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शनिवार, 30 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण जीवन का आईना है - लोकऋण

        ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास लोकऋण कई मायने में विवेकी राय के ललित निबंधकार व्यक्तित्व का आईना है। ग्रामीण जीवन विवेकी राय के समूचे रचनाकर्म में बसा हुआ है और उसकी अभिव्यक्ति भी उन्होंने बहुत मार्मिक तथा ग्रामीण प्रगल्भता के साथ की है। उनके ललित निबंधों- विशेषकर- फिर बैतलवा डाल पर और मनबोध मास्टर की डायरी तथा वृहदाकार उपन्यास सोना-माटी में विवेकी राय का ग्रामीण जीवन बहुत कलात्मक अभिरुचि के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इस उपन्यास में भी यह यत्र-तत्र देखी जा सकती है।
     लोकऋण; देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण की तर्ज पर परिकल्पित है। जहाँ की मिट्टी में जन्म लिया, पले-बढ़े, यश और गौरव हासिल किया। एक निर्बाध और सफल जिंदगी जी, उस मिट्टी का, उस वातावरण का, उस परिवेश का, उसमें रचे-बसे आब-ओ-बतास का कर्ज लोकऋण है।
      उपन्यास में आजादी के बाद बह रहे विकास की अनियंत्रित बयार में गाँव में हो रहे बदलाव को रेखांकित करने की कोशिश की गयी है। आजादी के बाद लोगों में सामूहिकता की भावना के क्षय के कारण ग्रामीण जीवन में आ रही क्षुद्रताओं और उससे उत्पन्न स्थितियों की कथा इस उपन्यास में कही गयी है। यह उपन्यास सन 1971-72 के आस पास के समय को अपनी कथा का काल और गाजीपुर के एक गाँव 'रामपुर' को केंद्र ने रखकर लिखा गया है। कथा का प्रमुख चरित्र गिरीश इलाहाबाद में अध्यापन करता है और अपनी तमाम क्षुद्रताओं के बावजूद ग्रामीण जीवन के प्रति मोहाविष्ट है। वह गाँव की दिक्कतों से आजिज आकर इलाहाबाद में बसने की पूरी तैयारी कर लेता है, यहाँ तक की अवकाश की प्राप्ति के कुछ समय पहले वह एक घर अपने नाम लिखवा भी लेता है लेकिन मन उसका गाँव में रमता है।
       गाँव में सभापति का चुनाव होने को होता है और गिरीश सहित गाँव के गणमान्य व्यक्तियों का मानना है कि यह चुनाव सर्वसम्मति से होना चाहिए। लेखक गाँधीवादी विचारधारा का हिमायती है अतः वह स्पष्ट रूप से मानता है कि ग्रामीण समस्याएं आपस में मिल बैठकर हल की जानी चाहिए। इसीलिए चकबंदी के प्रकरण में या सुरेंद्र के रेहन रखे खेत के प्रकरण में यही होता दीखता भी है। सभापति के चयन में पूर्व सभापति और गिरीश के दबंग भाई के बीच मुकाबला होना लगभग तय हो जाता है और इसके लिए तमाम दुरभिसंधियां होने भी लगती हैं। गाँव खेमे में बंट जाता है और ऐसे माहौल में बहुत सी अप्रिय घटनाएं हो जाती हैं। गिरीश को ऐसे माहौल में ऐसे द्वंद्व का सामना करना पड़ता है कि वह आजिज आकर भाग जाता है लेकिन ऐन नामांकन से पहले लौटता है। गाँव के प्रबुद्ध लोगों की गंभीर सभा में यह तय होता है कि वह निर्विरोध सभापति बनेगा। इस निर्वाचन के समय ही उसकी अवकाश प्राप्ति है अतः कोई दूसरी बाधा भी नहीं है।
       अचानक, गिरीश के सभापति बनने की बात से एक चीज तो स्पष्ट लगती है और कथाकार ने ऐसी मान्यता रखी भी है कि पढ़े लिखे लोगों को वापस गाँव लौटना चाहिए ताकि वह 'लोकऋण' उतार सकें और अपनी सूझबूझ और दूरदृष्टि से ग्रामीण जीवन में उजाला भर सकें। सबको वापस लौटना ही चाहिए। गिरीश का लौटना इसी ऋण को उतारने के लिए है। वह शिक्षा की रोशनी को पुनः गाँव में लाना चाहता है और समरसता बनाने का इच्छुक है। पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान कोशिशों में एक पहल ग्रामीण जीवन में वापसी भी है, जहां अभी भी समाज पूरी तरह से उपभोक्तावादी नहीं हुआ है और प्रकृति की एक स्वाभाविक कड़ी गतिमान है।
        उपन्यास में विवेकी राय ने बहुत चतुराई से ऐसी संरचना की है कि आखिर में गिरीश गाँव लौट आये। यद्यपि रामपुर गाँव गाँधीवादी आंदोलनों से संचालित होता रहा है और ग्रामीण उत्थान के तमाम काम वहां शुरू हो चुके थे लेकिन कालांतर में यह क्षीण पड़ रही थी, जिसे और धार देने की जरूरत सब महसूस करते हैं।यह उपन्यास गाँधीवादी विचारधारा को लेकर चलता है और उसका सम्यक निर्वाह करता है। उपन्यास में ग्रामीण जीवन अपने कहन में बहुत ईमानदारी से मौजूद है और गाँव की सोंधी सुगंध को लेकर चलता है। कथाकार गाँव की कथाएं, कहावत और मुहावरे तथा लोकोक्तियों को बहुत रस लेकर कहता-सुनता चलता है। खासकर जहाँ सुर्ती-बीड़ी, नसा-पताई का जिक्र होता है, जहाँ कउड़ा जलने की बात होती है, पहल पड़ने और कथा कहने सुनने की बात होती है, वहां उनका ग्रामीण और निबंधकार मन खूब रमता है।
       गाँव की संस्कृति को जानना समझना हो तो इसे जरूर पढ़ा जाय।

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण चेतना का मास्टर ‘मनबोध’- विवेकी राय



अपनी रचनाओं में मिट्टी की सोंधी महक और गवईं जीवन को अभिव्यक्त करने वाले निबंधकारकथाकारआलोचक मनबोध मास्टर विवेकी राय न सिर्फ हिंदी अपितु भोजपुरी के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1924 को उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के भरौली नामक ग्राम में हुआ था। उनका बचपन गाजीपुर के सोनवानी ग्राम में बीता और आजीवन वह गाजीपुर का होकर रह गए। साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदीविद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की निबंध परम्परा को समृद्ध किया और मनबोध मास्टर की डायरी’, ‘फिर बैतलवा डाल पर’, ‘गंवई गंध गुलाब’, जैसे ललित निबंध लिखे। सोनामाटी’, ‘समर शेष है’, ‘पुरुष पुराण’ और लोकऋण’ उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। भोजपुरी में अमंगलहारी’ शीर्षक से उनका बहुत चर्चित उपन्यास है। उन्होंने कुल 85 ग्रंथों का प्रणयन किया। गाजीपुर में अपनी प्रारंभिक शिक्षा लेने वाले और महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठवाराणसी के पहले शोधार्थी विवेकी राय ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में गांधीजी से प्रेरणा लेकर भागीदारी की और बतौर शिक्षक अपना योगदान शुरू किया। गाजीपुर के स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय में अध्यापन करते हुए विवेकी राय ने कई विधाओं में रचनाएँ कींलेकिन ललित निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में उनकी ख्याति ऐतिहासिक है। वह भोजपुरी और हिंदी में समान रूप से समादृत किये जाने वाले रचनाकार हैं।


          अपनी रचनाओं में नगरीय जीवन के ताप से तपाई हुई मनोभूमिपर ग्रामीण जीवन की मजबूत उपस्थिति रखांकित करने वाले विवेकी राय के निबंध मिट्टी की खुशबू लिए हुए हैं। उनके निबंध ग्रामीण जीवन के लोकाचार, रीति-रिवाज को समझने की दृष्टि से बहुत विशिष्ट हैं। इन निबंधों में सहज आत्मीयता और अल्हड़पन से भरी मस्ती मिलती है। लोक से उनका लगाव उनके निबन्धों में सहज झलकता है। ग्रामीण लोगों की इच्छा, आकांक्षा और जीवनानुभव के वह कुशल लेखाकार हैं। उनके निबंधों के स्तम्भ, जिनका संग्रह मनबोध मास्टर की डायरीशीर्षक से हुआ है; ने तो सत्ता संस्थानों तक को हिला डाला था। फिर बैतलवा डाल परमें ग्रामीण जीवन और लोक का जैसा चित्रण मिलता है, वह दुर्लभ है। लोक और ग्राम की यह चेतना उन्हें विशिष्ट निबंधकार बनाती है। उनके निबंधों में लालित्य है। यह लालित्य लोक में रचे बसे होने से पगा हुआ है। उनके ललित निबन्ध विचार और भाव के स्तर पर बहुत प्रौढ़ हैं। विवेकी राय के उपन्यासों में भी गाँव की कथा ही है। सोना-माटीहो या लोकऋणदोनों ही उपन्यास गाँव की कथा कहते हैं। लोकऋणमें उन्होंने देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण की तर्ज पर लोकऋण की संकल्पना ली है। इस उपन्यास में उनका गाँधीवादी चिन्तक का रूप दिखता है। उनका बहुत स्पष्ट मानना था कि पढ़े-लिखे लोगों को गाँव का कर्ज उतारने के लिए ही सही गाँव लौटना चाहिए और अंधाधुंध पलायन रोकने के साथ-साथ ग्रामीण जीवन के उत्थान में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। उनके उपन्यास लोकऋण का नायक सतीश लोक का कर्ज चुकाने के लिए गाँव वापस लौटता है और एक नयी लकीर खींचने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है। लोक ऋण उपन्यास कई दृष्टि से बहुत जरुरी उपन्यास है। सोनामाटीउनका वृहदाकाय उपन्यास है। अपनी रचनाओं में गाँव की सोंधी गंध को ढाल देने वाले ऐसे विरले रचनाकार ने आंचलिकता को व्यापक बना दिया था। उन्होंने अपनी रचनाओं में गाजीपुर को जिस शिद्दत से अभिव्यक्त किया है वह सराहनीय है। राही मासूम रज़ाकुबेरनाथ राय के बाद विवेकी राय ने इस जनपद का ऋण बखूबी चुकाया है। वह बेहद सुचिंतित आलोचक भी थे।


           
उत्तर प्रदेश सरकार ने विवेकी राय के विपुल साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें यश भारती से सम्मानित किया था। इसके अलावा उन्हें महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रेमचंद पुरस्कार, साहित्य भूषण सम्मान आदि पुरस्कार भी मिले थे।
          लोक के इस अद्भुत चितेरे का महाप्रयाण 22 नवम्बर, 2016 को हो गया था। उन्होंने ९२ वर्ष की एक रचनात्मक जिन्दगी व्यतीत की। आज विवेकी राय की पुण्यतिथि है। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।

सद्य: आलोकित!

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