स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में अपने सामाजिक ताने-बाने पर विचार करते हुए सबसे पहला ध्यान तो इस यात्रा के आरंभिक बिन्दु पर जाता है, जब देश के पूर्वी और पश्चिमी भाग में भारी मार-काट मची थी और पाकिस्तान से रेलगाड़ियों में शव, बोरे की शक्ल में आ रहे थे। दोनों सीमाओं पर अफरा-तफरी मची थी और लोग अपने ‘वतन’ की तलाश में शरणार्थी और मुहाजिर बनने को विवश थे। स्वाधीनता की पूर्व संध्या पर देश का सामाजिक ताना-बाना एक नया आकार ले रहा था। चयन शुद्ध सांप्रदायिक आधार पर हो रहा था। मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे और हिन्दू भारत में आने के लिए प्रयास कर रहे थे। संप्रदाय के आधार पर निर्मित राष्ट्र पाकिस्तान जाने के लिए बहुत से मुसलमान लालायित थे, कुछ विवश थे और कुछेक इस द्विविधा में थे कि क्या करें। सीमाओं पर हो रही गतिविधि देश के अंदरूनी हिस्सों में भी हलचल मचा रही थी। कुछ लोग देश छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे थे, कुछ उनकी सहायता कर रहे थे, कुछ विवश कर रहे थे तो कुछ रोक रहे थे। पाकिस्तान के गठन ने इस देश के सामाजिक ढांचे को बुरी तरह उद्वेलित कर दिया था।
हिन्दू
और मुसलमान समुदाय का आपसी सम्बन्ध ही इस विश्लेषण के केंद्र में है क्योंकि भारत
में सामाजिक ताना-बाना इन्हीं के आपसी सम्बन्धों का आईना है। अन्य सभी समुदाय इस
अमृत काल तक छिटपुट घटनाओं को छोड़कर, जिसमें 1984 का भीषण सिख
संहार शामिल है, लगभग शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व में है।
संघर्ष और मेल के जो रिश्ते हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच हैं, वही भारत में सामाजिक ताने-बाने का आधार बनता है।
स्वाधीनता
प्राप्ति और विभाजन की विभीषिका से अंग्रेजों की बोई हुई सांप्रदायिकता वाली
विषबेल कई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कारणों से फैलती गयी। विभाजन के
बाद जब पाकिस्तान बना तो वह बाकायदा मुसलमानों का मुल्क बना और स्वाभाविक रूप से
भारत को हिन्दुओं का देश मान लिया गया। यद्यपि भारत में कोई सामुदायिक बाध्यता
नहीं थी और यहाँ सभी समुदायों की सुरक्षा, नागरिकता और
अधिकारों को लेकर अतिरिक्त प्रयास किए गए। यह संदेश दिया गया कि यह देश मुसलमानों
का भी उतना ही है जितना हिन्दुओं का। यदि विभाजन केन्द्रित कुछ हिन्दी उपन्यासों
का अनुशीलन किया जाए, जैसे यशपाल का ‘झूठा-सच’, शानी का ‘काला जल’, राही
मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’, कमलेश्वर का ‘लौटे हुए मुसाफिर’, बदीउज़्जमां का ‘छाको की वापसी’, भीष्म साहनी का ‘तमस’ आदि तो यह बात समझ में आती है कि जो मुसलमान
भारत में ही रह गए, उनमें से कइयों को अपनी देशभक्ति
प्रमाणित करने के लिए प्रयास करना पड़ा। देश में रह गए मुसलमान भी विभिन्न अवसरों
पर अपनी निष्ठा के लिए संदेहास्पद बने।
यह
इतिहास का एक काला अध्याय है कि अभी हमारा देश विभाजन के दंश को ठीक से झेल भी
नहीं पाया था कि स्वाधीनता प्राप्ति के एक साल के भीतर ही सन 1948 ई0 में
पाकिस्तान की आक्रमणकारी नीति और कश्मीर मामले को लेकर दबाव में आ गया। जूनागढ़ और
हैदराबाद के निजाम भी हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ाने वाले कारक के
रूप में उभर रहे थे। 1965 ई0 और 1971 ई0 में निर्णायक युद्ध में पाकिस्तान बुरी
तरह पराजित हुआ तो जनमानस में यह विभेद और बढ़ा। समय समय पर देश के भिन्न भिन्न
शहरों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। इन दंगों से यह वैमनस्य बढ़ा। विभिन्न
राजनीतिक कारणों से यह दंगे अधिक समय तक चलते रहे। प्रसिद्ध साहित्यकार राही मासूम
रज़ा ने अपने एक लेख में बताया है कि भारत में केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच
दंगे तीन से अधिक दिन तक चल सकते हैं।
भारत
के मुसलमानों के साथ दो तत्त्व बहुत गहराई से जुड़ गए थे,
पाकिस्तान के साथ उनका सांप्रदायिक और आत्मीय आधार पर जुड़ाव और अरबों के साथ
उत्पत्ति विषयक। यह दोनों ही तत्त्व भारत से उनके जुड़ाव में बाधक था। अब्दुल बिस्मिल्लाह
ने अपने उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरिया में एक पात्र के व्यवहार से इस वृत्ति को
बहुत सुंदरता से उद्घाटित किया है कि जब क्रिकेट मैच में “पाकिस्तान जीतता है, यह किक्की मुफ्त पान बांटने लगता है और हार की खबर सुनते ही दुकान बंद कर
देता है।” यह सहानुभूति ऐसी दुखद सच्चाई है जो मुसलमानों के साथ अनिवार्य रूप से
जुड़ गयी है और आज भी ऐसे कई प्रकरण में यह दिखाई देती है और बहुत प्रमुखता से
उछाली भी जाती है।
पाकिस्तान
के साथ भारतीय मुसलमानों का लगाव आत्मीयता और रिश्तेदारी से था तो अरब देशों की
तरफ वह मक्का मदीना, यानि पवित्र धर्मस्थल की स्थिति से झुका। दुर्भाग्य से भारत के यह लोग
अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लाभ-हानि के लिए भी अरबों
के मुखापेक्षी हो गए। कई एक मामले, जिसमें मुसलमान अपने को
प्रगतिशील दिखा सकते थे और बंद समाज के दायरे से निकल सकते थे, उन्होंने मध्य एशिया के मुस्लिम देशों, खलीफाओं की
तरफ देखा और इस तरह वह हिन्दुओं की तरफ पीठ कर खड़े हो गए।
जिस
समय यूरोप और अमेरिका ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई ऊँचाइयाँ हासिल कर रहे थे, भारत
अपना अन्तरिक्ष कार्यक्रम आगे बढ़ा रहा था। भारत में हिन्दू तब स्वयं को उदार रखकर
आगे बढ़ने के लिए सरकारी योजनाओं के साथ कदमताल कर रहा था, जबकि
मुसलमान कट्टरता अपना रहा था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद,
हुमायूँ कबीर, फख़रुद्दीन अली अहमद और करीम छागला से लेकर
नुरुल हसन तक; आजादी के लगभग तीस साल तक भारत के शिक्षा
मंत्री के पद पर मुसलमान नेता रहे किन्तु इस अवधि में मदरसा शिक्षा अधिक
सांप्रदायिक रही। मुसलमान अपनी सांप्रदायिक पहचान के प्रति अधिक सजग बन रहा था।
शाहबानो प्रकरण में यह देखा गया कि यह समुदाय अपने पारंपरिक तौर तरीकों में बदलाव
के लिए कतई राजी नहीं है। राही मासूम रज़ा ने अपने एक लेख में बहुत तीक्ष्ण शब्दों
में आलोचना करते हुए लिखा है कि ‘इन्हें इस्लाम कटपीस में
चाहिए’। इस समुदाय में नए समाज के हिसाब से चलने की कोई ललक
नहीं और इस क्रम में उसकी पक्षधरता अधिक संदेहास्पद हुई।
उदारीकरण
के साथ ही देश में सांप्रदायिकता के एक नए अध्याय का आरंभ हुआ। उदारीकरण से दुनिया
एक गाँव में बदलने के लिए अपने मार्ग प्रशस्त कर रही थी। भारत में सामाजिक ढाँचा
करवट ले रहा था। तब भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर गोलबंद
किया गया। जब भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्या में मुग़लों द्वारा राम मंदिर के
स्थान पर बनाए गए ढांचे को लेकर राजनीति शुरू हुई, तो समूचे भारतीय
उपमहाद्वीप में भारी उथल पुथल मची। कांग्रेस ने जब कपाट खुलवाए और पूजा अर्चना
शुरू की तो भाजपा ने रथयात्रा आरंभ की। दिसम्बर 1992ई0 में ढांचा ढहाए जाने के बाद
देश भर में दंगे और प्रदर्शन हुए।
ऐसा
देखा गया कि 1992ई0 के बाद मुस्लिम समुदाय पूर्णरुपेण अरबों का मुखापेक्षी हो गया।
यह समुदाय अधिक मुखर हुआ और उसने अपने सांप्रदायिक प्रतीकों का अधिक उग्रता से
प्रदर्शन करना प्रारम्भ किया। काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास काशी का अस्सी में एक
संवाद में लक्षित किया कि मस्जिदों पर लाउडस्पीकर इस घटना के बाद रातों रात लगा
दिये गए।
आज
स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में यह साफ देखा जा सकता है कि भारत में हिन्दू , सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि समुदाय
नए ज्ञान-विज्ञान के साथ आने के लिए स्वयं में बदलाव हेतु व्यग्र हैं जबकि मुसलमान
आकांक्षी होकर भी रूढ़ियों और कट्टरताओं में उलझा हुआ है। सरकार निरंतर योजना बनाती
है कि वह युवाओं के हाथ में कुरान के साथ साथ कंप्यूटर भी देखना चाहती है किन्तु
जैसा कि तुलसीदास लिख गए हैं- दोऊ की होऊ एक समय भुवाला। हंसब ठठाई फुलाईब गाला।
आज
मुस्लिम समुदाय अरब देशों के निर्देशों से संचालित हो रहा है। एक घटना मात्र होती
है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया में अरब देश भी त्वरित उपस्थित होते हैं। अभी हाल
के दिनों में टीवी बहस के एक प्रकरण को लेकर यह बहुत स्पष्ट तरीके से देखा गया।
मुस्लिम समुदाय अपने सांप्रदायिक प्रतीकों को लेकर अधिक आग्रही है। जिस तरह ईरान,
तुर्की, फ्रांस आदि देश क्रमशः कट्टरपंथ की तरफ अग्रसर हुए
हैं, भारत में उसकी प्रतिच्छाया दिखी है। बच्चों के नामकरण
से लेकर संस्कारों और दैनिक व्यवहारों में यह देखा जा सकता है। सड़कों पर अदा किया
जाने वाला नमाज हो या शिक्षण संस्थानों में हिजाब का मामला,
मुस्लिम समुदाय ने अपने प्रतिगामी रूप को अधिक प्रदर्शित किया है। यह प्रदर्शन
बहुत आक्रामक दिखाई देता है। इसके विपरीत हिन्दू जनमानस अपने सांप्रदायिक प्रदर्शन
से बचने का उपाय करता मिला है। वह नवधा भक्ति के समस्त कर्मकांड के स्थान पर
उदारवादी रवैया रखते हुए सहिष्णु बनने के लिए हर तरह का मूल्य चुकाने को तत्पर
दिखता है। यद्यपि आज कई प्रतिक्रियावादी घटनाएँ इस समुदाय को भी कट्टरता के दायरे
में धकेल रही हैं किन्तु सामान्यतः यह समुदाय दूसरे को पर्याप्त स्थान देने के लिए
सदैव प्रयासरत दिखाई देता है।
स्वाधीनता
के अमृत महोत्सव वर्ष में हम यह नहीं कह सकते कि भारत में इन दोनों समुदायों के
बीच आगामी वर्षों में तीखापन नहीं आएगा। दुर्भाग्य से भारत में इस समय किए जा रहे
सामाजिक सुधारों का, जिसमें तीन तलाक, कश्मीर मामला, सी ए ए और एनआरसी आदि शामिल हैं, मुस्लिम समुदाय
विरोध कर रहा है और इस विरोध के पीछे कोई तार्किक आधार भी नहीं है। तब भी आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी के एक वाक्य से अपनी बात खत्म करता हूँ- क्या निराश हुआ
जाये?
(हस्तक्षेप दिनांक 05 अगस्त, 2022) |
हम और हमारा सामाजिक ताना-बाना |
------डॉ रमाकान्त राय
लेखक एवं विश्लेषक
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
728, सिविल लाइंस, इटावा, उत्तर प्रदेश 206001
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