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गुरुवार, 22 अगस्त 2013

राही मासूम रज़ा की दो ग़ज़लें




 (१)

  क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए 
  
  क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।
 
  हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
 
  जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।
 
  इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
 
  जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।।
 
  हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
 
  आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।
 
  क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।

  क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।


 (२)

 जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं
 
 शाखे गुल कैसे हैं खुश्‍बू के मकां कैसे हैं ।।
 
 ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी
 
 उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं ।।
 
 कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
 
 आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं ।।
 
 मैं तो पत्‍थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
 
 
 आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं ।।
 
 जिनसे हम छूट गये अब वो जहां कैसे हैं ।।

सद्य: आलोकित!

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