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रविवार, 13 दिसंबर 2020

कथावार्ता : उदारीकरण की संस्कृति

- डॉ रमाकान्त राय

कहते हैं, बीस वर्षों में एक पीढ़ी बनकर तैयार हो जाती है। आजादी के बीस बरस बाद जो पीढ़ी सामने आई थी, उसमें देश की दशा-दिशा को लेकर गहरी निराशा की भावना थी। रघुवीर सहाय एक कविता आत्महत्या के विरूद्धमें लिखते हैं- दोनों, बाप मिस्तरी और बीस बरस का नरेन/ दोनों पहले से जानते हैं पेंच की मरी हुई चूड़ियाँ/ नेहरु युग के औजारों को मुसद्दीलाल की सबसे बड़ी देन।” मिस्तरी के लिए मरी हुई चूड़ियाँ बहुत मानीखेज बात है। आत्महत्या के विरूद्ध संग्रह सन १९६७ ई० में छपा था। उस कविता ने नेहरु युग की तमाम उपलब्धियों को मरी हुई चूड़ियों में व्यक्त कर दिया है। न सिर्फ रघुवीर सहाय, अपितु सत्तर के दशक के अधिकांश रचनाकारों के यहाँ आजादी के बीस साल बाद की हताशा मुखर होकर दिखाई पड़ती है। राजकमल चौधरी के यहाँ इसे गहरी अनास्था और विचलन में देखा जा सकता है। राही मासूम रज़ा के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास आधा गाँवमें यद्यपि आजादी के बाद के बीस साल की कोई कहानी नहीं है लेकिन लगभग इसी अवधि में लिखी गई इस रचना में जिस तरह की गालियाँ मिलती हैं, लोगों का एक बड़ा समूह अपने समय से बहुत क्षुब्ध दिखाई पड़ता है, वह ध्यान दिए जाने लायक है। यह हमेशा ध्यान देने की बात है कि राही मासूम रज़ा के इस बहुत प्रसिद्ध उपन्यास के वही पात्र गालियाँ देते दिखाई पड़ते हैं, जो अपने माहौल से बहुत असंतुष्ट हैं अथवा विक्षिप्ततावस्था की ओर उन्मुख हैं। फुन्नन मियाँ की गालियाँ इसलिए और भी ऊँची आवाज प्राप्त कर लेती हैं कि उनके बेटे मुम्ताज को शहीदों की सूची में नहीं रखा गया है। उसे उल्लेखनीय नहीं समझा गया है जबकि वह थाना फूंकने वाले लोगों के समूह में सबसे अगली कतार में था। बहरहाल, यह कहना है कि यह अनास्था हमें ‘राग दरबारी’ और उस दौर के कई मशहूर उपन्यासों में देखने को मिल सकती है। यह भी देख सकते हैं कि उस दौर के साहित्य में गाली, एब्सर्डनेस और गहन यथार्थवादी तस्वीरें देखने को मिलती हैं।
यहाँ यह कहना है कि आजादी के बीस वर्षों के बाद जिस तरह की अभिव्यक्ति देखने में आई थी, क्या हम कह सकते हैं कि उदारीकरण के बीस साल बीत जाने के बाद हमारे समाज में उसका असर देखने में आ रहा है? देश में उदारीकरण की विधिवत शुरुआत १९९१ से मानी जाती है। तब से अब तक दो दशक से अधिक लम्हा गुजर गया है और पीढी के बदलाव को बखूबी देखा जा सकता है।

उदारीकरण की संस्कृति (जनसंदेश टाइम्स में 17 फरवरी, 2014 को प्रकाशित)

यह बात इन दिनों अक्सर परिलक्षित की जा रही है कि एक कमरे में अगर आठ लोग बैठे हों, वह भी एक ही परिवार के या एक समूह के तो ऐसा संभव है कि वे सभी अपने अपने आप में अथवा फोन या नेट सर्फिंग में व्यस्त देखे जा सकते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया और मल्टीपरपज मोबाइल फोन ने हमें अपने घर में ही अजनबी बना दिया है। आप देखेंगे कि इधर की फिल्मों और कथा-कहानियों में एकाकीपन का चित्रण बढ़ा है। संयुक्त परिवार गायब हो गए हैं। सही अर्थों में अजनबीपन की स्थिति बनी है। हम घोर अनास्था और मूल्यहीनता की विद्रूपता में फँस गए हैं। हमने एक खिचड़ी संस्कृति विकसित कर ली है। यह भी कि उदारीकरण के बाद जन्मी और पली-बढ़ी पीढ़ी ने इस खिचड़ी और अधकचरी संस्कृति को अजीबो-गरीब संकीर्णता और दकियानूसी भाव की तरह अपनाया है। आप भीतर-बाहर कहीं भी यह देख सकते हैं। आज का युवा किसी अजनबी अथवा परिचित से कैसे संबोधन में वार्तालाप शुरू कर रहा है। हम अंग्रेजी के सरको किसी के संबोधन में जब इस्तेमाल करते हैं, तो उतने भर को पर्याप्त नहीं मानते। सरजीकहकर उसमें नई छौंक लगाते हैं। अंकलशब्द तो इतना चलन में है कि हर एक अजनबी, जो थोड़ा पारंपरिक है, अंकल है। आप अगर सामान्य भेष-भूषा में हैं तो संभव है कि आपकी उमर से भी बड़ा अथवा आपसे बराबर का कोई युवा आपको अंकल कहकर संबोधित करे। दिल्ली विश्वविद्यालय के कैम्पस में यह बात आम चलन में है कि वहाँ सलवार सूट पहने लड़कियों को ‘दीदी’ कहकर सम्बोधित किया जाता है। ऐसा नहीं है कि इस संबोधन में घरेलू भावना और प्यार, स्नेह, सम्मान रहा करता है। इसमें रहती है उपेक्षा। यह हीनता बोध कराने के लिए किया गया संबोधन होता है। ‘भईया जी’ का संबोधन भी इसकी एक बानगी है। वास्तव में यह प्रवृत्ति एक बेहद हिंसक स्वरुप का परिचायक है। यह कहा जा सकता है कि उदारीकरण के नून-तेल से पालित-पोषित आज की ‘यो यो पीढ़ी’ इस कदर निर्मम है कि वह अनायास ही मानसिक रूप से प्रताड़ित करती है। इस मानसिक प्रताड़ना का असर यह होता है कि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के परिवारों के बच्चे या तो अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं अथवा हीनभावना से ग्रस्त। इसका समावेशी विकास पर गहरा असर पड़ता है।
मैं जब इसे अधकचरी या संस्कृति का घालमेल कहता हूँ तो इसमें यह भावना अन्तर्निहित होती है कि जब हम किसी को अंकल (ध्यान रहे कि चाचा, मामा, फूफा, मौसा आदि नहीं कहते), भईया या दीदी कहते हैं तो हम परिवार के उन मूल्यों को दरकिनार किये रहते हैं, जिनके होने से यह शब्द बहुत आदरपूर्ण बन जाया करते थे। हम उदारीकरण के बाद आये इस बदलाव को इस तरह भी देख सकते हैं कि हमने अंग्रेजी के सरको लिया तो लेकिन अपने परिवेश में उसे आत्मसात नहीं कर पाए। हम आगंतुक का सम्मान करने को बाध्य होते हैं। यह उस सहज स्वतः स्फूर्त भावना से नहीं आता जिस सहज स्फूर्त भावना से हमारे पारिवारिक रिश्ते के संबोधन आया करते थे। अब परिवारों में से चाचा, मामा, फूफा या मौसा जैसे संबोधन भी धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं और यह गायब होना एकल परिवार के साथ साथ हमारे संबंधो में आ रहे आइसोलेशन को भी प्रकट करता है।
इधर के साहित्य में इस तरह की अजनबीयत पहली बार प्रामाणिक तरीके से व्यक्त होकर आ रही है। हम यह नहीं कह सकते कि इससे पहले भी नई कहानी और समानान्तर कहानी के कहानीकारों के यहाँ अजनबीयत का यह रूप अंकित हो चुका है। कमलेश्वर की एक कहानी दिल्ली में एक मौतको रखकर हम कह सकते हैं कि अकेलापन और अजनबीपन तो इसमें भी आया था। आया था लेकिन मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि कमलेश्वर, मोहन राकेश, रमेश बक्षी, मनोहर श्याम जोशी और इसी तरह के अन्य प्रसिद्ध कहानीकारों के यहाँ जो अजनबीपन व्यक्त हुआ है वह पश्चिम की नक़ल है और आयातित है। असली समय भारत में तो अब आया है। ठीक से अकेलेपन और अनास्था को अब महसूस किया जा सकता है। समाज में भी, साहित्य और फिल्म में भी। आप देखेंगे कि इस दौर की कोई भी फिल्म या कथा साहित्य की कोई भी कृति संयुक्त परिवार, सामाजिक नायक अथवा आस्थायुक्त व्यक्ति को केन्द्र में नहीं लेकर चलती। जिनके यहाँ परिवार है, वह विघटन के बाद अपने में सिमट गया परिवार है। मैं यहाँ अपने समय के एक वरिष्ठ कहानीकार एस आर हरनोट की कहानी लोहे का बैलअथवा बिल्लियाँ बतियाती हैंसे सन्दर्भ देकर कहूँ तो कह सकता हूँ कि उनके यहाँ परिवार है तो लेकिन उनमें जो अकेलापन है वह बहुत ह्रदय विदारक है। बिल्लियाँ बतियाती हैंमें बेटा माँ की मदद करने की बजाय उससे ही मदद मांगने आया है। उस पूरे परिवेश में बेटे की चुप्पी और रिश्तों में आया ठहराव देखते बनता है। बीते दिन लंच बॉक्सनामक एक फिल्म देखने को मिली। फिल्म में जिस एक बात ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी कि पति के मरने के बाद विधवा का यह कहना कि आज बहुत तेज भूख महसूस हो रही है। हम एक नजरिये से यह कह सकते हैं कि यह तो अपने अस्तित्व को पहचानने का क्षण है, जब एक विधवा लम्बे त्रासदपूर्ण जीवन के बात स्वयं को केन्द्र में रख रही है। लेकिन कुल मिलाकर यह एक एब्सर्ड बात है। हमने उदारीकरण के बाद इसे भी अपने जीवन में समो लिया है और इसे जस्टिफाई भी कर रहे हैं। यह स्त्री, दलित और हाशिये पर पड़े लोगों के लिहाज से तो बेहतरी का संकेत है लेकिन यह भी कहना है कि यह उदारीकरण की देन है।
उदारीकरण ने हमें कई अच्छी अवधारणा दी है। हमने हाशिये के लोगों को पहचानना शुरू कर दिया है लेकिन साथ ही इसने हममें वह अनास्था और अजनबीपन को भी दिया है, जिसके होने ने हमारा जीवन बहुत दूभर कर दिया है। हम आज उदारीकरण और भूमंडलीकरण के व्यूह में फँस गए हैं। छटपटा रहे हैं।

 

-असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा

उत्तर प्रदेश, 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

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