-डॉ रमाकान्त राय
डिजनी
हॉटस्टार पर हालिया प्रदर्शित वेब सीरीज #ग्रहण (#Grahan) मशहूर लेखक सत्य व्यास की औपन्यासिक कृति "चौरासी" पर केंद्रित
है। देश में 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या
कर दी गई थी। उसके बाद कांग्रेस दल के कार्यकर्ताओं ने अगले दो दिन तक देश भर में
सिख समुदाय के लोगों को चिह्नित कर मारा। उनके घर जला दिए, महिलाओं के साथ बलात्कार किया और बच्चों को जलती आग में झोंक दिया।
केन्द्रीय नेतृत्व मूक बधिर बना रहा। नव नियुक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि जब कोई
बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास कंपन होता ही है। यह एकतरह से खुली छूट थी। अकेले
दिल्ली में पांच हजार से अधिक सिख मारे गए।
कालांतर
में 1984 के इस नरसंहार को "सिख दंगा"
कहा गया और इसे सांप्रदायिक हिंसा के रूप में देखे जाने के लिए विमर्श किया। आज भी
एकतरफा किए गए इस कत्लेआम को बुद्धिजीवी "दंगा" कहते और लिखते हैं।
हिन्दी
में 1984 के सिख नरसंहार को केंद्र में रखकर
लिखे गए साहित्य का अभाव है। राही मासूम रज़ा के असंतोष के दिन, अजय शर्मा के नाटक ऑपरेशन ब्लू स्टार आदि को छोड़ दिया जाए तो कुछ भी ढंग
का नहीं लिखा गया है। बनारस टाकीज और दिल्ली दरबार से लोकप्रिय हुए, लुगदी लेखक सत्य व्यास का उपन्यास चौरासी इसी नरसंहार को केंद्र में रखकर
लिखा गया है जिसपर आठ एपिसोड का वेबसीरीज "ग्रहण" डिजनी हॉटस्टार पर
प्रदर्शित हुआ है।
सिख
नरसंहार केवल राजधानी दिल्ली में नहीं हुआ था। इसकी लपटें पूरे देश में उठीं।
ऑपरेशन ब्लू स्टार अर्थात अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में अलगाववादी खालिस्तानी
समर्थक भिंडरावाला को पकड़ने के अभियान के बाद सिख समुदाय आक्रोशित था।
सांप्रदायिक मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप ने स्थितियों को गंभीर बना दिया था।
इसके भयंकर दूरगामी परिणाम हुए।
सिख
नरसंहार ने अब के झारखण्ड प्रांत के औद्योगिक नगर बोकारो में भी अपनी छाप छोड़ी
थी। बोकारो में उस अवधि में जो कुछ हुआ, उसी को आधार
बनाकर यह वेबसीरीज बनाई गई है। घटना के लगभग बत्तीस वर्ष बाद भी उस नरसंहार की
जांच पूरी नहीं हो पाई। 2016 में राजनीतिक
प्रतिद्वंद्विता में इस नरसंहार के लिए एक एस आई टी बिठाई जाती है।
इससे पहले रांची में एक पत्रकार की
हत्या की जाती है, जो बोकारो सिख नरसंहार पर रिपोर्ट बना रहा था।
तब एसपी अमृता सिंह इसके साजिशकर्ताओं तक पहुंचना चाहती हैं किंतु अदृश्य कारकों
के दबाव में उन्हें इस मामले से हटा दिया जाता है और 84 के "दंगो" की जांच के लिए बनाई कमेटी का मुखिया बना दिया जाता
है। उसके अनुक्रम में भी उथल पुथल चलती रहती है।
कहानी
में एक प्रेमकथा 1984 की है और एक 2016 की। हिन्दी फिल्में, वेबसीरिज गानों और प्रेम
के लटको झटकों में खूब रमती हैं। यह भी उसका शिकार हुई है। जैसे तैसे यह प्रेम आगे
बढ़ता है और कई मीठे दृश्यों का सृजन करता है, लेकिन वह
तो अवांतर कथा है।
मूल
कथा है, राजनीति। हिन्दी फिल्में राजनीतिक पटकथाओं का
सबसे घटिया स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। जब मैं इसे तांडव का सॉफ्ट वर्जन कहता हूं
तो आशय यही है कि तांडव जिस तरह लचर राजनीतिक कहानी का उदाहरण है, ग्रहण भी। यदि घटना सत्य है, देश और काल वही
हैं तो राजनीतिक हस्तियां भी वास्तविक होनी चाहिए क्योंकि वह एक संवैधानिक पद धारण
करते हैं। हम सत्य घटना पर साहित्य निर्मित करेंगे तो रांची, बोकारो, झारखंड, 84, 2016 आदि सही रखकर मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता आदि
का नाम केदार और संजय कैसे कर सकते हैं? लेकिन खैर!
जैसे तांडव में एक एजेंडा रखकर पटकथा लिखी गई थी और छात्र राजनीति,किसान आंदोलन, फर्जी मुठभेड़, उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि को बहुत आसमानी किताब के आधार पर बढ़ाया गया था, ग्रहण में भी। इसमें भी राजनीति की दुरभिसंधियां हैं, प्रशासनिक भ्रष्टाचार है, दलित और मुस्लिम उभार है। नरसंहार की बजाय दंगा कहना भी एक सॉफ्ट प्वाइंट है। सामुदायिक गोलबंदी और हिंसा का सरलीकरण है। यह सब तांडव में भौंडे तरीके से था, ग्रहण में सॉफ्ट।
Review of Grahan In Hindi |
सिखों
के साथ हुए दुर्व्यवहार को सामुदायिक हिंसा के रूप में दिखाने का प्रयास हुआ है।
सामुदायिक गोलबंदी के लिए सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार वाले वीडियो सर्कुलेट करने
आदि को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह सब इतना सरलीकृत और छिछला है कि जी उचट जाए।
मैंने
सत्य व्यास की लिखी पुस्तकें देखी हैं, उनकी
समीक्षाएं पढ़ी हैं और मुझे विश्वास था कि वह लुगदी साहित्य के लेखक हैं। लुगदी
लेखक कहने का आशय यही है कि इनके लिखे हुए में तार्किकता और सुचिंतित विचार सरणी
का सर्वथा अभाव रहता है। यह एक विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता है और
इसमें एक विशेष एजेंडा निहित रहता है। जाने अनजाने ही यह सब आ जाता है। कई बार
अतिरिक्त और अनावश्यक मसाला डालने के बाद व्यंजन जिस तरह अरुचिकर और हानिकर हो
जाता है, लुगदी वाले भी वही परोसते हैं।
ग्रहण प्रेम के कुछ लटके झटके वाले दृश्यों में मधुर है किन्तु उतना ही
जितना हम एक कौर बहुत रंगीन/ऊपर से स्वादिष्ट दिखने वाले डिश को देखकर मुंह में
रखते हैं। ज्योंहि हमारी इंद्रियां सक्रिय होने लगती हैं, खाद्य अरुचिकर बन जाता है, उसी तरह इस वेबसीरिज
के भी।
इस
वेबसीरिज में पात्रों का अभिनय स्तर ठीक ठाक है। पात्रों, पवन मल्होत्रा, ज़ोया हुसैन, अंशुमान पुष्कर, वमिका गब्बी, टीकम जोशी, सत्यकाम आनंद ने खूब परिश्रम और लगन
से अपनी भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्मांकन भी स्तरीय है। अनावश्यक दृश्य हैं किंतु
उनमें भौंडापन और अश्लीलता नहीं है।
इसमें
झारखंड के निवर्तमान मुख्यमंत्री (केदार) हेमंत सोरेन की इमेज बिल्डिंग की गई है
और उन्हें शिबू सोरेन, पिता के छाया से निकलने के लिए दृढ़ संकल्पित
दिखाया गया है। इस क्रम में न चाहते हुए भी शिबू सोरेन को तिकड़मी और असहाय दिखाना
पड़ा है। सत्य व्यास ने कहानी लिखते हुए इस पहलू पर विशेष राजनीतिक पक्ष रखा है।
इंदिरा गांधी को भी भाषण करते दिखाया गया है और इसमें भी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता
का अभाव है।
ग्रहण
को कितना रेट करें। पांच अंक के अधिकतम में मैं इसे ढाई अंक इसलिए दूंगा कि इसने
सॉफ्ट वर्जन बनाने में अपनी मेधा प्रदर्शित की है। उस तरीके के लूप होल्स नहीं
छोड़े हैं, जैसा कि तांडव आदि में है। इस नरसंहार को दंगा
कहने के लिए तो मैं दो अंक काट लूंगा। नायक ऋषि रंजन बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और हरफन
मौला है किंतु मृतक आश्रित की नौकरी के लिए चप्पलें घिस रहा है, वह भी 1984 में! यह सब अविश्वसनीय और
इतिहासबोध के अभाव में है। वस्तुत: जिस दृष्टि संपन्नता से गंभीरता आती है और रचना
बड़ी हो जाती है, वही लुगदी साहित्य में विलुप्त है, इसलिए ग्रहण पर उसकी छाया भी दिखती रहती है। इसका निर्देशन रंजन चंदेल ने
किया है।
असिस्टेंट
प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय
महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा
206001, royramakantrk@gmail.com
9838952426
(जुड़िये, हमारे यू ट्यूब चैनल से- कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष)