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मंगलवार, 24 सितंबर 2019

कथावार्ता : एक बूँद- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

दैव मेरे भाग्य में क्या है बदा।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।

सद्य: आलोकित!

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