राधा की वन्दना
अपुरूब के बिहि आनि मिलाओल, खिति-तल लावनि-सार॥
अंगहि अंग-अनंग मुरछायत, हेरए पडए अथीर॥
मनमथ कोटि-मथन करू जे जन, से हेरि महि-मधि गीर॥
कत कत लखिमी चरन-तल ने ओछ, रंगिन हेरि विभोरि॥
करू अभिलाख मनहि पद पंकज, अहनिसि कोर अगोरि॥
जहं-जहं पग जुग धरई। तहिं-तहिं सरोरूह झरई।
जहं-जहं झलकत अंग। तहिं-तहिं बिजुरि तरंग।।
कि हेरल अपरुब गोरि। पैठलि हियमधि मोरि।।
जहं-जहं नयन बिकास। तहिं-तहिं कमल प्रकाश।।
जहं लहु हास संचार। तहिं-तहिं अमिय बिकार।।
जहं-जहं कुटिल कटाख। ततहिं मदन सर लाख।।
हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर।।
पुनु किए दरसन पाब। अब मोहे इत दुख जाब।।
विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि।।
ए सखि पेखलि एक अपरूप। सुनइत मानबि सपन सरूप।।
कमल जुगल पर चांदक माला। तापर
उपजत तरुन तमाला।।
तापर बेढ़लि बीजुरि लता। कालिंदी तट धीरे चलि जाता।।
साखा सिखर सुधाकर पाति। ताहि नब पल्लव अरुनक भांति।।
बिमल बिंबफल जुगल विकास। थापर कीर
थीर करू बास॥
थापर चंचल खंजन-जोर। तापर सांपिनी झापल मोर।।
ए सखि रंगिनि कहल निसान। हेरइत पुनि मोर हरल गेआन।।
कवि विद्यापति एह रस भान। सपुरुख मरम तुहुं भल जान।।
(4)
सैसव जौबन दुहु मिली गेल। स्रवन क पाठ दुः लोचन लेल॥
वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास॥
मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखी पूछए कइसे सुरत-बिहार॥
निरजन उरज हेरए कत बेरि।बिहंसए अपन पयोधर हेरि॥पहिलें बदरि समपुनि नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग॥
माधव पेखल अपरुब बाला। सईसव जौबन दुहु एक भेला॥
भनई विद्यापति हे अगेयानी। दुहु एक जोग के कह सेयानी॥