-डॉ रमाकान्त राय
दीपावली प्रकाश पर्व है।
प्रकाश पर्व। जगमगाते दीपों का समूह हर अंधेरे को नष्ट कर डालता है।
अंतर-बाहर दीप्त हो उठता है। सब कुछ प्रकट हो जाता है। उद्घाटित। आज 14 वर्ष का वनवास काटकर श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता सहित
अयोध्या लौटे थे। राम लौटे तो अयोध्या ने खुशियाँ मनाई। घर घर में दीप जलाए गये।
खील बतासे बाँटे गये। राम का आगमन चराचर जीवन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रकाश का
आगमन है। उसकी अभिव्यक्ति अमावस्या की घुप्प अंधेरी रात में दीप का प्रकाश है।
तुलसीदास इस भाव को सटीक शब्द देते हैं-
राम नाम मनि दीप धरि, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर-बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार।।
राम नाम मनि दीप धरु! |
एक दीपक देहरी के द्वार पर रखना है। चौखट पर। जहाँ से प्रवेश है। अंतर और बाह्य दोनों प्रकाशित हो उठेगा।
है अंधेरी रात, पर दीया जलाना कब मना है! |
यह पहला वनवास था। यद्यपि राम अपने भाइयों के साथ वशिष्ठ के आश्रम में रह आए थे और उन्हें 'अल्प काल विद्या सब आई' तथापि वह प्रवास वनवास नहीं था। विश्वामित्र उन्हें वन में ले जा रहे थे। बक्सर। आज के बिहार में। हमारा जनपद उसी से लगा हुआ है। मान्यता है कि एक रात्रि राम त्रिमुहानी के गंगा तट पर रुके भी थे। उसकी स्मृति में भाद्रपद की द्वादशी को दंगल होता है और अगले दिन मेला लगता था। उसके अगले दिन चतुर्दशी का व्रत भी करने की बात है। लोक का मन इस सबको सहेज लेता है। अस्तु,
राम को यह पहला वनवास मिला था लेकिन उनके साथ ऋषि-मुनियों का
प्रकट सहयोग था। लेकिन यह उस समूचे संघर्ष की पूर्व पीठिका थी। समझने में सहायक कि
अगर इसी तरह के वातावरण से सामना हुआ तो स्मृति में यह वन रहेगा। इस वनवास के बाद
सीता मिलीं। अगला वनवास हुआ तो सीता की पुनर्प्राप्ति हुई।
राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है! |
राम सबका निर्वाह करते हैं। वह सहज हैं। जीवन में कोई छल-प्रपंच नहीं है। छोटा भाई आगे बढ़कर राजा जनक का मुँह बन्द कर देना चाहता है कि बहुत देखे ऐसे धनुष। अभी इसकी प्रत्यंचा चढ़ाता हूँ तो राम रोकते हैं। गुरु विश्वामित्र की आज्ञा तो होने दो। लेश मात्र भी घमंड रहता तो कहते- इस धनुष को तो मेरा अनुज ही साध लेगा। नहीं कहा। प्रतीक्षा की। सहज रहे। सीता के प्रति अपनी अभिलाषा को भी प्रकट नहीं किया।
राम बहुत विशिष्ट हैं। उनका नेतृत्व तो अनूठा है। वह वानरों को साथी बना लेते हैं। उनके भी इष्ट हो जाते हैं। राम का काम ही हमारा काम है। कपि, भालू, वानर, रीछ सब उनके सहयोगी हैं। लक्ष्मण को छोड़ दिया जाये तो मनुष्य एक भी नहीं। विभीषण असुर हैं। भीषण युद्ध में उनका सारथी देवकुल का है। बन्दरों से पुल बनवा लेना, सर्वाधिक अनुशासन वाला क्षेत्र सेना में सम्मिलित करना बहुत बड़ी बात है। वह रावण पर जो विजय प्राप्त करते हैं वह व्यक्ति नहीं वृत्ति की जय है।
ऐसे राम, उत्कट योद्धा राम, रघुकुल के उज्ज्वल नक्षत्र राम, वचन के पक्के राम, स्नेही राम, प्रेमी राम घर लौट रहे हैं। वनवास हुआ तो दशरथ उनका वियोग नहीं सह पाये। अब अयोध्या में माँ प्रतीक्षा कर रही हैं। जब वनगमन हुआ तो दो अनुज ननिहाल में थे। अब जब लौटेंगे तो सब मिलेंगे। एक संक्षिप्त भेंट हुई थी सबसे चित्रकूट में। किन्तु वह वापसी नहीं थी।
राम लौट रहे हैं। सबकी अपनी प्रतीक्षा थी, जिसकी घड़ी पूरी हुई है। सबने अपने घर में उजाला कर रखा है। 14 वर्ष का विकट अंधकार आज दूर हुआ है। अंतर बाहिर सब प्रकाशित है।
दीपावली पाँच दिन का पर्व है। धनतेरस पर धन्वंतरि के आयुष्मान से शुरू हुआ। "पहला सुख- निरोगी काया"। धनतेरस इस सुख का सहेजक है।
धन्वंतरि समुद्र मंथन में मिले थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की स्मृति में मनाया जाता है। इस दिन नए बर्तन ख़रीदते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान धन्वंतरि को अर्पित करते हैं, यह उत्तम स्वास्थ्य और धन धान्य से परिपूर्ण रहने की कामना का पर्व है। आखिर सबसे बड़ी नेमत तो निरोगी काया है!
चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी भी कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर के अत्याचार से आज के दिन मुक्ति दी थी। वह प्राग्ज्योतिषपुर का विकट शासक था। 16000 स्त्रियों का जीवन नरक कर चुका था। श्री कृष्ण ने पट्टमहिषी सत्यभामा के साथ मिलकर यह उद्धार किया। समस्त कन्याओं को अंगीकृत किया। उनकी 16008 रानियों की जो बात कही जाती है, उसमें 16000 यही हैं।
नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पहले स्नान कर लेना रहता है। नरक से मुक्ति रहती है। आयुष पर्व का पहला पाठ यही है। सूर्योदय से पहले नित्यक्रिया से निवृत्ति। अब नयी जीवन पद्धति में यह सब बातें यूटोपिया प्रतीत होती हैं लेकिन महज दो दशक पहले तक यह स्वाभाविक था। गाँव में हम सबमें यह प्रतिस्पर्धा रही कि कम से कम नरक चतुर्दशी के दिन बच्चे तक स्नान कर लेंगे। दिन कितना बड़ा हो जाता है।
दीपावली लक्ष्मी गणेश की पूजा का भी पर्व है। आज ईश्वर के वास का दिन है।
आज ईश्वर आ जाएं तो कल सुबह दलिद्दर भी खेद देंगे। कहीं कहीं नरक चतुर्दशी को ही दलिद्दर खेद देते हैं। वैसे भी ईश्वर के प्रवेश के बाद दलिद्दर को स्वयं ही निकल जाना चाहिए था लेकिन लोगों ने यह उपक्रम भी करना तय किया। भोर में ही सूप पीटते हुए यह सम्पन्न होता है।
मिट्टी का दीया |
गोधन कुटाई |
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर
महाविद्यालय,
इटावा,
उत्तर प्रदेश 206001
royramakantrk@gmail.com, 9838952426