-----__-डॉ रमाकान्त राय
चौतरफा निन्दा, विरोध-प्रदर्शन और विभिन्न राज्य सरकारों, विशेषकर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज कराने के बाद इस सीरीज के निर्माता निर्देशक अली अब्बास जफर ने क्षमा मांगी है और कहा है कि इस वेबसीरीज के विवादित अंशों को हटा दिया जाएगा।
सबसे पहले तांडव पर धार्मिक भावनाएं
भड़काने, हिन्दू देवताओं के बारे में घटिया
प्रस्तुति करने का आरोप लगा और जब यह रिलीज हुई तो देखा गया कि इस फिल्म में लगभग
हर वह विषय उठाया गया है जिससे संवेदनशील और देश को प्यार करने वाले लोग उत्तेजित
हों और इसकी चौतरफा निन्दा करें। इसके साथ ही लिबरल्स और कुछ स्वघोषित
एक्टिविस्टों को लामबंद कर लिया गया है कि वह इसका समर्थन करें।
तांडव अपने उद्देश्य में सफल रही है और
इस बहाने से इस वेबसीरीज़ को पर्याप्त दर्शक मिल गए हैं, जबकि यह एक घटिया, बेसिरपैर की कहानी
वाली, अतार्किक और वाहियात वेबसीरीज़ है। imdb पर इसे 10 में 3.4 अंक मिला है, जो इसके स्तर का सहज
परिचायक है।
तांडव का पहला एपिसोड ‘तानाशाह’ ही कई विवादित विषयों को छू लेता है। किसान आंदोलन, मुस्लिम समुदाय के लड़कों का एनकाउंटर, पुलिस की
मिली भगत, जेएनयू आजादी विवाद, कैम्पस
में पुलिस का प्रवेश और तोड़फोड़, राजनीति में गलाकाट
प्रतिस्पर्द्धा और चुनाव के तिकड़म आदि-आदि। सैफ अली खान के रूप में जो युवा नेता
उभरता है, वह अपने दो बार प्रधानमंत्री रह चुके पिता का
हत्यारा है। कौन हो सकता है यह चरित्र? भारतीय राजनीति के
तमाम घटनाक्रमों को एक साथ रखकर देखें तो यह समझ में आ जाता है कि किसने राजीव
गांधी की हत्या करवाई, फिल्म में आई अनुराधा किशोर कौन है, उसका पुत्र जो अफीमची है, उसकी लत का सम्बन्ध किस
राजनेता से है। सैफ अली खान किस राजनेता का कितना अंश लेकर चलता है। लेकिन कई
घटनाक्रमों को इस तरह से फेंट दिया गया है कि सब गड्डमड्ड हो गया है। वैसे इस
वेबसीरीज़ को देखते हुए जिन्हें वास्तव में शर्मसार होना चाहिए, जाने कैसी विवशता है कि वह समर्थन में हैं। जॉन एलिया का शेर है- "हैं
दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।"
#तांडव |
तांडव के आरंभ में ही प्रधानमंत्री अंजनी यह स्वीकार करते हैं कि अपने कार्यकाल में हमने लोगों को बांटने के लिए गलतियां की हैं लेकिन "तानाशाही" नहीं की। अगर उनका पुत्र समर प्रताप सिंह नेता बना तो वह तानाशाह बनेगा और "लोकतंत्र खत्म कर देगा"। और फिर चुनाव परिणाम घोषित होने के पूर्व ही समर प्रताप सिंह अपने पिता को एक ऐसा जहर देकर मार देता है, जिसका अवशेष पोस्ट मार्टम में भी नहीं मिलता। फिर सत्ता का तिकड़मी संघर्ष आरंभ होता है, जिसमें अनुराधा किशोर हावी हो जाती है।
सत्ता के तिकड़मी संघर्षों के समानान्तर देश के सबसे चर्चित विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (वेब सीरीज में विवेकानन्द विश्वविद्यालय) में छात्रसंघ की राजनीति और लड़कीबाजी आदि फीस वृद्धि जैसे जन सरोकार के मुद्दों की छौंक के साथ चलती है। वस्तुतः निर्देशक और कथाकार दिग्भ्रमित है कि उसे किस प्रकरण को हाईलाइट करना है। इसलिए किसानों के आंदोलन और दो मुसलिम युवकों के सत्ता प्रायोजित हत्या के प्रतिरोध में उभरे शिवा को छात्रनेता के रूप में चुनाव, हिंसा, सेक्स आदि का आइकन बनवाया गया है। वह यूपीएससी करना चाहता था किन्तु सत्ता के शीर्ष पर बैठा समर प्रताप उसे बताता है कि मंत्री बनकर वह आदेश देगा और नियंत्रित करेगा जबकि अफसर बनकर आदेश सुनेगा और उनका अनुपालन करवाएगा। शिवा नेता बनना स्वीकार करता है किन्तु वह निश्चित करता है कि वह एक नए दल का निर्माण करेगा। उसके नए दल का नाम है- तांडव।
संसदीय लोकतन्त्र की प्रणाली, मंत्रिमण्डल का गठन, शासन और सत्ता की कार्यप्रणाली, तथा छात्रसंघ चुनाव, संगठन का काम, आंदोलन, संघर्ष
आदि के तमाम विषय इस सीरीज में इतना सतही तरीके से आया है कि एकबारगी लगता नहीं कि
इसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। निर्देशक अली अब्बास जफर की बौद्धिक क्षमता तो पप्पू
सरीखी है, इसलिए उसपर कोई बात करने का मतलब नहीं। हम
अभिनेताओं से भी इसकी अपेक्षा नहीं करते हालांकि उन्हें इतनी बुनियादी बात का
ध्यान अवश्य रखना चाहिए। छात्रसंघ के चुनाव में प्रक्रियागत जो त्रुटियाँ हैं, अगर उन्हें उपेक्षित भी कर दिया जाये तो भी यह बात बहुत खटकती है कि सभी
छात्रनेता अपने भाषण में विश्वविद्यालय की जगह “कालेज” की बात करते हैं, जैसे कालेज की फीस नहीं बढ़ने देंगे, कालेज में सीट
कटौती नहीं होने देंगे आदि। छात्रसंघ के अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाला कालेज की बात
कर रहा है, इसका सीधा आशय यह है कि पात्र अपने कैरेक्टर से
कितना दूर हैं।
तांडव : हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में। |
तांडव से जुड़े हुए सभी कलाकार, निर्देशक, कथाकार आदि सांस्कृतिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनपर तरस आता है। शिवा का वीएनयू के सांस्कृतिक केंद्र में नाट्यप्रस्तुति के दौरान शिव और राम का संवाद हो अथवा हत्या के समय टीवी के बड़े स्क्रीन पर चल रहा प्रवचन, सब पिष्टपेषण प्रतीत होता है। निर्देशक इतना लल्लू है कि मृत्यु के बाद अस्थियाँ विसर्जित करने की क्रिया के फिल्मांकन में सुनील गोबर द्वारा अन्त्येष्टि स्थल से बाकायदा हड्डी निकलवाता है। अली अब्बास जफर अथवा टीम का कोई भी सदस्य इस संस्कार के बारे में नहीं जानता, यह पक्का है। इसमें चाणक्य नीति को ऐसे समझा गया है जैसे वह लौंडे-लफाड़ियों का काम है। दलित अस्मिता को भी फूहड़ तरीके से पेश किया गया है।
इस एपिसोड में स्थानों के नाम ऐसे रखे गए हैं कि आसानी से
चिह्नित किए जा सकें। मसलन जेएनयू को वीएनयू, गोमतीनगर को बोमती नगर, एम्स और सीएनएन के लिए भी ऐसे ही मिलते जुलते नाम रखे गए हैं ताकि आसानी
से उनका साम्य स्थापित किया जा सके। लेकिन खान मार्किट मेट्रो स्टेशन को ज्यों का
त्यों रहने दिया गया है। यह सब एक कूटनीति के तहत हुआ है ताकि एजेण्डा सेट किया जा
सके।
इस वेब सीरीज में ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र’ दलित अस्मिता, छात्र राजनीति,
यूपीए का शासन, सोनिया गांधी, राहुल
गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,
वर्तमान शासन, पुलिस, प्राध्यापक, चिकित्सकों आदि सब पर भोंडा व्यंग्य किया गया है और उनका न सिर्फ सरलीकरण
किया गया बल्कि लोगों को भी अव्वल दर्जे का अहमक़ मानकर फिल्मांकन हुआ है। इस सोच
के साथ कि औसत से नीचे का व्यक्ति शासन, सत्ता, तिकड़म, विश्वविद्यालय,
छात्रसंघ, आंदोलन, सोशल मीडिया, हत्या आदि को ऐसे ही कृत्रिम तरीके से सोचता है और जानता है कि चीजें
बहुत सपाट तरीके से चलती जाती हैं। जबकि जीवन इतना सरल और एकरेखीय नहीं है।
तांडव बनाते हुए निर्देशक और टीम के
लोगों का उद्देश्य ही था कि इसे विवादग्रस्त करना है, अतः इसे 18+ के प्रमाणपत्र के साथ लिया गया। जबकि इसमें हिंसा, सेक्स आदि के वैसे कंटेन्ट नहीं हैं। अलबत्ता अनावश्यक दृश्य अवश्य हैं।
धूमपान और शराबखोरी को अनावश्यक फुटेज दी गई है और प्रधानमंत्री निवास को अय्याशी
का अड्डा दिखाया गया है। यह सब कुछ निहायत बकवास और बचकाना है।
चूंकि तांडव पर पर्याप्त चर्चा हो गयी
है और इसे महज धार्मिक भावना भड़काने वाला मानकर प्रतिबंधित करने की बात हो रही है
तब मुझे डॉ गौरव तिवारी की यह टिप्पणी बहुत सटीक लगी। वह लिखते हैं- “ताण्डव का सिर्फ
धार्मिक कारणों से विरोध गलत है। यह पूरी सीरीज जहर है। इसमें जाति का जहर है,
सम्बन्धों का और आइडियालोजी का भी।
सीरीज में जो राजनीति है वह गटर वाली राजनीति है। इस
सीरीज का निर्माण मनोरंजन के लिए नहीं समाज में नफरत और जहर फैलाने के लिए किया
गया है। #बायकॉट_ताण्डव
तांडव को कथावार्ता की फिल्म समीक्षा में पाँच में से ऋण 4 अंक।
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
इटावा, उ०प्र०
9838952426, royramakantrk@gmail.com