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सोमवार, 1 अगस्त 2022

पंच परमेश्वर को पुनः पुनः पढ़ते हुए

प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर सबसे पहले जमाना उर्दू मासिक पत्रिका में मई-जून 1916 में प्रकाशित हुई थी। अगले महीने जून-1916 में मासिक पत्रिका सरस्वती में यह कहानी हिन्दी रूप में आई और प्रेमचंद की कहानियों का संकलन सप्त-सरोज (1917) में शामिल हुई। मानसरोवर के सातवें भाग में यह कहानी संकलित है। प्रेमचंद की यह कहानी कालजयी कहानियों में गिनी जाने लगी है और इसके संवाद का एक अंश- “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?” ने दुनिया भर के पाठकों को उद्वेलित किया है। आज यह कहानी किसी भी भाषा की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली कहानियों में से एक है और तमाम पाठ्यक्रमों में शामिल।

          पंच परमेश्वर न्याय में निरपेक्षता की बात करने वाली कहानी है। न्याय की वेदी पर आसीन व्यक्ति परमेश्वर के समान हो जाता है और समदर्शी हो जाता है। उसकी व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक स्वार्थ से जुड़ी किसी भी तरह की संकीर्णता उस वेदी पर आसीन होते ही तिरोहित हो जाती है। वह सही अर्थों में न्याय करने लगता है। अलगू चौधरी और जुम्मन शेख, दोनों ही ऐसा करते हुए दिखते हैं जबकि मानवीय स्वभाव और दुनियादारी इसके ठीक उलट व्यवहार करती। आज जबकि न्याय की वेदी कटघरे में हैं और आए दिन कोलेजियम, इको-सिस्टम, पक्षधरता आदि की ध्वनियाँ सुनाई पड़ रही हैं, तब यह कहानी और भी प्रासंगिक हो जाती है। क्या बिगाड़ के भय से ईमान की बात न कहोगे?’

          प्रेमचंद की यह कहानी बहुत प्रभावोत्पादक है और उनकी आदर्शवादी कहानियों में से एक मानी जाती है। यह कहानी पढ़ते हुए एक बात बारम्बार ध्यान में आती है कि भारत में संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका की व्यवस्था के समय इस परंपरागत न्याय प्रणाली को अछूता क्यों छोड़ दिया। भारतीय समाज अपने विवाद को स्थानीय व्यवस्था से जैसे सुलझा लिया करता था, उसे न्याय प्रणाली में कोई स्थान क्यों नहीं दिया गया? यद्यपि आज भी पंचायत की व्यवस्था है तथापि उसकी न्याय प्रणाली को मान्यता नहीं है। क्यों?

पंच परमेश्वर कहानी का एक काल्पनिक दृश्य (साभार)

       पंच परमेश्वर कहानी पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता है कि प्रेमचंद इस कहानी का विषय कुछ और लेकर चले थे किन्तु किसी क्षण में यह न्याय और पंचायत की प्रणाली की कहानी बन गयी। कहानी 7 अनुच्छेद में है और प्रथम अनुच्छेद जुम्मन शेख और अलगू चौधरी की गाढ़ी मित्रता और विद्यार्जन की प्रक्रिया के सम्बन्ध में है। “जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था।” यह विश्वास बचपन से ही बना था जब अलगू चौधरी, जुम्मन शेख के पिता जुमेराती के यहाँ विद्याध्ययन के लिए जाया करते थे।

          प्रेमचंद जिस तरह यह शुरुआत करते हैं, वह तथाकथित गंगा-जमुनी तहजीब का आधार बिन्दु है। अलगू चौधरी और जुम्मन के बीच व्यवहार को देखकर यह कहीं भी प्रतीत नहीं होता कि भारतीय समाज में सांप्रदायिक आधार पर अश्पृश्यता और विभेद जैसी कोई चीज थी/है। गाँव में भी लोग किसी भेद को नहीं मानते थे। प्रेमचंद के लेखन में यह एक यूटोपिक सीन है।

अब एक दूसरे बिन्दु से देखें- कहानी में आता है कि जुमेराती जो जुम्मन के पिता हैं; दोनों बालकों, जुम्मन और अलगू को शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरुजी की बहुत सेवा की- खूब रकाबियाँ माँजीं, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से मुक्त कर देती थी।” और जुम्मन? जुम्मन गलत पाठ अथवा पढ़ाई न करने पर छड़ी से पीटे जाते थे। परिणाम यह हुआ कि जुम्मन के “लिखे हुए रिहन नामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम नहीं उठा सकता था।” इस प्रकार अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्या ही से सबके आदर पात्र बने थे।” एकबार प्रश्न उठता है कि क्या जुमेराती शिक्षा देने में भेदभाव करते थे? वह अलगू चौधरी काम में उलझाए रखते थे और जुम्मन को पढ़ाई में? उनका बार-बार हुक्का भरना कफन कहानी के घीसू-माधव की याद दिलाता है जिनमें से घीसू एक दिन काम करता था तो तीन दिन आराम और माधव आध घंटे काम करता और घंटे भर चिलम पीता।

पंच-परमेश्वर कहानी में न्याय का आदर्श है। मित्र होते हुए भी अलगू, जुम्मन का पक्ष नहीं लेते। जुम्मन भी खुन्नस के बावजूद अलगू के पक्ष में फैसला देते हैं। बहुत सोना-सोना सा वातावरण है। मानवीयता, न्याय, सद्भावना, ईमान आदि बातें इस कहानी को पढ़ने पर कौंधती हैं। सब कुछ भला-भला प्रतीत होता है और एक सुखद अंत के साथ कहानी पूरी होती है। पुनः पुनः पढ़ते हुए यह कहानी कुछ दूसरी बातों की ओर सोचने के लिए प्रवृत्त करती है। जुमेराती की शिक्षा पद्धति पर थोड़ी बात हुई है। भीष्म साहनी की एक कहानी है, अमृतसर आ गया है। इस कहानी पर विचार करते हुए एक बार प्रश्न कौंधा था कि क्या होता यदि कहानी में रेल यात्रा अमृतसर से शुरू होती और जेहलम स्टेशन से गाड़ी आगे बढ़ती। क्या होता यदि पंच परमेश्वर कहानी में अलगू चौधरी और समझू सेठ की दोस्ती और न्याय की कहानी चलती। क्या तब भी यह कहानी उसी तरह प्रभावोत्पादक रहती? यह कहानी हिन्दू-मुसलमान समुदाय के दो सदस्यों की कहानी होने से एक अलग भाव बोध को जन्म देती है। उनका साझा भाव इस कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाता है।

पंच परमेश्वर कहानी में जुम्मन शेख ने अपनी खाला की मिल्कियत अपने नाम चढ़ा ली थी और उन्हें बेसहारा छोड़ दिया था। प्रेमचंद की कहानियों में यह प्रसंग बहुधा आते हैं। बूढ़ी काकी कहानी में बुद्धिराम ने भी अपनी काकी की संपत्ति अपने नाम करवा ली थी और उन्हें कलपने के लिए छोड़ दिया था। दोनों कहानियों में खूब पढे-लिखे लड़के हैं। जुम्मन और बुद्धिराम, दोनों। क्या प्रेमचंद इस तरफ भी कोई संकेत करते हैं कि पढ़-लिखकर व्यक्ति अधिक स्वार्थी व्यवहार करने लगता है? इस कहानी में तो जुम्मन शेख अलगू चौधरी से इस कदर रुष्ट हो जाते हैं कि उनके एक जोड़ी बैलों में से एक को जहर दे देते हैं। किसान को चोट पहुंचाने का यह प्रचलित तरीका था। गोदान में होरी की गाय को तो उसका भाई जहर दे देता है। एक अन्य कहानी मुक्ति मार्ग में भी प्रेमचंद ने इसे दिखाया है, जहां झींगुर, बुद्धू की बछिया को जहर दे देता है।

प्रेमचंद के पास कई कथा-रूढ़ियाँ हैं। गोवंश को जहरीला पदार्थ खिला कर मार देना एक विशिष्ट प्रसंग है। यह उनका कथा कौशल है कि वह इन कथा रूढ़ियों को बहुत कुशलता से पिरो देते हैं और उसे कहानी का अनिवार्य और सहज अंग बना लेते हैं। इसके साथ ही प्रेमचंद का एक अन्य कौशल है कि वह अपनी कहानियों में स्थापनाएं बहुत सुचिन्तित तरीके से करते हैं। इस कहानी में उत्तरदायित्व के ज्ञान से उपजी गंभीरता और उससे आए बोध को बहुत स्वाभाविक तरीके से रखा है।

पंच परमेश्वर कहानी, केवल कहानी मात्र नहीं है, यह मनुष्य के बदलते भाव और उसके अनुरूप किए जाने वाले व्यवहार की गाथा है। यह कहानी बार-बार पढ़ी जानी चाहिए ताकि न्याय और उसकी वेदी पर आसीन होने वाले व्यक्ति को इसका बोध हो सके कि उसका कर्तव्य क्या है। उसे बिगाड़ के भय से ईमान का मार्ग नहीं त्यागना है।

(राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)


-   डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश, 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com 


सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

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