जब कोई युवा पुरुष अपने घर
से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली
कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकान्त और निराली
नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में
कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप
में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफ़लता
निर्भर हो जाती है; क्योकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण
पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऎसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ
करते हैं जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है,
हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग
कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप का करे- चाहे वह राक्षस बनावे, चाहे देवता।
ऎसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं;
क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर
ऎसे लोगों का साथ करना और बुरा है जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऎसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दाब रहता है, और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता
है, उसका पता युवा पुरुषों को प्राय: विवेक से कम रहता है।
यदि विवेक से काम लिया जाये तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरुष
प्राय: विवेक से कम काम लेते है। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं
तो उसके गुण-दोषों को कितना परख लेते है, पर किसी को मित्र
बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रकृति आदि का कुछ भी विचार और अनुसन्धान नहीं
करते। वे उसमें सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं।
हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी
चतुराई या साहस- ये ही दो चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते
है। हम लोग नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है, तथा
जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह ऎसा साधन
है जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन
है- "विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऎसा मित्र मिल
जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।" विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि
है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों मे हमें दृढ़
करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेंगे, हमारे सत्य , पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट
करे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब
वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें
उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर
तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता से उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुणता और परख
होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमलता होती
है। ऎसी ही मित्रता करने का प्रयत्न पुरुष को करना चाहिए।रामचंद्र शुक्ल
छात्रावास
में तो मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो
स्नेह-बन्धन होते हैं, उसमें न तो उतनी उमंग रह्ती हैं, न उतनी खिन्नता।
बाल-मैत्री में जो मनन करने वाला आनन्द होता है, जो हृदय को
बेधने वाली ईर्ष्या होती है, वह और कहां? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार
विश्वास होता है। हृदय के कैसे-कैसे उद्गार निकलते है। वर्तमान कैसा आनन्दमय
दिखायी पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएं मन में रहती
है। कितनी जल्दी बातें लगती है और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। 'सहपाठी की मित्रता' इस उक्ति में हृदय के कितने भारी
उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के
बालक की मित्रता से दृढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों
में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूं कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श
की कल्पना मन में करते होंगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो
हमारा काम जीवन की झंझटो में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी
चाल और स्वच्छन्द प्रकृति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है। पर जीवन-संग्राम
में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें चाहिए। मित्र केवल उसे नहीं
कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह
न कर सकें. जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जायें, पर
भीतर-ही-भीतर घृणा करते रहें? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान
होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र
बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभुति होनी चाहिए- ऎसी सहानुभूति
जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं
है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रूचि के हों। इसी प्रकार
प्रकृति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रकृति के
मनुष्यों में बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रकृति के थे,
लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों
भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के
स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी. पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई भी
बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता खूब निभी। यह कोई भी
बात नही हैं कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज
में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं, जो
गुण हममें नहीं है हम चाहते हैं कि कोई ऎसा मित्र मिले, जिसमें
वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ ढूंढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षावाला
चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुंह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन
बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।रामचन्द्र शुक्ल
मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है- "उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का काम कर जाओ।" यह कर्त्तव्य उस से पूरा होगा जो दृढ़-चित्त और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऎसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध हृदय के हों। मृदुल और पुरुषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें, और यह विश्वास कर सकें कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।
जो बात ऊपर मित्रों के सम्बन्ध में कही गयी है, वही जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऎसे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हों, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करने में कुछ सहायता दे सकते हों, यद्यपि उतनी नहीं जितनी गहरे गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख और ग न हमारे लिए कुछ कर सकते हैं, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते हैं, न सहानुभुति द्वारा हमें ढाढ़स बंधा सकते हैं, हमारे आनन्द में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखें। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियां सजाना नहीं है। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरूष ऎसे अनेक युवा पुरूषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में आयेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऎसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकलें जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों में से निकलें जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, गलियों में ठठ्टा मारते हैं और सिगरेट का धुआं उड़ाते चलते हैं। ऎसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर है। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्ति वाले कवि हुए हैं और न संसार में सुन्दर आचरण वाले महात्मा हुए हैं। उनके लिए न तो बड़े-बड़े वीर अद्भुत कर्म कर गये हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऎसे विचार छोड़ गये हैं जिनसे मनुष्य जाति के हृदय में सात्विकता की उमंगे उठती हैं। उनके लिए फूल-पत्तियों में कोई सौन्दर्य नहीं। झरनों के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त सागर तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं, उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरुषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य से सच्ची प्रीति का सुख और कोमल हृदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका हृदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित है, ऎसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऎसा होगा जो तरस न खायेगा? उसे ऎसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।
मकदूनिया का बादशाह डमेट्रियस कभी-कभी राज्य का सब का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस-पाँच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच उसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुंचा तब डेमेट्रियस ने कहा- "ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।" पिता ने कहा- 'हां! ठीक है वह दरवाजे पर मुझे मिला था।'
कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा-पुरूष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्ढे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी।
इंग्लैण्ड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहां वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऎसे होते हैं जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऎसी-ऎसी बातें कही जाती है जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऎसे प्रभाव पड़ते है जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते है, कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं. उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नहीं। एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पायी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आये, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऎसे लोगों को कभी साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हंसाना चाहे। सावधान रहो ऎसा ना हो कि पहले-पहले तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऎसा हुआ, फिर ऎसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऎसा प्रभाव पड़ेगा कि ऎसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जायेंगे। नहीं, ऎसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है। तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहां और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभयस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जायेगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जायेगी। अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यही पुरानी कहावत है कि-
'काजर की
कोठरी में, कैसो हू सयानो जाय।
एक लीक काजर की, लागिहै,
पै लागिहै।।'
(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह प्रसिद्ध
निबंध ‘मित्रता’ उत्तर प्रदेश में
विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए
द्वितीय वर्ष के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की
सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी
में यह निबंध। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर
प्रस्तुत करेंगे। - सम्पादक)