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बुधवार, 13 जुलाई 2022

तत्त्वदर्शी होने के कारण गुरु विज्ञान से श्रेष्ठ है।

 -डॉ रमाकान्त राय

              आज गुरु पूर्णिमा है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि सभी गुरु पूर्णिमा को ही अवतरित हुए हैं क्योंकि उसमें पूर्णता भाव है।

          पूर्ण होते ही सरलता, स्वाभाविकता और सहजता का प्रशांत वातावरण निर्मित हो जाता है।त ब गुरु सहज ही मार्गदर्शक हो जाता है। गुरु कोई भी हो सकता है। गौतम बुद्ध गुरु की खोज में किस किसकी शरण में नहीं गए, नहीं मिला कोई। खुद भगवान बन गए। मेल मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में हीरामन तोते को गुरु कहा है। कहते हैं - गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा। मार्गदर्शन करने वाला ही गुरु है। सारा उद्योग आपको करना है। चलना, दौड़ना, गिरना सब आपके पैरों से होगा। आंखें भी आपकी होंगी। शक्ति आपकी। सामर्थ्य आपका। सबकुछ आपके पास है लेकिन एक तत्त्व का अभाव है। अभाव नहीं कहेंगे, अभाव में अनुपस्थिति अनिवार्य रूप से है। वह है, जो आपको गतिमान कर देती है। जो आपको सही मार्ग पर लाकर खड़ा कर देती है। गुरु उसी मार्ग की तरफ संकेत कर देता है। आपका मुंह उसी दिशा की तरफ कर देता है।

          यह बहुत अराजक बात है कि सभी रास्ते ईश्वर के पास जाते हैं, इसलिए कोई भी चुन लो। ऐसा कहने वाला गुरु नहीं है, गुरु घंटाल है। अव्वल तो यह बात ही मिथ्या है। सभी रास्ते ईश्वर के पास जाते हैं तो जिनने निरीश्वरवादी प्रतिपत्ति की, वह घास नहीं खोद रहे थे। उनके पास भी दृष्टि है। ज्ञान है। एक निष्पत्ति है। इसलिए यह बात मिथ्या है। और यदि मान लें कि जाते होंगे सभी रास्ते ईश्वर के पास। तो भी इसका बहुत महत्त्व है कि आपने कौन सा मार्ग चुना है।

    मेरी मां अपनी कहानियों से सिखाती थीं, "बेटा, कुछ आगे चलने पर दो राह मिलेगी। एक छह मास वाली, एक छह दिन वाली। तुम छह मास वाली चुनना।" सभी रास्ते (लक्ष्य) ईश्वर के पास जाते हैं तो वह बार बार छह मास वाला रास्ता चुनने को क्यों कहती थीं। वह मेरी पहली गुरु हैं। उनका बताया रास्ता एक पंथ है। आज कह सकता हूं कि वही रास्ता लेकर चल रहा हूं।

     तो यह कहना है कि जीवन में इसका बहुत महत्त्व है कि आपने कौन सा रास्ता चुना है। गुरु कौन है? एक व्यक्ति ट्रेनिंग लेकर आया और अपने पेट में बम बांधकर खुद को उड़ा लिया। उसके गुरु ने बताया था कि इससे तुम्हें सहज ही वह मिल जाएगा, जिसे तुम इस जहन्नुम में नहीं खोज पा रहे। एक दूसरा है जो बता रहा है कि बाहर कुछ नहीं है। कबीर गुरु नहीं हैं लेकिन यह यह अवश्य देखते हैं कि अरे इन दोउ राह न पाई! वह अपना अनुभव साझा करते हैं, जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ! पानी में कौन सा रास्ता होगा? क्या पाना है पानी के भीतर? बात अभिधा में नहीं समझी जा सकती। तो व्यंजना से अर्थ लेना पड़ता है, रत्न, मोती, मूल्यवान वस्तुएं। सांसारिक लोगों का धन यही है। लोग यही तो खोज रहे हैं। गहरे पानी में पैठने पर मिलेगा। लेकिन कबीर के बारे में तो यह ठीक नहीं हुआ! उन्हें इन पत्थरों से क्या लेना। तब इस मूल्यवान का अर्थ उस दृष्टि से जुड़ जाता है। अर्थ झन्न से खुल जाता है। मार्ग महत्त्वपूर्ण है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान कहते हैं, स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। यहां जो धर्म है, वह उसी मार्ग से परिचालित है।

     पुनः दुहरा दूं कि मार्ग महत्त्वपूर्ण है। गुरु मार्गदर्शक है। वह हमारी उंगली पकड़कर सही मार्ग में डाल देता है। वह जो कुछ बताता है, गुर है। आवश्यक नहीं है कि वह उस मार्ग का पथिक हो ही। सिगरेट पीने वाले एक व्यक्ति ने कहा कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। वह पी रहा है तो जानता है। एक बिना फूंके बता रहा है क्योंकि उसका पर्यवेक्षण है। भोक्ता का पर्यवेक्षण अधिक प्रामाणिक है लेकिन उसका दायरा सीमित है। द्रष्टा का पर्यवेक्षण उसकी व्यापक दृष्टि में है। वह प्रत्यक्ष भोक्ता नहीं है, तथापि वह जानता है।

    यह जानना बहुत विशेष है। ज्ञान का ही लोकप्रिय संस्करण है जानना। गुरु जानता है। वह तत्त्वदर्शी है। उसके संज्ञान में चीजें आती हैं और वह जान जाता है। विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन उसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है। उसके पास तो वह सूक्ष्म दृष्टि भी नहीं है जिससे वह तत्त्व दर्शन कर ले। हमारे मित्र डॉ मुकेश गौतम होम्योपैथी की दवाओं के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं कि बेलाडौना 1M की दवा की शीशी पर से लेबल हटा दीजिए और प्रयोगशाला में भेज दीजिए। विज्ञान थक जाएगा किंतु बता नहीं पाएगा कि इसमें दवा कौन सी है। विज्ञान की अक्षमता बहुधा प्रकट होती रहती है किंतु गुरु तो सिद्ध है। वह निरूपण कर देता है।

  विदेह राजा जनक ने मुनि अष्टावक्र से पूछा, "यह ज्ञान कितनी अवधि में प्राप्त किया जा सकता है?"अ ष्टावक्र ने कहा, "राजन! ज्ञान एक कल्प, एक युग, एक वर्ष, एक मास, एक दिन, एक घड़ी, एक क्षण, एक निमिष मात्र में पाया जा सकता है।" उन्होंने बताते बताते क्रमश: समयावधि कम की। एक निमिष मात्र में? पलक झपकने में जितना समय लगता है, उतने में? अष्टावक्र ने कहा हां, उतने में ही।

    मैं कुंग फू पांडा देख रहा था। उसमें पांडा के साथी बुरी तरह घायल होकर लौटे हैं। अंग भंग हुआ पड़ा है। शिफू आते हैं, वह बिंदु छूते हैं, जहां मूल है। सब भले चंगे हो जाते हैं। उस तत्त्व को जानना है। डॉ मुकेश भी उसी तत्त्व की चर्चा करते हैं। मुझे एक समस्या होती है तो घंटों बातें करते हैं, जानते हैं। कान की समस्या थी, पूछा,"बादल घिरता है तो कैसा लगता है?" भाई, कान की दिक्कत है! बादलों से क्या लेना देना! लेकिन उन्हें इसका उत्तर चाहिए। प्रकृति की पहचान हो तो काम आसान हो जाता है। 

     मार्ग दिखाने वाला गुरु है। उसके महत्त्व को बताया नहीं जा सकता। कबीर तो कहते हैं कि सात समद की मसि, जंगली वृक्षों की लेखनी से भी गुरु का बखान नहीं हो सकता।

   एक नया वर्ग जन्मा है। धन से सब कुछ खरीद लेना चाहता है। ज्ञान भी। गुरु भी। एक दूसरा है जो गुरु को ग्रू, ग्रु कहकर थोड़ा मित्रवत हो गया है। बहुतेरे रूप हो गए हैं। लेकिन उसकी महिमा बनी हुई है। उसका महत्त्व बना हुआ है।

    गुरु को मेरा प्रणाम है।

 🙏🙏

रविवार, 6 जून 2021

'मनु'स्मृति, भाग- दो

सम्यक शर्मा की कहानी मनुस्मृति - भाग -१ 'चीतोदय' में आपने पढ़ा कि कथानायक मनु हथौड़े को बल्ला मानकर कल्पना लोक में विचरण कर रहे थे। आगे क्या हुआजानने के लिए पढ़ें- भाग -२ चीतत्व भंग। इस मनुस्मृति में कहानी हैबचपन की मधुर स्मृतियाँ हैं और शब्दों के साथ गेंदबाजी-बल्लेबाजी और कमेंट्री है। आनन्द लें।  - सम्पादक

 

भाग -२ चीतत्व भंग

          लुहार की दुकान से चीतासत्त्व प्राप्त कर मनु आगे बढ़े। वे भारत को प्राप्त हुई नवीनतम जीत की अद्भुत छटा का स्मरण कर प्रसन्नचित्त थे। चाल में भी उछाल थी, गाबा समान। थोड़ा आगे बढ़ते ही एक पी.सी.ओ. बूथ आया जिसमें चीताप्रसू अपने मायके की खोज-खबर लेने हेतु दाखिल हुईं। मनु उसके किवाड़ से चिपक कर ही बाहर खड़े रहे और क्षण भर में ही अपने पदार्पण स्थल पर पुनः पहुँच गए, कारण कि मैच समाप्त होने के पश्चात् प्रसाद-वंटन की रीति अभी बची थी।

          अब वे ‘मैन ऑफ़ दी मैच’ पाने की जुगत भिड़ाने लगे। चीता हो जाने के उपरांत वे स्पेस-टाइम की चादरों पर और भी तीव्र गति से दौड़ने में सक्षम हो गए थे। अतः पाँच ही नैनोसेकंडों में वे मैच की पहली पारी में पहुँचे जहाँ खटाखट अपने चीतत्व से दो कैच लपक व तीन रनआउट प्रभावित कर क्षेत्ररक्षण में अपना लोहा मनवा वापिस लौट आये रीतिस्थल। इस प्रकार उन्होंने अपने मै.ऑ.दी.मै को न्याय्य (जस्टिफ़ाइड्) बनाया। हालाँकि साढ़े तीन फुटिये मनु से पारितोषिक में मिला पाँच फुटिया चैक संभल नहीं रहा था, उनकी छोटी-छोटी हथेलियों से बार-बार खिसक जाता। मनु की चिंता में वृद्धि तब हुई जब उनके समक्ष यह प्रश्न आ खड़ा हुआ कि "इस लंम्म्म्म्बे चैक को हाथ में पकड़कर घर कैसे लाएँगे? सीधा ऐसे ही ले चले तो बीच में गिर जाएगा, और यदि बीच में से मोड़कर ले चले तो कहीं गत्ता ही न फट जाए?"  इसी मौन एकालाप के मध्य उनकी माता ने फोन काटा और बूथपति को आठ रुपए दो मिनट फ़ोन करने के व दो रुपए पॉपिंस के सहित कुल दस का नोट थमाया और सुत संग आगे बढ़ चलीं। पॉपिंस के खट्टे-मीठे रसों ने चैक की चिंता को उड़नछू कर दिया था। कुछ गोलियाँ दन्तप्रहार से तोड़ कर खाईं, तो कुछ का एक ओर गाल में दबाकर रसपान किया, स्स्स्स्स्प्प्...स्स्स्स्स्प्प्। गोलियों का रंग बदलता गया और क्रमशः मुँह का स्वाद।

          इस जिह्वानंद के दौरान मनु की चीतामय दृष्टि गई दीवार पर लगे जादूगर ओ.पी. शर्मा के अति रंगीन विचित्र से चित्र पर। भड़कीली सी पोशाक, गुलाबी कलगी से लैस चमकीली सी पगड़ी, खुले हुए दोनों पंजे, नाक के दाईं ओर और आँख के नीचे उपस्थित एक मध्यमाकार मस्सा, मस्तक पर काला टीका, रक्ताभ ओंठ...यह भयानक छवि किसी भी सामान्य खरगोश-बिल्ली को भयाक्रांत कर सकती थी, किन्तु चीते के लिए यह बड़े ही कौतूहल का विषय थी। वह अत्यंत रुचि से उसे निहारता और मंत्रमुग्ध हो जाता। अब वह स्वयं को उसी वेशभूषा में पा चुका है। हाथ में जादुई छड़ी लिए वह इंद्रजाल का बौना पुरोधा दो रूसी सहायकों (ललनाएँ ऑफ़कॉर्स्!) के साथ सूरसदन हॉल के मंच पर पहुँचता है। इससे पहले कि वह सैकड़ों दर्शकों को अपने मायापाश में फाँस वशीभूत कर पाता उसे अपने पैर के पिछले भाग पर कुछ लिबलिबा सा संचलन (मूवमेंट्) महसूस हुआ। वह तुरंत ठिठका तथा एक श्वाना को अपना पैर चाटते देख ज़ोर से बिदका। तत्क्षण भरी-बजरिया आरम्भ हुई अनिश्चित दूरी की तेजचाल प्रतियोगिता। चीता आगे, श्वाना पीछे। दोनों की गतियों में सकारात्मक प्रवणता सहित रैखीय सम्बन्ध (लीनियर् रिलेशन् विद् पॉज़िटिव् स्लोप्) स्थापित हो गया था। निर्देशांक ज्यामितियू नो!

          वह तो भला हो उस बिजली के खंभे का जो प्रतियोगितामार्ग में मिला तो श्वाना व्यस्त हुई और चीते को "पितृदेव संरक्षणम्" का जाप करते हुए भाग निकलने का अवसर प्राप्त हुआ अन्यथा बीच-बजार उस चंचल चीते का चीतत्व चौपट हो जाता। थैंक् गॉड्!!! बहरहाल, जैसे-तैसे अपना चीतत्व बचाते हुए मनु वहीं पास ही भारद्वाज चौराहे पर शाक-क्रय में व्यस्त अपनी मम्मी के जा पहुँचे। पल्लू की ओट लेकर उन्होंने एक आँख से अपनी पीछे दौड़ रही (भावी) चीतेशमर्दिनी की ओर मुड़कर देखा, वह नदारद थी। माँ का आँचल और श्वाना को अपनी दृष्टि से ओझल पा मनु की हृदयगति सामान्य हुई और चीतत्व पुनर्जीवित। कुल आधा मिनट तक उस वृद्ध शाक-विक्रेता की बनियान में बनी चोर-ज़ेब का पर्यवेक्षण करने के बाद उन्होंने अपनी बाईं ज़ेब में हाथ डाला और बाहर निकली एक प्लास्टिक की मूल्य दो रुपए वाली गेंद। हुआ यूँ था कि पॉण्ड्स पॉडर छिड़कने के पश्चात् मनु चप्पल निकालने हेतु पलंग के नीचे घुसे थे, वहीं यह गेंद भी धरी थी। यह देखते ही उनकी बड़ी-बड़ी आँखें टिमटिमा गईं और वे उसे अपनी बाईं ज़ेब में धर लाये।

          "अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि कैसे एक योजनाबद्ध रूप से मनुदेव ने जीवात्मा से चीतात्मा बनने तक का सफ़र तय किया है? हैंह्...हैंह्...हैंह्!" ~ रवीशचंद (लाल माइक वाले)

          अब आरम्भ होता है चीताभ्यास। मनु ने गेंद 15 से.मी. हवा में उछाली और लपक ली तथा इस उपलब्धि को चार-पाँच बार दोहराया। लय बनने लगी तो एक कुशल खिलाड़ी की भाँति अपने खेल को उच्च स्तर तक ले जाने के लिए क्रमशः एक और फिर डेढ़ फुट तक गेंद का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण कर उसे सफलतापूर्वक लपकते गए। ऐसी भीड़भाड़ और हलचल के बीच ऐसे जौहर दिखाना कोई बाएँ हाथ का खेल नहीं था, इसमें दोनों हाथ प्रयुक्त होते थे, ताकि गेंद सुरक्षित लपकी जाए।

          अब उन्हें खेल में कठिनाई का स्तर और ऊँचा कर अपने को और परिपक्व क्षेत्ररक्षक बनाना था, सो गेंद को धरती पर टिप्पा खिलाकर लपकने का निश्चय किया। गेंद पटकी, और लपकी, आत्मविश्वास में हुई वृद्धि। यूँ मानिए कि उनके शरीर में (अजय) जडेजा-तत्त्व का प्रस्फुटन हो रहा था। गेंद को पटकने और लपकने का चक्र चल पड़ा था जिसकी आवृत्ति समय के संग एक स्थिर गति से बढ़ती जा रही थी। प्रत्येक पटक में स्फूर्ति, प्रत्येक लपक में चपलता, वह भी जडेजा तनु। पटक, लपक व दोनों हाथों के सभी क्रमचय-संचय (पर्म्यूटेशन्-कॉम्बिनेशन् यू नो!) अपनाए जा रहे थे जैसे कभी दाएँ से पटक व बाएँ से लपक, तो कभी बाएँ से पटक व दाएँ से लपक आदि। सटीक पटक, सटीक लपक, सटक-पटक, सटक-पटक! इतने में न जाने कब भावातिरेक में गेंद की पटक एक गिट्टी पर हो गई कि पता ही नहीं चला। गेंद ने कोण बदला और चीतेश की परीक्षा लेने सड़क की ओर गमन करने लगी। इस पटक-लपक के खेल से उनका हस्त-नयन समन्वय गेंद को लपकने में इतना अभ्यस्त हो चुका था कि क्षण भर में ही वे गेंद की दिशा को परखते हुए उसकी ओर दौड़े, उस तक पहुँच पाते इससे पहले ही टिप्पा ले लिया था गेंद ने। परंतु 'वन् टिप् वन् हैंड्' सरीखे भ्रष्ट पैंतरे से अभी भी अपने रिकॉर्ड को बेदाग़ रखने के लिए उन्होंने अपना दायाँ हाथ आगे तो फेंका, किन्तु हाथ निराशा ही लगी, गेंद नहीं। दो टिप्पे हो चुके थे, रिकॉर्ड धूमिल हो इससे पहले चीताधिराज ने जागृत की कुंडलिनी और साधा सीधा आज्ञा चक्र। अब क्या था, तत्क्षण ऐकिक नियम (यूनिट्री मैथड्) का उत्कृष्ट उपयोग उन्होंने 'टू टिप् टू हैंड्' नामक माइंड् = ब्लोन् कर देने वाली विधा का सृजन किया और गेंद की दिशा में स्वयं को झोंक दिया...

          गेंद मनु के हाथों को छू पाती इससे एक साइकिल उनके माथे को छू गई, अर्थात् ठोक गई। उस साइकिल ने चीतत्व को भले ही ठोकर मारी थी, लेकिन वो चीता ही क्या जो ठहर जाए! अतः पाँच-सात सेकण्ड की लघु-मूर्छा से जागृत हो उन्होंने सर्वप्रथम गेंद ढूँढी और उसे पाकर निश्चिंतता की साँस ली, परन्तु

          "चोट सर में लगीऽऽऽ, दर्द होने लगाऽऽऽ..." ~ अलीशा चिनॉय का गायन

          अब हाथ में गेंद व मस्तक में पीड़ा लिए वे शाक का थैला लिए खड़ी अपनी मम्मी के पास पहुँचे, जिसे देखकर वे चिंताभाव से चल्लाईं "कहाँ गायब हो गया था रे नैक सी ही देर में? और खून कैसे आ रहा है माथे पर? कैसे लगा ली?" अचरज एवं अविश्वास में मनु ने माथे को हाथ से टटोला और कुछ गीलापन अनुभव किया। अब खून से लथपथ अपनी हथेली देख मनु को काटो तो खून नहीं। चीतत्व छिन्न-भिन्न, क्योंकि माथे से खून आना मतलब डायरेक्ट मौत! यही तो होता है सन्नी देवल की फिल्मों में। यह सोचते ही मनु के नेत्रों में मोटे-मोटे अश्रुओं की धारा थी व कंठ में कर्कश क्रंदन। बिलखता देख उसे माँ ने तुरंत गोद में उठाया, पल्लू माथे पर रख रक्तस्राव की रोकथाम की और दौड़ पड़ीं उसी चौराहे पर स्थित भारद्वाज अस्पताल की ओर पट्टी कराने। वेदना अधिक नहीं थी किन्तु मृत्यु की आशंका ने उसके विलाप-स्वर को चौरानवे डेसिबल के पार पहुँचा दिया था, जिसे सुनकर माँ ने उसे पुचकारते हुए कहा "कोई बात नहीं बेटा, चींटी मर गईं और कुछ नहीं हुआ। रोये मत बेटू, हॉस्पिटल आ गया।"

          "आखिर हम किस समाज में रहते हैं? जहाँ पिपीलिका-मर्दन से पौरुष प्राप्त होता है? जहाँ अपनी पीड़ा भुलाने के लिए पिपीलिकाओं की (कथित ही सही) मृत्यु पर उल्लास होता है? हम क्या बीज बो रहे हैं अगली पीढ़ियों के अंदर? छः!!!" ~ रैंडम् ऐनिमल् ऐक्टिविस्ट्

          ख़ैर घाव साफ़ हुआ, फिर पट्टी हुई, मनु मरा नहीं, तब जा जाकर वह सामान्य रूप से बोलने योग्य हुआ। डॉ. भारद्वाज के पूछे जाने पर उसने बतलाया कि कैसे-कैसे गेंद को लपकने के चक्कर में वह चलती साइकिल से ठुक गया था। यह इक़बाल-ए-जुर्म सुनते ही उसकी माँ के मुख पर एक भाव आया कि यदि घर में ऐसा किया किया होता तो पहले पूजा होती, फिर पट्टी। नम आँखें, सूखे होंठ, रुँधा हुआ गला लिए और मम्मी की अंगुली थामे अंततः वह लौट आया चुपचाप घर। चीतत्व भी बीच चौराहे पर अंततः भंग हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तभी मनु मिस्टर पलंग पर लेटे-लेटे सोचते हैं कि "पट्टी के ऊपर हेल्मेट तो पहनी नहीं जा सकती, चलो अंपायर के जैसी गोल टोपी पहन कर ही खेला जाएगा...!"

          चीतोपदेश - चीतत्व अक्षय है और चीतात्मा अमर।

          जय दाऊजी की।

सम्यक शर्मा


  (सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।" - सम्पादक)



'मनु'स्मृति

सम्यक् शर्मा

सम्यक शर्मा कथावार्ता पर इससे पहले दिशाभेद के एक दो और तीन सुललित निबंधों के साथ पदार्पण कर चुके हैं। दिशाभेद में उन्होंने अपने चिन्तन और शब्दक्रीड़ा से अपने इरादे स्पष्ट कर दिये थे। वह शब्दों से खेलते हैं और उनका बेहतरीन प्रयोग करते हैं। क्रिकेट उनका दूसरा प्यार है। पहले प्यार के बारे में हम बाद में बताएँगे।

'मनु'स्मृति में कहानी हैबचपन की मधुर स्मृतियाँ हैं और शब्दों के साथ गेंदबाजी-बल्लेबाजी और कमेंट्री है। दो खण्ड में है। सम्यक के निबंधकार से कहानीकार की यात्रा का आनन्द लें।  - सम्पादक

 

भाग -१ 'चीतोदय'

 

ज्ञापन नुमा : इस कहानी के सभी पात्र एवं घटनाएँ वास्तविक हैं, जिनका हमसे पूरा-पूरा सम्बन्ध है। मने यह सत्य घटनाओं पर आधारित है। भई आधारित क्या, सत्य ही है। अतः मुलाहिज़ा फ़रमाएँ...

डाबर आँवला चुपड़कर बाल काढ़ ही रहे थे मनु कि बाहर चौखट पर खड़ी मम्मी ने पुकारा "सज लिया? कि अभी रह गयी है नैक और सजावट? जल्दी चल, नहीं तो अकेले ही चली जाऊँगी।" सायं साढ़े पाँच हो रहे थे, हाट के लिए निकलना थाफल, शाक आदि के क्रय हेतु। मम्मी के हड़काते ही त्वरित बाल काढ़कर और पॉण्ड्स का पॉडर (आगरे में बॉडी टैल्क कोई नहीं कहता) छिड़ककर सुगन्धित व सँवरे पाँच वर्षीय मनु चल दिए हाट को। अल्पवयस्क एवं शिष्ट थे इसलिए मम्मी की अंगुली पकड़कर ही सैर किया करते थे।

          सैयद तिराहे से अंदर ढलान की ओर मुड़ते ही दुकानें आरम्भ होती थीं। ढलान पर थोड़ा सा उतरते ही एक फल वाले की ठेल पर पहुँचे। मम्मी की क्रय-क्रिया (पर्चेज़िंग) आरम्भ हुई और मनु की पर्यवेक्षण-क्रिया (ऑब्सर्वेशन)। ठेल के सामने ही लुहार की दुकान थी (वर्कशॉप भी कोई नहीं कहता), जहाँ वह लुहार हथौड़े से पीट-पीटकर किसी छड़ को नरक के समान ऋजु (स्ट्रेट ऐज़ हैल!) किए दे रहा था। हथौड़े की ऐसा अद्भुत क्षमता देख मनु वशीभूत हो गए, विचारने लगे, "यदि मैंने इस हथौड़े को बल्ला बनाकर बल्लेबाज़ी की, तो क्या-क्या कर सकता हूँ।" हास्यास्पद यह कि माननीय मुंगेरीलाल ने इससे पहले कभी गली-क्रिकेट भी नहीं खेली थी, किन्तु कल्पना वानखेड़े पर दूधिया प्रकाश में एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय खेलने से नीचे की नहीं करते थे। खेलते भी कैसे, गली होती आस-पास तब न, घर के आगे तो दिल्ली से कलकत्ता जोड़ने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 2 बिछा दिया था प्रशासन ने। रक्तरंजित उन्नतिशील (ब्लडी प्रोग्रेसिव!)!

          अस्तु! ...दर्शकों से खचाखच भरे वानखेड़े मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध बल्लेबाजी करने उतर चुके हैं हथौड़ापाणि मनु। हाई कार्बन स्टील से निर्मित 10 से.मी. व्यास का वह लौह-बल्ला भारत को अंतिम गेंद पर जीतने हेतु चार रन दिलाने में अति सक्षम है। बस कनेक्ट हो जाए एक बार। स्टांस लेते समय साढ़े तीन फुटिये मनु चेते कि यदि यॉर्कर आ गई तो यह डेढ़ फुटिया हत्था धोखा ही दे जाएगा। अतएव तुरंत ड्रैसिंग रूम की ओर संकेत कर उन्होंने दो फुटिया हत्था मँगवा लिया। आप सोचिये कि मंगूस बल्ले की परिकल्पना के भी एक दशक पूर्व मनु क्या-क्या कल्पित कर लेते थे! मनु मनु नहीं थे, वे स्वयं (के) कल्पतरु थे। वे स्वयं से याचना कर जो माँगते थे, उसे तत्काल पा लेते थे, कल्पनाओं में। जैसे वानखेड़े पर पदार्पण, हथौड़ा, यॉर्करानुकूल लंबा हत्था इत्यादि-इत्यादि।

          बहरहालयुवा ब्रैट ली अंतिम गेंद फेंकने हेतु बढ़ चले तथा सुन्दर एक्शन से अंदर की ओर रिवर्स होती यॉर्कर फेंकी। मनु ने प्रकाश की गति से गेंद की लाइन एन्ड लेंथ परखी व ध्वनि की गति से डेढ़ कदम आगे बढ़ाए। अब वह तथाप्रक्षिप्त यॉर्कर एक अक्षम लो फ़ुल-टॉस बन मनु के चरणों में थी। गेंद चरण-कमलों को स्पर्श करती इससे पहले ही मनु की गदा ने उस पर प्रहार करके उसे गऊ-कॉर्नर की दिशा में भेजा। बलाघात इतना क्रूर था कि वह एक छक्के में तो प्रतिफलित हुआ ही, साथ ही उसने गेंद को अरब सागर में भेज उसे गेंद-योनि से मुक्त करा दिया। अभागन पचास ओवरों से कष्ट ही पा रही थी! कल्पनाओं में ही सही मनु ने जो चमत्कार किया वह भारत में अनगिनत पुरोधाओं के होते हुए भी अभूतपूर्व था। सचिन-फचिन जो सामान्यतः 'मात्र' डेढ़ किलो का ही बल्ला उठा पाते थे, वे क्या थे मनु के आगे, जिन्होंने साढ़े चार किलो के हथौड़े से छक्का जड़ ऑस्ट्रेलिया को नेस्तनाबूत कर दिया? (वह बात और है कि मनु को यह भी ज्ञात न था कि "साढ़े-चार" कितने होते हैं या "किलो" क्या होता है?)

          ख़ैर जीत सुनिश्चित होते ही दर्शकों में उन्माद था और चहुँ दिशाओं में चीत्कार। मनु भी मन में शौर्य व आँखों में गौरव लिए हथौड़ा हवा में लहराकर दर्शकों का अभिवादन कर रहे थे। मनु अब मनु नहीं रहे थे, वे चीता हो चले थे। जी हाँ, चीते का उदय अर्थात् चीतोदय हो चुका था। चीता ज्यों ही दूसरे छोर पर स्तब्ध खड़े अपने साथी बल्लेबाज़ की ओर बढ़ा, त्यों ही उसके कंधे पर मम्मी का हाथ आया और कानों में उनका स्वर " चल बेटा आगे, ले लिए फल।"

          आगे के घटनाक्रम के लिए बने रहें, हाट अभी शेष है।

 

हथौड़े के आगे जहाँ और भी है,

अभी चीते के इम्तहाँ और भी हैं।

                                                                                                                   जारी......

 

सम्यक शर्मा (Samyak Sharma)


(
सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।" - सम्पादक)

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

कथावार्ता : शास्त्र और शस्त्र का द्वंद्व और हम

-डॉ रमाकान्त राय

किसी विवाद में क्या प्रभावी हैशास्त्र अथवा शस्त्रज्ञान का बल अथवा शरीर का बलबहुत मोटे तौर पर हम पूछते हैं- अक्ल बड़ी है या भैंस। प्रथम द्रष्टया शरीर का बल अधिक क्षमतावान और कारगर दिखेगा क्योंकि उसमें तत्काल फल देने का गुण सन्निहित है। आज ऐसे ही एक विशेष प्रकरण को उठाते हैं और महर्षि विश्वामित्र तथा वशिष्ठ के दृष्टांत से समझने का प्रयास करते हैं।

हमारी पौराणिक कहानियों में ऋषि विश्वामित्र अनेकश: उपस्थित हैं। वह महाराजा गाधि के पुत्र थे। गाधि के पिता कुशनाभकुशनाभ के कुश और कुश प्रजापति के पुत्र थे। इस तरह विश्वामित्रप्रजापति के चौथी पीढ़ी के प्रजावत्सल राजा थे। उनका जीवन महाराजामहर्षि से होते हुए ब्रह्मर्षि तक पहुँचता है और अनेकश: घटनाओं से टकराता है। उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग रामकथा से सम्बद्ध है जिसकी थोड़ी सी चर्चा हमने इस ब्लॉग दीपावली: राम के चरित्र का दीपक में की है। वस्तुतः अपने यज्ञपूर्ति के लिए वह राम को बक्सर ले जाते हैं जहाँ ताड़का वध सम्पन्न होता है। आज जिसे लहुरी काशी यानि गाजीपुर कहते हैंवह विश्वामित्र के पिता महाराजा गाधि के नाम पर ही स्थापित हुआ कहा जाता है और जब विश्वामित्र ताड़का से उत्पीड़ित थेउसके विनाश हेतु क्रियाशील होते हैं तो इसका सूत्र भौगोलिक स्तर पर भी संगत बनता है।

विश्वामित्र के जीवन का एक प्रसंग मेनका नामक अप्सरा से भी सम्बद्ध है। विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र ने मेनका नामक अप्सरा को भूलोक में भेजा था। मेनका विश्वामित्र के साथ रहीं और उन्होंने शकुन्तला को जन्म दिया। यह शकुन्तला दुष्यन्त से मिलीं जिनके पुत्र प्रतापी भरत थे। महाभारत की कथा का आधार यहीं है।

विश्वामित्र को गायत्री मन्त्र का द्रष्टा ऋषि कहा जाता है। उनके नाम त्रिशंकु की प्रसिद्ध कथा जुड़ी हुई है। हालांकि हम वर्तमान में त्रिशंकु की स्थिति को बुरी स्थिति मानते हैंलेकिन अगर हम कथा को ठीक से जानें तो हमें विश्वामित्र के योगबल और तपोबल पर मान होगा। जब त्रिशंकु की सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा कोई पूरी नहीं कर रहा था तो विश्वामित्र ने यह बीड़ा उठाया। सबसे बैर लिया। हुआ यूं था कि इछ्वाकुवंशी प्रतापी राजा त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग जाने की कामना की। इसके लिए वह वशिष्ठ के पास पहुँचे। वशिष्ठ ने मना किया तो उनके पुत्रों के पास पहुँचे। त्रिशंकु के इस ढीठाई पर वशिष्ठ के पुत्रों ने उनको शाप दे दिया कि वह चांडाल हो जाएँ। चांडाल बने त्रिशंकु विश्वामित्र के पास पहुँचे और विश्वामित्र ने यह बीड़ा ले लिया। उन्होंने सभी ऋषियों-मुनियों और देवताओं को यज्ञ का भाग ग्रहण करने के लिए बुलाया। वशिष्ठ के पुत्र नहीं आए तो सबको यमलोक भेज दिया। और प्रेतयोनि में भटकने का शाप अलग से दिया। उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का हरसंभव प्रयास किया और जब देखा कि त्रिशंकु की राह में इन्द्र यह कहते हुए खड़े हो गए हैं कि वह गुरु वशिष्ठ के पुत्रों द्वारा शापित हैंइसलिए स्वर्ग में नहीं रह सकते। तो बीच में ही एक स्वर्ग की रचना कर दी। सप्तर्षि का एक नया समूह बना दिया और एक नया इन्द्र बनाने लगे। देवता भयभीत हो गए और विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे तो सुलह हुई। इस समझौते के अन्तर्गत त्रिशंकु को एक अलग स्वर्ग मिला जहाँ वह अभी राज भोग रहे हैं। उनके बीच में लटके रहने और अधर में रहने की कहानी इतनी भी पीड़ादायी नहीं हैजितना कि यत्र-तत्र उल्लिखित की जाती है।

महाभारत की हस्तलिखित प्रति का एक पृष्ठ

विश्वामित्र और वशिष्ठ के द्वंद्व के आरंभ की कथा महाभारत में है। एक दिन राजा विश्वामित्र अपने दस हजार सैनिकों के साथ शिकार पर निकले और राह भटक गए। भटकते-भटकते वह ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गए। वहाँ वशिष्ठ ने उनका आदर-सत्कार किया और कुछ अवधि तक रुकने का निवेदन किया। विश्वामित्र को उनका आतिथ्य सत्कार पसंद आया। वन में रहने वाले एक तपस्वी के लिए दस हजार सैनिकों और लाव-लश्कर का स्वागत कोई सामान्य बात नहीं थी। विश्वामित्र इससे आश्चर्य में थे। तब उन्होंने इस सत्कार का राज जानना चाहा। वशिष्ठ ने बताया कि यह समृद्धि नंदिनी नामक कामधेनु से है। विश्वामित्र ने कहा कि आप दस हजार गाय ले लीजिये और नंदिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ ने कहा कि अगर यह गाय आपके साथ जाना चाहे तो ले जाएँ। नंदिनी ने जाने से अनिच्छा प्रकट की तो विश्वामित्र ने अपने सैनिकों से कहा कि इसे जबरदस्ती ले चलो। नंदिनी ने इस बरजोरी पर कातर आँखों से वशिष्ठ से अनुनय की। वशिष्ठ ने कहा कि हमने सहमति से ले जाने की अनुमति दी थी। कि इस तरह बलात न ले जाएँ। विश्वामित्र को अपनी दस सहस्त्र सशस्त्र सेना पर बहुत अभिमान था। उन्होंने वशिष्ठ को अपशब्द कहा और कहा कि नंदिनी को तो अब किसी कीमत पर ले जायेंगे।

भयंकर युद्ध हुआ और विश्वामित्र हार गए। शास्त्र बल ने शस्त्र के बल को पराजित कर दिया। विश्वामित्र के सौ पुत्र भी काल-कवलित हुए। विश्वामित्र का दर्प चूर-चूर हो गया। ज्ञान की इस ताकत को देख उनको बोध हुआ कि वास्तविक शक्ति तो ज्ञान में निहित है। वह राजपाट छोड़कर ज्ञान अर्जन हेतु वनगमन कर गए। यह झगड़ा बहुत लंबा चला और विश्वामित्र के ब्रह्मर्षि बनने पर शमित हुआ।

विश्वामित्र की कथा इस प्रयोजन से की गयी है कि शास्त्र का बल शस्त्र के बल से अधिक है। जब शास्त्र और शस्त्र में द्वंद्व होगा तो अंततः शास्त्र ही विजयी होगा। शास्त्र के साथ अच्छी बात यह है कि इसकी गति विशिष्ट है। यह हत्या भी करता है तो वह सामान्य तौर पर परिलक्षित नहीं होता। वह हिंसा में नहीं गिना जाता। शास्त्र की मार अदृश्य होती है और बहुत गहरी। शस्त्र शरीर को नष्ट करता हैशास्त्र चाहे तो व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न कर सकता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने शास्त्र के बल पर हमेशा अपना स्थान पूजनीय रखा और वह ऋषि बने रहे। उनसे अधिक क्षमतावान विश्वामित्र व्यक्तित्व की चंचलता और अस्थिरता तथा शस्त्र प्रयोग और मोटी बुद्धि के कारण उस विशेष पद के अधिकारी नहीं हुए जो उन जैसे महर्षि के लिए अपेक्षित था। 

 कथा का लब्बो लुआब यह है कि बहस मेंचाहे वह असहिष्णुता की हो या सांस्कृतिकराजनीतिकआर्थिक मुद्दे कीआपको जीतना है तो ज्ञान को अपनाना पड़ेगा। लाठी लेकर पिल पड़नागाली-गलौज (गलौच शब्द गलत है) और भोथरे मजाक करना शस्त्र से युद्ध करना है। प्रतिपक्षी के छद्म प्रचार को विनम्रता से सुनिए और उसे अधिक सहिष्णुता से ख़ारिज कीजिये। लोहे को लोहा काटता है लेकिन आग से आग नहीं बुझती। उनके लगाए आग पर पानी डालना सीखिये।

 

असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावाउत्तर प्रदेश 206001 

royramakantrk@gmail.com 9838952426

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : दिशा-भेद : ललित निबन्ध अन्तिम भाग

हला'हल'

- सम्यक् शर्मा

दिशा-भेद : ललित निबन्ध, भाग-1 

विरोधाभास : दिशा-भेद : ललित निबन्ध, भाग-2

ज्यों-ज्यों विरोधाभास बलवान हो रहा था, त्यों-त्यों बलवती हो रही थी चिंता की बेड़ियाँ और तोड़ रही थीं मुझ सुख में अधबैठे-अधलेटे मनुज के आलस्य को। तन्द्रा स्वयं मूर्छित पड़ी थी। सुप्तावस्था में जल-छिड़काव कार्य से जाग्रत हुए एक भड़भड़ाए श्वान की भाँति हम अचंभित व सतर्कता से ओतप्रोत थे। रीढ़ की हड्डी ऋजु रेखा (स्ट्रेट लाइन) में रूपांतरित हो चुकी थी जिसका समीकरण : 'x = C' था, जहाँ C एक स्थिर राशि थी। निर्देशांक ज्यामिति यू नो!

स्मरण हुआ एक और स्कूली प्रसंग। बात होगी कक्षा 1 या 2 की, हिंदी श्रुतलेखन (कॉमनली नोन ऐज़ डिक्टेशन) का घंटा चालू था। महोदया ने ऊँचे स्वर में कहा "बच्चो, लिखो हिरणी। 'ह' के पीछे छोटी 'ई' की मात्रा, 'र' और 'ण' के आगे बड़ी 'ई' की मात्रा।" 'दीर्घ और ह्रस्व के चक्कर में कौन पड़े?' यह सोचकर अध्यापक-अध्यापिकाएँ प्रायः ही मात्राओं के लिए 'छोटे' और 'बड़े' शब्दों का प्रयोग करते हैं। ठीक ही है, 6-7 वर्षीय जूनियर जी के दर्शक क्या ही जान पाते दीर्घ-ह्रस्व का मर्म। हमने भी रट लिया था। मस्तिष्क में छाप लिया था कि 'ह' के 'पीछे' छोटी 'ई' की मात्रा लगाने से 'हि' बन जाता है और 'ण' के 'आगे' बड़ी 'ई' की मात्रा लगाने से 'णी' बन जाता है।

फिर हम बड़े हुए (जो कि होना ही था, स्वाभाविक है!) और बात कक्षा 5 तक पहुँच गयी। अब हम कॉपी के पन्ने मरोड़कर उसे बिल्ली का स्वरूप देकर उस पर ग्लिटर पेन से 'IInd  Term' और 'IIIrd Term  लिखने में उस्ताद हो गए थे। अब लगता है कि यदि हम वही लय बरक़रार रखते तो आज दिशाभेद और विरोधाभास के भँवरजाल से परे एक नामचीन पच्चीकार होते। ख़ैर...एक बार आंग्ल भाषा साहित्य का घंटा चालू था और महोदया ने उवाचा "राइट अहैड।" (यानी 'आगे' लिखिए) और फ़लाँ-फ़लाँ लिखवाने लगीं। तात्पश्चात् वे फिर उवाचीं "टर्न बैक टू पेजेज़।" एंड आइ वॉज़ लाइक "ओकेएएएय्...!"

फिर सोचे कि अब समय-रेखा और नोटबुक में भी एक अदद तुलना तो बनती ही है। जिस प्रकार समय-रेखा का आदि था वृहत्काय विस्फोट, उसी प्रकार नोटबुक का आदि है उसका सर्वप्रथम/पूर्वतम/अग्र पृष्ठ, वहीं से तो नोटबुक का आरम्भ है न! तो यदि हम नोटबुक के आदि (अग्रपृष्ठ) से उसके अंत (अंतिम पृष्ठ) की ओर बढ़ेंगे, तब हम समय-रेखा के समान 'आगे से पीछे' की दिशा में ही बढ़ रहे होंगे। इसी के अनुसार देखें तो महोदया का 'ह' के 'पीछे' छोटी 'ई' और 'ण' के 'आगे' बड़ी 'ई' कहना एवं 'राइट अहैड' व 'टर्न टू पेजेज़ बैक' कहना बिलकुल विपरीत है। वास्तविकता यह है ' नोटबुक के आगे' से ' नोटबुक के पीछे' की ओर बढ़ने वाली दिशा ही हमारे लिखने की दिशा है।

यहीं हमारा विरोधाभास चरम पर पहुँच चुका था, और चरमपंथी तो हमें किसी भी कोण से नहीं भाते। इससे पहले कि ये श्याल विरोधाभास हमारे हिय के लिए हलाहल बनता, हमें हर हाल में हल निकालना था। चैन इक पल नहीं (था), और कोई हल नहीं (था)। डाका तो बहुत दूर की बात है, चोरी तक भी तो नहीं हुई थी, फिर भी हंगामा बरपा था, हमारे चित्त में। इस हंगामे से पार पाने हेतु हमने छत पर श्री सोनू निगम और श्री मोहित चौहान के अवलंबन से घंटा-सवा घंटा पदयात्रा करी। तरावट न मिलने पर नीचे आकर किरकिट के सजीव प्रसारण के आभाव में B4U चैनल की सूर्यवंशम अर्थात् 'बादशाह' फ़िल्म का आनंद लिया। तनाव घट रहा था और हम फिर से माथापच्ची करने को दम भर रहे थे।

विद्यालय का पुनः स्मरण हुआ। स्कूल में एक खेल-कूद व शारीरिक शिक्षा के अध्यापक हुआ करते थे अर्थात् पी.टी. सर। वे ड्रम बजाकर छात्रों से परेड का (जबरन) अभ्यास कराया करते थे। सर ड्रम बजाने के इतने आदी थे कि ड्रम बजाने वाली डंडी भी प्रायः अपने साथ ही रखते थे। पी.टी. सर हास-परिहास से कोसों दूर रहते थे इसलिए अधिकांश लड़कों की जाँघों के पश्च भाग पर वह डंडी मुद्रित रहती ही थी। ख़ैर... अधिक नहीं कहेंगे, बस इतना और कि पुरवइया चलने के समय थोड़ी सावधानी आज भी बरतते हैं।

नईं होणा था, नईं होणा था, लेकिन हो गया (था)....विषयांतर! फ़िल्म 'बड़े मियाँ - छोटे मियाँ' के असरानी का संवाद "तो क्या हुआ? हहा!" सोचकर हम 'आगे' बढ़े। लंबाई के अनुसार प्रार्थना सभा में पंक्ति लग चुकी थी, पी.टी. सर हमारे (मेरे) समक्ष अपनी वृहत् काया लिए जमे हुए थे यह निरिक्षण करने के लिए कि पंक्ति ऋजु है या नहीं? इस समय कोई सर से पूछे कि उनके आगे/पूर्व/सामने कौन है, तो हमारी ओर तर्जनी करके उनका उत्तर होता "ये छोटा चेतन !" क्योंकि पंक्ति में सबसे आगे/पूर्व हम ही हैं। अब ज्यों ही आगे से छठा बालक दूसरी कक्षा की पंक्ति में लगे आगे से छठे बालक के संग ठिठोली करने हेतु उसके निकट जाता है, त्यों ही पंक्ति ऋजु न रहकर वक्र हो जाती है। ज्यामिति, ऐज़ यू नो! अब उन्हें 'सीधा' करने के लिए डंडी उपयोग में लाई जानी है, इसलिए अब पी.टी. सर हमारी पंक्ति के पाँचवे और छठे बालक के मध्य खड़े हैं। फिर क्या हुआ, ये ना पूछो, कुछ ऐसी बात, हो गयी... क्योंकि इसका वर्णन करना कष्टदायक तो होगा ही, अनचाहा विषयांतर और हो जायेगा। तो काहे करें भाई! अतः वीडियो यहीं पॉज़ करते हैं।

तो यदि इस क्षण मास्साब से पूछे कि अब उनके आगे/सामने/पूर्व कौन है? तो वे कहेंगे " यही 'छठा' हुआ नालायक जिसे हम अभी 'छठी' का दूध याद दिलाये दे रहे हैं।" यहाँ से ज्ञानिवर्ग दो निष्कर्ष निकाल सकता है, पहला यह कि मास्टरजी केवल लड़कों को ही नहीं बल्कि लड़कों पर तंज़ भी अच्छा कस लेते हैं। दूसरा यह कि स्थानान्तर होने पर मास्टरजी के दृष्टिकोण में स्पष्ट अंतर आ गया है। पहले इनके 'आगे' हम थे, अब वो छठा (हुआ) छात्र है, कल को कोई और होगा।

मास्टरजी अपने दृष्टिकोण के अनुसार ठीक हैं किन्तु प्रिंसिपल महोदय जो कि थोड़ी दूर, तटस्थ खड़े, मंच पर 'छात्र जीवन में आत्मानुशासन' की महत्ता समझते हुए छात्रों को संबोधित कर रहे हैं, उनके दृष्टिकोण से गलत हैं। पूर्णतः विपरीत। मास्टरजी के सापेक्ष (अर्थात् रिलेटिव) दृष्टिकोण से छठा बालक उनके 'आगे' खड़ा है जबकि प्रिंसिपल महोदय के तटस्थ दृष्टिकोण से वही छठा बालक मास्टरजी के 'पीछे' है। हमारे विचार में दोनों दृष्टिकोण अपने में सही हैं, यदि गूढ़ता से इन्हें समझें तो।

कुल जमा यह है कि यही हल है क्योंकि अत्यधिक अंतर्द्वंद्व से केवल बाल ही झड़ते हैं, कोई विशेष बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं होती। किसी को हो जाये तो वह "अयम् अन्तिमा जाति, नत्थिदानी पुनब्भवोति" कहकर 'आगे' बढ़ सकता है, हम कतई नहीं रोकेंगे।

 

जय दाऊजी की।


 

(सम्यक युवा हैं और बहुत सधा हुआसुविचारित लिखते हैं। किंचित संकोची हैं। दिशा-भेद पर उन्होंने यह ललित निबन्ध लिखा है। यह तीन भागों में है- तीनों स्वतन्त्र हैं परन्तु एक दूसरे से गहरे सम्बद्ध। यह तीसरा भाग हला'हल' शीर्षक से है।

          सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।"- सम्पादक)

 

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

कथावार्ता : दिशा भेद : ललित निबन्ध भाग-2

विरोधाभास

- सम्यक् शर्मा

दिशा भेद निबन्ध का पहला भाग- से आगे

अब जब दिशा भेद खुल चुका है तो आइए पारी को वहीं से आगे बढ़ाते हैं।

"ठीक ! उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम की पशोपेश बहुत हुई" यह सोचकर हम चिंतामुक्त होकर अधबैठे-अधलेटे से हो गए। आप समझ ही गए होंगे कि दोनों हाथ भी ग्रीवा (वही गरदन अपनी!) के पीछे ही थे तथा चिंतामुक्ति के भाव को और बल दे रहे थे। अब हमारे भीतर का नीलेश मिश्रा जाग उठा था और हम 'यादों का सफ़र' करते हुए सुप्तावस्था की ओर अग्रसर थे। कई यादें आयीं - गाँव की, नानी के घर की, कॉलेज की, स्कूल की, इत्यादि-इत्यादि।

बाल्यकाल से ही हम अग्रिम पंक्ति के खिलाड़ी थे। इससे पहले कि कोई हमें हॉकी अथवा फुटबॉल का पुरोधा समझ लेवे, बताये देते हैं कि बचपन में हमारी लंबाई सीमित होने के कारण हम स्कूल की प्रार्थना सभा (हाँ वही असैम्बली) में अपनी कक्षा की पंक्ति में सर्वप्रथम लगा करते थे। लंबाई के अनुसार लगने वाली इस कुप्रथा को आरंभिक 5-6 लड़के बड़ी गंभीरता से लिया करते थे। मसलन यदि हम एक-आध बार ऐसे ही कभी मित्रों के संग हँसी-ठट्ठा हेतु पंक्ति के मध्य में कहीं लग जाते थे तो वे 'नॉटी' सहपाठी हमें "ओये! जा आगे लग।" कहकर आगे पटेल दिया करते थे और हम रन-आउट हुए इंज़माम की भाँति मुंडी लटकाए यथास्थान आ जाते थे, आगे।

          जी नहीं अभी 'दिशा विषय' से विषयांतर नहीं हुआ है, प्रार्थना सभा की चर्चा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि ये यह स्थापित करती है कि 'आगे' और 'पहले' समानार्थी हैं। पंक्ति में सबसे 'आगे' अर्थात् 'पहले' हम लगते (या कहें लगाये जाते) थे। इसी अनुसार व्यक्ति क्रमांक- 3 से आगे/पहले व्यक्ति क्रमांक- 2 लगता था। इसी सम्बन्ध को बल देने के लिए कुछ उदाहरण लेते हैं - 'पूर्वज' = पूर्व अर्थात् पहले जन्मा; 'अग्रज' = अग्र अर्थात् आगे जन्मा (बड़ा भाई)। आशय यह है कि 'आगे' जन्म लेने वाला आपसे 'पहले' जन्म लेता है।

          आइये अब कल्पना करें बाएँ से दाएँ की ओर खिंची एक ऐसी समय-रेखा (ऑल्सो कॉल्ड टाइमलाइन) जिसका पूर्वतम/बाएँतम सिरा वृहत्काय विस्फोट (द बिग बैंग! यस यू गॉट इट, डिडण्ट यू ?) है जबकि दूसरा सिरा भविष्य के गर्त में कहीं अज्ञात है। मध्य में कहीं आप हैं। तो जो आपसे पूर्व=पहले/अग्र=आगे जन्मे हैं वे इस रेखा पर आपके बाएँ दर्शाये जायेंगे और जो आपके पश्चात्=पीछे जन्मेंगे वे आपके दाएँ दर्शाये जायेंगे। स्पष्ट है कि बाएँ से दाएँ की ओर हम समय की दिशा में चल रहे हैं।

          प्रायः हम कहते हैं कि " 'पिछली' पीढ़ियाँ धन के अभाव में रहीं, कम से कम 'आगे' की पीढ़ियाँ तो समृद्ध बनें!" यानि कि हम पूर्वजों को 'पिछली/पीछे छूटी हुई' पीढ़ी और भविष्य में आने वाली पीढ़ी को 'अगली/आगे आने वाली' पीढ़ी कह देते हैं। इसी तर्क के अनुसार यदि हम समय रेखा देखें तो अपने दाएँ वाली को 'अगली' और बाएँ वाली को 'पिछली' पीढ़ी बोलेंगे!

          परंतु आप स्मरण करें तो पायेंगे कि सैंतालीस सेकण्ड ही 'पूर्व' यह घोषित करते हुए ही हमने समय-रेखा का काल्पनिक चित्रण करवाया था कि वहाँ आपके 'पश्चात्=पीछे/बाद' जन्म लेने वाले आपके दाएँ हैं आपसे 'पूर्व=पहले/अग्र=आगे' जन्म लेने वाले आपके बाएँ हैं।

          तो सामान्य भाषा में पूर्वजों को 'पिछली' (अर्थात् पीछे जन्म लेने वाली) और भविष्य की पीढ़ियों को 'अगली' (अर्थात् आगे जन्म लेने वाली) पीढ़ी कहना विरोधाभास नहीं ! घोर विरोधाभास है।

          आगे भी बहुत कुछ है विरोधाभास के हवाले से धुआँ पेलने को। और पेलेंगे भीइस रचना-त्रय (ट्रिलजी फोक्स!) के अन्तिम भाग हला'हलके द्वारा। तब तक के लिए कोरोना से 'सावधान रहें, सतर्क रहें'



          (सम्यक युवा हैं और बहुत सधा हुआसुविचारित लिखते हैं। किंचित संकोची हैं। दिशा-भेद पर उन्होंने यह ललित निबन्ध लिखा है। यह तीन भागों में है- तीनों स्वतन्त्र हैं परन्तु एक दूसरे से गहरे सम्बद्ध। यह दूसरा भाग विरोधाभास शीर्षक से है।

          सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।"- सम्पादक)

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

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