ब्याज दरों में कटौती प्रस्ताव के
"ओवरसाइट" पर एक कहानी याद आ गई।
एक व्यक्ति अपना मुंह और झोला लटकाए जा
रहा था। उसकी कमर झुककर दोहरी हो गई थी। उसे देखकर ही अनुमान होता था कि उसपर कई
अदृश्य बोझ हैं। रास्ते में उसका हमराही हुआ मुल्ला नसरुद्दीन और उसका शागिर्द।
राह चलते मित्रता बढ़ी तो मुल्ला ने
पूछा- ‘भाई, झोला जैसा मुंह क्यों लटकाए हो?’ उस व्यक्ति ने व्यथा कथा सुनाई। उसका घर परिवार उजड़ चुका था। बचत आदि लूट
ली गई थी। फसल आवारा सांड बरबाद कर चुके थे। रोजगार चौपट हो गया था। वह बहुत दुखी
था। उसका दुख उसके मुंह और झोले से छलक रहा था।
उस
व्यक्ति ने कहा कि उसके जीवन में खुशी का एक क्षण भी नहीं है। यह सुनकर मुल्ला
नसरुद्दीन बहुत दुखी हुआ। उसने सांत्वना दी। सब्जबाग दिखाए। किन्तु उस व्यक्ति का
मुंह लटका रहा। तब मुल्ला ने कहा कि वह उसका दुख दूर कर सकता है, बशर्ते
वह अपना झोला उसे दे दे।
व्यक्ति
ने कहा कि झोले में उसकी शेष जमापूंजी है। वह ऐसा कैसे कर सकता है। संकेत पाकर, एक
लापरवाही भरे क्षण में मुल्ला के शागिर्द ने एक झटके में उससे झोला झटक लिया और यह
गया वह गया, हो गया। व्यक्ति ने पीछा किया। मुल्ला भी पकड़ने
भागा। व्यक्ति बहुत चीखा, चिल्लाया। अंततः थककर बैठ गया। सांझ ढल रही थी। 'जीवन
में और न जाने कितने कष्ट देखने को हैं', - वह सोचने लगा।
अचानक उसने देखा कि उसका झोला उसके सामने वाले वृक्ष पर लटका है। वह सोत्साह आगे
बढ़ा। अरे! यह तो उसी का झोला है। वह खिल गया। आगे बढ़कर झोला उतारा। देखा,
सभी वस्तुएं सही सलामत थीं। उसके हर्ष का पारावार न रहा।
तब उसके समक्ष मुल्ला
नसरुद्दीन प्रकट हुआ। आदमी ने अपना झोला छिपा लिया।
मुल्ला ने
कहा – “तुम तो बहुत खुश दिख रहे हो!”
उसने कहा - "हां। आज मैं बहुत प्रसन्न हूं।"
मुल्ला
बोला -
"किंतु अभी कुछ देर पहले तो तुम कह रहे थे कि तुम्हारे जीवन
में खुशी का एक क्षण भी नहीं है!"
मुझे नहीं
लगता कि कहानी में और कुछ कहने को शेष रह जाता है!
कहनी गई
वन में,
सोचो अपने मन में।
कहने वाला
झूठा, सुनने वाला सच्चा।।
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-डॉ रमाकान्त राय