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गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

कथावार्ता : नया ज्ञानोदय- अप्रैल,19 अंक

        आज भारतीय ज्ञानपीठ की चर्चित पत्रिका  #नया_ज्ञानोदय मिल गयी। अप्रैल-19 का अंक। कुछ विशेष आ रहा है, ऐसी सूचना आठ दिन पहले मिली थी तो 'हबक' लिया। पढ़ लिया। उत्सुकता शमित हुई तो कुछ दूसरी चीजें भी सरसरी तौर पर गुजरीं। #हैदर_अली का राही मासूम रज़ा पर अच्छा लेख था। विजय बहादुर सिंह ने अष्टभुजा शुक्ल के निबंध संग्रह 'पानी पर पटकथा' की बढ़िया समीक्षा की है। शिवकुमार यादव ने केदारनाथ सिंह के कविता संग्रह 'मतदान केंद्र पर झपकी' पर ठीक ही लिखा है। सुभाष राय की कविताएं पसंद आईं। एक कहानी पढ़ने की कोशिश की। कहानी क्या थी एक तेयम दर्जे का बेसिरपैर वाला रूपक था। संपादकीय पढ़ने पर ध्यान लगाया। खयाल आया कि किसी ने बताया था कि मंडलोई जी की जगह मधुसूदन आनन्द को पद मिला है। देखा- इस बार का संपादकीय शुद्ध राजनीतिक है। मुझे नहीं स्मरण कि ऐसा राजनीतिक सम्पादकीय मैंने कब पढ़ा था किसी साहित्य, संस्कृति और कला को समर्पित पत्रिका में। खैर, सम्पादकीय भी कोई उल्लेखनीय दृष्टि नहीं देता। चुनाव, राजनीतिक दल, इन्दिरा गांधी, संजय गांधी, जूता उठाने, तलवे चाटने का प्रसंग, मोदी, लोकतंत्र पर संकट आदि, इत्यादि। ऐसा ही था।

      यहाँ तक तो ठीक था, सबसे अधिक परेशान हुआ #नया_ज्ञानोदय जैसी पत्रिका में वर्तनी/वाक्य विन्यास की भयंकर भूलों को देखकर। सम्पादकीय में ही "गाँधी" कई बार आया है। सही वर्तनी "गांधी" है। "राफेल" विमान वहाँ "रेफाल" है। कांग्रेस अधिकांश जगह काँग्रेस भी लिखा है।
          हैदर अली के लेख में आधा गांव उपन्यास के पात्र का नाम फुन्नन मियां की जगह "फुन्न" लिखा है। सैफुनिया "सैफनियाँ" हो गयी है।
शिवकुमार यादव के लेख में असाध्य वीणा "असाध्य पीड़ा" अंकित है। सम्भ्रान्तता के स्थान पर "सम्भ्रान्ता" छ्पा दिखा। और भी बेशुमार छपाई की भूल हैं।

             स्तरीय और प्रतिष्ठित मानी जानी वाली पत्रिकायें और प्रकाशन संस्थान भाषा और वर्तनी के प्रति इस कदर लापरवाह हुए हैं, कि एक संस्कृति ही बनती जा रही है। कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में कहें- "हमारे युग का मुहावरा है/ कोई फर्क नहीं पड़ता।"

सोमवार, 28 अगस्त 2017

नया ज्ञानोदय- जुलाई-2017 अंक



#नया_ज्ञानोदय पत्रिका एक अजीब संकल्पना वाली पत्रिका है। उसके विज्ञापन में यह लिखा जाता है कि उसका हर अंक विशेषांक है और वह अपने रचनाकारों के संपर्क में है। ऐसे में 'योजना के बाहर की रचनाओं में विलंब स्वाभाविक है।' ठीक बात है। बाहरी लोगों को इस पत्रिका में जगह कैसे मिलेगी? गुणा-गणित से! सम्पर्क से!! तो रचनाकारों!! नया ज्ञानोदय में छपना है तो इंस्टिट्यूशनल एरिया का चक्कर काटना शुरू कर दीजिए। खैर!! बात यह नहीं करनी है।
बात करनी है, पत्रिका के जुलाई अंक में छपी विविधता भरी कहानियों पर। अव्वल तो समझ में नहीं आया कि "संवाद एकाग्र" पर केंद्रित इस अंक में कहानियों और रचनाओं के चयन का तर्क क्या है?संवाद एकाग्र से क्या आशय है, यह संपादकीय स्पष्ट भी नहीं करता। सम्पादकीय केंद्रित है शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं को समझने के सूत्र पर। यद्यपि यह बहुत सूक्ष्म विवेचन है। फिर भी,
अंक में नरेंद्र नागदेव की कहानी 'हाउस ऑफ लस्ट' अच्छी लगी। पंकज सुबीर और विवेक मिश्र की कहानियाँ पढ़ूँगा। इसमें तीसरी कहानी रूपनारायण सोनकर की है-'ई.वी.एम.'। यह कहानी क्या है, एक रूपक है। पिछले दिनों विधानसभा चुनाव के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ई. वी. एम. पर सवाल उठाए गए कि इस मशीन के माध्यम से धाँधली की गई है और बटन चाहे जो दबाओ, वोट वांछित जगह पर गिनने के लिए दर्ज हो जाता है। यद्यपि यह एक ऐसी बात थी जिसे हजारों गोएबल्स ने अपने दसो मुख से सैकड़ो दफा दुहराया था और लोगों को भरमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी; तब भी कई विद्वानों ने यह अभियान जारी रखा था। रूप नारायण सोनकर की यह कहानी इसी संकल्पना का एक भोंडा से रूपक है।बहुत वाहियात और बेसिर-पैर का।
कहना इतना भर है कि उस एक झूठ को स्थापित करने में नया ज्ञानोदय भी शामिल हो गया है और तमाम जन संचार के माध्यमों के साथ साहित्य को भी, विशेषकर कथा साहित्य को भी झोंक दिया है।
इसी अंक में Mangalesh Dabral सर का साक्षात्कार छपा है और बहुत हैरानी की बात है कि साक्षात्कर्ता ने उन (पहाड़ में पले-बढ़े) से यह प्रश्न पूछा है कि 'उत्तराखंड राज्य बने हुए 10 वर्ष से अधिक समय हो गया है'। मैं होता तो टोकता कि 17 साल हो गए हैं। खैर,
और आखिर में, अंक में Uma Shankar Choudhary जी की कविता छपी है। अपनी कविता 'लौटना' के आरम्भ में ही वह रचते हैं कि--

"सच के लिए मैंने टेलीविजन देखना चाहा
परंतु वहां अंधेरा था
आज के अखबार के सारे पन्ने कोरे थे"

तो मैंने सोचा कि सचाई के लिए जब कवि टेलीविजन के पास जा रहा है तो मैं पत्रिका क्यों पढ़ रहा हूँ?



 ----  https://www.facebook.com/ramakantji

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016

नया ज्ञानोदय का उत्सव अंक

  1. #नया_ज्ञानोदय का उत्सव अंक, संपादक लीलाधर मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका (अक्टूबर, 2016) अपने पूर्ववर्ती अंको की तरह बेतरतीब है। हर बार अंक खरीदता हूँ और सोचता हूँ कि इसका वार्षिक सदस्य बन जाना चाहिए लेकिन हाथ में पत्रिका आती है तो लगता है कि ठीक किया कि सदस्यता का नवीनीकरण नहीं किया।
    मंडलोई जी मूलतः कवि हैं। संपादकीय में कविता को लेकर उनकी चिंता और चिंतन काबिलेगौर तो है लेकिन 14 उपखंडों में बँटे संपादकीय का पहला हिस्सा प्रभाकर श्रोत्रिय की याद में है और यह क्या है, समझ में नहीं आता। मूल्यांकन के नाम पर, स्मृति के नाम पर उनके निबंधों से दस कोट हैं। बिना तारतम्य के। रमेश दवे ने प्रभाकर जी को जैसे याद किया है, उसमें भी कुछ उल्लेखनीय नहीं है। कोई आत्मीयता नहीं, विश्लेषण नहीं; महज खाना पूर्ति। प्रभाकर जी का एक वैचारिक निबंध पठनीय सामग्री है। अरविन्द त्रिपाठी ने उनका मूल्यांकन भी बहुत सतही सा किया है। पाठ के आधार पर किया गया मूल्यांकन नहीं है यह। मोटी मोटी बातें हैं। निराशा होती है कि जो आदमी ज्ञानपीठ परिवार का सदस्य रह चुका हो, पत्रिका के इस नए रूप का उद्धारक हो, जिसने साहित्य में स्थायी महत्त्व का काम किया हो, उसके प्रति ऐसी खानापूर्ति की गयी है। स्मृति शेष के अंतर्गत उनपर सामग्री दो लेखों के बाद रखी गयी है। बिला वजह। ऐसे में यह खानापूर्ति वाला भाव और प्रबल होता है।
    बेतरतीब शीर्षकों की परंपरा इस अंक में भी है। शीर्षक रखा है 'लंबी कविता' और नरेंद्र मोहन का आलेख दिया हुआ है। दूर की तार्किक बात यह है कि इसमें लंबी कविताओं पर चर्चा है।
    उपासना की कहानी मिथक और यथार्थ को जोड़ती हुई बढ़िया कहानी है। उनका कहन इधर बहुत स्वीकृत हुआ है। इसमें भी निर्वाह हुआ है।
    पत्रिका में कवितायेँ भरपूर हैं। न जाने क्यों उन्हें चार जगह रखा है। कविता-एक, दो, तीन, चार करके। कुछ पंक्तियाँ, जिन्हें कविता कहकर परोसा गया है।जयप्रकाश मानस अपनी कविता 'कुछ लोग सुसाइडल नोट नहीं लिखते' में लिखते हैं-
    कुछ लोग आत्महत्या से पहले
    सुसाइडल नोट नहीं लिख छोड़ते...
    सर जी! आत्महत्या से पहले लिखा नोट सुसाइडल नोट कहा जाता है। अब आप सोचें कि आपने कितनी गैरजरूरी पंक्ति ठूँस दी है!!
    उपेंद्र कुमार की कविता तो बयान है। कविता का एक भी लक्षण नहीं है उसमें। लेकिन अनामिका की कविता बारहमासा बढ़िया है। यह नए तरीके का नए समय का बारहमासा है। यद्यपि अब आसिन और कातिक की स्मृति बस गाँव से है लेकिन उसमें नया अर्थ यहाँ भरने की कोशिश है।
    .
    हमारे समय की कविता, कवि के दिमाग में कौंधा हुआ एक विचार है। ज्योंही एक एक विचार कौंधता है, कवि उद्धत हो जाता है, शब्दों में ढाल देने के लिए। उसे डर रहता है कि यह विचार कॉपी न हो जाये, यह अचानक हुई कौंध धुंधली न पड़ जाए। अनुभूति में अंगीकृत होने तक कौन रुकता है। मंडलोई जी ठीक कहते हैं कि 'कविता अतिथि नहीं कि द्वार पर आ खड़ी हो' लेकिन अफ़सोस कि अब के कवि ऐसे ही बर्ताव कर रहे हैं।
    कुछ अन्य कविताओं पर चर्चा करूंगा लेकिन मनोज कुमार झा की यह बेहतरीन कविता देखिये-
    देह की तरफ कई राहें जाती हैं
    ______
    वहां पूरियां पक रही हैं
    फ़टी साडी से दिख रही स्त्री की जंघा (जांघ शब्द होता तो ज्यादा ठीक रहता-रमाकान्त)
    यदि जेठ के टह टह में ग्रहण किये हो वस्त्र संभालती स्त्री के हाथ से जल
    तो इस वक्त जंघा अलग दिखेंगी
    हो सकता है माँ की याद आए
    जो बच्चों की मालिश कर रही है
    या दिसावर से घर लौटते मजदूर को
    पत्नी की याद आये कि यहीं पे पटकी थी भैंस ने पूँछ
    देह की तरफ भेजी गयी चिट्ठियाँ
    वहाँ की (ही होना था शायद, प्रूफ की अशुद्धि -रमाकान्त) पहुंचती हैं जहाँ ऊँघ रहा होता है
    एक प्राचीन निष्कंठ गर्भगृह।
    ____
    पत्रिका में यत्र तत्र प्रूफ की गलतियां खटकती हैं। बाकी सब ठीक ठाक है।कुछ और बातें बाद में।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

बया का अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३

कोई बताएगा कि यह 'उपन्यासिका' क्या होती है? क्या यह लम्बी कहानी और उपन्यास के बीच की कोई विधा है या कुछ और?
‘बया’ के नवीनतम अंक अक्टूबर-दिसम्बर, २०१३ में मनाली चक्रवर्ती की उपन्यासिका 'सवेरा होने वाला है' बड़ी मेहनत से पढ़ गया. यह खासा उलझाऊ था. स्त्री मुद्दे को लेकर लिखे गए इस उपन्यासिका में विमर्श के कई पहलू छूने की कोशिश हुई है. थोड़ा अनाड़ीपन के साथ और थोड़ा अति उत्साह में. बहरहाल कुछ खास बना नहीं. हाँ, रेल के पटरियों के किनारे रहने वाले लोगों का जीवन बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है.
अंक में आशिमा की पहली कहानी 'चूड़े वाली भाभी' प्रभावित करती है, यद्यपि उसकी थीम जानी पहचानी है लेकिन कसाव ऐसा है कि कहानी पढ़ने के बाद देर तक प्रभाव बनाये रहती है. चूड़ेवाली भाभी के मर जाने के बाद सब के मन में उपजी सहानुभूति का अंकन बहुत अच्छे से हुआ है.
बया का यह अंक एक तरह से श्रद्धांजलि अंक है. सुरेश सलिल ने विजय सोनी, गोविन्द पुरुषोत्तम देशपांडे और परमानन्द जी के विषय में बहुत आत्मीयता से लिखा है. अंक में मशहूर कलाकार अशोक भौमिक के बारे में रोचक सामग्री है. 
अंक की कवितायेँ निराश करने वाली हैं, सिवाय रविशंकर उपाध्याय, अस्मुरारी नन्दन मिश्र और सुरेश सेन निशांत की कविताओं के. अशोक भौमिक ने शताब्दी राय की कविता का जो अनुवाद किया है वह जल्दीबाजी में किया गया लगता है. या यह भी हो सकता है कि शताब्दी राय ने यह कविता एक पुरुष होकर लिखी है. आखिरी हिस्से का अनुवाद आप खुद देखें-
ए लड़की तेरा धरम क्या है रे?
- औरतों का भी कोई धर्म होता है, जी
सब कुछ तो शरीर का मामला है
सलमा कहती धरम ही समाज को बनाता है
जब शाम को वह खड़ी होती है, कोई नहीं पूछता उससे 'क्या तू हिन्दू है'
बस यही पूछते हैं, 'कितने में चलेगी'
बिस्तर ही धर्म को मिलाता है
शरीर जब शरीर से खेलता है
इसलिए सोचता हूँ
अबसे शरीर और बिस्तर को ही धर्म कहूँगा..
....
"सोचता हूँ" और "धर्म कहूँगा", यह शताब्दी राय तो नहीं ही कहेंगी. अशोक भौमिक जरूर कह सकते हैं. यह अनुवाद की गड़बड़ी ही है.


अंक में जैसा कि मैंने बताया, सुरेश सेन निशांत की कवितायेँ बहुत मार्मिक हैं, पहाड़ का जीवन उनकी इन कविताओं में स्पंदित सा है. निर्मला को संबोधित करते हुए यह आठ कवितायेँ बेहद संजीदा तस्वीर पेश करती हैं और बहुत प्रभावित करती हैं. एक आप भी पढ़ें-
निर्मला!
कभी-कभी लगता है
तुम एक पहाड़ हो हरा-भरा
और मैं एक छोटा-सा
घर हूँ उसपर बना हुआ
अपने होने की ख़ुशी में
डोलता हुआ.
तुम्हारी देह में
गहरे तक धँसी हुई है
मेरी जीवन जड़ें.
.
कभी-कभी लगता है
तुम धूप हो सर्द दिनों की
हमें जीने की तपिश भेंटती हुई
तुम्हारे बिना जीना
बहुत मुश्किल है
इन पहाड़ों पर .
.
कभी-कभी लगता है
मैं गहरी नींद में हूँ
तुम एक सुन्दर स्वप्न हो
मेरी नींद में विचरता हुआ.
.
मैं चाहता हूँ
मैं सोया रहूँ सदियों तक
गहरी नींद
ये स्वप्न चलता रहे
यूँ ही....
बया Antika Prakashan से छपती है और गौरीनाथ जी इसके संपादक हैं.

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

पक्षधर का जनवरी-दिसम्बर,२०१३ (संयुक्तांक)



कोई भी कवि हो सकता है- अशोक वाजपेई.
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विनोद तिवारी द्वारा सम्पादित #पक्षधर ने क्रमशः अपनी पुख्ता जमीन पा ली है. पत्रिका के जनवरी-दिसम्बर,२०१३ (संयुक्तांक) कई मायने में विशिष्ट है. इस अंक में उल्लेखनीय है-
१- अशोक वाजपेई से सूर्यनारायण और विवेक निराला की बात-चीत.
२- राधाबल्लभ त्रिपाठी का व्याख्यान
३- अल्पना मिश्र के उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' और
४- अशोक वाजपेई और विवेक निराला की कवितायेँ.
पक्षधर के इस नवीनतम अंक में प्रसिद्द आलोचक और कवि अशोक वाजपेई से सूर्यनारायण सर और विवेक सर की बातचीत छपी है. यह बातचीत बेहद साफगोई से सम्पन्न है. प्रश्न बहुत सारगर्भित हैं और उत्तर उतने ही बेबाक. अशोक वाजपेई, अज्ञेय के बाद दूसरे ऐसे चिन्तक हैं जो भाषा को भी अपने चिंतन के केन्द्र में रखकर बात करते हैं. उनके यहाँ कविता को जाँचने के दो मानकों में से एक भाषा है. उनकी बात सुनी जानी चाहिए- "भाषा का संकट एक स्तर पर विचार का भी संकट है. बासी पड़ गए विचारों से आज आप सचाई नहीं पकड़-समझ सकते. साफ सुथरा गद्य तक इन दिनों कम नजर आता है. ऐसे समय में जब शब्दों का टोटा पड़ रहा है, कविता का एक काम शब्द को केन्द्र में वापस लाना है, यानि शब्द का उसकी मानवीय ऊष्मा और गरिमा में, उसकी अर्थ बहुलता और अनेक अंतर्ध्वनियों में, उसकी मानवीय अर्थवत्ता में पुनर्वास करना है. हमें ऎसी कविता चाहिए जो प्रश्नाकुल और प्रश्नवाची हो, जो आत्मबोध और आत्माकलन से निकलती हो और जिसमें अंतःकरण विन्यस्त होता हो."
यह पूरी बातचीत कविता, आज के समय और बहस को ठीक से सामने रखती है. अशोक वाजपेई ने तमाम संगठनों और स्कूलों को बहुत तटस्थ होकर देखा है और बेबाकी से स्वीकार किया है कि इन संगठनों में जो राजनीति है, वह कहीं से भी साहित्य के लिए हितकर नहीं रही है. विवेक निराला के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सच ही कहा है कि "हिन्दी में साहित्य जगत तो है, बौद्धिक जगत नहीं". हालिया घटनाओं पर सुधीजनों की राय देखें तो स्पष्ट पता चलता है कि वे सही कह रहे हैं. पक्षधर का यह अंक इस बात-चीत के लिए ही पढ़ा जाना चाहिए.
"मेरे घर में छिपकली जैसी है चुहिया,
चुहिया जैसी है बिल्ली.
बिल्ली जैसी है कुतिया और कुतिया जैसी है पत्नी.
और बाकी के लिए क्या कहूँ?
धरती पर बिलखते-बिलबिलाते, उचटी नींद वाले,
भूख से अशक्त पर कुछ कह पाने में असमर्थ
बच्चे तकते हैं, अपनी माँ को."
इसी अंक में प्रो० राधाबल्लभ त्रिपाठी का व्याख्यान छपा है. यह व्याख्यान उन्होंने पिछले साल इलाहाबाद में प्रो० सत्यप्रकाश मिश्र स्मृति व्याख्यानमाला में दिया था. मैं उस समय श्रोता के रूप में वहां था. उस व्याख्यान को सुनने के बाद यहाँ पढ़ने का मौका यहाँ मिला. यह बेहद उम्दा व्याख्यान है जो संस्कृत कविता में जनजीवन के निरूपण व प्रतिरोध की परम्परा के नाम से है. इस व्याख्यान में संस्कृत कविता से उन लोकधर्मी पक्षों को उठाया गया है, जिन्हें एक साजिश के तहत या अभिजात्य से प्रेरित होकर अक्सर छोड़ दिया जाता है. प्रो० त्रिपाठी का यह लेख संस्कृत को एक अभिजात्य भाषा के साथ लोकधर्मी परम्परा से भी जोड़ता है. उपरोक्त अंश के अलावा अन्य कई एक उद्धरणों से जिस रोचक तरीके से अपनी बात रखी गयी है, वह अद्भुत है. इस लेख को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए. इस नाते से भी कि संस्कृत में सब अभिजात्य ही नहीं है. वह लोक की परम्परा से भी गहरे जुड़ा हुआ है. और इस साहित्य में प्रतिरोध का जो स्वर मिलता है, वह आज भी दुर्लभ है और वर्तमान के रचनाकारों के लिए एक मिसाल भी.
अल्पना मिश्र का उपन्यास अंधियारे तलछट में चमका मुझे निराश करने वाला लग रहा है. चालीस पेज पढ़ने के बाद भी कोई एक दृश्य नहीं छाँट पाया हूँ जो उल्लेखनीय लगे या कहीं से काबिले-जिक्र हो.
अशोक वाजपेई और विवेक निराला की कवितायेँ पढ़ी जानी चाहिए. कुछ लेख भी.
कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है.

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.