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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : बड़का चाचा

इस अग्नि को लगातार प्रज्ज्वलित करना पड़ रहा है। लोबान डालकर आसपास की वायु को सुगन्धित रखने की कोशिश हो रही है। खुले आसमान में रख दिया गया है। एक तरफ जल एक मटकी में रख दिया जायेगा। अब मिट्टी ही शेष है।

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वह कल तक हमारे घर के 'मलिकार' थे। पिछले लगभग चालीस साल से वह हमारे घर के निर्विवाद मलिकार रहे। बाबा के निधन के बाद मुफलिसी में भरे घर के मलिकार से सफर शुरू किया और एक प्रतिष्ठित परिवार में तब्दील करने की अनवरत कोशिश में संलग्न रहे। बाबा ने विरासत में बस प्रतिष्ठा छोड़ी थी। अभी तो मेरा जन्म भी न हुआ था, जब वह मलिकार बन गए। विवाह भी नहीं किया। उनकी अनवरत कोशिश और संकल्पना में खुद का विवाह शामिल ही नहीं था।
बाबूजी ने घर की मुफलिसी को दूर करने के लिए कलकत्ता में चटकल की राह पकड़ी। चाचाजी ने अथक प्रयास से ntpc में सरकारी नौकरी पाई और सबसे छोटे चाचाजी ने वहीँ रहकर हाथ बँटाना शुरू किया। गाँव रहते हुए, तमाम दुरभिसंधियों से जूझते, लड़ते और अंततः अपराजेय रहते हुए उन्होंने घर को गाँव ही नहीं आसपास के गाँव में भी बहुत सम्मानित घर बनवाया। कुछ संपत्ति भी जोड़ने में सफलता पाई। मुकदमे, कचहरी के चक्कर में रहे और कानून के ठीकठाक जानकार बन गए थे। संपत्ति के कई बेमिसाल मुकदमे में घर की प्रतिष्ठा बढ़ाने में सफल रहे।
गाँव की राजनीति के केंद्र में रहे लेकिन खुद को किसी भी ऐसे मामले से अलग रखा। जिसे किंगमेकर कहते हैं, वह सच्चे अर्थों में थे। गाँव और क्षेत्र की विकास योजनाएं उनसे सलाह लेकर बनती थीं यद्यपि अधिकांश समय वह प्रतिपक्ष की राजनीति के भीष्म पितामह थे। अब जबकि माननीय मनोज सिन्हा केंद्रीय मंत्री बने थे, वह अशक्त हो गए थे और उनसे बहुत आशान्वित थे।
वह परिवार संस्था के सबसे बड़े संगठक, संरक्षक और आखिरी आदर्श कड़ी थे।
यद्यपि मुझे अपने बचपन का बहुत कम समय उनके संरक्षण में बिताने का मौका मिला लेकिन किशोरावस्था के जिस अवधि को उनके संरक्षकत्व में मैंने व्यतीत किया वह मेरे निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण काल था। वह ऐसे ही निर्माण के पक्षधर थे। उन्होंने हमें ऐसे बनाया कि हम हर परिस्थिति में डटे रहे सकें। दीदी प्रतिभा और भैया Shashi Kant को उनका सबसे अधिक सानिध्य मिला और अब भी वह हमारे घर में ही नहीं आसपास के गाँव में भी मिसाल हैं।
मैं मानता हूँ कि हममें पढ़ने लिखने के प्रति जज्बा और कुछ कर गुजरने के लिए संकल्प उन्होंने दिया। वह हमारे लिए छतनार थे।

वह हमारे 'बड़का चाचा' थे।

बड़का चाचा के निर्माण का तरीका बहुत अलहदा था। शायद दुनिया के सभी मलिकार की यह नियति हो! उनके संरक्षण में पलने वाले उनके तौर तरीके से खिन्न रहते हैं लेकिन यह निष्ठा भी उन्होंने दी थी कि असहमत रहते हुए भी उनके आदेश का पालन हो। मुझे याद नहीं आता कि उन्होंने हम भाई-बहनों पर कभी हाथ उठाया हो लेकिन उनका गजब का आतंक था। उनके आदेश का पालन तुरन्त होना चाहिए था वरना वह अव्यक्त आतंक रहता था। मैं आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने उनकी नाफरमानी की हो। अगर कभी हुई भी होगी तो वह हमारी अक्षमता से। उन्होंने सिखाया कि आखिरी समय तक दिए गए टास्क को करना है, चाहे रोते गाते करिये या जैसे भी। वह अपनी नाफरमानी को जिस सहजता से लेते थे, लगता था कि अब कोई आदेश न देंगे लेकिन वह अगले पल में यह करते थे। और उसी धौंस के साथ।
उन्होंने दोस्तों और सम्बन्धियों की एक बड़ी संख्या कायम की थी। कल देर शाम हम याद करते रहे तो पाया कि उनमें से अधिकांश या तो अशक्त हो रहे थे या साथ छोड़कर चले गए थे। बाबू यमुना प्रधान, सुरेश प्रधान, शिवबचन प्रधान उनके ऐसे संगी थे जिनके साथ उनकी बैठकी सुबह ही शुरू होती तो दोपहर तक चलती रहती। चाय पर चाय का दौर चलता रहता। बातें, ख़त्म ही नहीं होतीं थीं। अगली सुबह फिर यह बैठकी हो जाती थी। अब इन तीनों में से कोई नहीं है।
जिन मित्रों को मैं याद कर पा रहा हूँ, उनमें महात्मा प्रधान (कोठियां) फौजदार यादव (पूर्व प्रधान), चंद्रजीत राय (कठउत), अवधबिहारी राय (खरडीहा), सुरेंद्र यादव (एडवोकेट, जल्लापुर) ॐ प्रकाश यादव (जल्लापुर) जग्गन राजभर (मीरपुर), एनामुल हक़ (हुसैनपुर), रामाधार साव (डारीडीह), रमाशंकर यादव (सरैयां) रामबृक्ष गिरी(डारीडीह) लालमुनि यादव (पूर्वप्रधान और अब दिवंगत), जनार्दन यादव (पूर्वप्रधान) रामगहन कुशवाहा(जल्लापुर अब दिवंगत),  रामेश्वर यादव(कलपुरा, दिवंगत) शिवपूजन गिरी (अब दिवंगत) बुच्ची बिन्द (कलपुरा) सबसे पहले उभर रहे हैं।
वह अजातशत्रु नहीं थे। गाँव गिरांव में रहते हुए बहुत से लोग उनसे शत्रु भाव रखते थे लेकिन उनके जीवन में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने उन्हें ठीक से आँख उठाकर देखने की हिम्मत की हो। यह वही थे जो शत्रु भाव में भी हमेशा मदद के लिए तैयार रहते थे।
हम परिवारवालों के लिए वह बहुत रहस्यमयी व्यक्तित्व के व्यक्ति थे, जिसे ठीक से समझने का दावा कोई नहीं कर सकता था। वह ऐसे थे कि जिनकी इच्छा सबसे ऊपर थी। आपको झक मारकर उसे पूरा करना था।
उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा लेकिन हमेशा जोड़ते रहते थे।
आज उनको याद कर रहा हूँ तो हिचकी ले रहा हूँ। सब ऐसे ही कोना पकड़कर रो रहे हैं। जो जहाँ है, वहीँ उनको याद करके बिसूर रहा है। हम उनके आजीवन ऋणी रहेंगे। यह कर्ज कभी नहीं उतर सकता।
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हमारे बड़का चाचा बाबू रमाशंकर राय ने कल पहली जनवरी, 2017 की सुबह पौ फटने से पहले इस असार संसार को विदा कह दिया। उन्होंने इस संसार को कभी असार नहीं माना। जिया और भरपूर जिया। उनमें जिजीविषा बनी हुई थी लेकिन शरीर को लेकर वह बहुत संजीदा नहीं थे इसीलिए आखिरी समय तक शरीर का कहा भी नहीं मानते थे। अन्ततः शरीर ने उन्हें त्याग दिया।
वह हमारे बीच हैं। बने रहेंगे। जब तक गाँव गिरांव के लोग परिवार की बात करेंगे, बाबू रमाशंकर राय का उदाहरण देते रहेंगे।

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जब मैं हाईस्कूल की परीक्षा देकर गाँव आया तो यहाँ बड़का चाचाजी का पूर्णकालिक सानिध्य मिलना शुरू हुआ। बड़े भैया उसी साल इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास कर इलाहाबाद जा रहे थे। उन्होंने ही सुझाया कि राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज, गाजीपुर से मैं भी आगे की पढाई वाणिज्य संवर्ग से करूँ और बाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट के लिए तैयारी की जायेगी। मैंने प्रवेश लिया और रोज पढ़ने जाने लगा। मैंने बस से आना जाना तय किया। सुबह निकलता था और शाम पाँच बजे तक वापस आ सकना होता था। गाजीपुर जाने आने में ज्यादा समय लगता था लेकिन ट्रैक बंधा हुआ था। उसी नियत रास्ते से आना जाना होता था।
घर पर बताया गया था कि चाचाजी रोज ही गाजीपुर मुहम्मदाबाद में होते हैं। तो किसी भी दिन मिल सकते हैं। कहीं भी।
उस दिन मैं शाम को लौटा था। घर आया तो अभी किताब रखा भी नहीं था कि बड़का चाचा ने बुलवा लिया। वह अमरुद के उस ऐतिहासिक पेड़ के नीचे बैठे थे, जिसे बाद में काट दिया गया था और तब उससे प्रभावित होकर मैंने कवितायेँ लिखना शुरू किया था। मेरी पेशी हुई। सहमा हुआ मैं पहुँचा। जाते ही उन्होंने सवाल दाग दिया- "घरे चोखा मिलेला?" जाहिर है-जवाब हाँ था तब अगला सवाल था -"और पूरी?" उसका जवाब भी हाँ था तो अगला सवाल यह पूछा गया कि -"क गो समोसा खइले ह?" यह ऐसा सवाल था जो मेरे लिए भौंचक कर देने के लिए पर्याप्त था। विद्यालय से आते हुए उस दिन मैंने चट्टी पर समोसा खाया था। एक दो नहीं, छः समोसे। लेकिन यह खबर उन तक पहुँची कैसे? मैंने वहाँ समोसा खाने के बाद तिरकट्ठे भागा था और सबसे तेज घर पहुंचा था। इतनी जल्दी कौन था जिसने उन्हें सूचित कर दिया था? यह रहस्य मैं आज तक नहीं सुलझा सका हूँ। 
बहरहाल, उस दिन मुझे पता चल गया कि जरूर इनको पता चल गया है और मैंने सच सच बता दिया। यद्यपि मैं सफ़ेद झूठ बोल सकता था, बोलता भी था लेकिन उनके सामने हिम्मत न हुई।
उन्होंने बहुत प्यार से समझाया कि समोसे कैसे बनते हैं और वह कितने हानिकारक होते हैं।
उसके बाद मेरा समोसा खाना छूट गया। बरसों छूटा रहा। चट्टी पर अब भी कभी समोसा खाने बैठ जाना पड़ा तो उनकी सीख याद आती है। 
बड़का चाचा ने सार्वजनिक जीवन में गाजीपुर मुहम्मदाबाद में बहुत समय व्यतीत किया था और वह जानते थे कि यह जगह कैसी खतरनाक है। वह कभी नहीं चाहते थे कि चट्टी का चटोरा स्वाद हमें भी अपने गिरफ्त में ले ले। इसलिए वह बहुत चौकन्ने रहते थे। आज भी हम कभी भी वहां इसलिए नहीं होते कि यहाँ रहकर समय पास हो जायेगा। टाइम पास जैसी चीज उन्होंने कभी महसूस ही न होने दी।
कभी याद करूँगा कि कैसे वह हम सबको व्यस्त रखते थे।

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घर में इसे परिलक्षित किया गया कि वह कुत्ता जो बड़का चाचा का शैडो था, अंतिम संस्कार वाले दिन के बाद नहीं देखा गया है। वह उनका विश्वस्त सहयोगी था और हमेशा उनके साथ रहता था। छोटा भाई बता रहा था कि जब कभी वह उसे कौरा देना भूल जाता था, बड़का चाचा वापस उसके लिए घर भेजते थे, कौरा लाने के लिए।
बड़का चाचा का पशु प्रेम गजब था। मुझे याद आता है, उन्होंने एक गाय पाल रखी थी, जिसके बारे में मशहूर था कि इसे दूसरा कोई नहीं रख सकता। एक तो इसलिए कि ऐसा भोज्य कोई नहीं परोसने वाला और ऐसा रखरखाव भी करना संभव नहीं। वह थोड़ी थोड़ी देर पर पिसान उसके भोज्य पर छिड़कते रहते थे। दिन में कई बार नाद पर बांधते थे और उसके लिए हमेशा धुँआ की व्यवस्था करते थे। उनके रहते, दुआर पर हमेशा कउड़ा जलता रहता था और हमलोगों का जिम्मा था कि पंखे से हवा करके धुँआ उधर ही जाने दें जिधर गाय बंधी हो।
उन्होंने गोशाला की व्यवस्था भी गजब कर रखी थी। उसे स्वाभाविक रूप से सूखा रखते थे। स्वाभाविक रूप से सूखा रखने का मतलब गाय गोशाला में गोबर तो कर सकती थी लेकिन पेशाब नहीं। वह अनुमान करके गाय को बाहर निकालते थे, उसके पेशाब करने का इंतजार करते तब अंदर बाँधते थे। कई बार यह इंतजार बहुत चुभता था। उन्होंने गाय को ट्रेंड कर दिया था। पेशाब कराने के लिए उनका नुस्खा बहुत कारगर था। उन्होंने एक कटोरे की व्यवस्था की थी। उसके कई छेद कर दिया था। इस कटोरे को पानी वाली नाद में डुबो कर ऊपर उठाते थे तो पानी कई धार में चूता था। दो तीन दफा ऐसा करने पर गाय स्वतः पूँछ उठा देती थी। वह पेशाब कर लेती थी और तब उसे बाँध दिया जाता था। देखने वाले इस प्रयोग पर हैरत करते थे और हँसते थे। चाचाजी के रहते अगर गाय ने अंदर गीला किया  तो शामत हमसब पर आती थी।
इस रखरखाव का असर यह हुआ कि एक बार एक सज्जन ने यह गाय खरीदा और तीन दिन बाद वापस पहुँचा गए। उस गाय ने हमारे खूँटे पर अंतिम साँस ली। फिर चाचा ने किसी गाय के प्रति वह स्नेह नहीं दिया। तब बाबूजी ने चरन की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली थी।
इसी क्रम में याद आता है, एकबार एक कुत्ता बार-बार घर में घुस जाता था। हम सब ने उसे घेर लिया। बड़का चाचा उसका नेतृत्व कर रहे थे। कुत्ता हम सबको चकमा देकर दरवाजे से निकलकर भागा कि अप्रत्याशित लाठी प्रहार से कें कें करता उलट गया। बड़का चाचा भी इससे बहुत विचलित हो गए। पता चला कि यह अचानक प्रहार हमारे चक्रव्यूह में चुपके से शामिल हुए अशोक【झगड़ू】भैया ने किया था। बड़का चाचा ने उन्हें देखा और कहा- 'लईको से लईका और पाड़ो से पाड़ा!' झगड़ू भइया के लिए हम सब बहुत दिन तक ऐसा ही संबोधन करके चिढ़ाते रहे।
बड़का चाचा कुत्तों को हमेशा दुआर से भगाते रहते थे लेकिन हर सर्दी में उनके भूसे में एक कुतिया पपी जनती थी और तब घर को उस कुतिया के लिए पौष्टिक आहार पकाना होता था। बच्चे जी जाते थे और उन्हें भगाने का काम मिल जाता था। यह क्रम अब भी चल रहा है।
अपनी अशक्तावस्था में भी वह दुआर पर बँधी गाय के लिए परेशान रहते थे। कल जब उस कुत्ते को लापता चिह्नित किया गया तो उनके पशु प्रेम को याद किया गया। वह अद्भुत थे।

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यों तो बड़का चाचा बहुत कम घर पाये जाते थे लेकिन जिस दिन पाये जाते थे उस दिन उनके हाथ में खुरपी, कुदाल, फावड़ा, टांगीं-टाँङ्गा देखा जा सकता था। वह दुआर को चिक्कन रखने में भरोसा रखते थे और स्वच्छ भारत अभियान के ब्राण्ड एम्बेसडर हो सकते थे। उनकी प्रेरणा से दुआर पर फूलों की क्यारी पल्लवित पुष्पित थी और हमारा दुआर करियात का एकमात्र दुआर था जहाँ गुलाब, बेला, चमेली और गेंदा जैसे फूल पाये जा सकते थे। वह अड़हुल और कनेर में विश्वास नहीं रखते थे लेकिन पुजारियों के लिए उसे भी जिलाया हुआ था। वह क्यारियों में निराई गुड़ाई के निरीक्षक और प्रमुख थे। उन्होंने अपने हाथों से आम, अमरुद, श्रीफल, मुसम्बी, नींबू, नीम जैसे बेहद जरुरी फलों के वृक्ष लगवाए थे और इस तरह हमारा घर गर्मियों में भी एक बड़ा आकर्षण बन गया था। आम के प्रति मेरा प्रेम उन्हीं के कारण जवान हुआ है।
दुआर पर एक बगीचा बनाने के बाद जब दसेक साल पहले उन्होंने पूरापर ट्यूबवेल स्थापित करवाया तो वहां भी आम, जामुन, श्रीफल, नीम, कटहल, बड़हर, गूलर, शिरीष, बाँस लगाया। अब पूरापर एक बहुलतावादी वृक्षसमूह का स्थान है, जहाँ हम जाने के लिए विवश हो जायेंगे। कहने का मतलब यह कि चाचाजी ने वृक्षारोपण के लिए खूब स्पेस रखा। उनका मन रमता था। जिस दिन वह घर होते थे, काम निकाल लेते थे। कुछ न हुआ तो निराई करने से जो घास निकलती थी, हमें जिम्मा देते थे कि हम एक गड्ढा खोदकर उसमें इस घास को दबा दें। कई बार गड्ढा खोदते हुए हम रागदरबारी के उस प्रसंग से रूबरू होते जिसमें प्रिंसिपल वृक्षारोपण के लिए गड्ढा खोदवाते हैं और खोदने वाला पूछता है- 'बस?' तो प्रिंसिपल कहते हैं,- 'यह कोई गड्ढा है? चिड़िया भी मूत दे तो उफना जाए!!' और ज्यादा खोद जाए तो यह कि इसमें किसी को दफन करना है क्या? हम गड्ढा खोदने को बेहद गैरजरूरी काम मानते लेकिन उनके आदेश का पालन करते।

बड़का चाचा के लिए उनका आदेश सर्वोपरि था। वह उसका पालन होते देखना चाहते थे। कई बार वह इसका ख्याल भी नहीं रखते थे कि इससे हमारा कैसा नुकसान होगा। एक वाकया याद करना चाहूँगा- वह सन 1997 था। उस साल की एक त्रासद याद यह है कि हमारा इण्टर का बोर्ड था और दूसरा यह कि उस साल आलू की पैदावार इतनी ज्यादा थी कि किसान को यह लगता था कि शीत गृह में रखने की बजाय खेत में सड़ने देना ज्यादा श्रेयस्कर है। उस साल कई ऐसे मसले सुनने में आये कि चोरों ने बोरे चुरा लिए और आलू छोड़ गए। हमारी त्रासदी यह भी थी कि हमारे एक बीघे खेत में महज 35 कट्टा आलू हुआ था, जबकि औसतन 100 कट्टा होना चाहिए था। कम पैदावार से आशंकित बड़का चाचा ने खुदाई स्वयं करने का निर्णय लिया और रोज सुबह कुदाल लेकर खेत में चले जाते। मेरी परीक्षाएं 2 बजे से होना तय थीं और इसके लिए मुझे 10 साढ़े 10 तक घर से निकलना रहता था। मुझे गाजीपुर जाना रहता था परीक्षा देने। चाचाजी सुबह खेत पर जाने से पहले मुझे कहकर जाते कि चाय लेकर आना। खेत पर चाय लेकर जाने का मतलब था, एक घंटा आने जाने का खर्च करना। उसी में वह कहते, 'जब तक बाड़े तबतक दू जोड़ा खन दे!' और कुदाल पकड़ने का मतलब होता थकान। फिर परीक्षा के लिए तैयारी का एल के डी हो जाता। एक दिन मना कर दिया तो बहुत समय तक मन खिन्न रहा और लगा कि इससे अच्छा था कि कुदाल लेकर कुछ जोड़े खोद ही दिया होता! खैर, परीक्षा हुई और मैंने पहला और आखिरी सेकेण्ड डिवीजन वहीँ से हासिल किया।
आज बड़का चाचा को याद कर रहा हूँ, फिर अपनी कई असफलताओं को याद करता हूँ, अपने संघर्ष को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ऐसा कूल कैसे रह सका। कभी विचलित नहीं हुआ तो आकलन करता हूँ कि बड़का चाचा ने हमें ऐसी दुसहस्थितियों के लिए ऐसे ट्रेंड किया था। वह कभी कभी अपने दोस्तों से कहते थे- इनलोगों को ऐसा बनाया है कि कहीं भी इज्जत की दो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहेंगे।

बड़का चाचा ने हमें सिखाया कि लोगों की इज्जत कैसे की जाती है। हममें जो सामंती संस्कार थे, उसे उन्होंने लगातार क्षीण करने में महती भूमिका निभाई। एक बार मैंने रामाधार साव के आने पर जब उन्हें बताया कि 'रमधार आइल हऊँवन' तो उन्होंने छूटते ही कहा कि वह तुमसे छोटे हैं? कि तू उनके दिया देखवले हउवे! हमने उसके बाद दुआर पर आने वाले सभी बड़े बुजुर्गों के लिए यथोचित संबोधन की परंपरा शुरू की और पाया है कि यह आदर देने और पाने का सबसे बेहतरीन तरीका है।
कल आपको बताऊंगा कि बड़का चाचा कैसे विरुद्धों का सामंजस्य थे और उनके यहाँ दो विपरीत ध्रुव के लोग एक साथ रह सकते थे।
अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि बड़का चाचा के पचास साल तक अभिन्न मित्र रहे जग्गन राजभर (सोखा) के निधन की खबर आई है। बड़का चाचा के निधन के एक सप्ताह बाद उनका जाना दो दोस्तों  के आपसी ट्यूनिंग का अपूर्व उदाहरण कहा जा रहा है। हम आज उन्हें देखने भी गए थे। तुलसी गंगाजल देकर लौटे थे।
हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि सोखा बाबा को।

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बड़का चाचा को याद करते हुए आज बार बार रामअवतार गिरी और उनके भतीजे बद्री गिरी का स्मरण हो रहा है। यह चाचा भतीजा जोड़ी अद्भुत थी। रामअवतार काका को 'मुंडी' और बद्री काका को 'खस्सी' कहकर चिढ़ाते थे गाँव में लड़के। इन्हें चिढ़ाने के लिए बच्चों को कुछ करना नहीं होता था, बस कुछ टिटकारी भरनी होती थी। रामअवतार काका हमेशा रंग से सराबोर रहते थे। नाटे कद के थे, गोरे रंग के। लाठी कंधे पर रखकर चलते थे माँजते हुए। बद्री काका भी लाठी रखकर चलते थे। यह दोनों ही अलसुबह हमारे यहाँ आ जाते थे, उधर से कुल्ला करते हुए। सुबह की चाय हमारे यहाँ बड़का चाचा के साथ लेते थे और हमारे साथ साथ आसपास के लोगों के लिए मनोरंजन का मसाला तैयार हो जाता था। जिस तरह से दोनों भिड़ते थे, वह बेहद आक्रामक होता था। जब एक लाठी लेकर आगे बढ़ता, दूसरा भागता; जब दूसरा थम जाता तो पहला सहम कर वापस लौटता। यह क्रम बहुत देर तक चलता। बड़का चाचा निस्पृह भाव से यह होते देखते। हम सब मजा लेकर।
वैसे बड़का चाचा के हँसने, मजा लेने का ढंग अनूठा था। जब वह हमें किसी ऐसी बात पर डाँटते जिसमें हँसी मजाक हो रहा होता तो डाँट सुनते हुए भी हमारी हँसी न रुकती तो वह एक विशेष तरीके से डाँटते। बाद में हमने जाना कि इस विशेष तरीके से डाँटने में वह अपनी स्मित मुस्कराहट शामिल कर लेते और इस समय संयम का अद्भुत परिचय देते। हमें उनके इस हँसने से बहुत डर लगता! वह अपने दोस्तों के साथ होते तो खुलकर हँसते लेकिन हम सबके बीच नहीं। गंभीरता बनाये रखने के लिए हँसना मना रहता है!
यों बड़का चाचा हमलोगों से बहुत कम बात करते थे लेकिन अपने संगी साथियों के बीच रहते तो किसी प्रसंग पर गाली देना होता तो विशेष अंदाज में देते! उनका प्रिय सुभाषितानि था- ओकरी माई की बेटी की बहिन की बेटी की ऐसी की तैसी! हम जब भी यह गाली सुनते, पहिले रिश्ते की रीजनिंग समझने में उलझ जाते।
बड़का चाचा के दोस्त अलग थे, संगी अलग! परिचितों की संख्या बहुत थी। कौन उनका दोस्त है, कौन संगी या परिचित इसका पता लगाना कठिन था लेकिन रामअवतार काका और बद्री काका के मसले में मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने कभी भी रामअवतार काका को कुछ नहीं कहा। जब भी कुछ कहना हुआ, बद्री काका को कहा और चिढाना हुआ तो खस्सी कहकर! एक साम्यता यह थी कि तीनों बीड़ी और चाय के शौकीन थे।
मुझे वह रात कभी नहीं भूलती जब तकरीबन दो ढाई बजे मुझे चारा मशीन के चलने की आवाज सुनाई पड़ी। वह गर्मियों की रात थी और हम छत पर सोते थे। रात के इस प्रहर में चारा मशीन चलता देख मैंने सहज अनुमान किया कि बड़का चाचा ने बिना समय देखे गाय नाद पर लगा दी है। वह गाय को ताजा चारा खिलाते थे। मैं उठकर आया कि चारा बालने में मदद कर दूं तो देखा कि चारा रामअवतार काका काट रहे हैं। उन्होंने पड़ोस के खेत से चारा चुराकर काटा था और बालकर अपने घर ले जाने को थे! मैंने इसे सामान्य घटना मानकर इग्नोर किया और छत पर सोने पहुँच गया।
कुछदेर बाद ही लाठियों की आवाज और ऊँची आवाज में बहसें सुनाई पड़ीं तो पता चला कि बद्री काका भी कहीं से चले आये थे और दोनों एक दूसरे को चोर कहकर गरिया रहे थे! उस देर रात हम तमाशाई थे और इस तमाशे में अपना आनंद था। हम बच्चे थे और हमारे लिए तमाशा कभी भी हो, आनंददायी था! मैंने देखा और आज भी सोचता हूँ कि बड़का चाचा ने उस रात नींद में खलल पड़ने के बाद भी दोनों को कुछ न कहा और करवट बदल बदल कर मजा लेते रहे। बाद में बद्री काका को बीड़ी पिलाया और जाने कैसे मामला सलटाया!
खैर, बड़का चाचा को ऐसी स्थितियों में भी मैंने कूल रहते और बिना विचलित हुए चाय परोसते और बीड़ी सुलगाते देखा। यह बड़का चाचा थे जो दोनों को साध सकते थे और आसपास बैठाकर घंटों उलझाये रख सकते थे, वह भी गंभीर रहकर। वह गंभीरता भी दुर्लभ चीज है।
उन्हें पुनः प्रणाम!!

सद्य: आलोकित!

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