसर तारा, कि भादव चौथि क ससि।
इथि दुहु माँझ कवोन मोर आनन, जे पहु हेरसि न हँसि।।-विद्यापति
     
    आज ढेलहिया चौथ है। आज चाँद को देखने पर दोष लगता है। कहते हैं कि गणेश जी कहीं जा रहे थे और फिसल कर गिर पड़े थे। ऐसा देखकर चन्द्रमा को हँसी आ गयी। अपनी उपेक्षा से आहत गणेश ने चन्द्रमा को शाप दे दिया। गणेश ने चंदमा को कहा कि आज से जो तुम्हें भूलवश भी देख लेगा, उसे मिथ्या कलंक लगेगा।  ब्रह्मा के कहने पर चंदमा ने गणेश की आराधना की। इसके बाद गणेश ने अपने शाप को इस तिथि तक ही सीमित कर दिया।  भूलवश इस दिन चाँद देखने पर कृष्ण को भी कलंक लग गया था। स्यमंतक मणि की चोरी का कलंक। विद्यापति की राधा बहुत दुखी हैं। वे कृष्ण की उपेक्षा से दुखी हैं। कहती हैं- क्या मैं शाम का एकाकी तारा हूँ (यह तारा उदासी का प्रतीक माना जाता है) या भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का चाँद? इन दोनों में मेरा मुँह किस तरह का है? न प्रभु मुझे देख रहे हैं न मुझ पर हँस ही रहे हैं? 
     हमारी तरफ आज के दिन प्रचलित है कि चाँद नहीं देखना चाहिए। अगर गलती से देख भी लिया तो चाहिये कि किसी की गाली सुन लें। सब इस दिन मजे का दिन बना देते थे। कभी किसी की खपरैल पर ढेला फेंक कर या चिढ़ा-चिढ़ाकर गाली सुनने का बहाना खोजते थे।
     आज मैंने न चाहते हुए भी देख लिया है। शाम को लौट रहा था तो याद था कि चाँद नहीं देखना है और यही याद करना मुझे ललचा गया। मैंने उसे देख लिया।
अब क्या करूँ? वैसे मैं इस तरह के अन्धविश्वास में नहीं पड़ा कभी भी। लेकिन आज मन कर रहा है कि इस कलंक को अपने सिर न चढ़ने दूँ। क्या करूँ?
    अब तो हममें वह सहनशीलता भी न रही कि गालियाँ सुनकर पचा लें या उसमें आनन्द तलाश लें। गाली देने वालों में भी वह साहस न रहा। सब बड़ा नकली-नकली टाइप का हो गया है। बनावटी।
   मुझे मेरे बचपन के दिन याद आ रहे हैं। बेतहाशा।

सद्य: आलोकित!

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