पहला दिन
पुस्तक का नाम- परम्परा का मूल्यांकन
लेखक-रामविलास शर्मा
मित्र शंखधर दुबे जी ने सात दिन सात किताबों की अपनी शृंखला में आज मुझे जोड़ा है तो सबसे पहले मैं उस किताब की बात करूंगा जिसने मुझे बहुत हद तक बदला। यह किताब है "परम्परा का मूल्यांकन"। इसके लेखक हैं डॉ रामविलास शर्मा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की कक्षाओं के दौरान मित्र नीलाभ के माध्यम से हिंदी के बड़े अध्येता और आलोचक डॉ नन्दकिशोर नवल सर से परिचय हुआ। नवल जी पटना से इलाहाबाद में संगोष्ठी में आते थे। उनके आने पर हम दोनों उनके आगे पीछे लगे रहते थे। उनके साथ रहना हमें सहज रूप से बहुत अच्छा लगता था। वे सुदर्शन व्यक्तित्व के बुजुर्ग विद्वान थे। हम लोगों के प्रति उनका स्नेह इतना था कि हर बार हमारे लिए वे कोई न कोई किताब भी लाते थे। हम उनके थकने तक उनसे बात करते। उनकी ट्रेन पटना कुर्ला एक्सप्रेस के रात 12 बजे के आसपास आने तक स्टेशन पर उनसे लिपटे रहते। उनसे जुड़ी कई बातें हैं वे फिर कभी।
एक बार जब वे आए हुए थे। सहज जिज्ञासा से यह पूछने पर कि कुछ ऐसी किताबें बताइये जिन्हें हमें पढ़ना चाहिए। उन्होंने रामविलास जी की "परम्परा का मूल्यांकन" और "भाषा और समाज" का नाम लिया। हमने तुरन्त परम्परा का मूल्यांकन का पेपरबैक संस्करण लिया और उसे पढ़ गए। मुझे लगता है यह 1999-2000 की बात है। उस वक्त मैं बीए भाग तीन में था।
आज सोचता हूँ तो महसूस होता है कि इस किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसने मुझसे हिंदी साहित्य और भारतीय परम्परा का नए ढंग से परिचय कराया। हमें खूब पढ़ने की प्रेरणा दी और भारतीयता के प्रति गर्व की भावना भरी। इस पुस्तक से प्राप्त ज्ञान से हमारी मानसिक बुनावट ही नहीं प्रभावित हुई विषय विशेष पर लिखने का संस्कार भी मिला। जबसे थोड़ी बहुत समझ बनी है तबसे मुझे लगता है कि वाक्य निर्माण, विराम चिह्नों का प्रयोग, पैराग्राफ बदलने का संस्कार आदि बहुत कुछ मुझे इस पुस्तक से प्राप्त हुआ। ऐसी पुस्तक को पढ़कर भी यदि नालायक हूँ तो यह मेरी सीमा है। मुझे लगता है कि साहित्य के विद्यार्थियों को ही नहीं, सबको यह किताब पढ़नी चाहिए। आज एक अध्यापक के रूप में जब मैं अपनी कक्षाओं में टेस्ट लेता हूँ तो सबसे ज्यादा नम्बर पाने वाले के लिए मेरा एक उपहार "परम्परा का मूल्यांकन" भी होता है।
दूसरा दिन
पुस्तक का नाम- आधा गाँव
लेखक- राही मासूम रज़ा
सात दिन सात किताब शृंखला के अंतर्गत मित्र शंखधर दुबे द्वारा दिये गए उत्तरदायित्व के अंतर्गत आज मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहूंगा वह है डॉ राही मासूम रजा का उपन्यास "आधा गाँव"। स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात के बदलते भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव 'गंगौली' के शिया मुस्लिम परिवारों की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मुझे 'हिंदी के मुस्लिम उपन्यासकारों के उपन्यास' पर शोध कार्य करने पर मजबूर होना पड़ा।
मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि पिछले कई दशकों से भारतीय समाज में अलग अलग धर्मों को लेकर इतना खुलापन नहीं है कि भिन्न भिन्न धर्मों के सामान्य लोगों में अपने से भिन्न धर्म वालों के लिए अनेक अफवाहें न हों। मुस्लिम समाज के प्रति मुझ जैसे पृष्टभूमि वाले सामान्य गैर मुस्लिमों में ढेर सारी जिज्ञासाएं और अफवाहें तैरती थीं। इसलिए 'आधा गाँव' मेरे लिए एक अपरिचित दुनिया खोलने वाला उपन्यास था। इसके पहले मेरे लिए मुहर्रम सिर्फ हुसैन साहब की याद में लगने वाला मेला मात्र था। मुहर्रम मेले से ज्यादा एक अलग दुनिया भी है, यह 'आधा गाँव' ने बताया। देश में अलगाव के बीज कैसे बोए गए, परिवार कैसे तबाह हुए, गंगा यमुनी तहजीब को कैसे कलंकित करने की पटकथा रची गई यह सब इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। स्वतंत्रता पूर्व के भारत में हिन्दू मुस्लिम सह अस्तित्व का स्वरूप, गांवों और परिवारों में अवैध सम्बन्धों की दुनिया, भारत विभाजन का दंश, समय के साथ तादात्म्य न बैठा पाने के कारण पतनोन्मुख होते मुस्लिम जमीदार परिवार के साथ जिंदादिल और मनबढ़ पत्रों की बेलौस-बिंदास गालियाँ, ये सब एक वास्तविक दुनिया की आत्मीय सैर कराते हैं।
मुझे लगता है आज के दौर में साहित्य के प्रत्येक प्रेमी को तो इस उपन्यास को पढ़ना ही चाहिए। यह उपन्यास मुहर्रम की तरह आपको गमगीन भी करेगा और एक अलग दुनिया में लेजाकर मेला भी कराएगा।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं सात अलग अलग किताबों की चर्चा के लिए मैं अपने पढ़ाकू मित्र डॉ अखिलेश शंखधर जी को नामित करता हूँ।
तीसरा दिन
पुस्तक का नाम- दीवार में एक खिड़की रहती थी
लेखक-विनोद कुमार शुक्ल
सात दिन सात किताब शृंखला में मेरी आज की किताब है हिन्दी के विशिष्ट कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास "दीवार में एक खिड़की रहती थी"। विनोद कुमार शुक्ल हिंदी में अपने तरह के अकेले लेखक हैं। भाव और भाषा में वे इतने सरल हैं कि अर्थ गाम्भीर्य के प्रतिमान बन जाते हैं।
उक्त उपन्यास के नायक रघुवर प्रसाद हैं जो एक छोटे कस्बे के महाविद्यालय में अध्यापक हैं। वे नवविवाहित हैं ।उनकी पत्नी का नाम सोनसी है। दोनों एक कमरे के मकान में किराये पर रहते हैं। यह कमरा ही रघुवर और सोनसी की दुनिया है। इसी कमरे में उनका चूल्हा-चौका और शयनकक्ष हैं। कमरे में एक दरवाजा और एक ही खिड़की है। कमरे के अंदर उनकी वास्तविक दुनिया है तो खिड़की के बाहर उनकी कल्पना की दुनिया। कमरे में जीवन का यथार्थ है तो खिड़की के बाहर प्रकृति की गोद में प्यार का आकाश है। खिड़की से बाहर जाने पर रघुवर और सोनसी को एकांत और प्यार के क्षण मिलते हैं। रघुवर जब दरवाजे से बाहर निकलते हैं तो उनके साथ निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति का संघर्ष होता है और जब खिड़की से बाहर निकलते हैं तो निम्नमध्यवर्गीय प्यार,आशाएं और आकांक्षाएं होती हैं।
कथा कहने की विनोद जी की अपनी शैली है। यह शैली इतनी विशिष्ट है कि उपन्यास पढ़ते-पढ़ते नायक-नायिका से ही नहीं, लेखक से भी प्यार हो जाता है । पहली बार पढ़ने के बाद यह उपन्यास मुझे इतना पसंद आया कि मैंने अपने अनेक मित्रों को उपहार रूप में भी दिया। पतला सा यह उपन्यास आपसे आपका एकांत मांगकर आपको अपने एकांत में ले जाता है। इस एकांत में आज के समय की आपाधापी और शोर-शराबा नहीं है। तेज आँधी वाले आज के चिलचिलाते समय में यह उपन्यास फूलों की वादियों से निकली हुई भोर की शीतल मंद बयार है। अगर आपने यह उपन्यास नहीं पढ़ा तो हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि से वंचित रह गए।
सात दिन सात उपन्यास की इस शृंखला को बढ़ाने के लिए आज मैं अनुज मित्र https://www.facebook.com/profile.php?id=100007161274232 को नामित करता हूँ।
चौथा दिन
पुस्तक का नाम- सत्य के साथ मेरे प्रयोग
लेखक- महात्मा गांधी
सात दिन सात किताबें के चौथे दिन मैं जिस किताब के बारे में बात कर रहा हूँ वह महात्मा गाँधी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" है।
आधुनिक भारत में गाँधी का व्यक्तित्व वटवृक्ष के समान है। वटवृक्ष सही मायनों में भारतीय संस्कृति का प्रतीक हो सकता है। एक विशाल वटवृक्ष का निर्माण सदियों में होता है और उसकी शाखाएं एक नए वृक्ष का रूप धारण कर सदियों तक अपनी छाया में रहने वालों को शीतलता प्रदान करती हैं। गांधी जी ऐसे ही थे। गीता, ईशावास्योपनिषद और बुद्ध ने ही नहीं अन्य धर्मों के सांस्कृतिक ग्रन्थों ने भी उनका निर्माण किया था। वे आधुनिक भारत में भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में स्थापित होते हैं और आगे की पीढ़ियों के लिए प्रतिमान रखते हैं। उनसे निकलने वाली शाखाएं अर्थात सच्ची गांधीवादी धारा भी वैसी ही शीतलता प्रदान करती है।
गांधी मनुष्य थे और गलतियां उनसे भी हुई हैं। इन गलतियों के बावजूद वे बहुत बड़े हैं। उनकी निर्मित सामान्य मनुष्य की निर्मिति नहीं है। उनकी निर्मिति को समझने के लिए उक्त पुस्तक आधार पुस्तक है। अगर आज के रीढ़हीन, मूल्यहीन और मनुजताहीन होते समय में हमें महान भारतीय संस्कृति को यदि उसके स्वभाविकता के साथ बचाए रखना है तो हम गांधी को छोड़ नहीं सकते। गांधी को इस पुस्तक के बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता। इस पुस्तक में वे अपनी श्रेष्ठता और न्यूनता के साथ सामने आते हैं।
चुँकि यह पुस्तक भारत की प्रायः प्रत्येक भाषा में उपलब्ध है इसलिए प्रत्येक भारतीय को इस पुस्तक को जरूर पढ़ना चाहिए।
सात दिन सात किताबों की इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपने मित्र आलोक तिवारी https://www.facebook.com/alok.tiwari.79656921 को नामित करता हूँ।
पांचवाँ दिन
पुस्तक का नाम- हिन्दी कहानी संग्रह
लेखक/सम्पादक- भीष्म साहनी
सात दिन सात किताबें शृंखला के पाँचवे दिन मैं एक सम्पादित किताब का जिक्र करना चाहता हूँ। यह किताब है प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी द्वारा सम्पादित "हिन्दी कहानी संग्रह" जिसे साहित्य अकादमी ने छापा है।
कहने को तो यह एक किताब है लेकिन कथाभूमि और संवेदना के स्तर पर यह विशाल फलक को स्पर्श करती है। साथ ही एके साथ आपको अनेक किताबों से मिलने वाला सुख देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लिखी गई हिंदी की तीस श्रेष्ठ कहानियों को आप यहाँ पर एक साथ पा सकते हैं। ये सभी कहानियां अपने में बेजोड़ हैं और अपने रचनाकारों की रचनात्मकता का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व करती हैं। रेणु जी की "लाल पान की बेगम", निर्मल वर्मा की "परिन्दे", मोहन राकेश की "मलबे का मालिक", अमरकांत की "दोपहर का भोजन ", शानी की "दोज़खी", शैलेश मटियानी की "प्रेत मुक्ति", भीष्म साहनी की "वाङ्गचू", राजेन्द्र यादव की "जहाँ लक्ष्मी कैद है", मन्नू भंडारी की "त्रिशंकु", कृष्णा सोबती की "बादलों के घेरे", उषा प्रियम्वदा की "वापसी", मार्कण्डेय की "हंसा जाई अकेला", गिरिराज किशोर की "पेपरवेट", शेखर जोशी की "कोसी का घटवार"...... एक से बढ़कर एक कहानियां हैं। इन कहानियों से गुजरते हुए आप भावनाओं के समंदर में गोते लगाने को मजबूर होंगे। इनमें से अधिकांश कहानियां आपको हिला देंगी और आपको मनुष्य बनने पर मजबूर करने का प्रयास करेंगी। अगर आप स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हिंदी कहानियों में कुछ को नहीं पढ़ पाए हैं या अधिकांश को पढ़ना चाहते हैं तो यह संग्रह आपके लिए है। इसी तरह का एक और कहानी संग्रह एक दुनिया समानांतर भी है जिसे राजेन्द्र यादव ने सम्पादित किया है। दोनों संग्रहों की लगभग आधी कहानियां समान हैं लेकिन यहां जिस संग्रह की बात की जा रही है उसमें "एक दुनिया समानांतर" से सात-आठ अधिक महत्वपूर्ण कहानियां हैं और इसका मूल्य भी उसके एक तिहाई है।
आज मैं इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पढ़ाकू मित्र और एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व Bano Sahiba को इस आशा से नामित करता हूँ कि उनके चयन हमें समृद्ध करेंगे।
छठा दिन
पुस्तक का नाम- मुर्दहिया
लेखक- तुलसीराम
सात दिन सात किताब शृंखला में आज छठें दिन मेरे द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली आज की किताब एक बहुत महत्वपूर्ण आत्मकथा है इसका नाम "मुर्दहिया" है। इसके लेखक प्रो तुलसीराम हैं जो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में आचार्य रहे हैं।
"मुर्दहिया" हमारे समाज की अत्यंत गरीब और अस्पृश्य समझी जा रही जाति में जन्में एक ऐसे व्यक्ति के संघर्षों की दास्तान है जो हमारे समाज की गंदगी के कारण सामाजिक रूप से उपेक्षा और घृणा का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दलित समझी माने जाने वाली जाति में में जन्में डॉ तुलसीराम जो बचपन में ही चेचक की गिरफ्त में आकर काने और बदसूरत हो गए थे, ने कलेजा निकाल लेने वाली अपनी इस आत्मकथा में हमारे इस समाज की विद्रूपता और दोमुंहेपन को नंगा करते हुए प्रस्तुत किया है।
दलित कही जाने वाली जातियों के साथ सवर्ण और सामंती कहे जाने वाले लोगों का पाशविक आचरण और व्यवहार हमारे समाज की एक ऐसी सचाई रही है जिससे मुक्ति की कामना के साथ सिर्फ शर्मिंदा ही हुआ जा सकता है। समाज में शिक्षा और आर्थिक स्थिति में हुए परिवर्तनों ने यद्यपि कि इसकी अमानवीय प्रवृत्ति को बहुत कम किया है लेकिन अभी इस दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
डॉ तुलसीराम इस आत्मकथा में अपनी जन्मभूमि के इतिहास और भूगोल के साथ ही नहीं वहाँ के रीति-रिवाज, भाषा, रहन-सहन और समाज की कुरीतियों के साथ उपस्थित होते हैं। उन्होंने अपनी इस कृति में बड़े संयत भाव और ईमानदारी से अपने जीवन संघर्ष को प्रस्तुत किया है।
मुझे लगता है जातिगत भेदभाव से युक्त अपने समाज में प्रत्येक व्यक्ति को इस कृति को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह कृति हमें स्नेह पूर्वक शर्मिंदा करते हुए अपनी न्यूनताओं से मुक्त होने के लिए उत्प्रेरित करती है और समतामूलक समाज के स्थापना की प्रेरणा देती है।
इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए मैं अध्ययनशील और विवेकवान Pritosh Paritosh Mani सर को नामित करता हूँ।
सातवाँ दिन
पुस्तक का नाम- राग दरबारी
लेखक- श्रीलाल शुक्ल
सात दिन सात किताब शृंखला के सातवें दिन मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहता हूँ वह व्यंग्य विधा की शास्त्रीय कृति 'राग दरबारी' है। 'राग दरबारी' हिंदी उपन्यास साहित्य का एक बहुमूल्य नगीना है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर चर्चा के दौरान व्यंग्य की परिभाषा देते हुए व्यंग्य उसे माना है जब व्यंग्यकार अधरोष्ठों से मुस्करा रहा हो सुनने वाला तिलमिला जाय लेकिन उसके पास जबाब न हो।
व्यंग्य चुटकुला नहीं है। चटकुला में केवल हास्य होता है। व्यंग्य में व्यवस्था के प्रति पीड़ा से युक्त आक्रोश होता है जो हास्य के भाव के साथ उपजता है। व्यंग्य वह सागर है जो ऊपर से खिलखिलाता तो है लेकिन हृदय में जो है उसे बदलने के लिए बेचैनी और रुदन के साथ। राग दरबारी भी ऐसा ही उपन्यास है।
अटल बिहारी बाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो रविवार को रेडियो पर उनके साक्षात्कार का प्रसारण हो रहा था। साक्षात्कार लेने वाले ने उनसे पूछा कि आप खाली समय में क्या करते हैं ? उन्होंने जबाब दिया कि रागदरबारी पढ़ता हूँ। उन्होंने यह टिप्पणी भी की कि रागदरबारी में जो व्यंग्य है वह अद्वितीय है। उसी साक्षात्कार से प्रभावित होकर मैंने रागदरबारी खरीदा।
रागदरबारी का सबसे प्रमुख पात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक कस्बा शिवपालगंज है। यह शिवपालगंज देश का कोई भी कस्बा हो सकता है। इस कस्बे की पूरी व्यवस्था जिसमें ग्राम प्रधानी भी है और विद्यालय भी, सहकारी बैंक भी है और कारोबार भी, सामंतवाद भी है और अनेक सरकारी अमले भी, पुलिस भी है और न्यायपालिका भी -को उनके स्वभाविक पतित रूप में लेखक ने सिद्धहस्तता के साथ प्रस्तुत किया है। व्यवस्था में जड़ जमा चुकी अनैतिकता इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है। उपन्यास का प्रत्येक पात्र व्यवस्था को अपने अनुसार करने के लिए कृतसंकल्पित है। ऐसा वह इतनी स्वभाविक निर्लज्जता से करना चाहता है कि व्यंग्य का रूप धारण कर हमारे सामने उपस्थित होता है।
इस उपन्यास के पात्र इतने स्वभाविक हैं कि हम आज भी प्रत्येक दूसरे या तीसरे कस्बे में वैद्य जी, प्रधानाचार्य, रंगनाथ, रुप्पन बाबू, लंगड़, छोटा पहलवान और शनिचर आदि को देख लेते हैं। ये पात्र इतने जीवंत हैं कि उपन्यास पढ़ते हुए आप उन्हें जीने लगते हैं। यह उपन्यास एक ऐसी काल्पनिक कथा है जो किसी प्रमाणिक दस्तावेज से भी अधिक प्रमाणिक है। व्यवस्था के प्रति ऐसा मोहभंग, इतनी निर्ममता और उसे व्यक्त करने की इतनी प्रतिबद्धता मुझे और कहीं नहीं दिखती। रबरस्टम्प जैसे लोगों से व्यवस्था पर नियंत्रण, आर्थिक ताकत और बाहुबल से व्यवस्था को मुट्ठी में रखना, सबसे भ्रष्ट और अनैतिक व्यक्ति द्वारा मञ्च पर सबसे आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत होना आदि अनेक ऐसी बातें हैं जो आज भी वैसी की वैसी बनी हुई हैं। पचास वर्ष पूर्व लिखे गए इस उपन्यास के ढेर सारे रूप पूरे देश में आज भी वैसे ही मौजूद हैं।
यह उपन्यास हम जैसे कइयों का प्यार है। इसलिए कि यह उसी तरह नंगा है जैसे हम अपनी नजरों में होते हैं। इलाहाबाद में मित्रों के साथ पढ़ाई के दौरान देर रात को जब हम थक जाते थे तो हमारा मनोरंजन यह उपन्यास होता था। हम मित्रों में कोई एक, कोई भी चार-छः पृष्ठ वाचन करता था और इन पृष्ठों के व्यंग्य से जो ठहाके निकले थे वे पेट के दर्द और आंखों से निकले आंसुओं के बाद भी देर तक शांत नहीं होते थे। यह उपन्यास कई मामलों में अद्वितीय है। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा तो यह आपका दुर्भाग्य है।
सात दिन सात किताबों में यह मेरी सातवीं किताब थी। आज मैं इस शृंखला को बढ़ाने के लिए खूब पढ़ने लिखने वाले https://www.facebook.com/vivekanand.upadhyay.73 सर को नामित करता हूँ।
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मैंने जिन सात पुस्तकों की चर्चा सात दिनों में की है वह उन सातों की अलग अलग विशिष्टता के कारण की है। मैं इन सातों से खुद बहुत प्रभावित हूँ। इनमें गांधी जी की आत्मकथा को छोड़कर शेष सभी स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हैं।
इस चर्चा में रामचरित मानस, राग-विराग, गोदान, शेखर : एक जीवनी, मेरा देश : मेरा जीवन, महाभोज, नाच्यौ बहुत गोपाल, स्त्री उपेक्षिता आदि का जिक्र भी मैं करना चाहता था लेकिन जिनकी चर्चा मैंने की वह फिलहाल मुझे ज्यादा जरूरी लगी।
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