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गुरुवार, 27 मार्च 2014

आत्मसाक्षात्कार कराती फिल्म- अ थाउजेंड वर्ड्स


क्या हो अगर आपको अचानक एक दिन पता चले कि आपके पास बोलने या लिखने के लिए महज एक हजार शब्द हैं। आप एक तथाकथित सेलिब्रेटी हैं। या कि सेलिब्रेटी नहीं हैं और रोजमर्रा के जीवन के लंद-फंद में उलझे हैं। जीवन के ऐसे लंद-फंद में जहाँ अपने लिए, अपने परिवार के लिए समय न हो। सवाल थोडा मुश्किल है। इसलिए ज्यादा मुश्किल है कि यह अप्रत्याशित सा प्रश्न है। बेतुका लगने वाला। लेकिन सोचें, सोचें कि अगर ऐसा हो जाए तो.....

ब्रायन रॉबिन्स की फिल्म अ थाउजेंड वर्ड्स (2012) इसी को आधारभूमि बनाती है। वैसे तो यह फिल्म एक कॉमेडी है लेकिन थोड़े समय के लिए हम फिल्म से बाहर निकल आयें और सोचें कि काश हमारे जीवन में ऐसा क्षण आ जाये तो। तो यही कि ऐसे समय में हमारा बोलना, लिखना कम, बेहद कम हो जायेगा। हम हमेशा सचेत रहेंगे कि हमें क्या कहना है और क्या नहीं कहना है। तब कम बोलते हुए और ज्यादातर चुप रहकर हम आत्मसाक्षात्कार करते हैं। इस आत्मसाक्षात्कार में हम निखालिस खुद को पाते हैं। इस स्व की तलाश एक बड़ा अन्वेषण है, जिसे भारतीय दर्शन हमेशा से गोहराता रहा है। भारतीय दर्शन के इस थीम पर पश्चिम में फ़िल्में बन रही हैं।

फिल्म में एक वृक्ष को प्रतीक के तौर पर रखा गया है। अभिनेता जैक यानि एडी मर्फी एक बहुत बड़ी प्रकाशक संस्था में सफल एजेंट है जो अपनी शर्तों पर डील करने में माहिर है। वह बेहद वाचाल है और वाक्पटु भी। अपनी वाकपटुता और स्किल से वह बेहद सफल भी है। लेकिन इस चक्कर में वह लगातार अपने परिवार की उपेक्षा करता है अथवा महज रस्म-अदायगी करता है। डील करने का उसका तरीका भी बेहद दिलचस्प है। वह किताब को एक फार्मूले के तहत जज करता है। बहरहाल, वह सफल एजेंट है। वह इसी तरह की डील करने एक आध्यात्म गुरु के पास पहुँच जाता है, जहाँ वह डील करने में तो सक्षम हो जाता है लेकिन प्रकाशन के लिहाज से यह अटपटा सा लगने वाला होता है। उसे बहुत छोटी महज पाँच पृष्ठ की एक किताब मिलती है। और उसके आंगन में एक पेड़ उग आता है, जिसमें कुल एक हजार पत्तियां हैं। अब ताजा हालात यह है कि वह जब भी कुछ बोलता या लिखता है, प्रत्येक शब्द पर एक पत्ती गिर जाती है। आध्यात्मिक गुरु उसे इसका राज बताते हैं।


आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह कितना हैरानी भरा वाकया होगा, जब एक महाबातूनी व्यक्ति के समक्ष यह संकट खड़ा हो जाए। क्रमशः उसकी नौकरी, परिवार सब उससे बिछड़ जाते हैं। वह बताने की कोशिश करना चाहता है लेकिन बताने के एवज में उसे पत्ते खोने पड़ते हैं। पत्ते खोना एक तरह से जीवन खोना है। तब वह चुप रहने की कोशिश के तहत अपने आप को जीता है। आत्मसाक्षात्कार करता है। इस आत्मसाक्षात्कार में उसे अपनी यादाश्त खो चुकी माँ मिल जाती है जो जैक के मिलने पर बार बार उसके पिता के नाम से संबोधित करती रहती थी। वह भी अपने बेटे में अपने पति की परछाई देखा करती थी लेकिन आत्मसाक्षात्कार करने के अनन्तर वह अपने बेटे के पृथक व्यक्तित्व को पहचान लेती है। वह अपनी पत्नी को भी वास्तविकता बताने के चक्कर में शब्द खरचता है। फिर उसे बोध होता है कि प्यार को वह बिना कहे भी जता सकता है। क्या जरूरी है कि हम शब्द का इस्तेमाल करें ही। आखिर में जब जैक को पता चलता है कि उसके पास बहुत कम शब्द बचे हैं तो वह बेहद समझदारी से अपने शब्दों को व्यक्त करता है और खरचता है। यह हमारे लिए भी एक सन्देश की तरह होता है।
एडी मर्फी एक जाने माने हास्य कलाकार हैं। हॉलीवुड में उनका सिक्का बोलता है। इस फिल्म में भी उनका काम लाजवाब है।

अरसा बाद एक बढ़िया फिल्म देखते हुए आँखें भर आईं। न जाने कितने उलजलूल शब्द हम दिन भर बकते और नष्ट करते रहते हैं। बिना सोचे समझे कि इनका क्या महत्त्व है। हमारे यहाँ बहुत शुरू से ही शब्द की महत्ता ब्रह्म के समकक्ष रखकर समझाई गयी है। यह सुखद और दुखद दोनों है कि शब्द के महत्त्व पर इस तरह चर्चा हो रही है। सुखद इसलिए कि पश्चिम का सिनेमा कॉमेडी के नाम पर एक सार्थक और वैदिकीय अनुकरण कर रहा है और दुखद इसलिए कि हम अपनी परम्परा से कटते जा रहे हैं।

अगर न देखी हो तो जरूर देखें।

सद्य: आलोकित!

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