-डॉ रमाकान्त राय
किसी विवाद में क्या
प्रभावी है? शास्त्र अथवा शस्त्र? ज्ञान का बल अथवा शरीर का
बल? बहुत मोटे तौर पर हम पूछते हैं- अक्ल बड़ी है या
भैंस। प्रथम द्रष्टया शरीर का बल अधिक क्षमतावान और कारगर दिखेगा क्योंकि उसमें
तत्काल फल देने का गुण सन्निहित है। आज ऐसे ही एक विशेष प्रकरण को उठाते हैं और
महर्षि विश्वामित्र तथा वशिष्ठ के दृष्टांत से समझने का प्रयास करते हैं।
हमारी पौराणिक कहानियों
में ऋषि विश्वामित्र अनेकश: उपस्थित हैं। वह महाराजा गाधि के पुत्र थे। गाधि के
पिता कुशनाभ, कुशनाभ के कुश और कुश प्रजापति के पुत्र थे। इस तरह विश्वामित्र, प्रजापति के चौथी पीढ़ी के प्रजावत्सल राजा थे। उनका जीवन महाराजा, महर्षि से होते हुए ब्रह्मर्षि तक पहुँचता है और अनेकश: घटनाओं से टकराता
है। उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग रामकथा से सम्बद्ध है जिसकी थोड़ी सी
चर्चा हमने इस ब्लॉग दीपावली: राम के चरित्र का दीपक में की है। वस्तुतः अपने यज्ञपूर्ति के लिए वह राम को बक्सर ले जाते हैं
जहाँ ताड़का वध सम्पन्न होता है। आज जिसे लहुरी काशी यानि गाजीपुर कहते हैं, वह विश्वामित्र के पिता महाराजा गाधि के नाम पर ही स्थापित हुआ कहा जाता
है और जब विश्वामित्र ताड़का से उत्पीड़ित थे, उसके विनाश
हेतु क्रियाशील होते हैं तो इसका सूत्र भौगोलिक स्तर पर भी संगत बनता है।
विश्वामित्र के जीवन का एक
प्रसंग मेनका नामक अप्सरा से भी सम्बद्ध है। विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के
लिए इन्द्र ने मेनका नामक अप्सरा को भूलोक में भेजा था। मेनका विश्वामित्र के साथ
रहीं और उन्होंने शकुन्तला को जन्म दिया। यह शकुन्तला दुष्यन्त से मिलीं जिनके
पुत्र प्रतापी भरत थे। महाभारत की कथा का आधार यहीं है।
विश्वामित्र को गायत्री मन्त्र का द्रष्टा ऋषि कहा जाता है। उनके नाम त्रिशंकु की प्रसिद्ध कथा जुड़ी हुई है। हालांकि हम वर्तमान में त्रिशंकु की स्थिति को बुरी स्थिति मानते हैं, लेकिन अगर हम कथा को ठीक से जानें तो हमें विश्वामित्र के योगबल और तपोबल पर मान होगा। जब त्रिशंकु की सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा कोई पूरी नहीं कर रहा था तो विश्वामित्र ने यह बीड़ा उठाया। सबसे बैर लिया। हुआ यूं था कि इछ्वाकुवंशी प्रतापी राजा त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग जाने की कामना की। इसके लिए वह वशिष्ठ के पास पहुँचे। वशिष्ठ ने मना किया तो उनके पुत्रों के पास पहुँचे। त्रिशंकु के इस ढीठाई पर वशिष्ठ के पुत्रों ने उनको शाप दे दिया कि वह चांडाल हो जाएँ। चांडाल बने त्रिशंकु विश्वामित्र के पास पहुँचे और विश्वामित्र ने यह बीड़ा ले लिया। उन्होंने सभी ऋषियों-मुनियों और देवताओं को यज्ञ का भाग ग्रहण करने के लिए बुलाया। वशिष्ठ के पुत्र नहीं आए तो सबको यमलोक भेज दिया। और प्रेतयोनि में भटकने का शाप अलग से दिया। उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का हरसंभव प्रयास किया और जब देखा कि त्रिशंकु की राह में इन्द्र यह कहते हुए खड़े हो गए हैं कि वह गुरु वशिष्ठ के पुत्रों द्वारा शापित हैं, इसलिए स्वर्ग में नहीं रह सकते। तो बीच में ही एक स्वर्ग की रचना कर दी। सप्तर्षि का एक नया समूह बना दिया और एक नया इन्द्र बनाने लगे। देवता भयभीत हो गए और विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे तो सुलह हुई। इस समझौते के अन्तर्गत त्रिशंकु को एक अलग स्वर्ग मिला जहाँ वह अभी राज भोग रहे हैं। उनके बीच में लटके रहने और अधर में रहने की कहानी इतनी भी पीड़ादायी नहीं है, जितना कि यत्र-तत्र उल्लिखित की जाती है।
महाभारत की हस्तलिखित प्रति का एक पृष्ठ
विश्वामित्र और वशिष्ठ के
द्वंद्व के आरंभ की कथा महाभारत में है। एक दिन राजा विश्वामित्र अपने दस हजार
सैनिकों के साथ शिकार पर निकले और राह भटक गए। भटकते-भटकते वह ब्रह्मर्षि वशिष्ठ
के आश्रम में गए। वहाँ वशिष्ठ ने उनका आदर-सत्कार किया और कुछ अवधि तक रुकने का
निवेदन किया। विश्वामित्र को उनका आतिथ्य सत्कार पसंद आया। वन में रहने वाले एक
तपस्वी के लिए दस हजार सैनिकों और लाव-लश्कर का स्वागत कोई सामान्य बात नहीं थी।
विश्वामित्र इससे आश्चर्य में थे। तब उन्होंने इस सत्कार का राज जानना चाहा।
वशिष्ठ ने बताया कि यह समृद्धि नंदिनी नामक कामधेनु से है। विश्वामित्र ने कहा कि
आप दस हजार गाय ले लीजिये और नंदिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ ने कहा कि अगर यह गाय
आपके साथ जाना चाहे तो ले जाएँ। नंदिनी ने जाने से अनिच्छा प्रकट की तो
विश्वामित्र ने अपने सैनिकों से कहा कि इसे जबरदस्ती ले चलो। नंदिनी ने इस बरजोरी
पर कातर आँखों से वशिष्ठ से अनुनय की। वशिष्ठ ने कहा कि हमने सहमति से ले जाने की
अनुमति दी थी। कि इस तरह बलात न ले जाएँ। विश्वामित्र को अपनी दस सहस्त्र सशस्त्र
सेना पर बहुत अभिमान था। उन्होंने वशिष्ठ को अपशब्द कहा और कहा कि नंदिनी को तो अब
किसी कीमत पर ले जायेंगे।
भयंकर युद्ध हुआ और
विश्वामित्र हार गए। शास्त्र बल ने शस्त्र के बल को पराजित कर दिया। विश्वामित्र
के सौ पुत्र भी काल-कवलित हुए। विश्वामित्र का दर्प चूर-चूर हो गया। ज्ञान की इस
ताकत को देख उनको बोध हुआ कि वास्तविक शक्ति तो ज्ञान में निहित है। वह राजपाट
छोड़कर ज्ञान अर्जन हेतु वनगमन कर गए। यह झगड़ा बहुत लंबा चला और विश्वामित्र के
ब्रह्मर्षि बनने पर शमित हुआ।
विश्वामित्र की कथा इस
प्रयोजन से की गयी है कि शास्त्र का बल शस्त्र के बल से अधिक है। जब शास्त्र और
शस्त्र में द्वंद्व होगा तो अंततः शास्त्र ही विजयी होगा। शास्त्र के साथ अच्छी
बात यह है कि इसकी गति विशिष्ट है। यह हत्या भी करता है तो वह सामान्य तौर पर
परिलक्षित नहीं होता। वह हिंसा में नहीं गिना जाता। शास्त्र की मार अदृश्य होती है
और बहुत गहरी। शस्त्र शरीर को नष्ट करता है, शास्त्र चाहे तो
व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न कर सकता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने शास्त्र के बल पर
हमेशा अपना स्थान पूजनीय रखा और वह ऋषि बने रहे। उनसे अधिक क्षमतावान विश्वामित्र
व्यक्तित्व की चंचलता और अस्थिरता तथा शस्त्र प्रयोग और मोटी बुद्धि के कारण उस
विशेष पद के अधिकारी नहीं हुए जो उन जैसे महर्षि के लिए अपेक्षित था।
कथा का लब्बो लुआब यह है
कि बहस में, चाहे वह असहिष्णुता की हो या सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दे की; आपको जीतना है तो ज्ञान को अपनाना पड़ेगा। लाठी लेकर पिल पड़ना, गाली-गलौज (गलौच शब्द गलत है) और भोथरे मजाक करना शस्त्र से युद्ध करना
है। प्रतिपक्षी के छद्म प्रचार को विनम्रता से सुनिए और उसे अधिक सहिष्णुता से
ख़ारिज कीजिये। लोहे को लोहा काटता है लेकिन आग से आग नहीं बुझती। उनके लगाए आग पर
पानी डालना सीखिये।
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर
महाविद्यालय,
इटावा, उत्तर
प्रदेश 206001
royramakantrk@gmail.com 9838952426