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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

घुमक्कड़ी के शीर्ष पुरुष : राहुल सांकृत्यायन

-डॉ रमाकान्त राय

मेरे स्कूल के दिनों में ही यह धारणा बनी थी और खूब आतंकित करती थी कि राहुल सांकृत्यायन संस्कृत, अङ्ग्रेज़ी, तिब्बती, ल्हासा, चीनी आदि 84 भाषाओं के जानकार थे। उनकी किताब "तुम्हारी क्षय" में उन्हें 26 भाषाओं का ज्ञाता कहा गया है। उनका यात्रावृत्त "अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा" पाठ के रूप में था। उसमें एक शेर था-

          सैर कर दुनिया की गाफिल, ज़िंदगानी फिर कहाँ।

           ज़िंदगानी फिर मिली तो, नौजवानी फिर कहाँ॥

और यह शेर जैसे मंत्र की तरह याद हो गया था। कतई रोमांटिक था यह। कालांतर में राहुल सांकृत्यायन की कई कृतियों से परिचित होने का मौका मिला। इसमें "वोल्गा से गंगा" की अनेकश: चर्चा सुनता था। "वोल्गा से गंगा" नाम ऐसा था कि यात्रावृत्त की छवि बनती थी

यह जानना आवश्यक है कि "वोल्गा से गंगा" यात्रावृत्त नहीं है। यह काल्पनिक कहानियों का संग्रह है, जिसमें आर्यों के विषय में कई मनगढ़ंत बातें, उलजलूल स्थापनाएं हैं। राहुल सांकृत्यायन का असली नाम केदारनाथ पाण्डेय था। मुझे कुछ वर्ष पूर्व उनके गांव जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यह आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में अवस्थित है।  उत्तर प्रदेश सरकार उनके सम्मान में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस का परिचालन उनके गांव से दिल्ली के लिए करती है। यह बस प्रतिदिन प्रातःकाल इसी गांव से खुलती है और दिल्ली जाती है। एक बस दिल्ली से चलकर देर शाम इस गांव में पहुंचती है।

राहुल सांकृत्यायन ने विपुल साहित्य सृजन किया है। बौद्ध धर्मग्रंथों के खोज और उनका हिन्दी रूपान्तरण कर उन्होंने साहित्य की खूब सेवा की है। तिब्बत और नेपाल आदि से अनेकों बौद्ध ग्रन्थों को प्रकाश दिया। उन्होंने हिन्दी साहित्य में आदिकाल को सिद्ध सामंत काल कहा है और यह एक मजबूत स्थापना है। उन्होंने त्रिपिटक का हिन्दी अनुवाद किया। शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ निःसंदेह वह घुमक्कड़ी के बहुत बड़े आइकन हैं। उन्होंने खूब विदेश यात्रा भी की। श्रीलंका, तिब्बत और रूस की कई बार। आखिरी दिनों में रूस गए। लौटे। उनका निधन दार्जिलिंग में हुआ। उन्होंने अपने घुमक्कड़ी को खूब प्रचारित किया। बौद्ध बन गए और मार्क्सवादी कम्यून के लिए समर्पित हुए।

राहुल सांकृत्यायन का समूचा लेखन पश्चिमी सभ्यता के रंग से अनुप्राणित है। इसलिए उसपर मिशनरीज की छाप है। उनका विपुल लेखन और कम्यून उन्हें खूब चर्चित करता है।

अपने एक लेख में राहुल सांकृत्यायन ने स्वामी सहजानंद सरस्वती को बहुत सम्मान से याद किया है। भारत में किसान आंदोलन को उठाने और आगे बढ़ाने में स्वामी सहजानन्द सरस्वती के योगदान को उन्होंने बहुत उदारमन से स्वीकार किया है।

घुमक्कड़ी के लिए हिंदी में जब कुछेक रचनाकारों का उल्लेख किया जाता है तो राहुल सांकृत्यायन अग्रगणित किए जाते हैं। मेरी तिब्बत यात्रा, यूरोप यात्रा और एशिया के दुर्गम भूखंडों में उनकी ठीक ठाक कृतियां हैं।

आज जन्मदिन पर आजमगढ़ के इस केदारनाथ पाण्डेय का भावपूर्ण  स्मरण!

 

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असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

पिन 206001

मोबाइल नंबर 983895242- royramakantrk@gmail.com

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

कथावार्ता : नायक जिन्हें भुला दिया गया - महाराजा सुहेलदेव

-डॉ रमाकान्त राय 

आज महाराजा सुहेलदेव राजभर की जयंती है। महाराजा सुहेलदेव का जन्म बहराइच में बसंत पंचमी के दिन 990 ई0 में हुआ था। वह सन 1027 ई0 से 1077 ई0 तक श्रावस्ती के राजा रहे। सुहेलदेव ने सन 1034ई0 में बहराइच में गाजी सालार मसूद को बुरी तरह परास्त किया था। इस युद्ध में उनकी सहायता कई छोटे छोटे राजाओं ने की थी। गाजी सालार मसूद महमूद गजनवी का भांजा था जो गजनवी के गजनी लौटने के बाद अभियान का नेतृत्व कर रहा था। आज बहराइच में गाज़ी की मजार है जबकि सुहेलदेव का नाम भी कुछ साल पहले तक कोई नहीं जानता था।

महाराजा सुहेलदेव राजभर

महाराजा सुहेलदेव राजभर ने आजीवन लोक की रक्षा की, आम जन और स्त्रियों के शील की रक्षा के लिए युद्ध किए और गाज़ी सालार मसूद को परास्त किया।

जब फिरोज तुगलक शासक बना तो उसने सुहेलदेव के स्मारक नष्ट कर दिए और गाजी को पीर औलिया बना दिया। फिर जब देश का इतिहास लिखा जाने लगा तो राजभर (सुहेलदेव), पासी (महाराजा बिजली पासी), खरवार (सोनभद्र में इनके वंशज हैं), गोंड (गोडवाना लैंड एक विस्तृत क्षेत्र है), यादव (लोरिक) आदि जातियों को सांस्कृतिक संदर्भ से विच्छिन्न कर दिया। अनुपम मिश्र ने अपनी पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' में तालाब के निर्माण की भूमिका के क्रम में मुसहर लोगों का उल्लेख किया है और बताया है कि मुसहर समाज में “चोहरमल उनके एक शक्तिशाली नेता थे किसी समय”। उनकी पुस्तक के तीसरे अध्याय संसार सागर के नायक में ऐसे कई समुदायों का वृतांत मिलता है।

देश की एक बड़ी आबादी को बताया कि तुम महज शासित रहे हो और सदा सर्वदा से वंचित। समुदायों में फूट डालने का सफल प्रयास हुआ। लोगों में वैमनस्यता बढ़ाने के उपक्रम हुए और फिर वर्तमान धारणा बनी।महाराजा सुहेलदेव उस धारणा के विपरित एक ज्वलंत नाम है। जो शासन की क्षमता रखता है- वही राजा है।

सुहेलदेव का राज्य बनारस, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़ तक विस्तृत था। कहा जाता है कि बनारस का प्रसिद्ध राजातालाब महाराजा सुहेलदेव राजभर ने बनवाया था। वह प्रजावत्सल शासक और महान योद्धा थे।

भारत सरकार ने वर्ष 2018 में उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया था। वर्ष 2016 में भारतीय रेलवे ने महाराजा सुहेलदेव एक्सप्रेस नामक एक रेलगाड़ी चलाई जो नई दिल्ली और गाजीपुर को जोड़ती है। वर्ष 2021 में महाराजा सुहेलदेव के विजय स्थल पर स्मारक बनाया जा रहा है और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा उनके योगदान को याद किया जा रहा है। डॉ निगम मौर्य लिखते हैं- अपने नायकों को सम्मान देना व आने पीढ़ियों को उनसे परिचित कराना भी एक जागरूक व गर्वित समाज का कर्तव्य है। यह एक अच्छी शुरुआत है।हमें उन नायकों को वह सम्मान देना ही चाहिए जो कुछ लोगो की कुत्सित चालों के फलस्वरूप इतिहास के पन्नो से गायब हो गए

          उनकी जयंती पर भावपूर्ण स्मरण।

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


बुधवार, 20 जनवरी 2021

“वाहे गुरुजी का खालसा/ वाहे गुरुजी की फतेह!”

 -डॉ रमाकान्त राय

गुरु गोविन्द सिंह गुरु तो हैं ही, महान योद्धा भी हैं। उन्होंने सिखों को संगठित किया। आजीवन औरंगजेब के अत्याचारी और क्रूर शासन के विरोध में सशस्त्र प्रतिरोधी रहे। उनकी "पंज प्यारे" की खोज अद्भुत है। सिखों के लिए पांच "क" अनिवार्य कर दिया। हर समुदाय के लोगों को एक मंच दिया। इस्लाम के खिलाफ बड़ी दीवार बना दी। इस्लाम समानता के समादृत सिद्धांत के साथ आया था और यह उसकी ताकत थी। गुरु गोविन्द सिंह ने उसे सिखों के समूह का मूल बना दिया। वहां सब सिंह हैं।

गुरु गोविन्द सिंह ने गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन किया। हिन्दी के कई संत कवियों की वाणी को संकलित किया। कबीर, दादू, रैदास आदि के पदों को शामिल किया। यह बहुत बड़ा काम था। वह कवि थे। उन्होंने भक्ति और शक्ति की कविताएं लिखी हैं। उनकी यह कविता तो जगत प्रसिद्ध है-

चिड़ियों से मैं बाज लडाऊं,

गीदड़ों को मैं शेर बनाऊ।

सवा लाख से एक लडाऊं

तभी गोबिंद सिंह नाम कहाउँ !!

वह संत थे लेकिन धज राजा की थी। वह कुशल घुड़सवार थे। उन्हें देखकर याद आता है कि संत योद्धा, संगठनकर्ता, सेनापति और शासक हो सकता है। उन्होंने सम्पत्ति के प्रति अनासक्ति नहीं दिखाई। लोकोपकारक कार्य बिना समृद्धि के नहीं आ सकती। और इसके लिए कर्मवीर होना आवश्यक है।

गुरु गोविंद सिंह

उन्होंने सिखों को कर्मवीर होने के लिए प्रवृत्त किया। हमारे समाज में यह सहज धारणा है कि सिख भीख नहीं मांगता। गुरुद्वारों में अहर्निश चलने वाला लंगर उनके भोजन की आवश्यकता पूरी कर देता है। उन्होंने सिखों को श्रम का महत्त्व बताया। कोई काम छोटा नहीं होता। खूब धनी सिख, गुरुद्वारों में दर्शनार्थियों के जूता सहेजता, लंगर के उपरांत जूठा हुए बर्तन साफ करता दिख जाता है। यह "सेवा" का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे गुरु गोविंद सिंह ने सिखों को सिखाया।

गुरु गोविंद सिंह का योगदान क्या था? बुल्ले शाह, जो बहुत प्रसिद्ध सूफी कवि थे, ने अपनी एक कविता में लिखा है-

            मैं अतीत की बात नहीं कहता

            मैं वर्तमान की बात करता हूँ

            यदि गुरु गोविन्द सिंह नहीं होते

            हर व्यक्ति तब मुस्लिम होता।

मूल पंजाबी पाठ

            ना कहूँ जब की, ना कहूँ तब की,

            बात कहूँ मैं अब की,

            अगर ना होते गुरु गोविन्द सिंह,

            सुन्नत होती सभ की।

          गुरु गोविंद सिंह ने तलवार के बल पर चल रहे धर्मांतरण को रोकने के लिए सशस्त्र बल बनाया। सिखों को लड़ाकू बनाया। उन्हें कृपाण रखना और उसका उपयोग करना सिखाया। कृपाण उन पाँच क में से एक है, जिसे सिखों द्वारा धारण करना अनिवार्य कर दिया गया था। यह अस्त्र आत्मरक्षा और निर्बल, असहाय की रक्षा का उपकरण है। यह मन में विश्वास भरता है, आत्मनिर्भर बनाता है।

          महान योद्धा और रक्षक गुरु गोविंद सिंह तरल, सरल हृदय के संत थे। ईश्वर के अनन्य भक्त थे। खालसा पंथ की स्थापना ने उन्हें इतिहास का अमर पुरुष बना दिया।

                    “वाहे गुरुजी का खालसा

                    वाहे गुरुजी की फतेह!”

गुरु गोविंद सिंह की जयंती पर पुण्य स्मरण!

प्रस्तुत है गुरु गोविंद सिंह के दो पद-

(1)

          कोऊ भयो मुंडिया संनियासी कोऊ जोगी भयो कोई ब्रह्मचारी कोऊ जती अनुमानबो।

          हिन्दू-तुरक कोऊ राफजी इमाम साफ़ी मानस की जात सबै एकै पहचानबो।

          करता करीम सोई राजक रहीम ओई दूसरों न भेद कोई भूल भ्रम मानबो।

          एक ही की सेव सब ही को गुरुदेव, एक एक ही सरूप सबै एकै जोत जानबो॥

(2)

          देहरा मसीत सोई पूजा और निवाज ओई मानस सबै एक पै अनेक को भ्रमाउ है।

          देवता अदेव जच्छ गंधरब तुरक हिन्दु निआरे निआरे देसन के भेस को प्रभाउ है।

          एके नैन एके कान एके देह एके बान खाक बाद आतस और आब को रलाउ है।

          अलह अभेख सोई पुरान और कुरान ओई एक ही सरूप सबै एक ही बनाउ है॥



असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com


गुरुवार, 19 नवंबर 2020

कथावार्ता : पंडितराज जगन्नाथ और मनोरमा कुच मर्दन

-डॉ रमाकान्त राय

      संस्कृत के प्रसिद्ध कवि और शास्त्री पण्डितराज जगन्नाथ खूब चर्चित रहे हैं। वह दक्षिण भारत में जन्मेमुगल शासक शाहजहाँ के दरबार में रहेदाराशिकोह की मित्रता पाई और शाहजहाँ की एक बेटी लवंगी से विवाह किया। उन्होंने शस्त्र और शास्त्र दोनों में महारत पाई। ऐसी मान्यता है कि दरबार में रहते हुए ही शाहजहाँ के राजकीय मल्ल को पटखनी दी थी। शाहजहाँ ने उन्हें 'सार्वभौम श्री शाहजहाँ प्रसादाधिगतपण्डितराज पदवीविराजितेनकी उपाधि दी। उन्होंने काव्य की परिभाषा करते हुए लिखा था- रमणीयार्थ  प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्। यह परिभाषा साहित्यिक दुनिया में बहुत समादृत हुई।

      पण्डितराज जगन्नाथ की रचनाओं में काव्यात्मक उत्कर्ष और भावगत प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। उनकी कविता प्रसादगुण से युक्त है।पण्डितराज ने अपनी रचना रसगंगाधर में काव्य के स्वरूपकारणभेद-प्रभेदवाणियों के भेदरसभावगुणलक्षणउपमा और अलंकारों का विवेचन किया है। यह पूरा ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। इस अधूरे ग्रंथ के सहारे भी कहा जा सकता है कि सूत्रवृत्ति शैली में रचित इस ग्रंथ में विषय का बहुत ही सूक्ष्मगम्भीर और पांडित्यपूर्ण विवेचन किया गया है। रसगंगाधर संस्कृत साहित्य की आलोचना का प्रौढ़तम उदाहरण है। इसमें इनकी साहित्यिक प्रतिभा का चरम उत्कर्ष दिखलाई पड़ता है।

     उनकी लिखी पुस्तकों में रस गंगाधरभामिनि विलासपीयूष लहरीयमुना वर्णनरतिमन्मथ और मनोरमा कुच मर्दन प्रसिद्ध हैं। उनकी लिखी पुस्तकों की सूची निम्न है-

 

पण्डितराज जगन्नाथ विरचित ग्रंथ

    जगन्नाथ लवंगी से प्रेम करते थे। लवंगी शाहजहाँ की बेटी थी। मुगलों में शासकों की बेटियाँ विवाह नहीं कर पाती थीं। उनकी 'हैसियतका दूल्हा नहीं मिल पाता था। रक्त की शुद्धता के प्रति मुगल अतिशय आग्रही थे। ऐसे में यह प्रेमसम्बन्ध  मुगल काल के दौरान चर्चा में था। त्रिलोकनाथ पांडेय के उपन्यास 'प्रेमलहरीमें इस प्रकरण सहित उनके जीवन और रचना पर सरस चर्चा है। प्रेमलहरी वस्तुतः पण्डितराज के जीवन पर ही केन्द्रित ऐतिहासिक चरित गल्प है। इस उपन्यास के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं - ऐतिहासिक चरित गल्प : प्रेमलहरी

      एकदा पण्डितराज जगन्नाथ को मुसलमान युवती से प्रेम रखने पर काव्याचार्य भट्टोजी दीक्षित ने भरी सभा में प्रकारान्तर से "म्लेच्छ" कह दिया। पण्डितराज ने इसका बुरा माना। वह चाहते तो धोबी पछाड़ दाँव से वहीं दीक्षित जी को चित्त कर देते और मामला फरिया दिया होता। लेकिन उन्होंने इसका रचनात्मक प्रतिशोध लेना तय किया।

      पण्डितराज ने भट्टोजी दीक्षित की 'सिद्धान्त कौमुदीकी टीका 'प्रौढ़ मनोरमाकी न्यूनताओं का उद्घाटन "मनोरमा कुच मर्दन" में किया। मनोरमा कुच मर्दन में जगन्नाथ ने भट्टोजी दीक्षित की स्थापनाओं को छिन्न-भिन्न कर दिया है! 

नागेश भट्टजिन्होंने रसगंगाधर की टीका की हैने इस प्रकरण को छंदोबद्ध किया है-

मनोरमाकुचमर्दन का स्पष्टीकरण  

पण्डितराज जगन्नाथ ने भट्टोजी दीक्षित को जो रचनात्मक लताड़ पिलाईउसका उल्लेख राहुल सान्कृत्यायन ने घुमक्कड़ शास्त्र में इस तरह किया है- "भट्टोजी दीक्षित की भूल दिखलाने के लिए उन्‍होंने बहुत निम्‍नतल पर उतरकर मनोरमा के विरुद्ध 'मनोरमा-कुचमर्दनलिखा।" जगन्नाथ अप्पय दीक्षित से भी खिन्न थे या नहींयह तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता तथापि जिस तरह उन्होंने चित्रमीमांसाखण्डन में उनकी स्थापनाओं का खण्डन किया हैप्रतीत होता है कि वह उनके प्रति भी खासे अनुदार थे।

        राहुल सान्कृत्यायन न जाने क्यों कुछ खिन्न से हैं वह जगन्नाथ को पण्डितराज और संस्कृत का अंतिम महान कवि तो मानते हैं किन्तु उनका लहजा कुछ उखड़ा हुआ है- "शाहजहाँ के दरबारी पंडितपण्डितराज जगन्‍नाथ विचारों में कितने उदार थेयह इसी से मालूम होगा कि उन्‍होंने स्वधर्म पर आरूढ़ रहते एक मुसलमान स्‍त्री से ब्‍याह किया। उनकी सारे शास्त्रों में गति थी और वह वस्‍तुत: पण्डितराज ही नहीं बल्कि संस्कृत के अंतिम महान कवि थे।" अस्तु!

       आचार्य मधुसूदन शास्त्री ने पण्डितराज जगन्नाथ के इस ग्रंथ का परिचय देते हुए लिखा है- "मनोरमा कुच मर्दन भट्टोजी दीक्षित के सिद्धान्त कौमुदी की व्याख्या प्रौढ़ मनोरमा के कुचस्वरूप पंचसंधिप्रकरण का मर्दनात्मक खण्डन ग्रंथ है।"

      पण्डितजी ने शाहजहाँ की बेटी लवंगी से विवाह कियाराज्य त्याग दिया और छद्म रूप में बंगाल तथा काशीवास किया। कहते हैं कि उन्हें सपत्नीक जलसमाधि लेनी पड़ी। पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रेम की भारी कीमत चुकाई।

      आज मनोरमा कुच मर्दन के बारे में फिर से पढ़ने को मिला तो यह सब लिखने का विचार उपजा।

 

असिस्टेण्ट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

+91 9838952426, royramakantrk@gmail.com

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

कथावार्ता : आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी : हिन्दी के संवेदनशील महात्मा जिन्हें मुख्यधारा ने कभी गले नहीं लगाया


-आदित्य कुमार गिरि
मैं ठीक-ठीक सोचकर कह रहा हूँ कि आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी के बड़े लेखक थे/हैं। मेरे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा व आदर है। उनके लेखन ने मुझे बहुत समृद्ध किया है, संवेदनशील बनाया है और मुझे मेरी अल्पज्ञता का एहसास कराया है और इसका भी कि विद्या केवल विनम्र होकर ही अर्जित की जा सकती है। द्विवेदी जी विनम्रता और सीधेपन को मनुष्य के लिए बेहद जरूरी मानते थे। और उन्हें इसका एहसास भी था कि सीधा होना, बहुत टेढ़ा काम है। तभी तो उन्होंने लिखा कि सीधी लकीर खींचना सबसे टेढ़ा काम है। उन्होंने स्वयं की तलाश में, विद्यार्जन के मार्ग पर निडर होकर आगे बढ़ने को नियम की तरह ज़रूरी माना है। वे कहते हैं किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।

मैं द्विवेदी जी को हिन्दी आलोचना में शुक्ल जी की अगली कड़ी मानता हूँ। हिंदी में बहुत संकीर्ण सोच के तहत शुक्ल जी और द्विवेदी जी को लड़ा दिया गया जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शुक्ल न होते तो द्विवेदी भी न होते। द्विवेदी जी के लेखन का एक अंश शुक्ल जी से संवाद के क्रम में विकसित हुआ है। और शुक्ल जी जो नहीं कह सके हैं द्विवेदी जी ने उन बिंदुओं को बेहतरीन ढंग से प्रकट किया है। ये दोनों हमारी हिन्दी की थाती हैं। संवाद के क्रम में ही दुनिया और ज्ञान का विकास होता है।

  अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास दर्शनमें दोनों की दृष्टियों के अंतर को स्पष्ट करते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का केंद्र हिंदी प्रदेश था जबकि द्विवेदी जी ने पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया है।

  शुक्ल जी का आलोचकीय विवेक छायावादी साहित्यिक आंदोलन से निर्मित हुआ था जबकि द्विवेदी जी का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से। दोनों के बीच का यह बुनियादी फर्क ही उनके लेखन की धुरी थी लेकिन आधुनिक आलोचना जगत (जिसमें डॉ रामविलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह प्रमुख है) ने शुक्ल-द्विवेदी स्कूलों की कल्पना कर दोनों के बीच एक कृत्रिम लड़ाई खड़ी कर दी और बाद में पूरा हिन्दी जगत इसी फ्रेम में फ्रेम्ड हो गया और दो खेमे बन गए- शुक्ल-खेमा और द्विवेदी खेमा। शुक्ल को ब्राह्मणवादी और द्विवेदी को ब्राह्मणवाद का विरोधी कहकर खूब प्रचारित किया गया जबकि इस तरह की ज़मीन पर दोनों ही महात्मा लेखक लेखन नहीं कर रहे थे।

  एक लेखक का लेखकीय विवेक किस पृष्ठभूमि में तैयार होता है, बिना उसे समझे लेखक के लेखन और दृष्टि को कभी भी समझा नहीं जा सकता है। लेखक अपने निर्णयों से ज़्यादा अपनी संवाद शैली के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। वह किन विषयों को छूता है और किन्हें छोड़ता है वह उसका निजी फैसला नहीं होता अथवा वह किसी गैंगवॉर की दृष्टि से लेखन नहीं करता बल्कि उसका लेखन उसके समकालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज होता है। असल में उसका मानस ही ऐसे तैयार होता है।

  जो लेखक छायावादीन साहित्यिक आंदोलन से आप्लावित था उसके आदर्श में लोककल्याण और तुलसीदास थे और जो लेखक प्रगतिशील आंदोलन के आलोक में तैयार हुआ उसके आदर्श कबीर और नाथपंथ था। द्विवेदी जी अपने युगबोध को रिप्रेजेंट कर रहे थे। हर लेखक यही करता है। प्रतिरोध की जो हवा उनके युग में चल रही थी उसका मध्यकालीन वैचारिक संबल कबीर में ही था। इसलिए वे कबीर और उनके युगबोध को इतनी सजीवता से प्रकट कर सके। जबतक प्रगतिशील आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में द्विवेदी जी का लेखन कसकर नहीं देखा जाएगा तबतक वे शुक्ल जी तो इस जी या उस जी के विरोध करते तुक्कों में फिट होते देखते रहेंगे।

  द्विवेदी जी ने अपने एक उपन्यास में लिखा है- एकांत का तप बड़ा तप नहीं है। संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है, लोग दुःख से व्याकुल हैं। उनमें जाना चाहिए। उनके दुःख का भागी बनकर उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही वास्तविक तप है।

  यह तप और कष्टों को केन्द्र में रखकर लेखन किस मस्तिष्क की उपज हो सकती है, यह पाठक तय करें। अगर भारत में विराट प्रगतिशील आंदोलन न हुआ होता तो द्विवेदी जी का ऐसा स्वर भी न होता। द्विवेदी जी तो खैर, दूर की बात है; छायावाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि सुमित्रानंनदन पंत और निराला तक पर प्रगतिशील आंदोलन का भयंकर प्रभाव पड़ा। इतना कि छायावाद को छोड़ प्रगतिशीलता में आकंठ डूब गए।

  द्विवेदी जी का यह स्वर देखिए जब वे खुद को कोसते हुए कहते हैं- मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ विराट रिक्तता। जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है।

'छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा है, पेट पालने के लिए छीना-झपटी को कर्म माना है, झूठी प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं- इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े को लक्ष्य को समर्पित नहीं हो सका, किसी के दुःख दूर करने के लिए अपने को उलीचकर नहीं दे सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया।यह कितना तीव्र और ब्लंट आत्मसाक्षात्मकार है। इसकी तुलना मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंकी पंक्ति अब तक क्या किया, जीवन क्या जियासे कर सकते हैं। समाज के लिए जीने और कुछ करने की इतनी तीव्र छटपटाहट और भूख प्रगतिशील आंदोलन में तैयार मानस की ही हो सकती है।

  इसकाल के विवेक के लिए साहित्य अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है बल्कि समाज कल्याण का शस्त्र है। यह काल औसा ही विवेक तैयार करता है जिसे चाँद में प्रेमिका का चेहरा नहीं बल्कि रोटी का टुकड़ा दिखता है।

  द्विवेदी जी इसी कारण प्रगतिशील आलोचक थे उनका साहित्य कर्म समाज को केंद्र में रखकर चल रहा था। वे अपने युग को दरकिनार करके नहीं चल सकते थे। कोई भी नहीं चल सका। वे सच्चे मायने में मानवतावादी लेखक थे। उनका मानवतावाद नारा नहीं था, बल्कि वह उनके अंदर गहरे पैठा था। उनका समूचा लेखन वंचितों की दृष्टि से लिखा तो गया ही है लेकिन साथ ही वह उपेक्षित एवं विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके खड़े हुए अनुभवों और व्यक्तियों के पक्ष में भी रहा है।

यह उनकी पृष्ठभूमि का परिणाम थी जिसकी ओर ऊपर मैंने इशारा किया है। तो दो अलग-अलग काल के, अलग-अलग परिस्थितियों के, अलग-अलग विवेक के, अलग-अलग सरोकारों के लेखकों को एक ज़मीन पर खड़ा करके एक दूसरे के शत्रु के रूप में चित्रित करना कितना बड़ा पाप है, यह आप खुद तय कीजिए।

  द्विवेदी जी के भीतर शुक्ल जी के प्रति अगाध प्रेम और आदर था। एक विद्वान दूसरे विद्वान का अनादर कर भी नहीं सकता। जब भी कोई चरित्रहनन का प्रयास होता है तब असल में वह छोटे मन और व्यक्तित्वों द्वारा किए प्रयास होते हैं।

कहते हैं एकबार रवींद्रनाथ ठाकुर ने द्विवेदी जी को अपने कमरे में बुलाया। शांतिनिकेतन में उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। इतनी कि घुटने-घुटने भर पानी था। कलकत्ते की बारिश तो ऐसे ही मशहूर है। द्विवेदी जी को लेकिन उस अँधेरी रात में कोई भ्रम नहीं था कि बारिश है, कि पानी है, कि अँधेरा, कि कैसे जाएँ और न जाएँ। गुरुदेव ने बुलाया है, तो जाना तो है ही। अतः भीगते-भागते वे रवींद्रनाथ के कमरे तक पहुंचे।

देखा, रवींद्रनाथ आराम कुर्सी पर लेटे खिड़की के परे उस छप्पनों कोट हो रही बारिश को देख रहे थे। द्विवेदी जी वहीं, एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए। कोई आधे घण्टे बाद रवींद्रनाथ की तंद्रा भंग हुई और उनकी नज़र द्विवेदी जी पर गयी। उन्होंने बच्चों के से उत्साह से आह्लादित होकर कहा 'देख चो, एतो शुन्दोर बृष्टि।' (देख रहे हो, कितनी अच्छी बारिश हो रही है।)

द्विवेदी जी ने खिड़की के बाहर नज़र घुमाई और एकटक देखते रह गए। द्विवेदी जी ने उस पल को अपनी आत्मा में क़ैद कर लिया।

यह कथा सुनाने के पीछे मेरी एक मंशा है। वह यह कि कोई साधारण व्यक्ति होता तो कमरे में घुसते ही कहता कि हाँ सर, आ गया। क्यों बुलाया आपने ?’

लेकिन द्विवेदी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। वे वहाँ गए और चुपचाप खड़े हो गए। क्यों ? क्योंकि वे एक लेखक थे, एक संवेदनशील व्यक्ति थे। एक लेखक और एक संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे लेखक की संवेदनाओं को समझ सकता है। और उसपर रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति को।

द्विवेदी जी देखकर समझ गए होंगे कि रवींद्रनाथ इतनी तल्लीनता से बाहर देख रहे हैं तो दृश्य को देखकर अपनी किसी काव्यात्मक संवेदना में खोए गए होंगे। अतः उन्होंने उन्हें टोका नहीं। लेखक को टोकना उसे उसके भावलोक से खींचना होता है। उसकी तंद्रा में बाधा पहुँचाना होता है। इसे द्विवेदी जी जैसा व्यक्ति ही समझ सकता है।

  लिखने वाला हर आदमी लेखक नहीं होता। लेखक बनाती है उसकी संवेदनशीलता, उसकी सूक्ष्मता और अन्यको समझने और सम्मान देने की उसकी दृष्टि और मनःस्थिति।

  मैंने इसलिए ही कहा कि एक विद्वान कभी भी दूसरे विद्वान की उपेक्षा या अनादर कर ही नहीं सकता। द्विवेदी जी जैसा प्रकांड पंडित तो और नहीं कर सकता था। उनके लेखन में शुक्ल जी के प्रति यदा-कदा आदर झलकता रहता है।

अज्ञेय ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा है कि किसी व्यक्ति को समझना हो तो उसे किसी की बुराई करते सुनो। दूसरों की बुराई करते समय एक आदमी कैसी भाषा, कैसा टेम्परामेंट, कैसी उदारता या अनुदारता बरतता है, उसी से उसके चरित्र और स्वभाव का पता चलता है।

लेकिन मैं अज्ञेय से सहमत होते हुए भी इसकी आगे की कड़ी में कहना चाहूँगा कि अगर किसी व्यक्ति के चरित्र को समझना हो तो उसे किसी की प्रशंसा करते सुनो। आप देखेंगे कि उस समय व्यक्ति उदार है या काईंयाँ, इसका सबसे ज़्यादा पता चलता है। क्योंकि प्रशंसा भी उदारता की निशानी है, कृपण व्यक्ति तो प्रशंसा करने में भी कंजूसी करता है।

तो इस दृष्टि से देखें तो द्विवेदी जी जैसा उदार तो कोई है ही नहीं। द्विवेदी जी का समूचा आलोचकीय और नैरेटिव लेखन उठाकर देख लीजिए। वे जब-जब किसी की प्रशंसा करते हैं कलम तोड़ देते हैं। एकदम मुक्त कंठ से,खुले हृदय से , उच्छावासित होकर प्रशंसा करते हैं।

तुलसीदास पर लिखते समय उन्होंने उनकी प्रशंसा में जो-जो लिखा है वह तो शुक्ल जी ने भी नहीं कहा है। हिन्दी का हर विद्यार्थी, हर आलोचक तुलसीदास पर लिखते समय द्विवेदी जी को बिना उद्धृत किए पार ही नहीं पा सकता।

उनके तमाम उद्धरणों में से एक यह है- भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना-भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। वे स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। ब्राह्मणवंश में उनका जन्म हुआ था, दरिद्र होने के कारण उन्हें दर-दर भटकना पड़ा था, गृहस्थ-जीवन की सबसे निकृष्ट आसक्ति के वे शिकार हो चुके थे, अशिक्षित और संस्कृतिविहीन जनता में वह रह चुके थे और काशी के दिग्गज पंडितों तथा संन्यासियों के संसर्ग में उन्हें खूब आना जाना पड़ा था।

  'नाना-पुराण-निगमागम का अभ्यास उन्होंने किया था और लोकप्रिय साहित्य और साधना की नाड़ी उन्होंने पहचानी थी। पंडितों ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि उस युग में प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य-पद्धति नहीं थी, जिसपर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो।

इसी तरह कबीर की प्रशंसा में उन्होंने जो कहा वह हिन्दी में मील का पत्थर बन गया। कबीर पर अनपढ़ता और विद्वता के आलोक में हुए आघातों के इस उद्धरण से परखच्चे उड़ सकते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी के पाठकों को आलोचना की सभ्य तमीज़ दी। उद्धरण है- हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है-तुलसीदास।

(नामवर सिंह लॉबी ने जिन द्विवेदी जी को प्रो-कबीर दिखाया है वे कबीर और तुलसी को लेकर क्या सोचते थे देखिए।) भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।कबीर के अशास्त्रीय लेखन का दुनिया में इससे बड़ा डिफेंस हो नहीं सकता। असल में द्विवेदी जी सकारात्मकता के लेखक थे। द्विवेदी जी जिस गद्गद भाव से प्रशंसा करते थे वह उनके निश्छल हृदय का परिचायक है। ऐसा आदमी किसी के प्रति विद्वेष रखकर लिखता हो, यह शिष्यमंडली ने कैसे देख लिया, भगवान जाने।

  द्विवेदी जी गरीबी के उस स्तर से आए थे जहाँ कई-कई दिन भूखे रातें कटती हैं। वे बलिया के भोजपुरी भाषी थे। पूजा करके घर चलता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या की पढ़ाई ही इसलिए की ताकि उन्हें कमाने का ज़रिया मिल सके। उनके गुरु ने कहा कि संस्कृत सीख लो फिल कभी भूखे नहीं मरोगे। अतः कालीदास के साहित्य को चिखुर जाओ। (चिखुरना एक भोजपुरी शब्द है जिसका अर्थ गाय या बकरी द्वारा ज़मीन से घास चरने के तरीके से है।) बस द्विवेदी जी कालीदास को चिखुर गए। उनके संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही कलकत्ते के शांतिनिकेतन में उन्हें बुलाया गया था लेकिन बाद में उन्हें हिन्दी-विभाग का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। रवींद्रनाथ का द्विवेदी जी पर विशेष स्नेह था।

द्विवेदी जी सही मायने में विराटता के पूजक थे। उन्होंने खंड में अखंड के होने की बात को मज़बूती से स्वीकारा है। वे मानते थे कि सत्य एक और अखंड है। इसके एक भी पहलू को सही-सही पकड़ लेने पर बाकी साफ हो जाते हैं।द्विवेदी जी साहित्य या समाज को संपूर्णता में देखने वाले जीव थे, वे किसी को भी निंदा या रिजेक्शन की नज़र से नहीं देखते थे।

उनका विमर्श विपरीत फल देने पर भी किसी को छोड़ने या उपेक्षा करने के पक्ष में नहीं था। तभी तो शुक्ल जी द्वारा त्याज्य साहित्य(सिद्ध्-नाथ-जैन साहित्य) को भी साहित्य के विमर्श में ले आए। द्विवेदी जी का लेखकीय विवेक संप्रदाय के संकुचित घेरे में रहकर नहीं सोचता था। वह अखिल भारतीय था।

वे जिस सांस्कृतिक-पृष्ठभूमि से आए थे वह किसी दलीय हित के परे मानवता को केंद्र में रखकर सोचता था इसीलिए वे सबको गले लगाते गए लेकिन तमाम पूर्वग्रहों और संकीर्णताओं वाले इस मुख्यधारा ने सदैव उनकी उपेक्षा की, तिरस्कार किया।

वे सच में फफ्कड़ थे, शिरीष के फूल थे, अशोक के फूल, कुटज थे। विपरीत परिस्थितियों में, बेतरह गरीबी में रहकर, पलकर अपनी योग्यता के बल पर न सिर्फ खुद को बल्कि अपने सारे विद्यार्थियों को स्थापित किया। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जहाँ द्विवेदी जी की षिष्य परंपरा का कोई एक प्रतिनिधि न हो। द्विवेदी जी ने अपने लेखन में घृणा और रिजेक्शन्स को कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने ही लेखन को संवाद शैली से जोड़ा वर्ना आलोचना एक सूत्रयुक्त गूढ़ लेखन था। द्विवेदी जी के बाद आलोचना में उपन्यास का सा मज़ा प्रविष्ट हो गया।

आचार्य द्विवेदी की सकारात्मक आलोचना दृष्टि को उनकी पुण्यतिथि पर स्मरण करते हुए उनके प्रति आदर और कृतज्ञता से भरकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।


आदित्य कुमार गिरि

(युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक, मौलिक चिन्तक और सुधी आलोचक हैं। वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों पर उनका विवेचन और विश्लेषण मौलिक और तथ्यपरक होता है। यह आलेख उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के जन्मदिवस पर हमारे विशेष अनुरोध पर लिखा था।

हमारे ब्लॉग पर आदित्य कुमार गिरि की यह दूसरी प्रस्तुति!)

गुरुवार, 26 मार्च 2020

कथावार्ता : लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए


(डॉ मनोज राय गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे शीर्षक से प्रकाशित है। आपने बापू ने कहा था शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, गांधी चिंतन में योग और शांति तथा महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया है, वह मेरे देखे अनूठा है। आज कुबेरनाथ राय की जयंती पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

          बहुत कम ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने अपने लेखन के शुरू में ही यह घोषित कर दिया हो कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार और जीवन भर अपने इस आदर्श पर दृढ़ता पूर्वक बिना किसी लोभ-लालच के डटे रहे । श्री कुबेरनाथ राय को इसका श्रेय प्राप्त है। श्री राय का यह क्रोध या आर्तनाद उनका निजी नहीं है अपितु सम्पूर्ण भारत का है। श्री राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में है। जिस विधा को उन्होने अपने लेखन के लिए अपनाया है उसके प्रति उनके मन में न केवल आकर्षण है अपितु तर्क भी है -निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है । ललित निबंध भी काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता ललित निबंध क्या चीज हैहमारी सहूलियत के लिए उन्होने इसकी सरल-सुग्राह्य परिभाषा भी दे दिया है-ललित निबंध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य  दोनों है। एक ही साथ,आगे पीछे के क्रम में नहीं। निबंध की परिभाषा से ‘शिव के सांड़’ का कोई भी संबंध हो सकता है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पर श्री राय की तो बात ही अलग है- “ विषय के आसपास शिव के सांड़ की भांति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है। यह परिभाषा बस कामचलाऊ ही है। वह भी इसलिए कि पाठकों को एक देशज छवि की झलक भर मिल जाये। वरना इसकी असल “ परिभाषा करना मानो कालिका की जिह्वा को परिभाषित करना है। कालिका की जिह्वा आस्वादन और वाक् दोनों का प्रतीक है। देह-देह में कालिका बैठी है और वह रसना के माध्यम से रस का आस्वादन कराती है और वाक् बनकर विद्या का रूप धारण करती है। वह महारस और महाविद्या का प्रतीक है। वह परमा प्रकृति है। शब्दरूपरसस्पर्श और गंध इन पाँचों मात्राओं का मूल स्रोत है। लालित्य तो उसकी एक चिद्कला मात्र है। अतः उस भगवती को नमो नमः और उसकी विद्यारूपी रसना को नमोनमः जो लालित्य के आस्वादन का निमित्त कारण है। उसकी परिभाषा कौन करने जाय”। श्री राय ‘सेचन-समर्थ-पुंगव-वृषभ’ चिंतक हैं जो किसी की परवाह नहीं करता है। जब उसका मन हुआ निर्जन रास्ते पर अकेले ...हाथ में एक मजबूत देशी लेकर चिन्मय भारत’ की तलाश में निकल लेता है,(ताकि) यदि किसी मामा (चिन्मय भारत के पार्टिशन या बंदर बाँट में रूचि रखने वाले महंतगण) की इच्छा हो सम्मुख आकर कंठ फाड़कर निमंत्रण देने की तो उनके उपयुक्त प्रत्युत्तर की भाषा इसके माध्यम से दी जा सके।
          श्री कुबेरनाथ राय से मेरा प्रथम परिचय एक स्थानीय अखबार के कोने में छपी उनकी मृत्यु की खबर  से ही हुई थी । एक  ही जिले के होने के बावजूद इससे पूर्व मैंने कभी उनका नाम तक नहीं सुना था। वैसे भी साहित्य से मेरा बादरायण संबंध रहा है। कुछ महीने बाद श्री राय के लेखन के मुरीद डॉ बरमेश्वर नाथ राय ने उनकी एक रचना ‘चिन्मय भारत’ पढ़ने के लिए दिया। ‘चिन्मय भारत’ का ऐसा असर पड़ा कि श्री राय के सम्पूर्ण साहित्य को पढ़ने की इच्छा जाग उठीतबसे उनको पढ़ने का सिलसिला जारी है।  लेकिन श्री राय अध्ययन क्षेत्र इतना विषद और व्यापक है कि दर्जनों बार पढ़ने के बावजूद कुछ पाना शेष ही रह जाता है। पाश्चात्य और पौर्वात्य दोनों साहित्य का जिस गंभीरता से अध्ययन-पाचन श्री राय ने किया है वह अत्यंत दुर्लभ है। महज बत्तीस बसंत पार करते ही एक निबंध-संग्रह  ‘रस-आखेटक’ में होमर-शेक्सपीयर-वर्जिल पर लिखे गए मोनोग्राफ उनके विस्तार और अब एक किनारे मैं भी जम रहा हूँ  जैसे कथन उनके आत्मविश्वास को स्पष्ट कर देते हैं। तुलसी-भूमि पर जन्म लेने का औसत से ज्यादा सार्थक-अभिमान तो उनके अंदर था हीमोहनजोदड़ों के सांड से निकट का परिचय भी था। फलस्वरूप जब मन किया साहित्य के किसी भी बंसवार में माथा टिका देते थे और जब तक उसे जड़ से उखाड़ न ले पीछे नहीं हटते थे।          
          साहित्य जगत में प्राय: श्री राय के योगदान को साहित्य की एक खास विधा ललित-निबंध से जोड़कर देखने की रही है। बहुत हुआ तो ललित-निबंध के लिए प्रसिद्ध  स्वयंभू ‘त्रयी’ के एक महत्वपूर्ण लेखक रूप चर्चा कर इतिश्री कर ली जाती है । मुझे लगता है कि श्री राय के द्वारा संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में उनके दिये गए अप्रतिम योगदान को और वृहत्तर रूप में देखने की जरूरत है। श्री राय की असल चिंता है देश की जातीय और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखना। श्री राय के व्यक्तित्व सटीक मूल्यांकन करते हुए किसी ने ठीक ही लिखा है- वे प्रकृति से अक्खड़स्पष्टवादी पर तत्वाभिनिवेशी दृष्टि के रहें हैं। ...और अपनी स्थापना के कारणों को भी बड़े बेलौस लहजे में उद्घाटित करते रहे हैं।”  कहना न होगा कि उनकी अक्खड़ता,स्पष्टवादिता का ही परिणाम था कि 1974 (विषाद योग का प्रकाशन वर्ष) तक अपने साहित्यिक अवदान के लगभग चरम पर पहुँचने के बाद भी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र के वे अज्ञात कुलशील बने रहे। एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाय तो शायद ही किसी बड़े विद्वान ने उनके साहित्य के मूल्यांकन में रूचि दिखाई हो।
          श्री राय लिखते हैं, “ मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध ‘भारतीय मन और विश्वमन’ के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करने की कोशिश करते हैं।” इस प्रतिबद्धता के पीछे उनकी यह निर्भ्रांत समझ है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण कराते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषत: साहित्य का मूलधर्म है। इस धर्म के निर्वहन और विषय के अनुरूप कुछ कम प्रचलित शब्दों का प्रयोग उनके साहित्य में देखने को मिलता है। इस बिना पर श्री राय साहब की भाषा के संबंध में यह प्रचारित कर दिया गया है कि वे प्राय: क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं । इसका निराकरण करते हुए उन्होने स्वयं लिखा है, “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। मेरे सम्पूर्ण साहित्य में इस कोटि के दो दर्जन से ज्यादा नहीं। इतना किसने नहीं किया है!.... मैंने जहां-2 ऐसा किया है वहाँ उसी वाक्य में या आगे उसका अर्थ खोलता गया हूँ। सच तो यह है कि आधुनिक पीढ़ी का अपनी विरासत और लोक से परिचय ही नाम मात्र का रह गया है। ऐसे दरिद्र शब्द-भंडार लेकर श्री राय के निबंध-कांतार की यात्रा दुर्गम तो होगी ही। श्री राय ने अपने एक निबंध ‘भाषा बहता नीर’ में भाषा को ‘एक प्रवहमान नदी’ ‘बहते हुए जल’ की संज्ञा दी जो बावन तोले पाव रत्ती सही है। दरअसल उनका यह कथन भाषा की बहुसमावेशक क्षमता की ओर संकेत करता है। भाषा का पाट जब चौड़ा होता है तब वह बहुत कुछ को अपने में समेटते-मिलाते हुए गतिमान होती है। इस प्रक्रिया में विवेक के साथ शब्दों का संग्रह-त्याग भी चलता रहता। दरअसल श्री राय ‘मन के दरिद्रीकरण या वंध्याकरण को ही रोकने के लिए नहीं प्रयास-रत थेभाषा के दरिद्रीकरण और वन्ध्याकरण को समाप्त करने के लिए भी उद्यत थे वे लिखते भी हैं,-मैं गाँव-गाँवनदी-नदीवन-वन घूम रहा हूँ । मुझे दरकार है भाषा की। मुझे धातु जैसी ठन-ठन गोपाल टकसाली भाषा नहीं चाहिए। मुझे चाहिए नदी जैसी निर्मल झिरमिर भाषामुझे चाहिए हवा जैसी अरूप भाषा। मुझे चाहिए उड़ते डैनों जैसी साहसी भाषामुझे चाहिए काक-चक्षु जैसी सजग भाषामुझे चाहिए गोली खाकर चट्टान पर गिरे गुर्राते हुए शेर जैसी भाषामुझे चाहिए भागते हुए चकित भीत मृग जैसी ताल-प्रमाण झंप लेती हुई भाषामुझे चाहिए वृषभ के हुंकार जैसी गर्वोन्नत भाषामुझे चाहिए भैंसे की हँकड़ती डकार जैसी भाषामुझे चाहिए शरदकालीन ज्योत्स्ना में जंबुकों कें मंत्र पाठ जैसी बिफरती हुई भाषामुझे चाहिए सूर के भ्रमरगीतगोसाईं जी के अयोध्याकाण्डऔर कबीर की ‘साखी’ जैसी भाषामुझे चाहिए गंगा-जमुना-सरस्वती जैसी त्रिगुणात्मक भाषामुझे चाहिए कंठलग्न यज्ञोपवीत की  प्रतीक हविर्भुजा सावित्री जैसी भाषा......।”  कहना न होगा कि उन्होने इसकी खोज लेखन के आरम्भ से ही शुरु कर दिया था  ।
          ललित निबंधों के माध्यम से पाठकों के  इतिहास-बोध  को परिष्कृत करना भी श्री राय का एक खास उद्देश्य रहा है। वे अपने ढंग से इतिहास-बोध की आवश्यकता का ही प्रतिपादन नहीं करते अपितु उसके समझने की प्रक्रिया को भी स्पष्ट रूप में सामने रखते हैं। उनकी दृष्टि में हम आज भी बौद्धिक उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हुए हैं और हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को हम अपनी आँख से कम और विदेशी आँखें से अधिक देखने के लिए अभिशप्त हैं। मेरे एक परिचित ने उनके इतिहास-विषयक निबंधों पर एक अनजान प्रश्न खड़ा करते हुए लिखते हैं- अन्य विधाओं की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई है। इसका कारण यह है कि वे साहित्य के स्थान पर इतिहास की ओर उन्मुख हो गए हैं। भाषा-विज्ञान और नृतत्वशास्त्र का सहारा लेकर उसमें कुछ इस तरह रमें हैं कि किसी दूसरी ओर देखने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला है। इस कतर-व्योंत से उनका ललित लेखन भी प्रभावित हुआ है। ......अगर राय साहब हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की तरह अन्य विधाओं की ओर उन्मुख हुए होतेजिनकी उनमें क्षमता थीतो उनकी परिधि के रचनात्मक आयामों का बहुविध विस्तार हुआ होता और साहित्य की प्रकृति को और निकटता से वे समझ सके होते।’’ मुझे लगता है कि प्रश्नकर्ता हिन्दी साहित्य जगत की नैसर्गिक राजनीति के आतंक के साये से उबर नहीं पाया है। दरअसल श्री राय किसी की रिप्लिका बनने के पंड-श्रम से मुक्त चिंतक थे। उनकी चिंता ‘भारत’ की चिंता है। विधा सिर्फ एक माध्यम भर है, उस चिंता को व्यक्त करने की। यह मानी हुई बात है कि जिस भी जाति के प्रज्ञा-पुरुषों का इतिहास-बोध प्रखर नहीं होताजिनका अपने गतिशील सांस्कृतिक-दाय का बोध नहीं होता वह अंधश्रद्धा और परंपरा से ग्रस्त होकर जल्दी ही अवनति के गर्त में समा जाती है। इस बात से कौन अपरिचित है कि भारतीय संस्कृति के दाय को विकृत करने का प्रयास शताब्दियों से चलता आ रहा है। हमारे पूर्वज उन विपरीत परिस्थतियों में भी रहकर अपनी अस्मिता को बचाने में सफल रहे। पर आज की लड़ाई थोड़ी भिन्न है। अपने ही अन्दर के जयचन्दों ने स्वार्थ का ऐसा वितण्डावाद खड़ा कर दिया है कि उससे लड़ पाना मुश्किल हो रहा है। श्री राय ऐसे ही लोगों से लड़ते हुए ‘चिन्मय-भारत’ की तलाश में लगे थे। श्री राय की तो यह इच्छा है कि भविष्य में कोई ‘माई का लाल’ आगे बढ़कर भौतिक शास्त्र-जीव विज्ञान आदि अनुशासनों में भी ललित-निबंध लिखे । इस विस्तार तक जाने और उसकी वकालत करने की क्षमता उसी लेखक में हो सकती है जिसकी दृष्टि ‘मूल दृष्टि’ से ‘अभिसार’ करती हो। उन्होंने चेतावनी के स्वर में हमें आगाह किया, ‘‘अगली शताब्दी नए ढंग और नयी शब्दावली माँगती है। .......  भारतीय बुद्धिजीवी और भारतीय साहित्यकार के लिए वह आधार भूमि भारतीय प्रज्ञा की देशी जमीन ही हो सकती हैअन्य और कोई नहीं। ........ इसी से मैं यहाँ और अपने लेखन में अन्यत्र भी मूल की ओर लौटने की बात करता हूँमूल संश्लिष्ट होने की बात करता हूँ।’’
          श्री राय गांधीवादी चिन्तन से विशेष रूप से प्रभावित हैंऔर आज की अधिकांश समस्याओं के निदान के रूप में वे उसकी वकालत करते थे। घर-गृहस्थी से लेकर सुरसामुखी बेरोजगारी जैसे गंभीर विषयों पर पत्र-शैली में उन्होने पत्र मणिपुतुल के नाम से एक पुस्तिका लिखी है। अद्भुत पुस्तक है यह। इस पुस्तक में रस-शिल्प-सही हिन्दू-सत्य और विद्या माई से लेकर पांत के आखिरी आदमी की चिंता बहुत ही सरल शब्दों में की गई है।  एक चिट्ठी में वे लिखते है-अपनी चिंता करने के साथ ही महुआ के सूर्य,चंद्र की चिंता करो जिसे शताब्दियों पूर्व व्यवस्था के राहु ने चबा डाला था और जिसकी मनबुद्धि क्या शिरा-धमनी में भी अंधकार का महातमस प्रवाहित है। यहाँ महुआ जनता की प्रतीक है जो आज भी व्यवस्था के लॉकडाउन-चक्रव्यूह में फंसी पड़ी है। गांधी के हवाले से वह लगातार यह चिंता जाहिर करते रहें हैं कि हिंदुस्तान की समस्या का असली समाधान वृहदाकार यंत्र नहीं अपितु कुटीर उद्योग कर सकते हैं। यंत्र मनुष्य को सर्जक न रखकर एक पुर्जा बना डालते हैं जिसका कुप्रभाव बहुआयामी होता है जिसकी तरफ एक सदी पूर्व डॉ आनंद कुमारस्वामी ने भी इशारा किया था। श्री राय के लिए गांधी ‘भारतीयता’ के प्रतीक हैं। वह उनमें ‘राम जैसा होने’ और ‘बहुत कुछ सफल होने को’ देखता है। वे यह मानकर चलते हैं कि “एक दिन ऐसा कि सभी को सर्वोदय और गांधी की जरूरत अनिवार्य लगेगी।”
          पिछली सदी के छठे दशक में जब श्री राय लेखन-क्षेत्र के किनारे खद्दर-वेश में प्रवेश कर रहे थे तो उनके सामने था हिन्दी साहित्य जगत का वह विशाल क्षितिज जहां पश्चिमी साहित्यमार्क्सवादी साहित्य,संगठन शास्त्रवादियों की गिद्ध-मंडली शिकार की तलाश में मंडराती रहती थीं।  यह एक तथ्य है कि शस्य-श्यामला धरती पर श्री  राय को ‘अभिमन्यु की तरह इन सभी महारथियों से जूझना पड़ा है। क्षत-विक्षत होकर भी वे पराभूत नहीं हुए हैं। इसके अनेक कारण हैं जिसके विस्तार में यहाँ जाना संभव नहीं है। एक संकेत ही काफी है-सच पूछो तो मेरे अन्दर एक अविराम अविच्छिन्न समुद्र-मंथन चल रहा है। जबसे मैंने होश संभाला तभी से। मन ही मन्दराचल हैउसमें सर्पशिशुवत लिपटी मेरी कामना ही वासुकि हैऔर इन्द्रिय-इन्द्रियस्नायु-स्नायु में बैठे देवता और असुर अविराम मंथन में लीन हैं। इस मंथन द्वारा श्रीमणिरंभाशंखऐरावत और उच्चैःश्रवा तो कभी नहीं मिलेएकाध बूँद अमृत और जहर जरूर कभी-कभी मिला थावारुणी सदैव मिलती रही है। इसकी कमी नहीं हुई। फलतः मेरे जीवन में देवता तो प्रायः तृषित ही रह गएपरन्तु मन के रसातल में भैंसे की तरह मँड़िया मारते हुए असुरों ने छककर उस वारुणी का पान किया है और लगातार करते जा रहे हैं। अर्थात् इन असुरों की पुष्टि-तुष्टि के लिए ही मेरा जन्म हुआ।  श्री राय की बनावट ही अद्भुत है। उनको किसी की परवाह नहीं है। हार-जीत से वे ऊपर हैं-आखिर इतना प्रकाश ले कर क्या होगा ? अखण्ड प्रकाश और अखण्ड जागरण कितनी बड़ी यंत्रणा है। मैं तप्त और तृषित हूँ। मुझे अंधकार की तृषा हैघनघोर निद्रा की तृषा है। माना कि प्रकाश सुरक्षा है ज्ञान हैअमृत है- सब सही। पर इतना आलोकइतनी सुरक्षाइतना ज्ञान और इतना अमृत लेकर क्या होगा?”  उनके चिंतन का धरातल बड़ा उदात्त है । वे लिखते हैं-जीवन ही एक सलीब है जिस पर असहाय रूप में हम ठोंक दिए गए हैंअपने ही पापों की नहींऔरों के पापों की कीलों से भी। राजा-रंक सभी के कंधे पर क्रॉस हैपर बिरला ही ऐसा होता है जो औरों को पाप-मुक्त करने के लिएइस व्यथा को भोगता है। तब वह पुरुष नीलकण्ठ बन जाता है और यातना का रूपान्तर हो जाता है एक ज्योतिर्मय महिमा में। यह प्रतीक हमें शिक्षा देता है कि क्रॉस  तो ढोना ही हैजब जन्म लिया है तो इस नियति से नहीं बच सकतेपर इसे ऐसे ढोओ कि यातना महिमा बन जाय।’’ नीलकंठ बनने के आग्रही  श्री राय का रास्ता ही अलग है। उनकी पसंद ही कुछ और है-‘‘शोभा और श्रृंगार के प्रतीक इन पुष्पों के रहते हुए भी मैं नीम के पुष्प-गुच्छ का तिरस्कार नहीं कर पाता हूँ। ... नीम का मामूली फूल साहित्य की उस नयी विधा का प्रतीक हैजो समूची निराशा और पराजय का अतिक्रमण करके जीवन में जीने योग्य क्षणों के दानों को एक-एक करके चुन रही है।’’ इसलिए वे अविराम यात्रा पर अकेले चल पड़े हैं- ‘‘जन्म से मरण तक इस पंचभोग्या याज्ञसेनी सृष्टि का परिधान पर परिधान हरण करते जाओ, ‘स्व’ का दुःशासन थक जायगा परन्तु इसके भीतर का सार कहाँ हैपता नहीं।’’
          श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है। यह लगभग असामान्य घटना है। उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि उनकी कोई निजी लोभ या तृषा नहीं थी- ‘‘मैंने चतुर्दिक हँसती राका-निशि में किसी का हाथ पकड़कर कोई प्रतिज्ञा की थीपर क्षमाहीन अर्थव्यवस्था और शासनतन्त्र के बीच कुछ कर नहीं पाया और दमित कामना का पाप ढोता हुआ इच्छाओं के फूल जैसे शिशुओं की निरन्तर हत्या करता हुआ जी रहा हूँ।’’ लेकिन उनके निबंधों में पाठक बहुत महत्वपूर्ण है। पाठकों के लिए ‘मणि (भारतीयता के विशिष्ट आयाम) की खोज में घाट-घाट का पानी पीते रहे और इतिहास से ‘मधु’ निचोड़कर प्रस्तुत करते रहे। और अंत में एक दिन चुपचाप चले भी गए-‘‘मुझे जाना ही होगा क्योंकि कहीं कोई प्रेषित पति का रूप में हृदय पर नमस्कार मुद्रा में जुड़े बीस नखों के अक्षत और अपने नारियल युग्म लिए मेरी प्रतीक्षा करती होगी। जाना ही होगा क्योंकि यह काम रूपिणी सृष्टि कहीं भविष्य की मातृका बनकर तो कहीं भविष्य की प्रेमिका बनकर प्रतीक्षारत है। ......... मृगशिरा की दुपहरिया में  कोयल कूक जायेगीपर मैं नहीं रहूँगा।


      -डॉ मनोज राय
एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
डॉ मनोज राय



सद्य: आलोकित!

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