शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
शोध की नयी पत्रिका
शनिवार, 4 सितंबर 2010
हमारा शहर इलाहाबाद
इस शहर में रहने वाले दावा तो करते हैं कि वो बुद्धिजीवी हैं लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि ये शहर अभी संक्रमण से गुजर रहा है।
यहाँ स्त्री विमर्श पर बात करने वाले लोग स्त्री अधिकारों का मखौल उड़ाते नज़र आयेंगे।
आधुनिकता पर चर्चा करने वाले लोग दूसरों कि जिंदगी में ताक झांक करते नज़र आयेंगे।
और सबसे खास बात ये कि चटखारे लेकर वैयक्तिक मामलों में उलझते नज़र आयेंगे।
मुझे बहुत तरस आता है, जब मैं ये देखता हूँ कि अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी इस रस चर्चा में भागीदार होते हैं और कहने को मासूम और सयाने एक साथ नज़र आयेंगे।
खैर,
जैसा भी है, अपना शहर है और हम इसे बहुत चाहते हैं।
आमीन!
एक शेर कहूँगा -
सलवटें उभरती हैं दोस्तों के माथे पर
बैठकर के महफिल में मेरे मुस्कराने से.
शनिवार, 1 मई 2010
नीलमशंकर और उनकी कहानी का नया संग्रह, "सरकती रेत".....
गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
आज पुस्तक चर्चा में मेरी भागीदारी पर कुछ बातें.
इलाहबाद विस्तार केंद्र पर नयी कथाकार नीलम शंकर के कहानी संग्रह "सरकती रेत" पर पुस्तक चर्चा आयोजित है। वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय, कहानीकार,उपन्यासकार और आलोचक दूधनाथ सिंह, कवि बद्रीनारायण जैसे लोगों के बीच मैं भी चर्चा करूँगा।
यह पहली बार होगा कि मैं किसी बड़े मंच से किसी पुस्तक पर चर्चा करता नज़र आऊंगा।
मैं इस होने वाली परिचर्चा से बहुत रोमांचित हूँ और थोडा नर्वस भी।
मैं जानता हूँ के यह परिचर्चा मेरे लिए बहुत मायने रखेगी।
आमतौर नीलम जी कि कहानी में मध्यवर्ग का जो चित्रांकन है मैं उसपर बात करूँगा।
मैं चाहूँगा बात करना कि उनकी कहानी में स्त्री का कैसा चित्रण है।
मैं कल जब चर्चा करके आऊंगा तो आपको विस्तार से इसके बारे में बताऊंगा।
मैं जानता हूँ के यह बहुत चुनौती पूर्ण है क्योकि कोई भी टिपण्णी मुझे आधार रूप में रखना है.....
मेरे लिए ये करना संभव होगा????????
देखेंगे, लाजिम है के हम भी देखेंगे............
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
फ़ैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म....
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उन गिने चुने शायरों में हैं जिन्होंने अपनी शायरी में शोषितों और दलितों कि आवाज़ पुरजोर तरीके से उठाई है। जनरल अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ आवाज़ बुलंद करती ये नज़्म.....
हम देखेंगे
लाजिम है की हम भी देखेंगे.
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिख्खा है
जब जुल्म-ओ-सितम के कोहें-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-खुदा के काबे सेसब बुत उठवाये जाएंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरममसनद पे बिठाये जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे सब तख्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंजर भी है नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनल-हक का नाराजो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदाजो मैं भी हूँ और तुम भी हो.
हम देखेंगे
लाजिम है की हम भी देखेंगे.
हम देखेंगे
लाजिम है की हम भी देखेंगे.
कोक स्टूडियो की यह शानदार प्रस्तुति देखिए।
https://youtu.be/unOqa2tnzSM
मंगलवार, 26 जनवरी 2010
एक छोटी सी बात
आज लोकतंत्र का उत्सव पर्व है और आज ही मुझे मौका मिला कि मैं रक्तदान करूँ.
हालांकि मुझे थोड़ी सी हिचकिचाहट हुई , अरे नहीं! इसलिए नहीं कि मैं डरा,बल्कि इसलिए कि कल मेरी एक परीक्षा है
और मुझे कल ही २ दिन की लिए दिल्ली भी जाना है।
वहां भी एक परीक्षा है और फिर वापस ३१ को इलाहबाद में।
तो मैं डरा।
लेकिन चुकी ये एक अच्छा मौका था कि इस दिन एक काम हो जो यादगार हो तो मैंने किया।
और ये भी कि मैं बिलकुल ठीक हूँ।
बाकी कि बातें ३१ की बाद.....
मंगलवार, 12 जनवरी 2010
मेरे गांव को जानिए.....
कल घर जा रहा हूँ।
मेरा अपना घर.
मेरा घर जिस सुन्दर से गाँव में है उसका नाम है- चौरंगी चक ।
ये गाँव गाजीपुर जिले में है।
जब आप बनारस से बिहार की लिए निकलते हैं और सीधा रास्ता चुनते हैं तो आपको तकरीबन ८० किलोमीटर के बाद ये जनपद मिलेगा।
गाजीपुर जिन कुछ चीजों के लिए भारत भर में जाना जाता है उनमे एक तो है अफीम फैक्ट्री।
जिस एक साहित्यकार ने यहाँ की धरती पर जन्म लिया और बहुत प्रसिद्धि पाई उनका नाम है राही मासूम रज़ा।
अरे! राही मासूम रज़ा का नाम नहीं जानते?
आधा गाँव नहीं पढ़ा क्या?
टोपी शुक्ला?
महाभारत तो देखा होगा? अरे वही जिसे बी आर चोपड़ा ने निर्देशित किया था।
तब तो आपको जरुर पता होगा की उसके संवाद राही मासूम रज़ा ने ही लिखे थे।
अगर आपने दूरदर्शन पर नीम का पेड़ धारावाहिक देखा है तो आपके लिए ये नाम अनजाना नहीं होगा।
खैर,
अभी बस इतना ही राही मासूम रज़ा के बारे में।
मेरा जिला कार्नवालिस की अंतिम साँसे गिनते देख कर जहाँ बहुत ही खुश हुआ था वहीँ कई शहीदों की क़ुरबानी का पुन्यस्थल भी बन के गौरवान्वित हुआ था।
१९७१ के अमर शहीद अब्दुल हमीद का नाम तो आपको पता ही है, अब उनके नाम पर गंगा के ऊपर से गुजरने के लिए पुल है।
बहरहाल।
अब तक आपका परिचय हो गया होगा।
तो कुछ अपने गाँव के बारे में!
जिला मुख्यालय से कोई १३ किलोमीटर की दूरी पर शाहबाज़ कुली मिलेगा। यहाँ १९०२ में ही रेल का स्टेशन बन गया था। बस के रास्ते से भी जाया जा सकता है।
गंगा नदी के तट पर ही है।
वहां से कोई एक किलोमीटर की दूरी पर उत्तर की ओर रेल लाइन पार करके सीधे मेरे गाँव जाया जा सकता है।
चारो ओर से प्रकृति के अद्भुत नज़ारे से घिरा ये गाँव हमेशा से ही मेरे लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। मैं जब भी अपने इस गाँव की बात करता हूँ, मुझे भवभूति की लिखी और राम द्वारा कही उक्ति याद आती है- जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
कल जब मैं अपने गाँव जाऊंगा तो मेरे जिम्मे कई काम होंगे।
मैं घर से लौट कर जब आऊंगा तो आपको बताऊंगा की मेरे गाँव में इस कडकडाती ठण्ड से लड़ने के लिए लोग क्या कर रहे हैं।
मैं पक्का जानता हूँ की वहां मुझे गन्ने का रस, मटर की घुघुनी और अलाव में भुना हुआ आलू खाने को मिलेगा।
सद्य: आलोकित!
कथावार्ता : राजेश जोशी की कविता, बच्चे काम पर जा रहे हैं।
सुबह घना कोहरा घिरा देखकर प्रख्यात कवि राजेश जोशी की कविता याद आई - "बच्चे काम पर जा रहे हैं।" कविता बाद में, पहले कुछ जरूरी बाते...
