आज फैज़ की एक नज़्म आपके लिए लेकर आया हूँ।
फ़ैज़ अहमद फैज, उन
गिने चुने शायरों में हैं जिन्होंने अपनी नज़्मों और शायरी में शोषितों और दलितों की आवाज़
पुरजोर तरीके से उठाई है। हालांकि अपनी कविताओं में वह कट्टर धार्मिक व्यक्ति की तरह व्यवहार करते प्रतीत
होते हैं। जनरल अयूब खान की तानाशाही के
खिलाफ आवाज़ बुलंद करती ये नज़्म.....
हम देखेंगे
लाजिम है की हम भी देखेंगे।
वो दिन के जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिख्खा है
जब जुल्म-ओ-सितम के कोहें-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हिकम के सर ऊपर जब बिजली कड़कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाये
जाएंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम मसनद पे
बिठाये जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे सब तख्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी
जो मंजर भी है नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनल-हक का नाराजो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदाजो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
हम देखेंगे
लाजिम है की हम भी देखेंगे।
हम देखेंगे
लाजिम है की हम भी देखेंगे।
कोक स्टूडियो की यह शानदार प्रस्तुति देखिए।
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