किस्सा
और चुटकुला में बुनियादी अंतर है। दोनों ही कहन की चतुराई चाहते हैं और दोनों में
एक ऐसा बिन्दु रहता है-जहां से बात खुलती है। चुटकुले में खुलती है तो हास्य बनता
है और किस्सा में आश्चर्य अथवा हास्य अथवा चौंकाने वाली कोई चीज हो सकती है।
किस्सा में तफसील अधिक रहती है। किस्सागो का ध्यान उन वर्णन पर अधिक रहता है जिससे
माहौल बनता है। चुटकुला में माहौल उतना मायने नहीं
रखता जितना किस्से में। किस्सा इस बात पर अधिक रोचक हो जाता है, जब यह हमारे जाने/अनजाने के किसी शख्सियत से सम्बद्ध हो जाता है।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हिमांशु बाजपेयी की
किताब "किस्सा किस्सा लखनउआ" लखनऊ के किस्सों की विशिष्ट पुस्तक है। इस
किताब को पढ़ने के बाद आपको अपने शहर से प्यार हो जाएगा और लखनऊ से रश्क। आप इन्हें पढ़ते हुए बारम्बार अपने शहर के किस्सों को याद
करने की कोशिश करेंगे। लखनऊ के किस्सों को पढ़ते हुए मुझे अपने गाँव, शहर गाजीपुर, प्रयागराज, दुद्धी
और इटावा के कई ऐसे वाकये याद आये जो बैठकबाज़ लोग रस ले लेकर सुनाते थे/हैं।
हमलोगों ने मुल्ला नसीरुद्दीन, हातिमताई, तेनालीराम, अकबर-बीरबल आदि के किस्से खूब पढ़े/सुने
हैं। हमलोगों ने ग्रामीण लोगों से अकिला फुआ के बहुत
से किस्से सुने हैं। किस्सा किस्सा लखनउआ इस मामले में विशिष्ट है कि यह किसी एक
व्यक्ति पर केंद्रित नहीं है। यह शहर पर केंद्रित है। और शहर भी कैसा? संस्कृति का एक जीता-जागता बाड़ा। लखनऊ इस मामले में भी विशिष्ट है कि इस
शहर में पुराने के प्रति गहरा लगाव है तो नया बनने की गहरी छटपटाहट। नवाबी शान
इतनी जबर चीज है और इसको इतना ग्लैमराइज किया गया है कि यह लखनऊ की विशेष पहचान बन
गया है। शहर बनारस में फक्कड़पन है, मस्ती है जबकि लखनऊ में
एक अदा है। यह अदा ही इस शहर को अद्भुत बनाता है। यहां का नवाब वाजिद अली शाह एक
मिसाल बन गया है तो इस शहर के किस्से भी उसी के अनुरूप दिलचस्प और रोचक बन गए हैं।
हिमांशु बाजपेयी की विशिष्टता यह है कि वह शहर लखनऊ के किस्से कहते हुए हर
तरह के 'टेस्ट' को जगह देते चलते हैं।
अमृतलाल नागर, 'सुरियाकांत तिरपाठा निराली', बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस से लेकर अदब की दुनिया के कई लोगों की
कहानियों से लेकर पनेड़ी, चायवाले, इक्केवाले,
कोठागोई आदि की कहानियां भी इसमें आ गयी हैं। अदब की दुनिया जहाँ
नफासत वाली है, सड़क और गलियों की दुनिया वहीं रोचक हैं।
हिमांशु बाजपेयी सबको उसी रस और भावभंगिमा के साथ सुनाते चलते हैं। हर किस्सा एक
उम्दा शेर के साथ और मानीखेज होता गया है। लखनऊ की संस्कृति को अभिव्यक्त करते
छोटे छोटे किस्से एक बैठक में पढ़/सुन लिए जाने के लिए उकसाते हैं।
"किस्सा किस्सा लखनउआ" में लखनऊ है
और अवध है। इसमें जो अवध है और जो जनसंख्या है वह मुग़लिया सल्तनत, इस्लाम और उर्दू के प्रभाव में है। शायद किस्सों की यही सीमा होगी। इस
किताब में जो अवध है वह पुराना तो है लेकिन बहुत
पुराना नहीं है। इसमें मूल अवध का कोई किस्सा नहीं। शायद शासन ने लोगों की स्मृति
पर एक कूँचा फेर दिया है।
"किस्सा किस्सा लखनउआ" एक बैठक में पढ़ जाने वाली किताब है। यह एक से
एक किस्सों की पोटली है। इसे पढ़कर आपको उर्दू पोइट्री से और प्यार हो जाएगा।
क्योंकि हर किस्से में किसी न किसी शायर की एक झलक है। इस शहर से प्यार हो जाएगा।
आप लखनऊ जाएंगे तो वहां इसमें वर्णित तहजीब और तरतीब खोजेंगे। लेकिन जैसा कि नियति
है- किसी भी शहर को जानना हो तो उस शहर में रमना पड़ता है- उसमें समय देना पड़ता है।
आप पर्यटक बनकर उस शहर की नब्ज को नहीं पकड़ सकते। उस नब्ज को जानने/पकड़ने के लिए
उस शहर का होना पड़ता है। आज जब हम एक ऐसी ग्लोबल और आवारा पूँजी प्रवाह के दौर में
हैं, जहां एकरेखीय संस्कृति का हरओर विस्तार हो रहा है तब इस
नब्ज को पकड़ना और भी कठिन है। हिमांशु बाजपेयी ने किस्सा किस्सा लखनउआ में उसे
पकड़ने की कोशिश की है और यह बेहतरीन प्रयास है। हर उस व्यक्ति को, जो अपने आसपास को शिद्दत से चाहता है, उसे आसपास के
किस्सों को लिपिबद्ध करना चाहिए। और जिसे यह प्यार करना सीखना है- उसे
"किस्सा किस्सा लखनउआ" जरूर पढ़ना चाहिए।
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