समाचार पत्रों में लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
समाचार पत्रों में लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

प्रेमचंद की कहानियों में शिक्षा

-         डॉ रमाकान्त राय

          प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमचंद की प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा उनके अपने ग्राम लमही, वाराणसी में हुई थी। हाईस्कूल की पढ़ाई उन्होंने क्वींस कॉलेज, वाराणसी और इंटरमीडिएट सेंट्रल हिन्दू कॉलेज से किया। स्नातक की पढ़ाई प्रेमचंद ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने से पूर्व वह एक विद्यालय में अध्यापक हो गए थे। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उनकी पदोन्नति डिप्टी इंस्पेक्टर के रूप में हुई। सन 1931 में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रेरित होकर प्रेमचंद ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने हंस पत्रिका और जागरण पत्र का सम्पादन किया।

          प्रेमचंद के साहित्य का अनुशीलन करने पर सहज ही पता चलता है कि वह शिक्षा व्यवस्था को लेकर बहुत संवेदनशील थे। अपने एक लेख नया जमाना-पुराना जमाना में उन्होंने “देश के शिक्षित और सम्पन्न लोगों की जन विरोधी तथा स्वराज्य विरोधी नीति की भर्त्सना की है”।  प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं जो उर्दू और हिन्दी में समान रूप से महत्त्व रखती हैं। उनकी कई कहानियों में शिक्षा, पठन-पाठन और चरित्र निर्माण में उसकी भूमिका का सन्दर्भ मिलता है। इस आलेख में ऐसी ही कुछ चुनिन्दा कहानियों को केंद्र में रखकर शिक्षा के प्रति प्रेमचंद के दृष्टिकोण का आकलन करने का प्रयास किया जा रहा है।

          प्रेमचंद की शिक्षा को केंद्र में रखकर लिखी गयी कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं- परीक्षा, बड़े घर की बेटी, बड़े भाई साहब, पञ्च परमेश्वर, ईदगाह, सज्जनता का दंड, पशु से मनुष्य आदि।

          प्रेमचंद अपनी कहानियों में तत्कालीन शिक्षा पद्धति, जो पश्चिम आधारित है, को भ्रष्ट मानते हैं और विद्या के भारतीय अर्थ को ही स्वीकार्य मानते हैं। उनकी एक कहानी पशु से मनुष्य जो 1920 में प्रभा पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, के प्रेमशंकर कहते हैं- “मुझे वर्तमान शिक्षा और सभ्यता पर विश्वास नहीं है। विद्या का धर्म है आत्मिक उन्नति, और आत्मिक उन्नति का फल उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता और दयाशीलता है। जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने पर तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने को इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है।” (पशु से मनुष्य, प्रेमचंद, प्रेमचंद-2, पृष्ठ- 331) इस कहानी में प्रेमचंद ने डॉक्टर मेहरा जैसे पात्र का हृदय परिवर्तन करवाया है।

          हिन्दी में प्रकाशित हुई प्रेमचंद की प्रथम कहानी परीक्षा, जो अक्टूबर, 1914 में गणेशशंकर विद्यार्थी की प्रताप पत्रिका के विजयदशमी अंक में प्रकाशित हुई थी, अङ्ग्रेज़ी शिक्षा पाये नकलची युवकों के स्थान पर परदु:खकातर, परमार्थी, सेवा भावना रखने के युवक को श्रेयस्कर मानती है। इस कहानी में देवगढ़ की रियासत के दीवान पद के चुनाव में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह शिक्षा के एक महत्त्वपूर्ण उपादान की तरह ली जा सकती है। इस कहानी में स्वाभाविक वृत्ति और समयानुकूल रूप धरने की शिक्षित लोगों की कला पर बहुत महीन व्यंग्य मिलता है।

          प्रेमचंद की एक अन्य चर्चित कहानी बड़े घर की बेटी जमाना पत्रिका में 1910 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित होने वाली पहली कहानी है। इस कहानी का एक पात्र श्रीकण्ठ अङ्ग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं किन्तु वह “डिग्री के अधिपति होने पर भी अंगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे, बल्कि वह बहुधा बड़े ज़ोर से उनकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गाँव में उनका बड़ा सम्मान था।” (बड़े घर की बेटी, प्रेमचंद, प्रेमचंद-1, पृष्ठ- 177) यद्यपि वह विद्वान है तथापि आनंदी के कहने पर उग्र हो उठता है। इस कहानी में आनंदी के बड़े घर की बेटी होने का श्रेय इस बात से मिलता है कि वह घर को, भाइयों के बीच संबंध टूटने से बचा लेती है।

          प्रेमचंद की कहानी पञ्च परमेश्वर हिन्दी में सरस्वती पत्रिका में जून 1916 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी पारम्परिक न्याय व्यवस्था का बहुत सुघड़ निदर्शन कराती है किन्तु इस कहानी के प्रारम्भिक अनुच्छेद में प्रेमचंद ने परम्परागत शिक्षा प्रणाली पर भी टिप्पणियाँ की हैं। अलगू चौधरी के पिता मानते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती, जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से होता है, बस गुरुजी की कृपा दृष्टि चाहिए।” इस कहानी में शिक्षा प्रदान करने वाले जुमेराती, अलगू चौधरी को हमेशा चिलम भरने में प्रवृत्त किए रहते हैं और जुम्मन को उसकी गलतियों के लिए छड़ी से पीटने में अधिक विश्वास करते हैं। अधिक परिश्रम से पढे लिखे जुम्मन शेख बहुत आदर का पात्र होते हैं। प्रेमचंद यह स्थापित करते हैं कि पढ़-लिखकर सहज ही आदर प्रपट किया जा सकता है किन्तु जुम्मन के चरित्र का चित्रण करते हुए वह दर्शाते हैं कि अधिक पढ़ लिख लेने के बाद जुम्मन स्वार्थी और संकीर्णता का शिकार हो गए हैं। वह अपनी खाला की संपत्ति हड़पने के बाद उनको भरण-पोषण के लिए आवश्यक संसाधन देने में भी आनाकानी करते हैं। साथ ही अपने विपक्ष में निर्णय देने से रुष्ट होकर वह अलगू चौधरी के बैल को जहर दे देते हैं। यह संकीर्णता वाला भाव प्रेमचंद अपनी कहानी मंत्र में भी दिखाते हैं जहां डॉ चड्ढा भगत के बीमार बच्चे का निदान नहीं करते और बैडमिंटन खेलने चले जाते हैं।

          प्रेमचंद की कहानी बड़े भाई साहब हंस में नवंबर 1934 में प्रकाशित हुई। इस कहानी में बड़े भाई के मुख से पश्चिमी शिक्षा की जितनी तीखी आलोचना प्रेमचंद ने की है, वह उल्लेखनीय है। अंगरेजी भाषा, इतिहास, भूगोल आदि के पढ़ाने पढ़ने पर प्रेमचंद ने बहुत मारक टिप्पणियाँ की हैं। वह लिखते हैं- “परीक्षकों को क्या परवाह। वह तो वही देखते हैं जो पुस्तक में लिखा है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर अक्षर रट डालें और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर इन बेसिर-पैर की बातों को पढ़ाने से फायदा?” (बड़े भाई साहब, प्रेमचंद, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 458)

          प्रेमचंद की एक अन्य कहानी ईदगाह (चाँद पत्रिका में 1933 में प्रकाशित) बाल मनोविज्ञान पर केन्द्रित है। इस कहानी में प्रेमचंद ने मेय देखने जा रहे बच्चों से कॉलेज की शिक्षा और व्यवस्था पर व्यंग्य वचन कहलाए हैं। वह लिखते हैं- “इतने बड़े कॉलेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे! सब लड़के नहीं हैं जी! इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं? न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हमीद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिलकुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले।” (ईदगाह, प्रेमचंद, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 311) उनकी एक कहानी गुल्ली डांडा में सहपाठी रहे दो युवकों के बीच कितना अंतर आ गया है, अफसर बना बालक अपनी पृष्ठभूमि से किस कदर कट गया है, इसका मार्मिक आख्यान करती है। प्रेमचंद की कई कहानियों में स्त्री शिक्षा के बारे में भी प्रसंग मिलते हैं। जीवन का शाप, मिस पद्मा, क्रिकेट मैच आदि कहानियों में शिक्षित स्त्रियॉं का चित्रांकन है। “मिस पद्मा कहानी मे उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री-पुरुष पश्चिम के प्रभाव में विवाह संस्था को ठुकरा कर मित्र रूप में रहते हैं जिसकी इधर कानूनी मान्यता देने के लिए चर्चा होती रहती है।” (कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 46)

          कमल किशोर गोयनका लिखते हैं- “प्रेमचंद की कहानियों में पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा तथा धन प्रभुतामय जीवन के प्रति घोर आलोचनात्मक व्यवहार मिलता है। वह आरंभ से ही अंग्रेजों द्वारा स्थापित पश्चिमी शिक्षा के केन्द्रों का समाज पर पड़ते प्रभाव को देख रहे थे कि किस प्रकार अंगरेजी पढे-लिखे भारतीय अपने संस्कारों और जातीय परम्पराओं को हीन मानते हुए अंगरेजी की नकल में ही गौरव एवं श्रेष्ठता का अनुभव करते हैं। प्रेमचंद इसे ही मानसिक पराधीनता मानते हैं जो युवा पीढ़ी का चारित्रिक पतन कर रही है और जनता से दूर ले जा रही है। (कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 48)

          किसान जीवन, दलित समुदाय की समस्याएँ, सामाजिक समस्याएँ और स्त्रियॉं तथा बच्चों पर केन्द्रित साहित्य प्रेमचंद के यहाँ बहुतायत है। इसमें शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो उनके साहित्य और चिंतन के केंद्र में रहा है। प्रेमचंद पश्चिमी शिक्षा पद्धति के कटु आलोचक और भारतीय जीवन पद्धति तथा शिक्षण प्रक्रिया के पक्षधर थे। उनके साहित्य में यह बारंबार परिलक्षित होता है।

 

ईमेल- royramakantrk@gmail.com , 9838952426

शनिवार, 6 अगस्त 2022

स्वाधीनता के 75 साल और हमारा सामाजिक ताना-बाना

         स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में अपने सामाजिक ताने-बाने पर विचार करते हुए सबसे पहला ध्यान तो इस यात्रा के आरंभिक बिन्दु पर जाता है, जब देश के पूर्वी और पश्चिमी भाग में भारी मार-काट मची थी और पाकिस्तान से रेलगाड़ियों में शव, बोरे की शक्ल में आ रहे थे। दोनों सीमाओं पर अफरा-तफरी मची थी और लोग अपने वतन की तलाश में शरणार्थी और मुहाजिर बनने को विवश थे। स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर देश का सामाजिक ताना-बाना एक नया आकार ले रहा था। चयन शुद्ध सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था। मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे और हिन्दू भारत में आने के लिए प्रयास कर रहे थे। संप्रदाय के आधार पर निर्मित राष्ट्र पाकिस्तान जाने के लिए बहुत से मुसलमान लालायित थे, कुछ विवश थे और कुछेक इस द्विविधा में थे कि क्या करें। सीमाओं पर हो रही गतिविधि देश के अंदरूनी हिस्सों में भी हलचल मचा रही थी। कुछ लोग देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे, कुछ उनकी सहायता कर रहे थे, कुछ विवश कर रहे थे तो कुछ रोक रहे थे। पाकिस्तान के गठन ने इस देश के सामाजिक ढांचे को बुरी तरह उद्वेलित कर दिया था।

          हिन्दू और मुसलमान समुदाय का आपसी सम्बन्ध ही इस विश्लेषण के केंद्र में है क्योंकि भारत में सामाजिक ताना-बाना इन्हीं के आपसी सम्बन्धों का आईना है। अन्य सभी समुदाय इस अमृत काल तक छिटपुट घटनाओं को छोड़कर, जिसमें 1984 का भीषण सिख संहार शामिल है, लगभग शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व में है। संघर्ष और मेल के जो रिश्ते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हैं, वही भारत में सामाजिक ताने-बाने का आधार बनता है।

          स्वाधीनता प्राप्ति और विभाजन की विभीषिका से अंग्रेजों की बोई हुई सांप्रदायिकता वाली विषबेल कई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारणों से फैलती गयी। विभाजन के बाद जब पाकिस्तान बना तो वह बाकायदा मुसलमानों का मुल्क बना और स्वाभाविक रूप से भारत को हिन्दुओं का देश मान लिया गया। यद्यपि भारत में कोई सामुदायिक बाध्यता नहीं थी और यहाँ सभी समुदायों की सुरक्षा, नागरिकता और अधिकारों को लेकर अतिरिक्त प्रयास किए गए। यह संदेश दिया गया कि यह देश मुसलमानों का भी उतना ही है जितना हिन्दुओं का। यदि विभाजन केन्द्रित कुछ हिन्दी उपन्यासों का अनुशीलन किया जाए, जैसे यशपाल का झूठा-सच’, शानी का काला जल’, राही मासूम रज़ा का आधा गाँव’, कमलेश्वर का लौटे हुए मुसाफिर’, बदीउज़्जमां का छाको की वापसी’, भीष्म साहनी का तमस आदि तो यह बात समझ में आती है कि जो मुसलमान भारत में ही रह गए, उनमें से कइयों को अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने के लिए प्रयास करना पड़ा। देश में रह गए मुसलमान भी विभिन्न अवसरों पर अपनी निष्ठा के लिए संदेहास्पद बने।

          यह इतिहास का एक काला अध्याय है कि अभी हमारा देश विभाजन के दंश को ठीक से झेल भी नहीं पाया था कि स्वाधीनता प्राप्ति के एक साल के भीतर ही सन 1948 ई0 में पाकिस्तान की आक्रमणकारी नीति और कश्मीर मामले को लेकर दबाव में आ गया। जूनागढ़ और हैदराबाद के निजाम भी हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ाने वाले कारक के रूप में उभर रहे थे। 1965 ई0 और 1971 ई0 में निर्णायक युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह पराजित हुआ तो जनमानस में यह विभेद और बढ़ा। समय समय पर देश के भिन्न भिन्न शहरों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों से यह वैमनस्य बढ़ा। विभिन्न राजनीतिक कारणों से यह दंगे अधिक समय तक चलते रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बताया है कि भारत में केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे तीन से अधिक दिन तक चल सकते हैं।

          भारत के मुसलमानों के साथ दो तत्त्व बहुत गहराई से जुड़ गए थे, पाकिस्तान के साथ उनका सांप्रदायिक और आत्मीय आधार पर जुड़ाव और अरबों के साथ उत्पत्ति विषयक। यह दोनों ही तत्त्व भारत से उनके जुड़ाव में बाधक था। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया में एक पात्र के व्यवहार से इस वृत्ति को बहुत सुंदरता से उद्घाटित किया है कि जब क्रिकेट मैच में “पाकिस्तान जीतता है, यह किक्की मुफ्त पान बांटने लगता है और हार की खबर सुनते ही दुकान बंद कर देता है।” यह सहानुभूति ऐसी दुखद सच्चाई है जो मुसलमानों के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ गयी है और आज भी ऐसे कई प्रकरण में यह दिखाई देती है और बहुत प्रमुखता से उछाली भी जाती है।

          पाकिस्तान के साथ भारतीय मुसलमानों का लगाव आत्मीयता और रिश्तेदारी से था तो अरब देशों की तरफ वह मक्का मदीना, यानि पवित्र धर्मस्थल की स्थिति से झुका। दुर्भाग्य से भारत के यह लोग अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ-हानि के लिए भी अरबों के मुखापेक्षी हो गए। कई एक मामले, जिसमें मुसलमान अपने को प्रगतिशील दिखा सकते थे और बंद समाज के दायरे से निकल सकते थे, उन्होंने मध्य एशिया के मुस्लिम देशों, खलीफाओं की तरफ देखा और इस तरह वह हिन्दुओं की तरफ पीठ कर खड़े हो गए।

          जिस समय यूरोप और अमेरिका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊँचाइयाँ हासिल कर रहे थे, भारत अपना अन्तरिक्ष कार्यक्रम आगे बढ़ा रहा था। भारत में हिन्दू तब स्वयं को उदार रखकर आगे बढ़ने के लिए सरकारी योजनाओं के साथ कदमताल कर रहा था, जबकि मुसलमान कट्टरता अपना रहा था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, हुमायूँ कबीर, फख़रुद्दीन अली अहमद और करीम छागला से लेकर नुरुल हसन तक; आजादी के लगभग तीस साल तक भारत के शिक्षा मंत्री के पद पर मुसलमान नेता रहे किन्तु इस अवधि में मदरसा शिक्षा अधिक सांप्रदायिक रही। मुसलमान अपनी सांप्रदायिक पहचान के प्रति अधिक सजग बन रहा था। शाहबानो प्रकरण में यह देखा गया कि यह समुदाय अपने पारंपरिक तौर तरीकों में बदलाव के लिए कतई राजी नहीं है। राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बहुत तीक्ष्ण शब्दों में आलोचना करते हुए लिखा है कि इन्हें इस्लाम कटपीस में चाहिए। इस समुदाय में नए समाज के हिसाब से चलने की कोई ललक नहीं और इस क्रम में उसकी पक्षधरता अधिक संदेहास्पद हुई।

          उदारीकरण के साथ ही देश में सांप्रदायिकता के एक नए अध्याय का आरंभ हुआ। उदारीकरण से दुनिया एक गाँव में बदलने के लिए अपने मार्ग प्रशस्त कर रही थी। भारत में सामाजिक ढाँचा करवट ले रहा था। तब भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद किया गया। जब भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्या में मुग़लों द्वारा राम मंदिर के स्थान पर बनाए गए ढांचे को लेकर राजनीति शुरू हुई, तो समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में भारी उथल पुथल मची। कांग्रेस ने जब कपाट खुलवाए और पूजा अर्चना शुरू की तो भाजपा ने रथयात्रा आरंभ की। दिसम्बर 1992ई0 में ढांचा ढहाए जाने के बाद देश भर में दंगे और प्रदर्शन हुए।

          ऐसा देखा गया कि 1992ई0 के बाद मुस्लिम समुदाय पूर्णरुपेण अरबों का मुखापेक्षी हो गया। यह समुदाय अधिक मुखर हुआ और उसने अपने सांप्रदायिक प्रतीकों का अधिक उग्रता से प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया। काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास काशी का अस्सी में एक संवाद में लक्षित किया कि मस्जिदों पर लाउडस्पीकर इस घटना के बाद रातों रात लगा दिये गए।

          आज स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में यह साफ देखा जा सकता है कि भारत में हिन्दू , सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि समुदाय नए ज्ञान-विज्ञान के साथ आने के लिए स्वयं में बदलाव हेतु व्यग्र हैं जबकि मुसलमान आकांक्षी होकर भी रूढ़ियों और कट्टरताओं में उलझा हुआ है। सरकार निरंतर योजना बनाती है कि वह युवाओं के हाथ में कुरान के साथ साथ कंप्यूटर भी देखना चाहती है किन्तु जैसा कि तुलसीदास लिख गए हैं- दोऊ की होऊ एक समय भुवाला। हंसब ठठाई फुलाईब गाला।

          आज मुस्लिम समुदाय अरब देशों के निर्देशों से संचालित हो रहा है। एक घटना मात्र होती है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया में अरब देश भी त्वरित उपस्थित होते हैं। अभी हाल के दिनों में टीवी बहस के एक प्रकरण को लेकर यह बहुत स्पष्ट तरीके से देखा गया। मुस्लिम समुदाय अपने सांप्रदायिक प्रतीकों को लेकर अधिक आग्रही है। जिस तरह ईरान, तुर्की, फ्रांस आदि देश क्रमशः कट्टरपंथ की तरफ अग्रसर हुए हैं, भारत में उसकी प्रतिच्छाया दिखी है। बच्चों के नामकरण से लेकर संस्कारों और दैनिक व्यवहारों में यह देखा जा सकता है। सड़कों पर अदा किया जाने वाला नमाज हो या शिक्षण संस्थानों में हिजाब का मामला, मुस्लिम समुदाय ने अपने प्रतिगामी रूप को अधिक प्रदर्शित किया है। यह प्रदर्शन बहुत आक्रामक दिखाई देता है। इसके विपरीत हिन्दू जनमानस अपने सांप्रदायिक प्रदर्शन से बचने का उपाय करता मिला है। वह नवधा भक्ति के समस्त कर्मकांड के स्थान पर उदारवादी रवैया रखते हुए सहिष्णु बनने के लिए हर तरह का मूल्य चुकाने को तत्पर दिखता है। यद्यपि आज कई प्रतिक्रियावादी घटनाएँ इस समुदाय को भी कट्टरता के दायरे में धकेल रही हैं किन्तु सामान्यतः यह समुदाय दूसरे को पर्याप्त स्थान देने के लिए सदैव प्रयासरत दिखाई देता है।

          स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हम यह नहीं कह सकते कि भारत में इन दोनों समुदायों के बीच आगामी वर्षों में तीखापन नहीं आएगा। दुर्भाग्य से भारत में इस समय किए जा रहे सामाजिक सुधारों का, जिसमें तीन तलाक, कश्मीर मामला, सी ए ए और एनआरसी आदि शामिल हैं, मुस्लिम समुदाय विरोध कर रहा है और इस विरोध के पीछे कोई तार्किक आधार भी नहीं है। तब भी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक वाक्य से अपनी बात खत्म करता हूँ- क्या निराश हुआ जाये?

(हस्तक्षेप दिनांक 05 अगस्त, 2022)

हम और हमारा सामाजिक ताना-बाना


 

 ------डॉ रमाकान्त राय

लेखक एवं विश्लेषक

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

728सिविल लाइंसइटावाउत्तर प्रदेश 206001

royramakantrk@gmail.com  9838952426

ट्विटर- ramakroy


बुधवार, 20 जुलाई 2022

महामारी और हिन्दी साहित्य

-डॉ रमाकान्त राय

वर्तमान समय में समूचा विश्व एक विशेष किस्म की महामारी से जूझ रहा है। इसका नाम कोविड_19 रखा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड_19 को वैश्विक महामारी घोषित किया है। कोविड_19 तीन शब्दों का एक संक्षिप्त नाम है- को का आशय है- कोरोना, वि का अर्थ वायरस और डी से अभिप्राय डिजिज़ है। इस प्रकार यह कोरोना वाइरस डिजिज़ है। इसका पता 2019 के दिसंबर में लगा इसलिए इसमें 19 भी जुड़ा है। सबसे पहले वैज्ञानिकों ने यही परिलक्षित किया कि यह फ्लू का ही एक प्रकार है। फ्लू का अन्य रूप स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इन्फ़्लुएंजा आदि भी है। खांसी जुकाम भी एक किस्म का फ्लू ही है। कोविड_19 की एक विशेष बात यह है कि यह एक संक्रामक व्याधि है। संक्रामक व्याधि उसे कहते हैं जो संक्रमण करते हुए एक दूसरे को चपेट में लेता है। हैजा, चेचक, फ्लू , मलेरिया आदि संक्रामक व्याधियाँ हैं। यह व्याधियाँ किसी प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणु अथवा विषाणु के माध्यम से फैलती हैं। अपने संक्रामक चरित्र के कारण यह व्याधियाँ महामारी का रूप धारण कर लेती हैं।

          फ्रांसीसी साहित्यकार अल्बेर कामू का बहुत प्रसिद्ध उपन्यास प्लेग है। यह प्लेग महामारी पर आधारित है। इसी प्रकार रूसी उपन्यासकर अलेक्षान्द्र कुप्रिन ने गाड़ी वालों का कटरा नाम से उपन्यास लिखा है जिसमें यौन संक्रामक बीमारी की विभीषिका वर्णित है। हिन्दी साहित्य में महामारी का उल्लेख कई प्रसिद्ध रचनाओं मे हुआ है। हिन्दी की पहली आत्मकथा मानी जाने वाली बनारसी दास जैन की  “अर्धकथानक” में लेखक के महामारी से ग्रस्त होने का प्रसंग आया है। हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों मे परिगणित की जाने वाली मास्टर भगवान दास की कहानी प्लेग की चुड़ैल तो प्लेग की महामारी पर ही आधारित है। यह कहानी सन 1902 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में गाँव में प्लेग का प्रकोप फैलने और लोगों के भय, आशंका, डर और अमानवीयता का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है। यह कहानी हालांकि घटना प्रधान है और चमत्कार के प्रभाव से आगे बढ़ती है लेकिन प्लेग महामारी से लोगों में उपज रहे डर और उसकी विभीषिका को यह बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करती है।

          महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में दो छोटे-छोटे अध्याय महामारी को केन्द्रित कर लिखे हैं। जब वह दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में थे तब फेफड़ों की बीमारी प्लेग का प्रकोप हुआ था। गांधी जी ने इस व्याधि से ग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा शुरू की। उनके देखभाल की परिधि में कुल तेईस लोग थे। इनमें 21 काल कवलित हुए थे। गांधी जी ने अङ्ग्रेज़ी सरकार द्वारा महामारी से बचाव के लिए पैसा पानी की तरह बहाये जाने का उल्लेख किया है और महामारी के समाप्त हो जाने पर उस लोकेशन की होली करने की बात लिखी है, जहां यह महामारी थी। इस क्रम में म्यूनिसपैलिटी को इस होली में लगभग दस हजार पौंड का नुकसान हुआ।

          1918-19 में इन्फ़्लुएञ्जा नामक महामारी का प्रकोप भारत में हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 1939 में प्रकाशित अपने आत्मकथात्मक उपन्यास कुल्ली भाट में इस महामारी के प्रकोप का कारुणिक वर्णन किया है। परिवार के लोगों के एक-एक कर मरने, गंगा नदी में बहती लाशों का विवरण रोंगटे खड़ा कर देता है। इसी महामारी में उनकी पत्नी का भी देहांत हुआ। उनके उपन्यास “अलका” का आरंभ भी एक महामारी के वर्णन से होता है। “महासमर का अंत हो गया है, भारत में महाव्याधि फैली हुई है। एकाएक महासमर की जहरीली गैस ने भारत को घर के धुएँ की तरह घेर लिया है, चारो ओर त्राहि त्राहि, हाय हाय – विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं, सब अपने घरवालों की अचानक बीमारी का हाल पाकर। युक्त प्रांत में इसका और भी प्रकोप, गंगा, यमुना, सरयू, बेतवा, बड़ी-बड़ी नदियों में लाशों के मारे जल का प्रवाह रुक गया है। .... गंगा के दोनों ओर दो-दो तीन-तीन कोस दूर तक जो मरघट हैं, उनमें एक-एक दिन में दो-दो हजार तक लाशें पहुँचती हैं। जलमय दोनों किनारे शवों से ठसे हुए, बीच में प्रवाह की बहुत ही क्षीण रेखा, घोर दुर्गंध, दोनों ओर एक-एक मील तक रहा नहीं जाता। जल-जन्तु, कुत्ते, गीध, सियार लाश छूते तक नहीं”। महामारी का यह वर्णन रोंगटे खड़े कर देता है। इस रचना में बड़ी संख्या में हुई मौतों का कारुणिक वर्णन है।

          फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास “मैला आँचल” में मलेरिया का मार्मिक वर्णन है। मेरीगंज का नाम जिस मार्टिन की पत्नी मेरी के नाम पर पड़ा है, उसकी मृत्यु मलेरिया ग्रस्त होने से हुई। मार्टिन इस आघात के बाद मेरीगंज में डिस्पेन्सरी खुलवाने के लिए बहुत प्रयास करता है। समूचे उपन्यास में मलेरिया और कालाआजार नामक बीमारियों का अनेकश: उल्लेख है और डॉ प्रशांत उससे मुक्ति के लिए शोधरत है। वह इसमें कुछ हद तक सफल भी होता है हालांकि यह अलग बात है कि वह अपने अनुसंधान में एक अन्य ही व्याधि की तरफ संकेत करता है- “गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु हैं। एनोफिलीज़ से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ़्लाइ (कालाआजार का मच्छर) से ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के...”। महामारी को केन्द्रीकृत करके फणीश्वर नाथ रेणु ने “पहलवान की ढोलक” शीर्षक से एक कहानी लिखी है। यह कहानी दिसंबर 1944 में साप्ताहिक विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में समूचे गाँव में पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे के प्रकोप का वर्णन किया गया है। इस वज्रपात के कारण समूचे गाँव में लोग काल कवलित होने लगे थे। जब पहलवान के दोनों बेटे भी एक दिन हैजे की भेंट चढ़ जाते हैं तो भी पहलवान गाँव वालों को ढाढ़स बंधाने के लिए रात-रात भर ढोलक बजाता रहता है लेकिन एक सुबह पहलवान की चित लाश मिलती है। उसके ढोलक को सियारों ने फाड़ डाला था और पहलवान की जांघ भी काट खाया था। यह कहानी महामारी की विभीषिका में पहलवान की जीवटता का बेहतरीन आख्यान है।

          हिन्दी में कमलाकांत त्रिपाठी ने अपने तीन उपन्यासों- पाहीघर, सरयू से गंगा और तरंग में महामारी को कथानक का अंग बनाया है। पाहीघर और सरयू से गंगा में हैजे से गाँव के गाँव नष्ट हो जाने की बात कथानक का अंश बनकर आई है तो तरंग में सन 1896 में फैले प्लेग को एक फ्लैश बैक के रूप मे याद किया गया है। पाहीघर उपन्यास में गुरुदत्त बैशाख के एक दिन भीलमपुर से हैजा लेकर लौटते हैं और अपने डेरे पर आकर दम तोड़ देते हैं। हैजा इस कदर संयुक्त प्रान्त में जानलेवा हो गया था कि उससे हुई मृत्यु पर रोना वर्जित था। ग्रामवासियों में दस्तूर था कि हैजे की लाश जलायी नहीं जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के सामयिक में प्रकाशित

   राही मासूम रज़ा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “आधा गाँव” में गंगौली में फैली चेचक का जिक्र किया है। शहर से लौटा मासूम जब मुमताज़ को देखने जाता है तो उसे बताया जाता है कि मुमताज़ को माता निकल आई हैं। यह माता चेचक का ग्रामीण संस्करण है। चेचक भी एक महामारी की तरह ही आई और देश में रही। मुमताज़ को चेचक निकल आई हैं तो घर भर में उससे बचाव के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। मरीज से किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा, फुन्नन मियां नीम की टहनी से हवा कर रहे हैं और घर की रसोई बहुत सादा भोजन वाली हो गयी है क्योंकि रुकय्ये की शिकायत है कि “चार दिन से तरकारी खाते खाते नाक में दम आ गवा है”।

          इन साहित्यिक कृतियों में एक बात ध्यान देने योग्य है कि सबमें यह महामारी किसी न किसी रूप में बाहर से आई होती है। जान-माल की बेतरह क्षति के बाद यह महामारी अपना प्रकोप तभी समेटती है जब मौसम बदल जाता है। इन व्याधियों के आगमन से गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। महामारी के फैलने पर समाज में इससे लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं है। लोग देसी उपचार करते हैं और कई बार सफल भी हो जाते हैं। महात्मा गांधी की आत्मकथा से पता चलता है कि संक्रामक बीमारी के प्रकोप से बचाने के क्रम में बहुत खर्चीला उपाय किया जाता था। महात्मा गांधी ने देसी उपाय कर ही दो बीमारों को प्लेग के प्रकोप से बचा लिया जबकि आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उपयोग करके सभी बीस मरीज बचाए नहीं जा सके। उनकी सेवा शुश्रूषा में रत नर्स भी इस संक्रमण और ब्राण्डी का सेवन करने के बावजूद बचाई नहीं जा सकी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए अपनी बात समाप्त करूंगा। जिन भी रचनाओं का उल्लेख इस आलेख में किया गया है उसमें अधिकांश औपन्यासिक रचनाओं के आरंभ में ही महामारी के प्रकोप का वर्णन है- यह इसलिए कि महामारी एक जीवन के अन्त की घोषणा और दूसरे जीवन के आगमन की उम्मीद का नाम है। कोविड_19 का यह नवीनतम संस्करण भी इसी तरह के एक नए जीवन की उम्मीद का अध्याय बनेगा।

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

 इटावा, उ०प्र०
  9838952426, royramakantrk@gmail.com

रविवार, 10 जुलाई 2022

हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते और कट्टरता

 - डॉ रमाकान्त राय

    वर्तमान समय में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एक विशेष सम्बन्ध देखने को मिल रहा है, जहां मुस्लिम कट्टरता के प्रत्युत्तर में एक उग्र नवहिन्दू स्वर है। भारत में इस तरह का व्यवहार सर्वथा नया है। हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु समाज के रूप में जाना जाता रहा है, जो अपने साम्प्रदायिक प्रतीकों और मान्यताओं पर किए जाने वाले प्रहार को बहुत सहजता से झेलता रहा है। इसके पीछे उच्च और समृद्ध ज्ञान-विज्ञान तथा समावेशी जीवन दर्शन प्रमुख कारक तो रहा ही है, लंबे समय से केंद्रीय सत्ता से दूरी से उपजी दासता भी इसके लिए बराबर ज़िम्मेवार रही है। गुजरात के गोधरा नरसंहार के बाद एक विशिष्ट भाव-भंगिमा देखी गयी है। बीते दिन नूपुर शर्मा से संबन्धित विवाद में भी दुनिया भर के लिए अनपेक्षित था कि कोई इस प्रकार उग्र और कटु वचन व्यक्त करेगा। इससे समाज में एक नयी बहस चली है और दोनों समुदायों में कट्टरता पर विमर्श होने लगा है। हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों और सामुदायिक कट्टरता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।

ऐतिहासिक सम्बन्ध और कट्टरता का स्वरूप-

          भारत के पश्चिमी तट पर इस्लाम के उदय देश अरब के समुद्री मार्ग से आनेवाले व्यापारी अच्छा व्यवसाय करते थे। काली मिर्च और चन्दन का निर्यात होता था और अरब में पाये जाने वाले उत्कृष्ट कोटि के घोड़े की भारत में बहुत मांग थी। जब अरबों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो उनके व्यवहार और उद्देश्य में बदलाव देखा गया। वह राजनीतिक और सांप्रदायिक शक्ति के विस्तार के लिए उद्धत दिखने लगे। राजनीतिक रूप से सबसे पहले सन 656ई0 में खलीफा उमर के शासनकाल में मुंबई के निकट थाणे पर आक्रमण हुआ जिसमें अरब पराजित हुए और खदेड़ दिये गए। पराजित होने के बाद भी अरब साम्राज्य विस्तार में लगे रहे और 712 ई0 में उन्हें सबसे पहले मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सफलता मिली, जब उन्होंने सिंध के शासक दाहिर को हराया। दाहिर की सेना बहादुरी से लड़ी। उनकी पत्नी ने भी संघर्ष किया किन्तु पराजित हुए। कासिम ने संपत्ति लूटने के बाद सिंध के निवासियों को इस्लाम अथवा मृत्यु में से एक चुनने के लिए बाध्य किया। सामान्य जन के साथ इस्लाम का यह पहला संपर्क था। बड़ी संख्या में लोगों ने मृत्यु का वरण किया।

          नवीं सदी में केरल के मालाबार का राजा चेरामन पेरूमल को धोखे से मुसलमान बना दिया गया। उसने अरबों को धर्म प्रसार के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कीं। जामोरिन के शासनकाल में तो धीवर (जुलाहा) परिवार के लिए शासनादेश आया कि घर का एक व्यक्ति इस्लाम अवश्य स्वीकार करे। फिर तो राजनीतिक संरक्षण में मस्जिद आदि का निर्माण होने लगा। पीर-औलिया आदि अस्तित्व में आ गए। उनका एकेश्वरवाद और भेदभाव रहित समाज की संकल्पना वाला सम्प्रदाय अपने दर्शन से प्रभावित भी करने लगा। इस्लाम और उसके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। अरबों के काम को तुर्कों ने आगे बढ़ाया और व्यवस्थित तरीके से पूर्ण किया। तुर्क आक्रमणकारी सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी ने भारत में इस्लाम के लिए राजमार्ग बनाया। महमूद गजनवी के अत्याचार की कहानियाँ तो किंवदंती हैं। उसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा और अकूत धन लेकर गया। तुर्कों का एक अन्य शक्तिशाली आक्रमण मुहम्मद गोरी ने किया और तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराया। यह विजय भारत में मुसलमानों के स्थायी शासन की शुरुआत थी। यहीं से दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी जिसे मुगलों ने और अधिक मजबूत किया।

सस्कृतिक विस्तार और भागीदारी-

          हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों में राजनीतिक विस्तार सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। केंद्रीय सत्ता की स्थापना के बाद इन सम्बन्धों में अधिक निकटता हुई। फिर सांस्कृतिक विस्तार अधिक प्रभावी बना। मुगल बादशाहों ने हिन्दू परिवारों में वैवाहिक सम्बन्ध बनाए। जन्माष्टमी, होली-दीपावली आदि उत्सवों में सहभागिता की तथा भारतीय धर्म-दर्शन आदि को समझने के लिए गंभीर प्रयास किए। धर्मग्रंथों का अनुवाद हुआ और उनके संरक्षण आदि पर ध्यान दिया। राजनीतिक संरक्षण में विदेश से आया एक समुदाय तेजी से अपना विस्तार करता रहा। सूफी, संत और फकीर तथा औलिया विभिन्न माध्यमों से हिंदुओं के संपर्क में आते रहे। इस्लाम एक विशेष कट्टर सोच के साथ चल रहा था तो सूफी-पीर-औलिया उसमें प्रेम का रस भरने का प्रयास कर रहे थे। चूंकि केंद्रीय सत्ता उनका संरक्षण कर रही थी इसलिए उनकी कट्टरता को स्वाभाविक माना जा रहा था। तैमूर, नादिरशाह, औरंगजेब आदि आक्रमणकारी/शासक की गतिविधियां शासकीय क्रूरता मानकर निबाही जा रही थीं। हिन्दू भी पराजित जाति की तरह इसे सहने के लिए बाध्य थे।

अंग्रेजों का आगमन और सांप्रदायिकता-

          18वीं सदी में जब केंद्रीय सत्ता पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होने लगा तो हिन्दू और मुस्लिम समाज में एक नए सम्प्रदाय का प्रवेश हुआ। यह ईसाई थे। कायदे से तो सामाजिक स्तर पर क्लेश ईसाई और हिन्दू-मुसलिम समुदाय में होना चाहिए था किन्तु अंग्रेजों की चतुराई और फूट डालो, राज्य करो के क्रियान्वयन में यह सांप्रदायिक भाव हिन्दू और मुसलमानों में सतह पर दिखने लगा। अंग्रेज़ निरंतर इसे प्रज्ज्वलित करते रहे और इन दोनों समुदायों के बीच जो खाई थी, उसे ठीक से खोदकर रख दिया। हिन्दू और मुस्लिम समुदाय में एक बड़ा अंतर समाज के खुलेपन से जुड़ा था। मुस्लिम समाज हद दर्जे तक बंद समाज था। अपने धर्म की रक्षा के अनुक्रम में केंद्रीय सत्ता से विहीन हिन्दू भी कछुआ धर्म अपना रहे थे, तथापि उनका समाज बहुत खुला और उदार था। इसाइयों को अपने विस्तार के लिए यह समुदाय सॉफ्ट केक की तरह मिला। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों ने अपने सम्प्रदाय के विस्तार के लिए हिन्दू और मुसलमान समुदायों के विभेद को हवा दी। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की स्थापना को प्रोत्साहित किया और सांप्रदायिकता के बीज बोये। अंग्रेजों के जाने के बाद भी यह भाव बहुत गहराई तक पैठा हुआ है।

उदारीकरण की विसंगतियाँ-

          विगत कुछ सालों से, उदारीकरण के बाद, जब से पूंजी का स्वरूप आवारा किस्म का हुआ है, इसने दुनिया के दूसरे देशों को सांप्रदायिक आधार पर प्रभावित करना शुरू किया है। जब से शक्ति विस्तार में मूलतः सांप्रदायिक चेतना को पाया गया है, तब से हिन्दू-मुसलमान सम्बन्धों में एक नया मोड़ दिखाई देने लगा है। दुनिया लगभग दो ध्रुवीय हो गयी है। ईसाइयत और इस्लाम का द्वंद्व बहुत तेजी से दुनिया में फैला है। इससे अलग साम्प्रदायिक पहचान रखने वाले समाज तीसरी दुनिया के समाज हैं। अमेरिका के खाड़ी के देशों पर आक्रमण के बाद से यह ध्रुव बहुत स्पष्ट देखे गए हैं। ईसाइयत का केंद्र वेटिकन है और इस्लाम का अरब अथवा तुर्की। भारत में मैकाले की शिक्षा नीति के बावजूद हिन्दू समुदाय विविध तरीके से अपने को बचाने की कोशिश में संलग्न है।

रिश्तों का वर्तमान और भविष्य-

          लंबे समय से सत्ता से च्युत समुदाय पहली बार मुखर होने के लिए छटपटा रहा है। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के आरोप से दो चार हो रहा है, अपनी अस्मिता और प्राचीन धरोहरों के लिए एकत्र हो रहा है और स्वयं का ध्रुवीकरण कर रहा है। इस ध्रुवीकरण से एक संकीर्णता उदित हुई है जिससे आपसी सम्बन्ध की कटुता सतह पर आ गयी है। देश और दुनिया में बीते दिनों हुए कई घटनाक्रमों ने हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के एक नए युग में प्रवेश की पटकथा रच दी है जो दोनों समुदायों में अधिक कट्टरता, विभेद और संघर्ष की तरफ ले जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 
 राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में आलेख का लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा

9838952426

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

आदिवासी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बनेंगी महामहिम!

 -डॉ रमाकान्त राय

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा आदिवासी समुदाय की संघर्षशील महिला और झारखंड के राज्यपाल पद को सुशोभित कर चुकी महिला द्रोपदी मुर्मू को महामहिम के लिए अपना प्रत्याशी बनाकर एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। भारतीय जनता पार्टी को अपने शासन काल में तीन बार राष्ट्रपति चुनाव के लिए अवसर मिला और उसने ए पी जे अब्दुल कलाम, रामनाथ कोविन्द और द्रोपदी मुर्मू का नाम आगे करके हाशिया पर रहने वाले वंचित समाज को उच्च पद पर आसीन करने का एक उल्लेखनीय काम किया है। पहले मुसलमान फिर अनुसूचित जाति और अब अनुसूचित जनजाति की महिला उम्मीदवार खड़ा करके उसने वंचित और शोषित समुदाय को अवसर देने का श्रेय लिया है।

      द्रोपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं और उनका सम्बन्ध ओडिसा से है। ओडिसा के मयूरभंज जनपद के एक संताल परिवार में जन्मीं द्रोपदी मुर्मू ने अध्यापक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ किया और अपने पति तथा पुत्रों की अकाल मृत्यु के बाद भी अदम्य साहस और राजनीतिक क्षमता का परिचय देते हुए विधानसभा, मंत्रिपद और राज्यपाल के रूप में सेवाएँ देकर शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया। वह झारखंड की पहली महिला और आदिवासी राज्यपाल होने का गौरव रखती हैं। अब जबकि राष्ट्रपति पद पर उनका चुना जाना लगभग सुनिश्चित है, देश और शोषित वंचित आदिवासी समुदाय को उनसे अपेक्षाएँ बढ़ गयी हैं।

          द्रोपदी मुर्मू के देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के साथ ही आदिवासी समुदाय को एक महत्त्वपूर्ण पहचान मिलने की उम्मीद रहेगी। आदिवासी और दलित समुदाय में यह बहुत बड़ा द्वंद्व रहा है कि आदिवासी समुदाय, तथाकथित मुख्यधारा से इतर एक पृथक जीवन प्रणाली का अंग रहा है और कई बार उसकी अपेक्षा रही है कि उसकी स्वायत्तता और स्वतन्त्रता तथा जीवन पद्धति में अनावश्यक दखल न किया जाय। जबकि दलित समुदाय मुख्य धारा के समाज के बीच में उपेक्षा और अश्पृश्यता से मुक्त होने के लिए छटपटाता रहा है। आदिवासी समुदाय की सबसे बड़ी चुनौती है मुख्यधारा से जुड़ना। अपने सामुदायिक प्रतीकों और रीति-रिवाजों को सर्व समाज में स्वीकृत कराना। देश के सर्वोच्च पद पर बैठने से लोगों का दृष्टिकोण बदलेगा और इन पहचानों को मान्यता मिलेगी। द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन होने के बाद आदिवासी समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने में बहुत बड़ी सफलता मिलने वाली है।

       वर्तमान समय में आदिवासियों का शोषण, उनके जल, जंगल और जमीन पर बढ़ता अतिक्रमण एक बड़ा मुद्दा है। देश के विभिन्न भागों में आदिवासी समुदाय इस अतिक्रमण से बहुत क्षुब्ध है और इसीलिए नक्सलियों के प्रति सहानुभूतिशील भी। झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओडिसा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में नक्सलियों की रीढ़ यह समुदाय इसीलिए बना हुआ है क्योंकि उसे आशंका है कि तथाकथित विकास की यह प्रक्रिया और अतिक्रमणवादी भावना उनकी स्वायतत्ता और स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगी और उनके जंगल, आवास आदि को नष्ट कर डालेगी। राष्ट्रपति के रूप में द्रोपदी मुर्मू के समक्ष यह चुनौती होगी कि वह आदिवासियों को विश्वास में लें और उनकी आशंकाओं को दूर करें। आज आदिवासी समुदाय तथाकथित दिकु लोगों के संपर्क में आकर ऋण के ऐसे चंगुल में फंसा हुआ है जिसमें वह लगभग तबाह हो जाता है। औने-पौने कीमत पर उनकी जमीन हड़प ली जाती है, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है और यह सब शोषण स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से निर्बाध चल रहा है। देश के एक बड़े समूह को आशा है कि इस सब शोषण आदि पर रोक लगेगी और आदिवासी समुदाय को परेशान करने वाली मानसिकता क्षरित होगी। नक्सली समस्या से निजात मिलेगी।

         शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सुधार होने की राह प्रशस्त होगी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1991 में भारत में अनुसूचित जनजातियों की साक्षारता दर 29.6 प्रतिशत थी जो वर्ष 2001 में बढ़कर 47.1 प्रतिशत तक पहुंची है किन्तु यह एक सतोषजनक आंकड़ा नहीं है। यह देश भर में साक्षारता के औसत दर 74 प्रतिशत से बहुत कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी यह समुदाय बहुत आशा भरी दृष्टि से देख रहा है।

आदिवासी समुदाय अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर भी संघर्ष कर रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में यह माँग ज़ोरों पर है कि आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा का भाषाई माध्यम स्थानीय हो जिसके लिए प्रयास जारी हैं। आदिवासी समुदाय अपने साहित्य को लेकर भी विमर्श के केन्द्र में है। उनका अधिकांश साहित्य वाचिक परंपरा का है और धीरे धीरे लुप्त होने के कगार पर है। लिखित साहित्य को भी मुख्य धारा में स्थान बनाने में संघर्ष करना पड़ रहा है। जो गिने चुने साहित्यकार हैं, उनकी रचनाओं को एक वृहद संसार मिलेगा और उनका स्वर देश-देशान्तर में पहुंचेगा।

         आदिवासी समाज में धर्मांतरण एक बहुत बड़ा विषय है। जितनी तेजी से ईसाई मिशनरियाँ इन दुर्गम क्षेत्रों में पहुँचकर अपना अभियान चला रही हैं, वह सुरसा की तरह विकराल होता जा रहा है। मैं जब सोनभद्र में कार्यरत था तो देखा करता था कि स्वास्थ्य और शिक्षा तथा पोषण को दृष्टिगत कर मिशनरी के लोग आदिवासियों को धर्मांतरित करते रहते थे और जब तब इसके लिए अभियान चलाते थे। आज देश में आदिवासी, ईसाइयों के सबसे आसान शिकार हैं। द्रोपदी मुर्मू बनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ी रही हैं और आदिवासियों की विभिन्न समस्याओं से बखूबी परिचित हैं। उन्हें इस समुदाय की आशाओं/आकांक्षाओं का ज्ञान है। वह आदिवासी समुदाय की महिला नेता और अध्यापक रही हैं। यह सब कुछ उन्हें बहुत संवेदनशील, मर्मज्ञ और चुनौतियों के प्रति सदय बनाता है।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में

यद्यपि देश का एक अन्य बौद्धिक वर्ग तंज़ करते हुए यह कह रहा है कि राष्ट्रपति रहते हुए दलितों का जितना उपकार रामनाथ कोविन्द ने किया, आदिवासियों का द्रोपदी मुर्मू करेंगी। इस तंज़ में कोई सकारात्मक भाव नहीं है। रामनाथ कोविन्द के सर्वोच्च पदासीन होने का एक प्रतीकात्मक महत्त्व है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव कम और अप्रत्यक्ष प्रभाव अधिक है। समाज के शोषित, वंचित समुदाय का आत्मविश्वास प्रबल होता है, उन्हें यह विश्वास होता है कि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में वह भी देश का महामहिम बन सकते हैं। स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारे देश में यह एक शानदार पहल हो रही है कि आदिवासी समुदाय की एक महिला को पहली बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने का अवसर मिल रहा है। समूचे विश्व को इस पहल का स्वागत करना चाहिए।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप का ऑनलाइन लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

9838952426

royramakantrk@gmail.com

रविवार, 4 अप्रैल 2021

नए कालिदास का उदय

-डॉ रमाकान्त राय

जब विद्योत्तमा ने सभी पंडितों को हरा दिया तो अपमानित पंडितों ने निश्चित किया कि इस विदुषी का अहंकार टूटना चाहिए। विद्वान को पराजित करने के लिए सभी विद्वानों ने मंत्रणा की। परिणामस्वरूप उचित व्यक्ति की तलाश शुरू हुई। विद्वान को मूर्ख ही हरा सकता है - यह निश्चित है।

उन्हें सहज ही उचित व्यक्ति मिल गया। वह आलू से सोना बना सकने की तकनीक जानता था और जिस डाल पर बैठा था, उसे ही कुल्हाड़ी से काट रहा था। डाल कटती तो वह भी निश्चित ही धराशायी होता। इससे उपयुक्त व्यक्ति कौन होगा? पंडितों ने निश्चित किया। बताया कि यह अज्ञात राजपरिवार का स्वाभाविक कुमार है।  यह कालिदास थे।

नई दुनिया, दैनिक समाचार पत्र (04 अप्रैल 2021) का संपादकीय पृष्ठ, स्तम्भ- अधबीच  

समझा बुझाकर सबने कालिदास को विद्योत्तमा के सम्मुख शास्त्रार्थ हेतु प्रस्तुत किया। "मौन भी अभिव्यंजना है!" यह उक्ति तो परवर्ती है। विद्वानों ने मौन की, संकेत की अभिव्यक्ति अपने तरीके से करने का निश्चय किया। कालिदास को रटा रटाया उत्तर संकेतों में ही देने के लिए मना लिया।

विद्योत्तमा ने मौन के, संकेत आधारित शास्त्रार्थ को स्वीकार कर लिया और पहली शास्त्रोक्ति की- "ईश्वर एक है!" इसके लिए उन्होंने एक ऊंगली उठाई। कहते हैं कि कालिदास को समझ में आया कि यह लड़की मेरी एक आंख फोड़ना चाहती है। प्रत्युत्तर में हिंसक होते हुए कालिदास ने दो ऊंगली उठाई- "मैं तुम्हारी दोनों आंखें फोड़ दूंगा।" सभा में हड़कंप मच गया।

विद्वानों ने व्याख्या की- "ईश्वर आत्मा और परमात्मा का द्वैत है। बिना इस द्वैत को जाने तत्त्व की मीमांसा कैसे हो सकती है!" फिर आउटरेज शुरू हो गया। ट्वीट-रिट्वीट हुए। विद्योत्तमा सहित सभी वामी-कामी, विद्वत समाज ने इस व्याख्या को स्वीकार किया। उस शोरगुल में और सभी विषय इतर हो गए। सभा डीरेल हो गई। विषय से इतर कूदने-फांदने में मान्यता प्राप्त विद्वानों को कौन हरा सकता है।

नतीजा यह हुआ कि Abs, समुद्री स्नान, आलू ही आलू, मेड इन मदुरै, उत्तर-दक्षिण, तीन कानून, आसमानी किताब, हम दो हमारे दो आदि की चहुंओर अनुगूंज होने लगी। एक ने तो कहा कि राजा को पदच्युत कर कालिदास का अभिषेक होना चाहिए। अविलम्ब। ईवीएम पर भरोसा कौन करता है। लोकतंत्र नष्ट नहीं करना है, न ही होने देना है। विद्वानों, पंडितों, क्रोनी-गठजोड़, हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, कौवा-तीतर, काली पहाड़ी सबने कालिदास के लिए बहुत माहौल बनाया।

मसल है कि वीरता की नकल नहीं हो सकती। इतिहास को दुहराया नहीं जा सकता। लेकिन देश-दुनिया में प्रयास जारी हैं। दूसरे कालिदास का कभी भी उदय हो सकता है! यद्यपि कई प्रयास विफल हो गए हैं, तथापि लोगों ने आशा का त्याग नहीं किया है।

(कथावार्ता, कथा वार्ता, Katha Varta, कथा-वार्ता, Ramakant Rai, Rama Kant Roy, ramakant, रमाकांत राय, नए कालिदास का उदय, नई दुनिया, अधबीच)

 


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा, उत्तर प्रदेश

 9838952426, royramakantrk@gmail.com

बुधवार, 16 दिसंबर 2020

कथावार्ता : 'आम आदमी' और आधुनिक हिन्दी साहित्य

                                                   -डॉ रमाकान्त राय

अरविन्द केजरीवाल की पार्टी ‘आम आदमी पार्टी’ के दिल्ली में सत्ता सँभालने से एक नए युग का सूत्रपात माना गया। इसी के साथ यह बहस भी शुरू हुई कि आम आदमी से उनका आशय क्या है? जब उनकी पार्टी में पी साईनाथ, मल्लिका साराभाई और इसी तरह की गणमान्य हस्तियाँ शामिल होने लगीं तो आम बनाम ख़ास का मुद्दा उठा। आखिर आम आदमी कौन है? रोजमर्रा का जीवन बहुत साधारण तरीके से रोजी-रोटी के चक्कर में उलझने वाला, भविष्य के लिए दो पैसे बचाकर रखने की चाहत में अपनी सुख-सुविधाओं में क़तर-ब्योंत करने वाला या हवाई जहाज के ऊँचे दर्जे में सफ़र करने वाला और पाँच सितारा होटल में ठहरने वाला? अपने एक साक्षात्कार में अरविन्द केजरीवाल ने चौतरफा आलोचनाओं के बाद स्थापना दी कि हर वह आदमी आम आदमी है, जो अपना काम ईमानदारी से करता है। भ्रष्टाचार नहीं करता।उनकी इस बात ने इस बहस को एक नया रूप दिया। अरविन्द केजरीवाल की इस स्थापना के बाद मैंने खुद को आम आदमी के खाँचे से बाहर पाया।

आम आदमी कौन है? प्रेमचंद के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का होरी क्या आम आदमी है? गोदान का होरी भी आम आदमी नहीं है। वह अपना जीवन संघर्षों में व्यतीत करता है और किसान से मजदूर जीवन की त्रासदी सहते हुए मर जाता है। क्या होरी का साठ साला जीवन ईमानदार जीवन था? उपन्यास में एक प्रसंग आता है जब होरी बाँस बेचता है। बाँस बेचने के उस प्रसंग में होरी अपने भाई से छल करता है। यद्यपि इस छल में वही छला जाता है। बाँस बेचने वाला होरी को ब्लैकमेल कर लेता है। प्रेमचंद ने एक प्रसंग में यह बात भी उठाई है कि जब होरी के हाथ कुछ अतिरिक्त पैसे लगे थे तो उसने उन्हें सूद पर चलाया था। उस व्यापार में भी उसे घाटा हुआ था। होरी अपने साथी से छल से गाय खरीदता है। कहने का आशय यह है कि वह अपने जीवन में तथाकथित ईमानदारी का कितना निर्वाह करता है? अगर केजरीवाल के परिभाषा में रखें तो वह ईमानदार नहीं है। धनिया हो सकती है। परिवार का मुखिया नहीं होगा। मेहता हो सकते हैं। पूरे उपन्यास में मेहता के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह आम आदमी हो सकता है। प्रेम और विवाह के विषय में उसकी विचारधारा भी खाप पंचायतों की विचारधारा से मेल खाती है। योगेन्द्र यादव ने बीते दिन खाप पंचायतों की कार्यशैली को उचित ठहराया था। गोदान में आम आदमी के रूप में मेहता को चिह्नित किया जा सकता है। राय साहब तो क्या होंगे। वे गाय की खाल में भेड़िया हैं।

गोदान के बाद अगर ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास मैला आँचलकी बात करें तो लगेगा कि वहाँ एक आम आदमी है। बावनदास। बावनदास में सत्य और आचरण की शुद्धता को लेकर कुछ तफसील हैं। बावनदास आचरण की पवित्रता के लिए उपवास और आज के केजरीवाल की तरह धरना आदि का आश्रय लेता है। रेणु ने ‘मैला आँचल’ लिखते हुए बावनदास का जो चरित्र गढ़ा है वह विलक्षण है। वह चेथरिया पीर पर शहीद हो जाता है। भ्रष्टाचार रोकने की कवायद में जान दे देता है। क्या आम आदमी वही है? समूचे उपन्यास में और कौन पात्र होगा जो आम आदमी कहा जा सके? उपन्यास में प्रशान्त एक जगह ममता को चिट्ठी लिखता है। चिट्ठी में वह लिखता है कि यहाँ के लोग देखने में सीधे हैं। लेकिन साथ ही यह भी उद्घाटित करता है कि मेरे तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में दस बार ठग लें। और तारीफ़ यह कि ठगा जाकर भी हम ठगा नहीं महसूस करेंगे। मेरीगंज के लोग भी, जो ऐसा करते हैं, वे आम आदमी कैसे होंगे। तहसीलदार तो कतई नहीं। उन्होंने तो गाँववालों और आदिवासियों की जमीनें हड़प ली हैं।

श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ में आम आदमी के खाँचे में आने वाला एक सज्जन है- लंगड़दास। लंगड़दास का जितना भी प्रसंग आता हैउसमें वह कचहरी का चक्कर लगाता मिलता है। चक्कर लगाने के जो कारण हैंवे बहुत सटीक हैं। वह ईमानदारी से नक़ल पाना चाहता है और कचहरी का बाबू बिना पैसे लिए नक़ल देने को तैयार नहीं है। यह द्वंद्व बहुत दिलचस्प हो गया है। बाबू को पता है कि कैसे लंगड़दास को नक़ल मिलेगी। लंगड़ को भी पता है कि ईमानदारीपूर्वक उसे नक़ल नहीं मिलेगी। लेकिन उसका संघर्ष जारी है। हमारे लिए यह संघर्ष इस तरह हो गया है कि हास्यास्पद सा लगने लगता है। व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी का संघर्ष हास्यास्पद हो उठता है। आप देखेंगे कि लोग-बाग़ नक़ल के लिए लंगड़ से महज इस लिए पूछते हैं कि थोड़ा मजा आ जायेगा। लंगड़ की संजीदगी देखने लायक है। क्या आम आदमी इतना निरीह आदमी हैउपन्यास में शिवपालगंज के मेले का जिक्र है। एक बारगी यह मानने का मन करता है कि मेले में मिठाई की दुकान चलाने वाला आम आदमी होगा। लेकिन छोटे पहलवान और गंजहों से उलझने के बाद जब कोर्ट-कचहरी तक जाने का मामला आता हैवह सुलह करने को तैयार हो जाता है। लेकिन वह आम आदमी कैसे हो सकता हैश्रीलाल शुक्ल ने मेले की मिठाइयों का जो वर्णन किया है वह पढ़कर पहली नजर में ही लगता है कि ये मिठाइयाँ जानलेवा ही हैं। ऐसी मिठाई बेचने वाला आम आदमी कैसे होगाक्या रंगनाथ हैरंगनाथ में आम आदमी बनने की पूरी संभावना है। वह बन सकता है। शायद वही आम आदमी है भी।

हिन्दी के उपन्यासों में आम आदमी कहीं है तो आदर्शवादी किस्म के उपन्यासों में। ठीक ठीक यह बताना बहुत कठिन है कि यह कहाँ मिलेगा। प्रेमचंद के कर्मभूमि में प्रेमशंकर के रूप में अथवा रंगभूमि के सूरदास में। यशपाल के महाकाव्यात्मक उपन्यास झूठा-सच’ में भी कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसे कहा जाए कि वह आम आदमी है। राही मासूम रजा के उपन्यास आधा गाँव’ में तो कोई है ही नहीं। छिकुरियाकोमिलामिगदाद जैसे हो सकते थे लेकिन उनका चरित्र ज्यादा उभारा ही नहीं गया। टोपी शुक्ला’ का बलभद्र नारायण शुक्ला उर्फ़ टोपी आम आदमी बन सकता था लेकिन उसकी असंख्य न्यूनतायें हैं।

हिन्दी उपन्यास में आम आदमी है? (जनसंदेश टाइम्स में 02 फरवरी, 2014 को प्रकाशित)

दरअसल ईमानदारी एक यूटोपिक अवधारणा है। यह कुटिलता से स्थापित की जाती है। इसे स्थापित करने के अपने कैनन हैं। जब अरविन्द केजरीवाल यह कह रहे होते हैं तो वे बहुत सतही किस्म की बात कर रहे होते हैं। अपना काम ईमानदारी से कौन कर रहा हैक्या केजरीवाल ने कियाजब वे सरकारी सेवा में थे तो अपना काम ईमानदारी से कर रहे थेउन्होंने सरकारी कार्यों का अगर सही से निर्वहन किया होता तो वे सरकारी सेवक होतेन कि एक राजनेता।

मुझे हमेशा से लगता रहा है कि ईमानदारीसत्यनिष्ठा और अपरिग्रह आदि व्यवस्था का पोषण करने के लिए बनाये गए टूल्स हैं। प्राचीन समय में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए इन टूल्स की बहुत आवश्यकता थी। इन टूल्स की मदद से राजा और उनके पुरोहितों ने एक संस्कृति विकसित की। इस संस्कृति में वे हमेशा राजा और पुरोहित बने रहने वाले थे और स्वयं इस नीति-नियम से ऊपर रहने वाले थे। ऐसा ही हुआ। दुनिया भर में यह तकनीक सबसे ज्यादा कारगर रही और दुनिया भर में इसे अपनाया भी गया।

लेकिन यहाँ इन बहसों के लिए अवकाश नहीं है। यहाँ यह देखना है कि केजरीवाल ने जो परिभाषा दी हैउस परिभाषा की कितनी चीर-फाड़ की जाती है। दरअसल नैतिकता के मामलों में हम बिना किसी तर्क के वाक-ओवर दे देते हैं। यह वाक-ओवर ही केजरीवाल की जीत और बढ़त का राज है। वरना हम सब जानते हैं कि आम आदमी का कहीं अता-पता नहीं है। सब गुणा-गणित का फेर है।

('साहित्य में आम आदमी' विषय पर समन्वय संगत ने विश्व पुस्तक मेले में संगोष्ठी की।)


असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावाउत्तर प्रदेश 206001 

royramakantrk@gmail.com 9838952426

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.