-- डॉ रमाकान्त राय
मुम्बई
में 21-22
अगस्त, 2023 ई० को आयोजित नगरवधुओं के संगठन
आल इंडिया नेटवर्क ऑफ़ सेक्स वर्कर्स (AINSW) के राष्ट्रीय
परामर्श कार्यशाला में ‘सिस्टरहुड एंड सोलिडरिटी विथ सेक्स वर्कर्स’ पर ख़ुशी
व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और भारतीय भाषाओँ के संवर्द्धन में सन्नद्ध श्री
राहुल देव ने “देखो बहनें आती हैं” शीर्षक लगाया और ‘बहनों की समझ, आत्मविश्वास और वक्तृता’ की प्रशंसा की। उन्होंने
सेक्स वर्कर्स के लिए ‘बहन’ संबोधन लगाया और उनके सिस्टरहुड को ‘बहनें आती हैं’ से
जोड़ा।
चर्चा
में यह बात निकल आई कि क्या यहाँ कथित सिस्टरहुड और सिस्टर्स, भारतीय परिवार के ‘बहन’ का पर्याय है? एक परिवार, गोत्र आदि में सहोदर अथवा सह सम्बन्ध
में बालक का बालिका से जो सम्बन्ध है वह भाई का बहन से जुड़ा हुआ है। भारतीय
परिवारों में बहन की स्थिति बहुत स्पष्ट तौर पर परिभाषित है और इसकी मर्यादा भी
व्याख्यायित है। इसमें दो अथवा दो से अधिक सम्बन्धी बहनों का बहनापा भी प्रकट है।
अंग्रेजी का ‘सिस्टर’ और ‘सिस्टरहुड’ भारतीय परिवार के बहन और बहनापा से सर्वथा
पृथक है। ‘सिस्टर’ और ‘सिस्टरहुड’ अंग्रेजी और संस्कृति के स्तर पर ईसाई समुदाय के
परिवार की अवधारणा से कम और मिशनरी धारणा से अधिक जुड़ा हुआ है। अव्वल तो यह समझना
चाहिए कि ईसाई समुदाय में पुरुष तत्त्व की प्रधानता है और वही वास्तव में सृष्टि
के केन्द्र में है। उस समुदाय में स्त्रियाँ जन्मना ‘सिनर’
अर्थात पापी हैं। इसे एडम और इव से अर्थात समुदाय के आदिपुरुष से जोड़कर देखना
चाहिए। इस समुदाय में स्त्रियों को दोयम दर्जा मिला हुआ है और मान्यता है कि उनके
लिए परलोक में कोई स्थान नहीं है। वस्तुतः क़यामत के दिन केवल मर्दों का हिसाब
किताब होगा, औरतों का नहीं। इस धारणा के अन्तर्गत औरतें
भोग-विलास और संतानोत्पत्ति हेतु मात्र हैं। अतएव परिवार अथवा समुदाय में सम्बन्ध
की पवित्रता जैसी कोई आग्रही धारणा नहीं है जैसी सनातन परम्परा में है। ऐसी स्थिति
में औरतों के लिए, चाहे वह किसी भी सम्बन्ध में आती हों, सेवा ही धर्म निर्धारित है। यह ‘सेवा’ अर्थात सर्विस किसी भी प्रकार की
हो सकती है।
यह
समझना कठिन नहीं है कि ईसाई समुदाय वाले देशों से स्त्री विमर्श का जो नारा गुंजित
हुआ उसमें ‘देह से मुक्ति’ एक शक्तिशाली पक्ष था और वह पक्ष भी इसी ‘सेवा वृत्ति’ से जुड़ा हुआ है। ‘जीवों पर दया करो’ मन्त्र के साथ
जब औरतें सेवा हेतु समर्पित होती हैं तो वह ‘सिस्टर’ बन जाती हैं। सिस्टर बनकर यह
औरतें जहाँ जाती हैं, वहां अन्य ‘सिस्टर्स’ से जो परिचय बनता है, वह ‘सिस्टरहुड’ है। यह सिस्टर
आयु और ध्यान के एक पड़ाव को पूर्ण करने पर ‘मदर’ बनाई जाती हैं। यह चर्च की
प्रणाली का अंग है।
ईसाई
समुदाय में स्त्रियों की क्या दशा है, इसका अनुमान
इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित और वेटिकन सिटी
में व्याख्यान के लिए आमंत्रित मदर टेरेसा को मृत्यु 1997 ई० के 18 वर्ष बाद सन 2015
ई० में सन्त की उपाधि दी जा सकी और इसके लिए विहितकरण क्रिया को अपनाया गया। यह
तथ्य इस बात का संकेतक है कि इस समुदाय में स्त्रियों को सन्त बनने की अर्हता
प्राप्त नहीं थी।
ईसाई
समुदाय का ब्रदर और ब्रदरहुड भी विशेष है। वस्तुतः भारतीय परिवारों में भाई और
भाइयों को लेकर जो स्नेह और आत्मीयता की भावना मिलती है, वह दुनिया के किसी भी अन्य संस्कृति में नहीं है। एक निश्चित उद्देश्य के
लिए दो अथवा दो पुरुष यदि साथ आते हैं, तो उनमें ब्रदरहुड
विकसित हुआ माना जाता है। हालाँकि ईसाई ब्रदरहुड से अधिक चर्चा मुस्लिम ब्रदरहुड
की होती है, जिसकी स्थापना मिस्र में सन 1928 ई० में एक अध्यापक और
इमाम हसन अल बन्ना ने की थी। यह मुस्लिम ब्रदरहुड कुरान और हदीस को शरिया का
एकमात्र स्रोत मानता है,
उसके आधार पर वैश्विक इस्लामिक समाज और साम्राज्य क़ायम करना चाहता
है। उसकी कामना है कि सभी इस्लामी क्षेत्र एक ख़लीफ़ा के तहत एकजुट रहें। इसके लिए
सभी मुसलमान ब्रदर की तरह रहें।
ऐसी स्थिति में जहाँ सम्प्रदाय में सिस्टर, मदर और ब्रदर शब्द एक मिशनरी
सम्बन्ध से अर्थवान होते हैं, जहाँ एकल परिवारों का ही चलन
है, वहां इनका हिन्दी रुपान्तरण करते हुए ध्यान रखना चाहिए
कि यह भारतीय सम्बन्धों के सूचक शब्द बहन, भाई अथवा माता से
पृथक हैं। सामुदायिक प्रकरणों में सिस्टर को सिस्टर ही कहा जाना चाहिए, मदर को मदर और फादर को फादर। यह शब्द किसी सम्बन्ध के सूचक नहीं हैं।
वर्तमान
दशा यह है कि ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में संस्कृति को दूषित करने के लिए अकादमिक
क्षेत्रों से भी खूब प्रयोग किये जा रहे हैं। नित्य प्रति संचार माध्यमों से इस
प्रकार की सायास कोशिशें हो रही हैं और इन्हें इस प्रकार मिलाया जा रहा है कि यह
हमारी संस्कृति से जुड़कर विरूप होती जा रही हैं। भारतीय परिवार को तोड़ने और उसकी
शक्ति को दुर्बल बनाने के लिए कई मोर्चों से प्रयास जारी हैं क्योंकि दुनिया भर के
दूसरे सम्प्रदाय भारतीयता को खंडित करने के अभियान में लगे हुए हैं। इसके लिए
संयुक्त परिवार की शक्तिशाली भावना में भी विविध तरीके से सेंधमारी जारी है।
भारतीय पर्व और त्योहारों को दकियानूस सिद्ध करने के लिए मिशनरियों के असंख्य
योद्धा जी जान से लगे हुए हैं। इस अपसंस्कृति का एक ताजा उदाहरण एशियानेट न्यूज की
वेबसाइट पर रक्षाबन्धन से जोड़कर प्रस्तुत किया जाने वाला ‘अदर लाइफ स्टाइल’ फीचर है। इसमें यह शीर्षक रखा गया है कि ‘हैवी ब्रेस्ट साइज़ वाली महिलाएं
राखी पर पहनें ये 10 ब्लाउज डिज़ाइन।’ यह प्रस्तुति जीवन शैली
से जुडी हुई अवश्य है किन्तु भाई बहन के पवित्र सम्बन्ध वाले पर्व के अवसर पर
यौनिकता को परोसने वाले इस समाचार प्रस्तुति में एक दुष्ट मानसिकता छिपी हुई है।
राखी के अवसर पर ‘हैवी ब्रेस्ट’ की तरफ ध्यान ले जाने वाली इस संस्कृति की जड़ें
ईसाई संस्कृति से जुडी हुई हैं। जहाँ मदर, सिस्टर और कोई
अन्य महिला एक ‘औरत’ भर है और वह केवल सेवा के लिए है।
ऐसे
वातावरण में जब भारतीय भाषाओँ के संवर्धन की मुहिम में जुटे हुए और वरिष्ठ पत्रकार
रह चुके श्री राहुल देव भी नगरवधुओं को बहन कहते हैं, उनके सिस्टरहुड का सामान्यीकरण करते हैं तो सोचने का मन करता है कि इनका
उद्देश्य क्या है? यह लोग किस वृत्ति का प्रसार करने में
जुटे हुए हैं। बीते दिनों में सांप्रदायिक विषयों पर उनके दृष्टिकोण को देखते हुए
उनकी मंशा पर संदेह होता है और प्रतीत होता है कि यह लोग किसी के संकेत पर अपनी
मेधा का दुरुपयोग कर रहे हैं। फिल्म समीक्षक और कवि रामजी तिवारी की एक पुस्तिका
के शीर्षक को उद्धृत करते हुए पूछने का मन है कि ‘यह कठपुतली कौन नचावे!’
डॉ रमाकान्त राय
(स्तम्भकार, लेखक)
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी
पञ्चायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उत्तर प्रदेश 206001
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