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डॉ रमाकान्त राय
प्रसिद्ध
साहित्यकार प्रेमचंद की प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा उनके अपने ग्राम लमही,
वाराणसी में हुई थी। हाईस्कूल की पढ़ाई उन्होंने क्वींस कॉलेज, वाराणसी और इंटरमीडिएट सेंट्रल हिन्दू कॉलेज से किया। स्नातक की पढ़ाई प्रेमचंद
ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने से
पूर्व वह एक विद्यालय में अध्यापक हो गए थे। स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद
उनकी पदोन्नति डिप्टी इंस्पेक्टर के रूप में हुई। सन 1931 में महात्मा गांधी के
सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रेरित होकर प्रेमचंद ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
उन्होंने हंस पत्रिका और जागरण पत्र का सम्पादन किया।
प्रेमचंद
के साहित्य का अनुशीलन करने पर सहज ही पता चलता है कि वह शिक्षा व्यवस्था को लेकर
बहुत संवेदनशील थे। अपने एक लेख ‘नया जमाना-पुराना जमाना’ में उन्होंने “देश के शिक्षित और सम्पन्न लोगों की जन विरोधी तथा
स्वराज्य विरोधी नीति की भर्त्सना की है”। प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं जो
उर्दू और हिन्दी में समान रूप से महत्त्व रखती हैं। उनकी कई कहानियों में शिक्षा, पठन-पाठन और चरित्र निर्माण में उसकी भूमिका का सन्दर्भ मिलता है। इस
आलेख में ऐसी ही कुछ चुनिन्दा कहानियों को केंद्र में रखकर शिक्षा के प्रति
प्रेमचंद के दृष्टिकोण का आकलन करने का प्रयास किया जा रहा है।
प्रेमचंद
की शिक्षा को केंद्र में रखकर लिखी गयी कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं- परीक्षा, बड़े
घर की बेटी, बड़े भाई साहब, पञ्च
परमेश्वर, ईदगाह, सज्जनता का दंड, पशु से मनुष्य आदि।
प्रेमचंद
अपनी कहानियों में तत्कालीन शिक्षा पद्धति, जो पश्चिम आधारित है, को भ्रष्ट मानते हैं और विद्या के भारतीय अर्थ को ही स्वीकार्य मानते
हैं। उनकी एक कहानी पशु से मनुष्य जो 1920 में प्रभा पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, के प्रेमशंकर कहते हैं- “मुझे वर्तमान शिक्षा और सभ्यता पर विश्वास नहीं
है। विद्या का धर्म है आत्मिक उन्नति, और आत्मिक उन्नति का
फल उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता और दयाशीलता है। जो शिक्षा
हमें निर्बलों को सताने पर तैयार करे, जो हमें धरती और धन का
गुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने को इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है।” (पशु से मनुष्य,
प्रेमचंद, प्रेमचंद-2, पृष्ठ- 331) इस
कहानी में प्रेमचंद ने डॉक्टर मेहरा जैसे पात्र का हृदय परिवर्तन करवाया है।
हिन्दी
में प्रकाशित हुई प्रेमचंद की प्रथम कहानी परीक्षा, जो अक्टूबर, 1914 में गणेशशंकर विद्यार्थी की प्रताप पत्रिका के विजयदशमी अंक में
प्रकाशित हुई थी, अङ्ग्रेज़ी शिक्षा पाये नकलची युवकों के
स्थान पर परदु:खकातर, परमार्थी, सेवा
भावना रखने के युवक को श्रेयस्कर मानती है। इस कहानी में देवगढ़ की रियासत के दीवान
पद के चुनाव में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह शिक्षा के
एक महत्त्वपूर्ण उपादान की तरह ली जा सकती है। इस कहानी में स्वाभाविक वृत्ति और
समयानुकूल रूप धरने की शिक्षित लोगों की कला पर बहुत महीन व्यंग्य मिलता है।
प्रेमचंद
की एक अन्य चर्चित कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ जमाना पत्रिका में 1910 में
प्रकाशित हुई थी। यह कहानी प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित होने वाली पहली कहानी है। इस
कहानी का एक पात्र श्रीकण्ठ अङ्ग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हैं किन्तु वह
“डिग्री के अधिपति होने पर भी अंगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे, बल्कि वह बहुधा बड़े ज़ोर से उनकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से
गाँव में उनका बड़ा सम्मान था।” (बड़े घर की बेटी, प्रेमचंद, प्रेमचंद-1, पृष्ठ- 177) यद्यपि वह विद्वान है
तथापि आनंदी के कहने पर उग्र हो उठता है। इस कहानी में आनंदी के बड़े घर की बेटी
होने का श्रेय इस बात से मिलता है कि वह घर को, भाइयों के
बीच संबंध टूटने से बचा लेती है।
प्रेमचंद
की कहानी पञ्च परमेश्वर हिन्दी में सरस्वती पत्रिका में जून 1916 में प्रकाशित हुई
थी। यह कहानी पारम्परिक न्याय व्यवस्था का बहुत सुघड़ निदर्शन कराती है किन्तु इस
कहानी के प्रारम्भिक अनुच्छेद में प्रेमचंद ने परम्परागत शिक्षा प्रणाली पर भी
टिप्पणियाँ की हैं। अलगू चौधरी के पिता मानते थे कि “विद्या
पढ़ने से नहीं आती, जो कुछ होता है,
गुरु के आशीर्वाद से होता है, बस गुरुजी की कृपा दृष्टि
चाहिए।” इस कहानी में शिक्षा प्रदान करने वाले जुमेराती,
अलगू चौधरी को हमेशा चिलम भरने में प्रवृत्त किए रहते हैं और जुम्मन को उसकी
गलतियों के लिए छड़ी से पीटने में अधिक विश्वास करते हैं। अधिक परिश्रम से पढे लिखे
जुम्मन शेख बहुत आदर का पात्र होते हैं। प्रेमचंद यह स्थापित करते हैं कि पढ़-लिखकर
सहज ही आदर प्रपट किया जा सकता है किन्तु जुम्मन के चरित्र का चित्रण करते हुए वह
दर्शाते हैं कि अधिक पढ़ लिख लेने के बाद जुम्मन स्वार्थी और संकीर्णता का शिकार हो
गए हैं। वह अपनी खाला की संपत्ति हड़पने के बाद उनको भरण-पोषण के लिए आवश्यक संसाधन
देने में भी आनाकानी करते हैं। साथ ही अपने विपक्ष में निर्णय देने से रुष्ट होकर
वह अलगू चौधरी के बैल को जहर दे देते हैं। यह संकीर्णता वाला भाव प्रेमचंद अपनी
कहानी मंत्र में भी दिखाते हैं जहां डॉ चड्ढा भगत के बीमार बच्चे का निदान नहीं
करते और बैडमिंटन खेलने चले जाते हैं।
प्रेमचंद
की कहानी बड़े भाई साहब हंस में नवंबर 1934 में प्रकाशित हुई। इस कहानी में बड़े भाई
के मुख से पश्चिमी शिक्षा की जितनी तीखी आलोचना प्रेमचंद ने की है, वह
उल्लेखनीय है। अंगरेजी भाषा, इतिहास,
भूगोल आदि के पढ़ाने पढ़ने पर प्रेमचंद ने बहुत मारक टिप्पणियाँ की हैं। वह लिखते
हैं- “परीक्षकों को क्या परवाह। वह तो वही देखते हैं जो पुस्तक में लिखा है। चाहते
हैं कि लड़के अक्षर अक्षर रट डालें और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आखिर
इन बेसिर-पैर की बातों को पढ़ाने से फायदा?” (बड़े भाई साहब, प्रेमचंद, प्रेमचंद-6, पृष्ठ-
458)
प्रेमचंद
की एक अन्य कहानी ईदगाह (चाँद पत्रिका में 1933 में प्रकाशित) बाल मनोविज्ञान पर
केन्द्रित है। इस कहानी में प्रेमचंद ने मेय देखने जा रहे बच्चों से कॉलेज की
शिक्षा और व्यवस्था पर व्यंग्य वचन कहलाए हैं। वह लिखते हैं- “इतने बड़े कॉलेज में
कितने लड़के पढ़ते होंगे! सब लड़के नहीं हैं जी! इतने बड़े हो गए, अभी
तक पढ़ते जाते हैं? न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना
पढ़कर! हमीद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिलकुल
तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से
जी चुराने वाले।” (ईदगाह, प्रेमचंद,
प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 311) उनकी एक कहानी गुल्ली डांडा में
सहपाठी रहे दो युवकों के बीच कितना अंतर आ गया है, अफसर बना
बालक अपनी पृष्ठभूमि से किस कदर कट गया है, इसका मार्मिक
आख्यान करती है। प्रेमचंद की कई कहानियों में स्त्री शिक्षा के बारे में भी प्रसंग
मिलते हैं। जीवन का शाप, मिस पद्मा,
क्रिकेट मैच आदि कहानियों में शिक्षित स्त्रियॉं का चित्रांकन है। “मिस पद्मा’ कहानी मे उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री-पुरुष पश्चिम के प्रभाव में विवाह
संस्था को ठुकरा कर मित्र रूप में रहते हैं जिसकी इधर कानूनी मान्यता देने के लिए
चर्चा होती रहती है।” (कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद-6, पृष्ठ- 46)
कमल
किशोर गोयनका लिखते हैं- “प्रेमचंद की कहानियों में पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा तथा धन
प्रभुतामय जीवन के प्रति घोर आलोचनात्मक व्यवहार मिलता है। वह आरंभ से ही
अंग्रेजों द्वारा स्थापित पश्चिमी शिक्षा के केन्द्रों का समाज पर पड़ते प्रभाव को
देख रहे थे कि किस प्रकार अंगरेजी पढे-लिखे भारतीय अपने संस्कारों और जातीय
परम्पराओं को हीन मानते हुए अंगरेजी की नकल में ही गौरव एवं श्रेष्ठता का अनुभव
करते हैं। प्रेमचंद इसे ही मानसिक पराधीनता मानते हैं जो युवा पीढ़ी का चारित्रिक
पतन कर रही है और जनता से दूर ले जा रही है।” (कमल किशोर गोयनका, भूमिका, प्रेमचंद-6, पृष्ठ-
48)
किसान
जीवन, दलित समुदाय की समस्याएँ, सामाजिक समस्याएँ और
स्त्रियॉं तथा बच्चों पर केन्द्रित साहित्य प्रेमचंद के यहाँ बहुतायत है। इसमें
शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण घटक है जो उनके साहित्य और चिंतन के केंद्र में रहा है।
प्रेमचंद पश्चिमी शिक्षा पद्धति के कटु आलोचक और भारतीय जीवन पद्धति तथा शिक्षण प्रक्रिया
के पक्षधर थे। उनके साहित्य में यह बारंबार परिलक्षित होता है।
ईमेल- royramakantrk@gmail.com , 9838952426
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