आज फ़िराक़ गोरखपुरी का
जन्मदिन है। लीजेण्ड फ़िराक़। किम्बदंती फ़िराक़। इलाहाबाद में रहने वाला, तनिक भी साहित्यिक अभिरुचि का व्यक्ति फ़िराक़ साहब के बारे में गजब की
जानकारी रखता/शेयर करता है। रघुपति सहाय फ़िराक़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। उर्दूअदब में बहुत आदर से गिने
जाते हैं। उनकी पुस्तक ‘गुल-ए-नगमा’ को
प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था। किताबी हिंदी के प्रखर विरोधी फ़िराक़ साहब
तहजीब के प्रति अव्वल दर्जे तक जुनूनी थे। उज्जडता की हद तक जुनूनी थे।
फिराक
गोरखपुरी ने गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात,
नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप,
धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज
व कायनात, चिरागां, शोअला व साज,
हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी आदि शायरी
की पुस्तकों के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश,
आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत
नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना की है। उन्होंने एक
उपन्यास साधु और कुटिया भी लिखा।
फ़िराक़ गोरखपुरी ने भारतीयता
को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। उनके यहाँ कविता में पारंपरिक उर्दू कविता की
तरह साकी, हाला, ग़म और इश्क-मुश्क भर नहीं
है। उनकी कविता में उच्च स्तर की दार्शनिक प्रतिपत्ति, वात्सल्य
की अभिव्यक्ति और देश-प्रेम की भावना की प्रधानता है। उनकी सांस्कृतिक विरासत की हद
भारतीय सनातन परम्परा से जुड़ती है और इस तरह विशिष्ट हो जाती है। वह लिखते हैं-
खेतों को
संवारा तो सँवरते गए ख़ुद भी
फ़सलों को
उभारा तो उभरते गए ख़ुद भी
फ़ित्रत को
निखारा तो निखरते गए ख़ुद भी
नित अपने
बनाए हुए साँचों में ढलेंगे।
हम ज़िंदा थे, हम ज़िंदा हैं, हम
ज़िंदा रहेंगे।
बीते दिन फ़िराक़ साहब पर केंद्रित कॉमरेड रामजी राय की पुस्तिका 'यादगारे फ़िराक़' मिली। फ़िराक़ साहब के जीवन, अदब, शायरी और चिंतन को केंद्र में रखकर संस्मरण की
शैली में लिखी यह पुस्तिका बहुत रोचक और शानदार बन पड़ी है। फ़िराक़ साहब के बारे में
जानने, समझने के लिहाज से यह विशिष्ट पुस्तिका है। इसमें आये
उनके संस्मरण फ़िराक़ साहब के व्यक्तित्व को बखूबी उजागर करते हैं। उनके विट,
उनकी अदा, सोचने और समझने की काबिलियत और
व्यवहार को स्पष्ट करती है। यों ही फ़िराक़ साहब नहीं कहा करते थे कि आने वाली
नस्लें उनपर फक्र करेंगी।
पुस्तिका उनकी शायरी, उनके लिखे पर
बहुत आत्मीयता किन्तु बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करती है। यह मिसाल है कि एक
पुस्तिका कैसे अपनत्व रखकर भी निर्मम हो सकती है। अपने को अस्सी फीसद मार्क्सवादी
मानने वाले फ़िराक़ साहब को समझने के लिहाज से यह पुस्तिका बहुत मानीखेज है।
उनकी एक रुबाई से यह बात खत्म करता हूँ। उनकी इस रुबाई में माँ और बालक के वात्सल्य भरे व्यवहार में जो सरलता और तरलता है, वह फ़िराक़ को अत्यंत ऊँचे स्तर पर स्थापित करती है। जन्मदिवस पर भावपूर्ण स्मरण-
“किस
प्यार से होती है ख़फ़ा बच्चे से
कुछ त्योरी चढ़ाये हुए मुँह फेरे हुए
इस रुठने पर प्रेम का संसार निसार
कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे”।