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गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

कहानी : मानस शब्द संस्कृति

मानस शब्द संस्कृति: कहानी


कहहिं पुरातन कथा कहानी।
सुनहिं लखन सिय अति सुखु मानी।।

चित्रकूट में निवास करते हुए श्रीरामचंद्र जी वही करते और कहते हैं जो सीता और लक्ष्मण को सुख देने वाले हों। वह प्राचीन कथा और #कहानियां सुनाते हैं। आज जिसे #कहानी (Short story) कहते हैं, उसे पश्चिम से आयातित विधा माना जाता है।
कहानी में सबसे प्रमुख तत्त्व है "कहन"। यह कहने और सुनने के लिए थी। इसलिए भारत में इसकी लिखित परंपरा कम मिलती है। जब यूरोप की शॉर्ट स्टोरी अस्तित्व में आई तो उसकी देखा देखी #कहानी विधा का आरंभ हुआ। किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी इंदुमती हिंदी की पहली कहानी मानी जाती है।

श्रीराम वनवास काल में "बड़ा" होने का दायित्व बहुत अच्छी तरह निभा रहे हैं। राजघराने के अभ्यस्त लक्ष्मण और सीता को नई परिस्थिति में जो रुचिकर लगे, सुख मिले, वह सब उपक्रम वह करते हैं। वह कथाएं सुनाते हैं। यह सब चरित्र को उज्ज्वल बनाने वाले वृत्त हैं। राम इसी नाते आदर्श हैं।

#मानस_शब्द #संस्कृति

रविवार, 13 जून 2021

कथा समीक्षा : उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर : आधुनिक स्त्री का आदर्श

-डॉ. कुलभूषण मौर्य

प्रवासी कथाकार उषा राजे सक्सेना यूनाइटेड किंगडम में बसी भारतीय मूल की लेखिका हैं। वे अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के अपने देश के साथ सम्बन्धों को पुख्ता करती हैं। प्रवास मेंवाकिंग पार्टनरवह रात और अन्य कहानियाँ के माध्यम से वे अपने देश भारत की सभ्यतासंस्कृति और भाषा के प्रति प्रेम को उजागर करती हैं। साथ ही प्रवासी भारतीयों के मन में घर वापसी की उम्मीद को कायम रखती हैं। उषा राजे सक्सेना की कहानी ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ वर्तमान की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में रिश्तों की गर्माहट को बचाये रखने की मर्मस्पर्शी गाथा है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ का अर्थ है- वित्तीय जोखिम उठाने वाला उद्यमी। उषा राजे की कहानी का यह शीर्षक कथा की मूल संवेदना को अपने भीतर समेटे हुए है। कथा नायिका के लिए व्यंग्य के रूप में प्रयोग होने वाला ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ शब्द उस समय एकदम सही साबित होता हैजब वह अपने पति के लिए सचमुच वित्तीय जोखिम उठाती है और अपनी सिंगापुर यात्रा को टाल देती है। वह ऑन्टोप्रेन्योर हैप्रोफेशनल हैकिन्तु पारिवारिक रिश्तों को निभाने में भी पीछे नहीं है।

      ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ रो और तिश नामक दो किशोरों के किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने और अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करते हुए जीवन जीने की कथा है। रो और तिश की जान-पहचान बस से यात्रा करते हुए होती है। दोनों की बात-चीत से पता चलता है कि रो का पूरा नाम रोहन बिसारिया है और तिश का तुशारकन्या राय। यानी कि दोनों भारतीय मूल के हैं और साउथ लंदन के स्ट्रेथम के एक ही इलाके में रहते भी हैं। जिस समय दोनों की प्रथम मुलाकात होती हैदोनों ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र थे। रो फ्रेंच लिटरेचर में बी.ए. आनर्स कर रहा था तो तिश मीडिया और फैशन डिजाइनिंग में। दोनों की यह जान-पहचान धीरे-धीरे चाहत में बदल जाती है। किन्तु रो अपने पिता के स्वास्थ्य के कारण बात-चीत को आगे बढ़ाने से हिचकता है। रो अपनी घरेलू परेशानियों से घिरा है। पिता के खराब स्वास्थ्य के कारण उसे माँ के साथ फार्मेसी की दुकान में हेल्प करनी पड़ती है। रो और तिश दोनों ही अपने कैरियर को लेकर गम्भीर हैं। आर्ट और म्यूजिक के साथ स्पोट्र्स में भी रो की गहरी दखल थी । तिश भी मीडिया और फैशन डिजायनिंग के साथ पब्लिक स्पीकिंग में ए लेवल करती है। साथ ही हर गुरूवार को वह सालसा लैटिन अमेरिकन नृत्य का प्रशिक्षण लेती है। शुक्रवार और शनिवार को हैरडस के एकाउंट डिपार्टमेंट में काम करती है और रविवार को भारतीय विद्या भवन में कथक सीखती है। तिश अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है और भविष्य को लेकर महात्वाकांक्षी है।  

        रो की किशोरावस्था की जान-पहचान घर से दूर जाकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री लेते हुए और घनिष्ठ होती है। वे एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं किन्तु विवाह के नाम पर तिश तैयार नहीं होती क्योंकि वह अपना स्वयं का बिजनेस करना चाहती है। यह बात वह रो से साफ-साफ कह देती है। मास्टर करने के बाद रो क्वींस कॉलेज में कामर्स विभाग में अध्यापन करने लगता है और तिश नॉर्थ लंदन के टैलिस्मान फैशन फर्म में काम करती है। वहाँ दोनों साथ ही रहते हैं। तिश अपना व्यापार स्थापित करने के लिए भारत में मुंबई जैसे शहर को चुनती है और मुंबई चली जाती है। कुछ दिनों के बाद रो भी मुंबई विश्वविद्यालय के कॉमर्स विभाग में फ्रेंच पढ़ाने लगता है। दोनों मुंबई में साथ ही रहते हैं। रो के माता-पिता के दबाव के कारण दोनों विवाह के बन्धन में इस वादे के साथ बँध जाते हैं कि ‘‘शादी के बाद तुम मुझे ट्रेडिशनल पत्नी के रोल मॉडल में ढलने का दबाव नहीं डालोगे और साथ ही मेरे व्यवसाय के मामले में टोका-टोकी नहीं करोगे।’’ रो और तिश का दाम्पत्य जीवन कुछ दिन तो ठीक चलता है किन्तु जैसे-जैसे तिश अपने व्यवसाय को बढ़ाती हैवह काम में उलझती जाती है। वह रो को समय नहीं दे पाती। इससे रो की खिन्नता बढ़ती जाती है। वह अपने को छला हुआ महसूस करता है । जब वह तिश से अपने माता-पिता को मुंबई बुलाने की बात करता है तो तिश मना कर देती हैउल्टे उसे ही लंदन हो आने की सलाह देती है। इससे रो के मन को ठेस पहुँचती है। वह गुस्से में यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकलता है। ड्राइवर को पिछली सीट पर बैठा कर खुद ड्राइव करता है। तेज रफ्तार के कारण गाड़ी टकरा जाती है और रो गम्भीर रूप से घायल हो जाती है। व्यवसाय के सिलसिले में सिंगापुर के लिए निकल रही तिश को जब एक्सिडेंट की सूचना मिलती है तो वह सिंगापुर की यात्रा रद्द कर देती है। स्वयं की जगह अपनी असिस्टेंट को मीटिंग के लिए जाने को कहकर वह अस्पताल पहुँचती है। रो की स्थिति ज्यादा गम्भीर न होने पर वह चैन की साँस लेती है और रो के माता-पिता को मुंबई बुलाने के लिए फोन करती है। वह उनके बीजा से लेकर टिकट तक का प्रबन्ध स्वयं करती है। इससे रो के माता-पिता के मन में तिश के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो अवधारणा थीवह बदल जाती है। साथ ही रो की सोच में भी परिवर्तन आता है। रो और उसके माता-पिता तिश को न केवल एक सफल व्यवसायी के रूप में देखते हैं एक व्यवहार कुशल पत्नी के रूप में भी वह खरी उतरती है। रो को यह बात समझ में आती है कि स्वयं के खालीपन को भरने के लिए तिश को बन्धन में डालने की बजाय स्वयं को रचनात्मक रूप से सक्रिय करना चाहिए और वह अपने लिए पेंटिंग क्लास शुरू करने की सोचता है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में मुख्य पात्र तिश है। उषा राजे ने तिश को आज के परिवेश की स्त्री के रूप में रचा है। वह कथा की नायिका है। तिश एक महत्वाकांक्षी लड़की है। अपनी पढ़ाई से लेकर कैरियर तक वह लक्ष्य केन्द्रित है। अपने छात्र जीवन से ही वह अपने व्यक्तित्व को निखारने को लेकर तत्पर है। तिश अपने भविष्य पर फोकस्ड एक मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़की है। जीवन के हर क्षण का आनन्द लेते हुए वह आगे बढ़ती है। रो को लेकर वह प्रतिबद्ध तो हैकिन्तु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोना नहीं चाहती। वह विवाह के बन्धन में इसलिए बँधना नहीं चाहती कि उसे घर की जिम्मेदारयिाँ उठानी पड़ेंगी। वह एक ऐसी आधुनिक स्त्री के रूप में सामने आती हैजो जीवन के हर क्षेत्र में सफल साबित होती हैं। अपने काम को लेकर वह गम्भीर है। ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ उसके चरित्र के लिए सटीक बैठता है। वह वित्तीय जोखिम उठाने वाली उद्यमी हैइसीलिए वह सफल होती है। लेकिन वह रिश्तों को लेकर कहीं भी लापरवाह नजर नहीं आती। वह रो से कहती है-‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण होपर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं।’’ वह रो से रुकावटें न डालने का वादा लेकर उससे विवाह कर लेती है। रो के माता-पिता की नजर में भी वह व्यवहार कुशल और प्रियदर्शिनी है। तिश को आरम्भ से ही व्यस्त जीवन पसन्द है। वह एक पल भी शान्त नहीं बैठना चाहती। व्यस्त रहते हुए भी घर और परिवार को व्यवस्थित रखती है। उसके चरित्र का सबसे उन्नत पहलू वहाँ सामने आता हैजब वह रो के एक्सिडेंट में घायल होने पर सिंगापुर की अपनी महत्वपूर्ण मीटिंग कैंसिल कर देती है और रो के माता-पिता को बिना किसी तकलीफ के मुंबई बुलाने का प्रबन्ध करती है। यहाँ वह साबित कर देती कि व्यवसाय उसके लिए महत्वपूर्ण होते हुए भी पारिवारिक रिश्तों की अहमियत उसके जीवन में कम नहीं है। वह अपने जीवन साथी के लिए उसकी मुश्किलों में उसके साथ खड़ी है। वह अपने कार्य और पारिवारिक जीवन में संतुलन रखने वाली संवेदनशील और सक्षम स्त्री है। 

         रो विदेश में पला-बढ़ा एक संतुलित जीवन जीने वाला युवक है। वह अपनी पढ़ाई को लेकर गम्भीर है। साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारी को समझने वाला है। पिता के खराब स्वास्थ्य के कारण उसे पढ़ाई के साथ ही दुकान पर भी बैठना पड़ता है। वह मास्टर डिग्री और पीएचडी करने के बाद अध्यापन करता है। इसके साथ ही वह भावनात्मक है। वह छात्र जीवन से ही तिश से प्रेम करता है किन्तु अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण बता नहीं पाता। आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने पर वह तिश के साथ के लिए ही क्वींस कॉलेज छोड़कर मुंबई चला जाता है और तिश की हर शर्त को मानते हुए उससे विवाह करता है। किन्तु उसके भीतर कुछ कमजोरियाँ हैं। तिश की व्यस्तता उसे परेशान करती है। वह खिन्न रहता है और स्वयं को छला हुआ महसूस करता है। इतना ही नहीं वह क्रोधी भी है। तिश के व्यवहार से वह अपमानित महसूस करता है और आत्मघाती कदम उठाता है। तिश का गुस्सा गाड़ी के एक्सिलेटर पर निकालता है। फलस्वरूप् दुर्घटना का शिकार होता है। किन्तु दुर्घटना के पश्चात वह पाश्चाताप करता है। रो का व्यक्तित्व से उस समय पुरूष मानसिकता की गंध आती हैजब तिश अपने क्लाइंट के साथ दिल्ली चली जाती है। तिश रो को ‘लेड बैक’ कहती हैजो दस वर्ष पूर्व जहाँ खड़ा थावहीं आज भी है।

       तिश के अलावा कहानी के पात्रों में रो के माता-पितारो का मित्र मनीषशान्ताबाईनईम आदि हैं। रो के माता-पिता शोभना और अभय भारतीय हैंजो अच्छे भविष्य के लिए लंदन में रहते हैं। रिटायर होने के बाद वे फार्मेसी की दुकान चलाते हैं। रो के माता-पिता लंदन के स्व़च्छन्द वातावरण में रहते हुए भी रूढ़ियों और परम्पराओं से बँधे हैं। वे अपने बेटे रो का पारिवारिक जीवन सुखी देखने की मंशा रखने वाले माता-पिता हैं। वे पूर्वाग्रह से मुक्त हैं। तिश को लेकर जो उनके मन मे पूर्व धारणा बनी हैवह तिश की व्यवहार कुशलता को देखकर बदल जाती है। मनीष भारतीय मूल का युवक है। वह अपने परिवार की जिम्मेदारी को उठाने के लिए पढ़ाई के साथ ही पेट्रोल-पम्प पर कार्य भी करता है। वह अपने मित्र के प्रेम को पुख्ता करने की कोशिश करता दिखाई देता हैजैसा कि सभी मित्र होते हैं। शान्ताबाई एक सुरुचिपूर्णकुशलप्रशिक्षितहाउसकीपर हैजो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझती है। नईम तिश का ड्राइवर और मैसेन्जर है। शान्ताबाई और नईम दोनों भरोसेमन्द और जिम्मेदार हैंजिनके ऊपर जिम्मेदारियाँ डालकर निश्चिन्त हुआ जा सकता है।

            उषा राजे सक्सेना संवादों के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाती हैं। कहानी के कथानक के अनुसार लम्बे और छोटे दोनों प्रकार के संवादों की रचना उन्होंने ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में की है। संवाद के माध्यम से तिशरोउसके माता-पिता और मनीष की जीवन स्थितियाँउनकी मनोदशाभविष्य को लेकर उनके विचार उजागर होते हैं। एक संवाद देखिए-

  रो ने तिश का मन टटोला तो जिश चकित-सी बोली- ‘‘रो हम दोस्त हैं। एक दूसरे के लिए प्रतिबद्ध होते हुए भी स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। शादी के बारे में मैंने कभीं सोचा ही नहीं।

   ‘‘ममा पापा शादी के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे हैं। ज्यादा दिन उनको टालना मुश्किल होगातिश।’’

    ‘‘रो हम दोस्त हैं और दोस्त ही रहेंगे। शादी हमारे संबंधों को संकुचित करेगी। वे तुम्हारे ममा पापा हैं। उन्हें हैंडल करना तुम्हारा काम है।’’

  आगे कुछ सोचकर उसने कहा, ‘‘मेरे कैरियर का मेरे जीवन में अहम स्थान है रो। मैं घर की जिम्मेदारियाँ नहीं उठा सकती हूँ। शादी के बाद तुम्हारी अपेक्षाएँ मुझसे बहुत बढ़ जायेंगीं। तुम जानते होमेरा कैरियरमेरा व्यवसाय मेरे लिए महत्वपूर्ण है।’’

  ‘‘और मैंतुम्हारी जिन्दगी में क्या स्थान रखता हूँ तिश।’’ रो ने ठंडी सांस लेते हुए पूछा।

   ‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण हो। पर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं। तुम अभी जैसे होनिश्चिन्त , केयर फ्री स्वभाव केमुझे वैसे ही अच्छे लगते हो। शादी के बाद तुम मेरी चिंता करने का रोल ले लोगेयह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।’’ उसने उसे बाहों में भर कर एक चुलबुलाता हुआ लम्बा चुंबन देते हुए कहा।

    ‘‘सच ?’’

   ‘‘हाँसच।’’ उसने ईमानदारी से कहा।

               यह संवाद रो और तिश के प्रेम को उजागर करने के साथ ही तिश के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को उजागर करती है। इस संवाद के माध्यम से तिश एक सशक्त और संभावनाओं से भरी हुई आधुनिक युवती के रूप में सामने आती है। पूरी कहानी इस तरह के संवादों से भरी है। संवाद विषय के अनुरूप कहानी को आगे बढ़ाने वाले हैं।

        विदेशी पृष्ठभूमि पर रची गयी ‘ऑन्टोप्रेन्योर की कहानी साउथ लंदन के स्ट्रेथम से होते हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ ही क्वींस कॉलेज और नॉर्थ लंदन तक घूमती है। कहानी में रो और तिश की बात-चीत में यूनाइटेड किंगडम के स्वच्छन्द परिवेश की झलक मिलती है। साथ ही यूनाइटेड किंगडम की वेलफेयर एस्टेट की सुख-सुविधाओं का भी जिक्र हुआ हैजो बृद्धजनों को जीने का सहारा देती है। कहानी का अन्त भारत में हुआ है। भारत को एक उभरते हुए राष्ट्र के रूप में चित्रित किया गया हैजिसमें भविष्य की अपार संभावनाएँ छिपी हैं। कहानी किशोरों और युवाओं के मनोभावों को व्यक्त करती है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी का शीर्षक ही अंग्रेजी भाषा का है। पूरी कहानी में हिन्दी और अंग्रेजी के मिले-जुले शब्दों का प्रयोग करके भाषा को बोलचाल की भाषा बनाया गया है। भाषा विषयानुकूल है। किशोरों और युवाओं के आपसी संवाद में जिस तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग बढ़ा हैउषा राजे ने भाषा भी उसी के अनुकूल रखी है। ‘नितम्ब’ के लिए ‘बम’ जैसे शब्दों का प्रयोग किशोर मानसिकता का ही परिचायक है। लंदन के परिवेश पर आधारित कहानी में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग अधिक होयह स्वाभाविक ही है। कोई भी वाक्य बिना अंग्रेजी शब्दों के पूरा नहीं हुआ है। कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा वाक्य ही अंग्रेजी का है। कहानीकार ने नितम्ब के लिए ‘पिछवाड़ा’ और ‘चूतड़’ जैसे भदेस शब्दों का भी प्रयोग किया है। उषा राजे ने कहानी में वर्णनात्मक और संवादात्मक दोनों शैलियो का कुशल निर्वाह किया है। संवादों की अधिकता कहानी को कहीं भी उबाऊ नहीं होने देती।

        ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी को उषा राजे ने एक सार्थक दिशा देते हुए अपने उद्देश्य तक पहुँचाया है। तिश के माध्यम से उन्होंने एक सशक्त स्त्री चरित्र को रचा हैजो स्त्री-विमर्श को नया आयाम देती है। स्त्री-विमर्श में जहाँ इस बात की चर्चा होती रहती है  कि स्त्री को कितनी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता लेनी चाहिएउसकी कार्य-शैलीपहनावा कैसा होना चाहिएउसकी सेक्स लाइफ कैसी होनी चाहिएउषा राजे तिश के माध्यम से स्त्री की एक नई छवि पेश करती हैं। तिश एक ऐसी उद्यमी है जो अपने रिश्तों को लेकर भी प्रतिबद्ध है। वह घर से लेकर बाहर तक सबकुछ व्यवस्थित रखती है। वह ट्रेडिशनल पत्नी नहीं बनना चाहतीपारिवारिक बन्धनों में नहीं बँधना चाहती किन्तु शारीरिक सम्बन्धों को लेकर स्वच्छन्दता भी नहीं चाहती। वह जहाँ बिना बताये दिन्ली चली जाती हैवहीं रो का एक्सिडेंट होने पर सिंगापुर की महत्वपूर्ण यात्रा भी स्थगित कर देती है। तिश के रूप में उषा राजे वर्तमान के अन्ध आधुनिकतावादी दौर में संवेदनशील और सक्षम स्त्री का चरित्र रचती हैंजो एक व्यवहार-कुशल ऑन्टोप्रेन्योर है। यह आधुनिक स्त्री का आदर्श स्वरूप हो सकता है।

       भौतिकतावादी दौर में जहाँ भारत का युवा वर्ग विेदेश जाने के सपने देखता हैउषा राजे तिश और रो की भारत वापसी दिखाकर भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में चित्रित करती हैंजिसमें अपार संभावनाएँ निहित हैं। तिश कहती है-‘‘इंडिया आज संभावनाओं से भरा एक ऐसा शक्तिशाली देश बनकर उभरा है कि सारा संसार उसकी तरफ नजरें उठाए देख रहा है। पश्चिम का ब्रेन ड्रेन भारत का ब्रेन गेन है।’’ यह कथन भारत की आर्थिक शक्ति को प्रमाणित करता है। कहानी में पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की ओर आकर्षित हो रही युवा पीढ़़ी के लिए यह संदेश है कि भारत भी अपनी संस्कृति और नयी सोच एवं आर्थिक गतिविधियों से विदेश में निवास करने वालों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देश भी भारत में आउट सोर्सिंग कर रहे हैंइंवेस्टमेंट कर रहे हैं। कहानी में भारतीय युवाओं के लिए जो सबसे बड़ा संदेश छिपा हैवह है- रो और तिश का पढ़ाई के प्रति समर्पण। दोनों अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इतना ही नहीं व्यक्तित्व के निखार के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ करते हैं। तिश की जीवन शैली अनुकरणीय हो सकती है। वह सबके बीच संतुलन बनाते हुए अपने आप को व्यस्त रखती है। रो के मन में जो खिन्नता हैउसका कारण यही है कि वह खाली है। नौकरी के अलावा उसने दूसरी रुचि नहीं विकसित की है। यदि हम अपने को व्यस्त रखते हैं तो अनावश्यक तनाव और खिन्नता से अपने आप को बचा सकते हैं और आज के तनाव भरे माहौल में भी स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। हमें अपनी खुशी के लिए दूसरे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं होगी। इतना ही नहींकहानी घर वापसी का स्वप्न देख रहे भारतीय मूल के निवासियों के मन में भी आशा पल्लवित करती है।

डॉ कुलभूषण मौर्य

(मूलतः आजमगढ़ के निवासी डॉ कुलभूषण मौर्य युवा आलोचक और प्रतिभावान प्राध्यापक हैं। वह वर्तमान में  के० बी० झा महाविद्यालय, कटिहार में सहायक प्राध्यापक हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ मौर्य की एक पुस्तक "भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और अमरकांत" नाम से प्रकाशित हो चुकी है। कुलभूषण मौर्य समसामयिक विषयों और आधुनिककालीन साहित्यिक विमर्शों पर लगातार लिखते रहते हैं। उनका संपर्क- मो. नं. 8004802485 है।

#कथावार्ता #Kathavarta1 पर उनका पहला लेख। इस लेख में उन्होंने उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर पर आधुनिक स्त्री विमर्श और वृत्ति के आलोक में देखने का प्रयास किया है। यह कहानी प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी है, यह आलेख विद्यार्थियों के लिए आवश्यक सामग्री बनेगी, यह विश्वास है। 

ऑन्टोप्रेन्योर: उषा राजे सक्सेना की कहानी यहाँ क्लिक करके पढ़ी जा सकती है - सम्पादक।)

मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

मुल्ला नसीरुद्दीन की दो कहानियाँ

१.

 

मुल्ला भीख मांगने गया। एक सम्पन्न घर देखकर उसने गुहार लगाई। घर में बहू थी। उसने मुल्ला को भीख देने से इन्कार कर दिया और भगा दिया। मुल्ला निराश होकर अपना मुँह और झोला लटकाए चल पड़ाकुछ दूर जाकर ही उस घर की मालकिन, सास आते हुए दिखी। उसने पूछा- क्या हुआ मुल्ला? 

मुल्ला बोला- तुम्हारी बहू ने भीख भी नहीं दी। 

सास ने कहा- अच्छा! उसकी यह मजाल। घर चलो। 

मुल्ला लौटा। घर आकर सास ने कुर्सी निकाली। कुछ पल बैठी रही। फिर दरवाजे पर जाकर मुल्ला से कहा- जाओ, भीख नहीं मिलेगी? मेरे रहते बहू कौन होती है मना करने वाली।

 

२.

 

मुल्ला एकबार अपने दोस्त के घर गया। दोस्त ने उसे शराब परोसी। मुल्ला ने कहा कि मैं शराब नहीं पीऊँगा। 

एक तो मैं मुसलमान हूँ और हमलोगों में शराब हराम है।

दूसरी बात, मैंने अपनी मरती बीवी को वादा किया था कि कभी शराब को हाथ भी नहीं लगाऊंगा।

और तीसरी बात यह कि मैं घर से पीकर आया हूँ

 

-कथावार्ता की प्रस्तुति!


(मुल्ला नसीरुद्दीन, mulla nasiruddin, kathavarta, kathavarta1, डॉ रमाकान्त राय,  ramakant roy)

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

कथावार्ता : काशीनाथ सिंह की कहानी ‘सुख’



काशीनाथ सिंह (जन्म 01 जनवरी1937) साठोत्तरी कहानी के प्रमुख लेखकजाने माने उपन्यासकारसंस्मरण लेखक हैं। उनके उपन्यास रेहन पर रग्घू’ (2011) पर उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। अपना मोर्चा’, ‘महुआ चरित’, ‘उपसंहार’ और काशी का अस्सी’ उनकी चर्चित औपन्यासिक कृतियाँ हैं। याद हो के न याद हो’ और घर का जोगी जोगड़ा’ शीर्षक से उनके संस्मरण बहुत सराहे गए हैं। उनकी एक ख्याति नामवर सिंह के अनुज के रूप में भी है।


काशीनाथ सिंह की कहानी ‘सुख’ न समझे जाने की पीड़ा को बहुत कलात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। तार बाबू के पद से हालिया अवकाशप्राप्त भोला बाबू को एक शाम प्राकृतिक सुषमा का दर्शन होता है और वह सबको इस अपरूप सौन्दर्य से परिचित करा देना चाहते हैं। हर संवाद में वह अस्त होते हुए सूर्य की सुन्दरता का साक्षात कराने के लिए अवसर खोजते हैं। निराश होते हैं और झल्लाते हैं। न समझा पाने की पीड़ा उनको अकेला कर जाती है। बहुत अकेला।

          कथा-वार्ता के लिए इस कहानी का वाचन किया है- डॉ रमाकान्त राय ने। वीडियो का सम्पादन और संयोजन भी डॉ राय का है।

          देखने / सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें।

 काशीनाथ सिंह की कहानी सुख

सोमवार, 28 सितंबर 2020

कथावार्ता : पंचलाइट : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी


पंचलाइट ग्रामीण जीवन की सामाजिकता का अद्भुत आख्यान है। इस कहानी में पंचलाइट प्रतीक है। गाँव में रोशनी आएगी लेकिन उसके आने और प्रज्ज्वलित होने में कई बाधाएँ हैं। जब सबका सहयोग होता है, सामुदायिकता प्रबल होती है, तो वह जगमगाने लगता है।

  जनवरी, 1958 में कलकत्ता की पत्रिका 'सुप्रभात' में सबसे पहले प्रकाशित। ठुमरी में संकलित 



       पंचलाइट : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी


सुनिए/देखियेपंचलाइट : फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- वाचन स्वर डॉ रमाकान्त राय का है। 

शनिवार, 26 सितंबर 2020

कथावार्ता : रसप्रिया: फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी

धूल में पड़े क़ीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई-अपरूप-रूप!

चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुंह से निकल पड़ा अपरूप-रूप!... खेतों, मैदानों, बाग़-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता!

मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आंखें सजल हो गईं।

मोहना ने मुस्कराकर पूछा,‘तुम्हारी उंगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हुई है, है न?’

ऐं!बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, रसपिरिया?... हाँनहीं। तुमने कैसे तुमने कहाँ सुना बे।।।?’

बेटाकहते-कहते वह रुक गया... परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से बेटाकह दिया था। सारे गांव के लड़कों ने उसे घेरकर मारपीट की तैयारी की थी-बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर! मृदंग फोड़ दो।

          मिरदंगिया ने हँसकर कहा था-अच्छा, इस बार माफ़ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूंगा। बच्चे ख़ुश हो गए थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्डी पकड़कर वह बोला था,‘क्यों, ठीक है न बापजी?’

          बच्चे ठठाकर हँस पड़े थे।

          लेकिन, इस घटना के बाद फिर कभी उसने किसी बच्चे को बेटा कहने की हिम्मत नहीं की थी। मोहना को देखकर बार-बार बेटा कहने की इच्छा होती है।

          रसपिरिया की बात किसने बताई तुमसे ? ... बोलो बेटा!

          दस-बारह साल का मोहना भी जानता है, पंचकौड़ी अधपगला है... कौन इससे पार पाए! उसने दूर मैदान में चरते हुए अपने बैलों की ओर देखा।


          मिरदंगिया कमलपुर के बाबू लोगों के यहाँ जा रहा था। कमलपुर के नन्दू बाबू के घराने में अब भी मिरदंगिया को चार मीठी बातें सुनने का मिल जाती हैं। एक-दो जून भोजन तो बंधा हुआ है ही; कभी-कभी रस-चरचा भी यहीं आकर सुनता है वह। दो साल के बाद वह इस इलाक़े में आया है। दुनिया बहुत जल्दी-जल्दी बदल रही है। ... आज सुबह शोभा मिसर के छोटे लड़के ने तो साफ़-साफ़ कह दिया,‘तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया?’

          हाँ, यह जीना भी कोई जीना है? निर्लज्जता है; और थेथरई की भी सीमा होती है... पन्द्रह साल से वह गले में मृदंग लटकाकर गांव-गांव घूमता है, भीख माँगता है। दाहिने हाथ की टेढ़ी उंगली मृदंग पर बैठती ही नहीं है, मृदंग क्या बजाएगा! अब तो, ‘धा तिंग धा तिंगभी बड़ी मुश्क़िल से बजाता है।

          अतिरिक्त गांजा-भांग सेवन से गले की आवाज़ विकृत हो गई है। किन्तु मृदंग बजाते समय विद्यापति की पदावली गाने की वह चेष्टा अवश्य करेगा। फूटी भाथी से जैसी आवाज़ निकलती है, वैसी ही आवाज़सों-य सों-य!

          पन्द्रह-बीस साल पहले तक विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी-ब्याह, यज्ञ-उपनैन, मुण्डन-छेदन आदि शुभ कार्यों में विदपतिया मण्डली की बुलाहट होती थी। पंचकौड़ी मिरदंगिया की मण्डली ने सहरसा और पूर्णिया ज़िले में काफ़ी यश कमाया है। पंचकौड़ी मिरदंगिया को कौन नहीं जानता! सभी जानते हैं, वह अधपगला है!... गांव के बड़े-बूढ़े कहते हैं,‘अरे, पंचकौड़ी मिरदंगिया का भी एक ज़माना था!

          इस ज़माने में मोहना जैसा लड़का भी है-सुंदर, सलोना और सुरीला! रसप्रिया गाने का आग्रह करता है,‘एक रसपिरिया गाओ न मिरदंगिया!

          रसपिरिया सुनोगे? अच्छा सुनाऊंगा। पहले बताओ, किसने...

          हे-ए-ए हे-ए... मोहना, बैल भागे... !एक चरवाहा चिल्लाया, रे मोहना, पीठ की चमड़ी उधेड़ेगा करमू!

          अरे बाप! मोहना भागा। कल ही करमू ने उसे बुरी तरह पीटा है। दोनों बैलों को हरे-हरे पाट के पौधों की महक खींच ले जाती है बार-बार... खटमिट्ठा पाट!

          पंचकौड़ी ने पुकारकर कहा,‘मैं यहीं पेड़ की छाया में बैठता हूं। तुम बैल हाँककर लौटो। रसपिरिया नहीं सुनोगे?’

          मोहना जा रहा था। उसने पलटकर देखा भी नहीं।

         

          रसप्रिया!

          विदापत नाच वाले रसप्रिया गाते थे। सहरसा के जोगेन्दर झा ने एक बार विद्यापति के बारह पदों की एक पुस्तिका छपाई थी। मेले में ख़ूब बिक्री हुई थी रसप्रिया पोथी की। विदापत नाच वालों ने गा-गाकर जनप्रिया बना दिया था रसप्रिया को।

          खेत के आलपर झरजामुन की छाया में पंचकौड़ी मिरदंगिया बैठा हुआ है; मोहना की राह देख रहा है। ... जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। ... कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है! पांच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलारस बाकी था। ... पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे-भरे पौधों से एक ख़ास किस्म की गन्ध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी-रस की डाली। वे गाने लगते थे बिरहा, चांचर, लगनी। खेतों में काम करते हुए गाने वाले गीत भी समय-असमय का ख़याल करके गाए जाते हैं। रिमझिम वर्षा में बारहमासा, चिलचिलाती धूप में बिरहा, चांचर और लगनी:

 

          हाँ...  रे, हल जोते हलवाहा भैया रे...

          खुरपी रे चलावे... म-ज-दू-र!

          एहि पंथे, धानी मोरा हे रूसलि।...

 

          खेतों में काम करते हलवाहों और मज़दूरों से कोई बिरही पूछ रहा है, कातर स्वर में-उसकी रूठी हुई धनी को इस राह से जाते देखा है किसी ने?

          अब तो दोपहरी नीरस ही कटती है, मानो किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है। आसमान में चक्कर काटते हुए चील ने टिंहकारी भरी-टिं... ई... टिं-हि-क!

          मिरदंगिया ने गाली दी-शैतान!

          उसको छेड़कर मोहना दूर भाग गया है। वह आतुर होकर प्रतीक्षा कर रहा है। जी करता है, दौड़कर उसके पास चला जाए। दूर चरते हुए मवेशियों के झुंडों की ओर बार-बार वह बेकार देखने की चेष्टा करता है। सब धुंधला!

          उसने अपनी झोली टटोलकर देखा-आम हैं, मूढ़ी है। उसे भूख लगी।

          मोहना के सूखे मुंह की याद आई और भूख मिट गई।

          मोहना जैसे सुंदर, सुशील लड़कों की खोज में ही उसकी ज़िंदगी के अधिकांश दिन बीते हैं। बिदापत नाच में नाचने वाले नटुआका अनुसन्धान खेल नहीं। सवर्णों के घर में नहीं, छोटी जाति के लोगों के यहाँ मोहना जैसे लड़की-मुंहा लड़के हमेशा पैदा नहीं होते। ये अवतार लेते हैं समय-समय पर जदा जदा हि

          मैथिल ब्राह्मण, कायस्थों और राजपूतों के यहाँ विदापत वालों की बड़ी इज़्ज़त होती थी। अपनी बोली मिथिलाम में नटुआ के मुंह से जनम अवधि हम रूप निहारलसुनकर वे निहाल हो जाते थे। इसलिए हर मण्डली का मूलगैन नटुआ की खोज में गांव-गांव भटकता फिरता था-ऐसा लड़का, जिसे सजा-धजाकर नाच में उतारते ही दर्शकों में एक फुसफुसाहट फैल जाए।

          ठीक ब्राह्मणी की तरह लगता है। है न?’

          मधुकान्त ठाकुर की बेटी की तरह।

          न:! छोटी चम्पा जैसी सूरत है!

          पंचकौड़ी गुनी आदमी है। दूसरी-दूसरी मण्डली में मूलगैन और मिरदंगिया की अपनी-अपनी जगह होती। पंचकौड़ी मूलगैन भी था और मिरदंगिया भी। गले में मृदंग लटकाकर बजाते हुए वह गाता था, नाचता था। एक सप्ताह में ही नया लड़का भांवरी देकर परवेश में उतरने योग्य नाच सीख लेता था।

          नाच और गाना सिखाने में कभी उसे कठिनाई नहीं हुई; मृदंग के स्पष्ट बोलपर लड़कों के पांव स्वयं ही थिरकने लगते थे। लड़कों के ज़िद्दी माँ-बाप से निबटना मुश्किल व्यापार होता था। विशुद्ध मैथिल में और भी शहद लपेटकर वह फुसलाता।

          किसन कन्हैया भी नाचते थे। नाच तो एक गुण हैअरे, जाचक कहो या दसदुआरी। चोरी, डकैती और आवारागर्दी से अच्छा है अपना-अपना गुनदिखाकर लोगों को रिझाकर गुजारा करना।

          एक बार उसे लड़के की चोरी भी करनी पड़ी थी। बहुत पुरानी बात है। इतनी मार लगी थी कि बहुत पुरानी बात है।

          पुरानी ही सही, बात तो ठीक है।

          रसपिरीया बजाते समय तुम्हारी उंगली टेढ़ी हुई थी। ठीक है न?’ मोहना न जाने कब लौट आया।

          मिरदंगिया के चेहरे पर चमक लौट आई। वह मोहना की ओर एक टकटकी लगाकर देखने लगा। यह गुणवान मर रहा है। धीरे-धीरे, तिल-तिलकर वह खो रहा है। लाल-लाल ओठों पर बीड़ी की कालिख लग गई है। पेट में तिल्ली है ज़रूर!

          मिरदंगिया वैद्य भी है। एक झुंड बच्चों का बाप धीरे-धीरे एक पारिवारिक डॉक्टर की योग्यता हासिल कर लेता है। उत्सवों के बासी-टटका भोज्यान्नों की प्रतिक्रिया कभी-कभी बहुत बुरी होती। मिरदंगिया अपने साथ नमक-सुलेमानी, चानमार-पाचन और कुनैन की गोली हमेशा रखता था। लड़कों को सदा गरम पानी के साथ हल्दी की बुकनी खिलाता। पीपल, काली मिर्च, अदरक वगैरह को घी में भूनकर शहद के साथ सुबह-शाम चटाता। 

          ...  गरम पानी!

          पोटली से मूढ़ी और आम निकालते हुए मिरदंगिया बोला,‘हाँ, गरम पानी! तेरी तिल्ली बढ़ गई है। गरम पानी पिओ!

          यह तुमने कैसे जान लिया? फारबिसगंज के डाकडर बाबू भी कह रहे थे तिल्ली बढ़ गई है। दवा...

          आगे कहने की ज़रूरत नहीं। मिरदंगिया जानता है, मोहना जैसे लड़कों के पेट की तिल्ली चिता पर ही गलती है! क्या होगा पूछकर, कि दवा क्यों नहीं करवाते!

          माँ भी कहती है, हल्दी की बुकनी के साथ रोज़ गरम पानी। तिल्ली गल जाएगी।

          मिरदंगिया ने मुस्कराकर कहा,‘बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ!केले के सूखे पत्तल पर मूढ़ी और आम रखकर उसने बड़े प्यार से कहा,‘आओ, एक मुट्ठी खा लो।

          नहीं, मुझे भूख नहीं।

          किन्तु मोहना की आँखों से रह-रहकर कोई झांकता था, मूढ़ी और आम को एक साथ निगल जाना चाहता थाभूखा, बीमार भगवान्। आओ, खा लो बेटा! ... रसपिरिया नहीं सुनोगे?’

          माँ के सिवा, आज तक किसी अन्य व्यक्ति ने मोहना को इस तरह प्यार से कभी परोसे भोजन पर नहीं बुलाया।...  लेकिन, दूसरे चरवाहे देख लें तो माँ से कह देंगे। ... भीख का अन्न!

          नहीं, मुझे भूख नहीं।

          मिरदंगिया अप्रतिभ हो जाता है। उसकी आंखें फिर सजल हो जाती है। मिरदंगिया ने मोहना जैसे दर्जनों सुकुमार बालकों की सेवा की है। अपने बच्चों को भी शायद वह इतना प्यार नहीं दे सकता। ... और अपना बच्चा! हूं! ...  अपना-पराया? अब तो सब अपने, सब पराए...

          मोहन!

          कोई देख लेगा तो?’

          तो क्या होगा?’

          माँ से कह देगा। तुम भीख माँगते हो न?’

          कौन भीख माँगता है?’ मिरदंगिया के आत्म-सम्मान को इस भोले लड़के ने बेवजह ठेस लगा दी। उसके मन की झांपी में कुण्डलीकार सोया हुआ सांप फन फैलाकर फुफकार उठा,‘ए-स्साला! मारेंगे वह तमाचा कि...’ 

          ऐ! गाली क्यों देते हो!मोहना ने डरते-डरते प्रतिवाद किया।

          वह उठ खड़ा हुआ, पागलों का क्या विश्वास?

          आसमान में उड़ती हुई चील ने फिर टिंहकारी भरी-टिं-हीं... ई...  टिं टिं-ग!

          मोहना! मिरदंगिया की आवाज़ गम्भीर हो गई।

          मोहना ज़रा दूर जाकर खड़ा हो गया।

          किसने कहा तुमसे कि मैं भीख माँगता हूं? मिरदंग बजाकर पदावली गाकर, लोगों को रिझाकर पेट पालता हूं...  तुम ठीक कहते हो, भीख का ही अन्न है यह। भीख का ही फल है यह।...  मैं नहीं दूंगा। ...  तुम बैठो, मैं रसपिरिया सुना दूं।

          मिरदंगिया का चेहरा धीरे-धीरे विकृत हो रहा है। ... आसमान में उड़ने वाली चील अब पेड़ की डाली पर आ बैठी है! टिं-टिं-हिं टिंटिक!

          मोहना डर गया। एक डग, दो डग।...  दे दौड़। वह भागा।

          एक बीघा दूर जाकर उसने चिल्लाकर कहा,‘डायन ने बान मारकर तुम्हारी उंगली टेढ़ी कर दी है। झूठ क्यों कहते हो कि रसपिरिया बजाते समय।।।

          ऐ! कौन है यह लड़का? कौन है यह मोहना?... रमपतिया भी कहती थी, डायन ने बान मार दिया है!

          मोहना!

          मोहना ने जाते-जाते चिल्लाकर कहा, करैला!’ 

          अच्छा, तो मोहना यह भी जानता है कि मिरदंगिया करैला कहने से चिढ़ता है! कौन है यह मोहना?

          मिरदंगिया आतंकित हो गया। उसके मन में एक अज्ञात भय समा गया। वह थर-थर कांपने लगा। कमलपुर के बाबुओं के यहाँ जाने का उत्साह भी नहीं रहा। सुबह शोभा मिसर के लड़के ने ठीक ही कहा था। उसकी आँखों से आंसू झरने लगे।

 

 

          जाते-जाते मोहना डंक मार गया। उसके अधिकांश शिष्यों ने ऐसा ही व्यवहार किया है उसके साथ। नाच सीखकर फुर्र से उड़ जाने का बहाना खोजने वाले एक-एक लड़के की बातें उसे याद है।

          सोनमा ने तो गाली ही दी थी,‘गुरुगिरी करता है, चोट्टा!

          रसपतिया आकाश की ओर हाथ उठाकर बोली थी,‘हे दिनकर! साच्छी रहना। मिरदंगिया ने फुसलाकर मेरा सर्वनाश किया है। मेरे मन में कभी चोर नहीं था। हे सुरुज भगवान् इस दसदुआरी कुत्ते का अंग-अंग फूटकर...मिरदंगिया ने अपनी टेढ़ी उंगली को हिलाते हुए एक लम्बी सांस ली।

          रमपतिया? जोधन गुरुजी की बेटी रमपतिया! जिस दिन वह पहले-पहल जोधन की मण्डली में शामिल हुआ था- रमपतिया बारहवें में पांव रख रही थी। बाल-विधवा रमपतिया पदों का अर्थ समझने लगी थी। काम करते-करते वह गुनगुनाती- नवअनुरागिनी राधा, किछु नंहि मानय बाधा...  मिरदंगिया मूलगैनी सीखने गया था और गुरुजी ने उसे मृदंग धरा दिया थाआठ वर्ष तक तालीम पाने के बाद जब गुरुजी ने स्वजात पंचकौड़ी से रमपतिया के चुमौना की बात चलाई तो मिरदंगिया सभी ताल-मात्रा भूल गया। जोधन गुरुजी से उसने अपनी जात छिपा रखी थी। रमपतिया से उसने झूठा परेम किया था।

          गुरुजी की मण्डली छोड़कर वह रातों-रात भाग गया। उसने गांव आकर अपनी मण्डली बनाई, लड़कों को सिखाया-पढ़ाया और कमाने-खाने लगा। लेकिन, वह मूलगैन नहीं हो सका कभी। मिरदंगिया ही रहा सब दिन। जोधन गुरुजी की मृत्यु के बाद, एक बार गुलाब-बाग मेले में रमपतिया से उसकी भेंट हुई थी।

          रमपतिया उसी से मिलने आई थी। पंचकौड़ी ने साफ़ जवाब दे दिया था,‘क्या झूठ-फरेब जोड़ने आई है? कमलपुर के नन्दूबाबू के पास क्यों नहीं जाती, मुझे उल्लू बनाने आई है। नन्दूबाबू का घोड़ा बारह बजे रात को…’

 

 

          चीख उठी थी रमपतिया,‘पांचू!।।। चुप रहो!

          उसी रात रसपिरिया बजाते समय उसकी उंगली टेढ़ी हो गई थी। मृदंग पर जमनिका देकर वह परबेस का ताल बजाने लगा। नटुआ ने डेढ़ मात्रा बेताल होकर प्रवेश किया तो उसका माथा ठनका। परबेस के बाद उसने नटुआ को झिड़की दी,‘एस्साला! थप्पड़ों से गाल लाल कर दूंगा।... और रसपिरिया की पहली कड़ी ही टूट गई। मिरदंगिया ने ताल को सम्हालने की बहुत चेष्टा की।

          मृदंग की सूखी चमड़ी जी उठी, दहिने पूरे पर लावा-फरही फूटने लगे और ताल कटते-कटते उसकी उंगली टेढ़ी हो गई। झूठी टेढ़ी उंगली! ...  हमेशा के लिए पंचकौड़ी की मण्डली टूट गई। धीरे-धीरे इलाके से विद्यापति नाच ही उठ गया। अब तो कोई विद्यापति की चर्चा भी नहीं करते हैं। ... धूप-पानी से परे, पंचकौड़ी का शरीर ठण्डी महफ़िलों में ही पनपा था। ... बेकार ज़िंदगी में मृदंग ने बड़ा काम दिया। बेकारी का एकमात्र सहारा-मृदंग!

          एक युग से वह गले में मृदंग लटकाकर भीख माँग रहा है- धा तिंग, धा तिंग!

          वह एक आम उठाकर चूसने लगा-लेकिन, लेकिन, ... लेकिन...  मोहना को डायन की बात कैसे मालूम हुई?

          उंगली टेढ़ी होने की ख़बर सुनकर रमपतिया दौड़ी आई थी, घण्टों उंगली को पकड़कर रोती रही थी- हे दिनकर, किसने इतनी बड़ी दुश्मनी की? उसका बुरा हो। ...  मेरी बात लौटा दो भगवान्! ग़ुस्से में कही हुई बातें। नहीं, नहीं। पांचू मैंने कुछ भी नहीं किया है। ज़रूर किसी डायन ने बान मार दिया है।

          मिरदंगिया ने आंखें पोंछते हुए ढलते हुए सूरज की ओर देखा...  इस मृदंग को कलेजे से सटाकर रमपतिया ने कितनी रातें काटी हैं! मिरदंग को उसने छाती से लगा लिया।

          पेड़ की डाली पर बैठी हुई चील ने उड़ते हुए जोड़े से कुछ कहा-टिं-टिं-हिंक्!

          एस्साला!उसने चील को गाली दी। तम्बाकू चुनियाकर मुंह में डाल ली और मृदंग के पूरे पर उंगलियां नचाने लगा- धिरिनागि, धिरिनागि, धिरिनागि-धिनता!

          पूरी जमनिका वह नहीं बजा सका। बीच में ही ताल टूट गया।

          अ्-कि-हे-ए-ए-ए-हा-आआ-ह-हा!

          सामने झरबेरी के जंगल के उस पार किसी ने सुरीली आवाज़ में, बड़े समारोह के साथ रसप्रिया की पदावली उठाई,‘न-व-वृन्दा-वन, न-व-न-व-तरु ग-न, न-व-नव विकसित फूल...

          मिरदंगिया के सारे शरीर में एक लहर दौड़ गई। उसकी उंगलियां स्वयं की मृदंग के पूरे पर थिरकने लगीं। गाय-बैलों के झुण्ड दोपहर की उतरती छाया में आकर जमा होने लगे।

          खेतों में काम करने वालों ने कहा,‘पागल है। जहाँ जी चाहा, बैठकर बजाने लगता है।

          बहुत दिन के बाद लौटा है।

          हम तो समझते थे कि कहीं मर-खप गया।

          रसप्रिया की सुरीली रागिनी ताल पर आकर कट गई। मिरदंगिया का पागलपन अचानक बढ़ गया। वह उठकर दौड़ा। झरबेरी की झाड़ी के उस पार कौन है? कौन है यह शुद्ध रसप्रिया गाने वाला? ... इस ज़माने में रसप्रिया का रसिक? झाड़ी में छिपकर मिरदंगिया ने देखा, मोहना तन्मय होकर दूसरे पद की तैयारी कर रहा है। गुनगुनाहट बन्द करके उसके गले को साफ़ किया।

          मोहना के गले में राधा आकर बैठ गई है! क्या बन्दिश है!

          न-दी-बह नयनक नी...र!

          आहो...पललि बहए ताहि ती....र!

          मोहना बेसुध होकर गा रहा था। मृदंग के बोल पर वह झूम-झूम-कर गा रहा था। मिरदंगिया की आंखें उसे एकटक निहार रही थीं और उसकी उंगलियां फिरकी की तरह नाचने को व्याकुल हो रही थी। चालीस वर्ष का अधपागल युगों के बाद भावावेश में नाचने लगा। रह-रहकर वह अपनी विकृत आवाज़ में पदों की कड़ी धरता,‘फोंय-फोंय, सोंय-सोंय!

          धिरिनागि धिनता!

          दुहु रस...म...य तनु गुने नहीं ओर।

          लागल दुहुक न भांगय जो-र!

          मोहना के आधे काले और आधे लाल ओंठों पर नई मुस्कराहट दौड़ गई। पर समाप्त करते हुए वह बोल़ा,‘इस्स! टेढ़ी उंगली पर भी इतनी तेजी?’

          मोहना हाँफने लगा। उसकी छाती की हड्डियां!

 

 

          उफ़!मिरदंगिया धम्म से ज़मीन पर बैठक गया। कमाल! कमाल! किससे सीखे? कहाँ सीखी तुमने पदावली? कौन है तुम्हारा गुरु?’

          मोहना ने हँसकर जवाब दिया,‘सीखूंगा कहाँ? माँ तो रोज़ गाती है। ... प्रातकी मुझे बहुत याद है, लेकिन अभी तो उसका समय नहीं।

          हाँ बेटा! बेताले के साथ कभी मत गाना-बजाना। जो कुछ भी है, सब चला जाएगा... समय-कुसमय का भी ख़याल रखना। लो, अब आम खा लो।

          मोहना बेझिझक आम लेकर चूसने लगा।

          एक और लो।

          मोहना ने तीन आम खाए और मिरदंगिया के विशेष आग्रह पर दो मुट्ठी मूढ़ी भी फांक गया।

          अच्छा, अब एक बात बताओगे मोहना, तुम्हारे माँ-बाप क्या करते हैं?’

          बाप नहीं है, अकेली माँ है। बाबू लोगों के घर कुटाई-पिसाई करती है।

          और तुम नौकरी करते हो? किसके यहाँ?’

          कमलपुर के नन्दू बाबू के यहाँ।

          नन्दू बाबू के यहाँ?’

          मोहना ने बताया, उसका घर सहरस में है। तीसरे साल सारा गांव कोसी मैया के पेट में चला गया। उसकी माँ उसे लेकर अपने ममहर आई है- कमलपुर।

          कमलपुर में तुम्हारी माँ के मामू रहते हैं?’

          मिरदंगिया कुछ देर तक चुपचाप सूर्य की ओर देखता रहा... नन्दू बाबू. मोहना...  मोहना की माँ!

डायन वाली बात तुम्हारी माँ कह रही थी?’

          हाँ। और एक बार सामदेव झा के यहाँ जनेऊ में तुमने गिरधरपट्टी मण्डली वालों का मिरदंग छीन लिया था। ... बेताला बजा रहा था। ठीक है न?’

          मिरदंगिया की खिचड़ी दाढ़ी मानो अचानक सफ़ेद हो गई। उसने अपने को सम्हालकर पूछा,- तुम्हारे बाप का क्या नाम है?’

          अजोधादास!

          अजोधादास?’

          बूढ़ा अजोधादास, जिसके मुंह में न बोल, न आँख में लोर।... मण्डली में गठरी होता था। बिना पैसे का नौकर बेचारा अजोधादास?

          बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ।एक लम्बी सांस लेकर मिदंगिया ने अपनी झोली से एक छोटा बटुआ निकाला। लाल-पीले कपड़ों के टुकड़ों को खोलकर कागज़ की एक पुड़िया निकाली उसने।

 

 

 

          मोहन ने पहचान लिया,‘लोट? क्या है, लोट?’

          हाँ, नोट है।

          कितने रुपये वाला है? पंचटकिया। ऐं।... दसटकिया? ज़रा छूने दोगे? कहाँ से लाए?’ मोहना एक सांस में सब-कुछ पूछ गया,‘सब दसटकिया हैं?’

          हाँ, सब मिलाकर चालीस रुपए हैं।मिरदंगिया ने एक बार इधर-उधर निगाहें दौड़ाईं; फिर फुसफुसाकर बोला,‘मोहना बेटा! फारबिसगंज के डागडर बाबू को देकर बढ़िया दवा लिखा लेना। खट्टा-मिट्ठा परहेज़ करना। गरम पानी ज़रूर पीना।

          रुपये मुझे क्यों देते हो?’

          जल्दी रख ले, कोई देख लेगा।

          मोहना ने भी एक बार चारों ओर नज़र दौड़ाई। उसके ओंठों की कालिख और गहरी हो गई।

          मिरदंगिया बोला,‘बीड़ी-तम्बाकू भी पीते हो? खबरदार!

          वह उठ खड़ा हुआ।

          मोहना ने रुपए ले लिए।

          अच्छी तरह गांठ में बांध ले। माँ से कुछ मत कहना।

          और हाँ, यह भीख का पैसा नहीं। बेटा यह मेरी कमाई के पैसे हैं। अपनी कमाई के...

मिरदंगिया ने जाने के लिए पांव बढ़ाया। 

          मेरी माँ खेत में घास काट रही हैं, चलो न!मोहना ने आग्रह किया।

          मिरदंगिया रुक गया। कुछ सोचकर बोला,‘नहीं मोहना! तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ महारानीहैं, मैं महाभिखारी दसदुआरी हूं। जाचक, फकीर...  दवा से जो पैसे बचें, उसका दूध पीना।

          मोहना की बड़ी-बड़ी आंखें कमलपुर के नन्दू बाबू की आँखों जैसी हैं।

          रे मो-ह-ना-रे-हे! बैल कहाँ हैं रे?’

          तुम्हारी माँ पुकार रही है शायद।

          हाँ। तुमने कैसे जान लिया?’

          रे-मोहना-रे-हे!

          एक गाय ने सुर-में-सुर मिलाकर अपने बछड़े को बुलाया।

          गाय-बैलों के घर लौटने का समय हो गया। मोहना जानता है, माँ बैल हाँककर ला रही होगी। झूठ-मूठ उसे बुला रही है। वह चुप रहा।

          जाओ।मिरदंगिया ने कहा,‘माँ बुला रही हैं जाओ। ।।।अब से मैं पदावली नहीं, रसपिरिया नहीं, निरगुन गाऊंगा। देखो, मेरी उंगली शायद सीधी हो रही है। शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल?’

          अरे, चलू मन, चलू मन-ससुरार जइवे हो रामा,

          कि आहो रामा,

          नैहरा में अगिया लगायब रे-की।।।।

          खेतों की पगडंडी, झरबेरी के जंगल के बीच होकर जाती है। निरगुन गाता हुआ मिरदंगिया झरबेरी की झाड़ियों में छिप गया।

          ले। यहाँ अकेला खड़ा होकर क्या करता है? कौन बजा रहा था मृदंग रे?’ घास का बोझा सिर पर लेकर मोहना की माँ खड़ी है।

          पंचकौड़ी मिरदंगिया।

          ऐं, वह आया है? आया है वह?’ उसकी माँ ने बोझ जमीन पर पटकते हुए पूछा।

          मैंने उसके ताल पर रसपिरिया गाया है। कहता था, इतना शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल! ... उसकी उंगली अब ठीक हो जाएगी।

          माँ ने बीमार मोहना को आह्लाद से अपनी छाती से सटा लिया।

          लेकिन तू तो हमेशा उसकी टोकरी-भर शिकायत करती थी; बेईमान है, गुरु-द्रोही है झूठा है।

          -‘है तो! वैसे लोगों की संगत ठीक नहीं। ख़बरदार, जो उसके साथ फिर कभी गया। दसदुआरी जाचकों से हेलमेल करके अपना ही नुकसान होता है।

          चल, उठा बोझ।

          मोहना ने बोझ उठाते समय कहा,‘जो भी हो, गुनी आदमी के साथ रसपिरिया।।।

          चोप! रसपिरिया का नाम मत ले।

          अजीब है माँ। जब गुस्सायेगी तो बाघिन की तरह और जब खुश होती है तो गाय की तरह हुंकारती आएगी और छाती से लगा लेगी। तुरंत खुश, तुरंत नाराज...

          दूर से मृदंग की आवाज़ आई-धा तिंग, धा तिंग।

          मोहना की माँ खेत की ऊबड़-खाबड़ मेड़ पर चल रही थी। ठोकर खाकर गिरते-गिरते बची। घास का बोझ गिरकर खुल गया। मोहना पीछे-पीछे मुंह लटकाकर जा रहा था। बोला,‘क्या हुआ, माँ?’

          कुछ नहीं।

          धा तिंग, धा तिंग!

          मोहना की माँ खेत की मेड़ पर बैठ गई। जेठ की शाम से पहले जो पुरवैया चलती है, धीरे-धीरे तेज़ हो गई। ... मिट्टी की सोंधी सुगंध हवा में धीर-धीरे घुलने लगी।

          धा तिंग, धा तिंग!

         

          मिरदंगिया और कुछ बोलता था, बेटा?’ मोहना की माँ आगे कुछ न बोल सकी।

          कहता था, तुम्हारे-जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ महारानी है, मैं तो दसदुआरी हूँ...

          झूठा, बेईमान!मोहना की माँ आंसू पोंछकर बोली। ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना।

          मोहना चुपचाप खड़ा रहा।

 



धर्मवीर भारती द्वारा संपादित पत्रिका- निकष में प्रकाशित (1955)। 

ठुमरी में संकलित।


सद्य: आलोकित!

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