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रविवार, 15 नवंबर 2020

 कथावार्ता : ईश्वर पैसें दरिद्दर निकलें

 -डॉ रमाकान्त राय 

          कल 'दीया दीवारीथीआज बुद्धू बो की पारी है! प्रात:काल ही उठ गया। दरिद्दर खेदा जा रहा था। माँ सूप पीटते हुए घर के कोने कोने से हँकाल रही थीं। आवाज करते हुए प्रार्थना कर रही थीं। यह प्रार्थना दुहराई जा रही थी। -ईश्वर पैसें दरिद्दर निकलें- ईश्वर का वास होदरिद्र नारायण बाहर निकल जाएँ। दरिद्र भी नारायण हैं। रात में दीप जलेपूजा हुईखुशियाँ मनाई गयींराम राजा हुए। लक्ष्मी का वास हुआ। अब दरिद्रता का नाश हो। यह निर्धनता नहीं है। यह मतलब नहीं निकलना चाहिए कि हमारी गरीबी दूर हो गयी। निर्धनता और दरिद्रता में अंतर है। निर्धनता में व्यक्ति का स्वाभिमान बना रहता है। दरिद्रता व्यक्ति की गरिमा को नष्ट कर देती है। उसका आत्मबल छीन लेती है। निर्धन होना अच्छा हो सकता हैदरिद्र होना कतई नहीं। राम राजा हुए हैं तो स्वाभिमान लौटा है। ऐसे में दरिद्रता कैसे रह सकती है। हमने उसे हँकाल दिया है।

          मैं माताजी के साथ हो लिया। दरिद्रनारायण को करियात से बाहर हँकाल दिया गया। सूप लेकर हम छोटे भाई के साथ गाँव के बाहरी छोर पर चले गए। वहां बालकनवयुवकयुवतियाँमहिलायें दरिद्र नारायण को हँकालते हुए इकठ्ठा हुई थीं। सूपदौरी आदि को जलाया जा रहा था। दीया पर अंजन बना रहे थे लोग। कोई खुरपी तो कोई हँसुआ पर दीये की लौ सहेजकर अंजन बना रहा था।

दीया पारती भद्र महिलाएं

          अंजन यानि काजल बनाना एक कला हैविज्ञान हैकार्रवाई है। हर गृहस्थिन को यह विद्या सहज प्राप्त हो जाती है। आज का बना हुआ काजल सालभर आँखों की ज्योति को सुरक्षित रखेगा। अंजन बनते ही बच्चों को उनकी माएँ टीका लगा रही थीं। बच्चे आतिशबाजी कर रहे थे। कुछ ने जलती लौ में पटाखे फेंके और लोगों की बड़बड़ाहट का मजा लिया। खूब उधम हुआ। एक बूढ़ी माँ ने खरी-खोटी सुनाई। सबको यह आशीष जैसा लगा।

(वीडियो देखें)

दरिद्दर हँकालने के बाद अंजन निर्माण 

     दलिद्दर खेदने के बाद गंगा स्नान के लिए जाना रहता है। अब यह प्रथा बन्द हो गयी। तीन चार किमी दूर जाकर गंगा स्नान करना जोखिम भरा तो है हीबोरिंग भी है। अब नदी में क्रीड़ा करना जॉयफुल नहीं रहा। समाचार पत्रोंमीडिया की सूचनाएँ डराती हैं। और वह आनंद अभीष्ट भी नहीं रहा।

          दरिद्दर खेदनेगंगा स्नान करने के बाद आज दोपहर भर बहनें सरापेंगी। वह व्रती हैं। अन्न जल ग्रहण नहीं करना है। दोपहर के बाद गोधन कूटे जायेंगे। तब जो सराप (शाप) उन्होंने दिया थागोधन कूटते हुए अपने ऊपर लेंगी। 'मेरे भईयाजीवन में हर कठिनाई से मुक्त रहें। हर बलाय हम सहें।'

गोधन कूटने की तैयारी में माताजी

          दरिद्र नारायण को खेदने की जगह इकठ्ठा युवकों की बातचीत के केन्द्र में कई चीजें हैं। कई ने रात में जुआ खेलनेसजे फड़ पर अपनी टिप्पणियां दी। कौन फड़ पर रात भर जमा रहा। कौन कितना हारा और कितना जीतकर भाग निकला। एक तो सुबह चार बजे आया। तड़ातड़ दाँव बदे और फिर एक बड़ी रकम जीतकर निकल गया। किस तरह दीया/बल्ब की रोशनी करने वाले ने हर तीसरी बाजी के बाद लगान वसूली की और इसको लेकर झगड़ा हुआ। किसने किसने चिल्लर का जनम छुड़ा लिया आदि आदि।

          मैं वहां से हटा तो फड़ की तरफ बढ़ा। वहाँ दीया जल रहा था। 'आधा गाँवके फुन्नन मियाँ की याद आयी। हर दीवाली की रात को वह जुआ खेलते थे और फड़ पर लक्ष्मी की फोटो के नीचे बैठते थे। यहाँ कोई फुन्नन नहीं था। सब गोबर्धन साह थे। दस बीस का जुआ खेल रहे थे और बातें हजारो की कर रहे थे। कुछेक "गुण्डा" के नन्हकू सिंह बनने की फिराक़ में भी थे लेकिन वहाँ लोकतंत्र था। मैं थोड़ी देर रहकर चला आया। अभी भी वहाँ मजमा जुटा हुआ है। 

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          आओ हम-तुम भी जुआ खेलते हैं। अगर तुम जीतीं तो हम तुम्हारे हुए और मैं जीता तो तुम मेरी। है मंजूर!! आओ समर्पण की दीवाली मनाते हैं।

 

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

उत्तर प्रदेश, 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

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