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मंगलवार, 12 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ शमशेर बहादुर सिंह की कविता- उषा


शमशेर भाव और उसके सम्प्रेषण कला दोनों स्तर पर विशिष्ट हैं। उनकी एक छोटी सी कविता ‘उषा’ है (शमशेर बहादुर सिंह की कविता "उषा" यहाँ क्लिक करके पढ़ें।) जिसमें उनका प्रकृति के प्रति पवित्र अनुराग दिखाई पड़ता है। हम इस कविता के काव्य सौन्दर्य पर चर्चा करेंगे उससे पूर्व शमशेर के यहाँ रंग, गंध और गति सम्पन्न प्रकृति पर कुछ नोट्स साझा कर लेना जरूरी समझता हूँ।

शमशेर बहादुर सिंह

शमशेर की कविताओं में प्रकृति विविध रूपों में विद्यमान है जिसमें उसका रंग-बिरंगा कोमल रूप ही अधिक है। वह रंग उदासी, प्रेम, आनंद आदि किसी भी रूप में हो सकता है। उनकी प्रकृति रंग और गंध के साथ गतिशील रहती है और अंत में मानवीय संवेदनाओं का रूप ग्रहण कर लेती है। उन्होंने जितनी बारीकी से प्रकृति के रंगों की पहचान की है उतनी बारीकी से हिंदी के शायद ही किसी और कवि ने की है! जब वे प्रकृति में रमते हैं तो उनके कवि पर उनका चित्रकार रूप सबसे अधिक हावी रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कविता न लिखकर चित्र बना रहे हैं। उनकी कविता के इन चित्रों में रंग ही नहीं गति भी महसूस होती है। उनकी ‘संध्या’ कविता में रंग और गति का यह सौन्दर्य खिला हुआ है-
बादल अक्टूबर के
हलके रंगीन ऊदे
मद्धम मद्धम रूकते
रूकते से आ जाते
इतने पास अपने
शमशेर को ‘शाम’ बहुत पसंद है। उनकी अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनमें सायंकालीन आसमान का दृश्य अधिक आया हुआ है। ऐसा लगता है कि शमशेर अपने निजी अवसाद, अकेलेपन और दुःख को शाम के रंग में घोलकर कविता तैयार कर रहे हैं। दरअसल वे दृश्यों में इतना डूब जाते हैं कि पाठक उन्हीं की नजरों से उस दृश्य को देखने लगता है। उनकी कविताओं में जो रंग और दृश्य हैं वे मानव जीवन से इस तरह अटूट संबंध रखते हैं कि उन कविताओं का रस बोध वे पाठक भी सहजता से कर लेते हैं जो अर्थबोध में असमर्थ होते हैं। जैसे-
                                                   एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका पत्ता
यहाँ शाम और पतझर के पत्ते का ‘पीलापन’ एकमेक हैं जो उदासी और निराशा के भाव को प्रबल कर रहा है। जैसे शाम का पीलापन अँधेरे की पूर्वसूचना है, उसका पीलापन निराशा के अंधेरे में बदलने वाला है उसी तरह पतझर के पत्ते का पीलापन उसकी समाप्ति की पूर्वसूचना है। वास्तव में यह ‘पत्ता’ मृत्यु शैय्या पर पड़े जीवन का बोध करवा रहा है जिसका अस्तित्व पतझर के पीले पत्ते की भांति अब समाप्त होने ही वाला है। यहाँ केवल प्रतीकात्मकता ही नहीं है बल्कि उसमें गहरी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।
शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताओं पर रामविलास शर्मा आरोप लगाते हुए कहते हैं कि “शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताएँ प्रतीकात्मक हैं जो किताब पढ़कर भी रची जा सकती है। वे संवेदनालोक का हिस्सा नही है।” तो वह उनकी कविताओं की प्रतीकात्मकता को ही ध्यान में रखते हैं। जबकि ये दृश्य केवल शब्द चित्र नहीं हैं क्योंकि इनकी प्रकृति के दृश्य धीरे-धीरे संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। इसमें केवल एक दृश्य भर नहीं है अपितु कवि का पूरा संवेदनालोक भी है। जैसे ‘धूप की कोठरी के आईने में खड़ी है’ कविता में-
                             मोम-सा पीला
                             बहुत कोमल
                             एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को
                             उड़ गई
                             आज बचपन का
                             उदास माँ का मुख
                             याद आता है
‘मोम-सा पीला नभ’ आगे चलकर माँ के चेहरे की उदासी को याद दिलाता है जबकि मधुमक्खी का फूल हिलाकर उड़ना ‘कवि के मन’ को कुरेद जाता है। इस तरह प्रकृति को निहारते-निहारते कवि जीवन के पिछले पन्ने पर लौट जाता है।इससे पता चलता है कि उनके द्वारा रचे गए प्रकृति के दृश्य उनकी अनुभूतियों का हिस्सा हैं जो उनकी संवेदना की उपज है। इसलिए इस दृष्टि से रामविलास शर्मा का सारा आरोप बेमानी लगने लगता है। अपूर्वानंद लिखते हैं- “शमशेर के प्रकृति चित्रों को उन्हीं के नजरिए से देखना चाहिए न कि उस दृष्टि से जिससे केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन के प्रकृति चित्रणों को देखा जाता है। शाम की नीलाहट, रात का अँधेरा, जाड़े की सुबह की कोमल धूप, सागर की लहरें ये सब उनके संवेदनालोक के अभिन्न अंग हैं।”
शमशेर का शाम के प्रति  लगाव देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मन के किसी कोने में बैठा अवसाद उन्हें खींचकर ‘शाम के रंगों’ की तरफ ले जाता है लेकिन साथ ही उनके यहाँ प्रकृति के मधुर और आकर्षक रूप भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। एक कविता में वे ‘दिन’ के लिए जिस बिम्ब का प्रयोग करते हैं वह बहुत ही अनूठा है-
                   दिन
                   किशमिशी रेशमी गोरा
                   मुस्कराता
                   आब
                   मोतियों की छिपाए अपनी
                   पंखुड़ियों तले
दिन के लिए प्रयुक्त ‘किशमिशी रेशमी गोरा/मुस्कराता’ बहुत ही सुन्दर दृश्य बिम्ब है। पूरी कविता बिम्बों में ही खिली है। इसी तरह उनकी एक कविता ‘बसंत आया’ में बसंत के सौन्दर्य बड़े आकर्षक चित्र हैं। इस कविता को पढकर कभी-कभी निराला की ‘सखि, वसंत आया’ या ‘अट नहीं रही है’ जैसी कविताओं की याद आ जाती है -
                   फिर बाल बसंत आया, फिर लाल बसंत आया
                   फिर आया बसंत!
                   फिर पीले गुलाबों का, रस-भीने गुलाबों का
                   आया बसंत
शमशेर के प्रकृति संबंधी कविताओं पर इस विहंगम दृष्टि के बाद अब हमें ‘उषा’ कविता के सौन्दर्यबोध को समझना चाहिए जिसमें उन्होंने सुबह के सौन्दर्य का जादुई चित्र खींचा है। वह लोक-जीवन को ध्यान में रखते हुए सुबह के रंग बदलते आसमान का ऐसा चित्र उकेरते हैं कि भोर के साथ ही पूरा गँवई परिवेश साकार हो उठता है। इस कविता को पढ़ने से ऐसा लगता है कि मानो कोई चित्रकार अपने कैनवास पर सुबह के रंग और गति से भरे आसमान के चित्र को बड़ी जीवंतता से चित्रित कर रहा हो।
शमशेर का गाँव के जन-जीवन और प्रकृति से बढ़िया परिचय था। उनका काफी समय उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद में बीता था जहाँ उनके पिता सरकारी सेवा में थे। इसलिए गंवई प्रकृति और वहाँ का जन-जीवन उनके संवेदनालोक का अभिन्न अंग हैं।‘उषा’ कविता को इसी आलोक में देखने की कोशिश है। भोर की प्रथम बेला के आकाश से कविता का प्रारम्भ होता है - ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ - सुबह का प्रथम प्रहर है। आसमान की रंगत बदलनी शुरू हो गई है। उसमे नीलिमा लौट रही है लेकिन उसमें अँधेरे की कालिमा मिली हुई है। कवि उसकी कल्पना ‘शंख’ के रूप में करता है। आसमान बहुत नीला है लेकिन उसकी छवि ‘शंख’ जैसी है।कविता की इस पहली पंक्ति में प्रयुक्त बिम्ब ‘बहुत नीला शंख’ प्रात:कालीन आसमान के रंग-बोध के साथ-साथ वातावरण की शुद्धता और पवित्रता के लिए भी सार्थक है। यह भी संभव है कि इस दृश्य को उतारते हुए कवि के कानों में भोर की प्रथम बेला में मंदिरों से उठने वाली शंखध्वनि भी रही हो क्योंकि उत्तर-प्रदेश के गाँव की सुबह का यह यथार्थ है। प्राय: आज भी गाँव के बाहर मंदिरों में प्रात:काल की प्रथम बेला में शंख की आवाज को सुना जा सकता है।
पहली पंक्ति के बाद अंतराल है। उसके बाद कविता की अगली पंक्ति है “भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है)” शमशेर की कविताओं में अंतराल का विशेष महत्व है। उनकी कविताओं में पंक्तियों के अंतरालों में भी कविता चलती रहती है। वहाँ पाठक को सोचने का अवकाश रहता है कि इस अंतराल में क्या-क्या संभावनाएं हैं। इससे वह अगली पंक्ति के पूर्व के अर्थ की कल्पना कर लेते हैं। एक अर्थ में इन अंतरालों में पाठक सर्जक के काफी करीब होता है। यहाँ यह अंतराल एक तो समय परिवर्तन की ओर संकेत है कि थोड़ा-सा समय और व्यतीत हो जाने पर आसमान का रंग परिवर्तित हो गया। दूसरे वह गाँव के लोगों की कार्यशैली को भी व्यक्त करता प्रतीत होता है। जैसे भोर के प्रथम प्रहर में ही गाँव के लोग उठ जाते हैं, उनका दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ होजाता है। भोर का यह समय रात के अंधेरे और सुबह के उजाले का संधिस्थल है और इस समय आसमान का रंग ‘राख के रंग’ के समान प्रतीत होता है जिसमें ओस के कारण थोड़ी नमी है । यहाँ कोष्ठक में जिस गीलेपन की बात कवि ने की है वह ओस की नमी की ओर संकेत है। इस बिम्ब से यह संकेत मिलता है कि अब गाँव के घरों में लोग चौके को राख से लीप कर साफ़-सुथरा कर रहे हैं। यहाँ आसमान को राख से लीपे हुए चौके के बिम्ब में ‘लीपा’ और ‘चौका’ का प्रयोग बड़ा अनूठा और सार्थक है।
एक और अंतराल के बाद कविता पुन: आगे बढ़ती है ‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/ कि जैसे धुल गई हो’। आसमान में थोड़ी सी और हलचल होती है और सूर्योदय से पूर्व की लालिमा छाने लगती है। इस समय कवि को आसमान में ‘काली सिल पर घिसे हुए लाल केसर की लालिमा’ का बिम्ब दिखाई पड़ता है। ‘सिल’ ग्रामीण जीवन-शैली का अहम् हिस्सा होती है। वह उनके दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। ऐसा लग रहा है कि कवि गाँव की महिलाओं के चूल्हे-चौके की व्यस्तता और आसमान को एक साथ निहार रहा है और उनके चित्र को अंकित करता जा रहा है। आसमान की इस सुन्दर लालिमा के लिए उसकी नजर बच्चों के स्लेट पर भी पड़ती है जहाँ वे नन्हें-मुन्ने अपने हाथों से स्लेट को लाल खड़िया चाक(दुद्धी) से रंग रहे हैं। कवि लिखता है “स्लेट पर लाल खड़िया चाक / मल दी हो किसी ने” । यहाँ कवि की दृष्टि में गाँव के बच्चों का भोली-भाली छवि भी है जो सुबह-सुबह अपनी स्लेट और चाक के साथ पढ़ने बैठ जाते हैं। स्लेट जैसे आसमान में लाल खड़िया चाक का रंग जैसे इन ग्रामीण किसान के घरों के बच्चों के जीवन का सूर्योदय तय कर रहे हों कि इस शिक्षा से ही जीवन में लालिमा का संचार होगा।
कवि एक अन्तराल के बाद लिखता है कि “नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो” अर्थात थोड़ा सा समय और गुजर गया, सूर्योदय का प्रारम्भ हो रहा है लेकिन सूर्य अभी पूरी तरह निकला नहीं है।जब सूर्य निकल रहा है तो उसकी सुनहरी आभा नीले आसमान में ऐसे चमक रही है जैसे कोई गौर वर्ण का व्यक्ति स्वच्छ नील जल में स्नान कर रहा हो। पूरा आसमान नीले सरोवर की भाँति दिखाई पड़ता है और ‘सूर्य’ स्वर्णाभ शरीर की भांति। ठीक ऐसे ही जयशंकर प्रसाद के यहाँ भी आसमान को ‘पनघट’ कहा गया है जिसमें सुबह रूपी सुन्दरी तारे रूपी घड़े को डुबो रही है- “अम्बर पनघट में डुबो रही/ताराघट उषा नागरी।” लेकिन शमशेर के यहाँ यह बिम्ब थोड़ा बदल गया है क्योंकि वह अपने बिम्बों में सूर्योदय के आसमान के सौन्दर्य के साथ ही जमीनी कार्य-कलाप भी देख रहे हैं। जैसे लोग अब नहा-धोकर अपने भावी दिनचर्या के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। वे अब काम पर भी निकलने वाले हैं। कविता के इस पूरे बिम्ब में मानवीकरण का अद्भुत सौन्दर्य है।
इस कविता का आखिरी बंध पूरी कविता के सौन्दर्य को उद्घाटित कर देता है क्योंकि प्रात:काल के जिस जादुई सौन्दर्य के प्रभाव में कवि के साथ पूरा ग्रामीण समाज संचालित हो रहा है वह अब सूर्योदय के साथ टूट जाएगा और कवि के साथ पाठकों को भी उस दिव्य सौन्दर्य की अनुभूति करवा देगा जिसका अभी तक वे रस-पान कर रहे थे। कवि लिखता है “और / जादू टूटता है इस उषा का/ अब सूर्योदय हो रहा है।” यहाँ हम देखते हैं कि दो अन्तरालों के बीच में एक योजक शब्द ‘और’ है। यह ‘और’इस कविता की खूबसूरती है। यह प्रात:काल के जादुई प्रभाव और उसकी समाप्ति का संधिस्थल है। यह ‘और’ प्रात:कालीन सौन्दर्य की आभा को दिन की कठोर श्रमशीलता के यथार्थ से अलग करता है। इसलिए कवि ने सूर्योदय होने के साथ ही सुबह के दिव्य सौन्दर्य के टूट जाने की घोषणा की है। ग्रामीण लोग भी अब अपने दिन भर के कार्यों में व्यस्त हो जाएंगे।
इस तरह हम देखते हैं कि खूबसूरत बिम्बों से सजी यह कविता ‘प्रात:कालीन सौन्दर्य’ और ‘ग्रामीण जीवनचर्या’ को एक साथ लेकर चलती है। इस कविता के बिम्ब अनूठे हैं । यह हिंदी कविता में सुबह के सौन्दर्य को व्यक्त करने वाली कुछ विशिष्ट कविताओं में से एक है जिसमें रंग परिवर्तन अद्भुत सौन्दर्य और गाँव की दिनचर्या एक साथ व्यक्त हुई है। इसमें शमशेर ने एक प्रकार से बिम्बलोक की सर्जना की है। यह बिम्बलोक एक तरफ सर्वथा नया है तो दूसरी ओर बड़ा मानवीय भी है। इसके बिम्बों द्वारा कविता के अर्थ का विस्तार होता है। इसकी विशिष्टता से प्रभावित होकर अशोक वाजपेयी कहते हैं कि इस कविता में गहरा रोमान हैअनूठा बिम्ब है। मुझे नहीं मालूम की पहले किसी कवि ने चाहे संस्कृत मेंअपभ्रंश में या हिन्दी में हीआसमान को देखकर कहा हो कि वह राख से लिपा हुआ चौका जैसा लग रहा है। बड़ा कवि यही करता है कि  ब्रम्हाण्ड को संक्षिप्त करके आपकी मुट्ठी में ला देता है और कई बार पाठक को ऐसा साहस और कल्पनाशीलता देता है कि वह अपना हाथ बढ़ाकर आकाश को छू सके।”


(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। उन्होने शमशेर बहादुर सिंह की पुण्यतिथि पर उनकी एक बहुचर्चित कविता उषा ( यू ट्यूब पर यहाँ देखें) पर उन्होंने भाष्य किया है। यह भाष्य हिन्दी की बहुचर्चित कविताओं के भाष्य की शृंखला में दूसरा है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)

सद्य: आलोकित!

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