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रविवार, 1 मई 2022

हमारे खिलौने

     - डॉ रमाकान्त राय

    वसु और वैष्णवी के लिए खिलौने लेने का मन था । एक फुटपथिया दुकान पर खड़ा हुआ । प्लास्टिक और रबर की विविध वस्तुएं थीं । खेलने के लिए बनाई गयी । सर्वाधिक मात्रा शोर करने वाली खेल सामग्री की थी । सीटी, पिपिहरी, झुनझुने और चें-पें करने वाले बहुतायत थे । दूसरी बड़ी संख्या वाहनों की थी । कार, बस, हेलीकॉप्टर और विमान बहुत थे । आग्नेयास्त्र तीसरे स्थान पर बहुतायत में थे । बन्दूक, पिस्तौल और इसी तरह के खिलौने ।

        मैंने गेंद चुनी । स्पंज वाली गेंद का दोनों ने नुकीले दांतों से कुतर कर देख लिया था कि सब निस्सार है । इसलिए इस बार प्लास्टिक की गेंद चुना । पिछली बार एक गुब्बारा लाया था तो वह मात्र दस सेकेण्ड उनके साथ रहा और तेज आवाज के साथ फूट गया । बहरहाल, गेंद के बाद मेरी कामना थी कि किसी पशु, पक्षी, जीव आदि के प्रतिरूप वाले खिलौने हों तो अच्छा ! दूकानदार मेरा मुंह ताकने लगा ।

      एक बछड़ा कम कुत्ता ज्यादा जैसा कुछ मिला । ले आया । वह पहिये पर चलता है । मिट्टी के खिलौने बेच रहे एक अन्य के पास एक मुर्गा मिला । एक हिरण भी । गुल्लक भी था । जहां मिट्टी के खिलौने थे, वहाँ जमीन से जुड़े हुए पारम्परिक खिलौने थे ।  जहां प्लास्टिक वाले और यांत्रिक खिलौने थे वहाँ की दुनिया पृथक थी । कृत्रिम ।

      मैंने देखा कि पारम्परिक खिलौने जहां सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने वाले और इको फ्रेंडली थे वहीं कारखाने में बने हुए प्लास्टिक और लोहा-लक्कड़ के बने हुए खिलौने हिंसक और क्रूरता भरने वाले । ऐसे खिलौने, जो ऐश, हिंसा और शोर का भाव भरने वाले हैं । मन में इच्छा, आकांक्षा और कुण्ठा भरने वाले । बाजार हमें ऐसा ही बनाना चाहता है । हम इसकी अंधी दौड़ में जाने अनजाने शामिल हैं ।

सद्य: आलोकित!

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