-कुबेरनाथ राय
आज का साधारण भारतीय, विशेषतः मूर्तिपूजक वर्ग, अपनी बुद्धि को भारतीय राजनीति के केंद्रीय और प्रांतीय पुरोहितों के चरणों पर सौंपकर बड़े मौज की तंद्रा में लीन है। आखिर जब घोड़ा बेच ही दिया तो फिर जुम्मन को घास काटने की फिक्र क्यों सताये! इधर गत वर्ष देश में प्रांतीयता और ‘मजहब’ के नाम पर काफी रक्तपात हुआ। श्वान-पुच्छ न्याय से पुरानी बातें फिर लौटी। सरदार पटेल और गांधी जी भी सभी को याद आने लगे। राष्ट्र के कर्णधारों ने सोच समझकर तथ्य ढूंढ निकाला कि इन सारे खुराफातों की जड़ इस देश का इतिहास ही है। अतः क्यों न सर्वप्रथम उसे ही दुरुस्त किया जाए! फिर क्या था ? गली-कूचे, बाग-बाजार हर जगह, लोकसभाई विधानसभाई बंधुओं से लेकर प्रांत-पतियों और भारत-भाग्य-विधाता के मनसबदारों तक, सभी एक स्वर से कीर-वचन बोल उठे। राष्ट्रीयता का सैलाब आ गया। ‘भावात्मक एकता’ की चर्चा ऐसी चली कि राष्ट्र का सारा बौद्धिक समाज डूब गया। सबने महसूस किया, इतिहास फिर से लिखा जाय। जितने संघर्षपूर्ण स्थल हैं उन्हें या तो हटा दिया जाय या इस रूप में संशोधित किया जाए कि वे ‘कुश्ती’ की जगह ‘आलिंगन’ प्रतीत हों । प्रस्ताव की भलमनसाहत से किसी को एतराज नहीं ! बिल्कुल भोली-भाली बात है, -बाल-सुलभ, हर एक अर्थ में बाल-सुलभ। पर इतिहासकार का दायित्व क्या है ? क्या यह सिद्धांततः उचित है कि साहित्य और इतिहास, जो विशेषज्ञों से संबंधित क्षेत्र हैं, एक विशेष नीति या पूर्वाग्रह स्थापित करके लिखे जाएँ चाहे उस नीति का सामाजिक महत्त्व कितना भी अधिक क्यों न हो ? क्या यह संभव नहीं कि व्यक्तिगत रूप से ऐसी छूट पा जाने पर इतिहासकार गण अपने वर्गों के निहित स्वार्थों के लिए इस सद्भावना पूर्ण लक्ष्य का दुरुपयोग करेंगे ? क्या यह कदम मार्क्सवादियों की इतिहास की “पॉजीटिव व्याख्या” ‘पुनराकलन’ (रिवीजन) और ‘दिमाग परिष्कार’ (ब्रेनवाशिंग) का रूप आगे चल कर नहीं धारण कर सकता? इतिहासकार की अपनी एक मर्यादा होती है। उस मर्यादा को सरकारी नीति से निगड़-बद्ध करने की यह प्रथम ‘भूमिका’ (यदि ‘प्रयास’ नहीं तो) समस्त भारत के बुद्धिजीवियों के सामने एक चुनौती, एक प्रश्नचिह्न उपस्थित करती है।
Kubernath Rai |
प्रस्ताव का कल्पित अर्थ और फल
तथ्यों के ज्ञापन या अध्ययन की दो प्रक्रियाएँ होती हैं। ‘रिजनिंग’ (विवेचन) और ‘रेशनलाइजेशन’ (ऊहा)। किसी सच्ची बात को सिद्ध करने के लिए जो तर्क पेश किए जाते हैं वह तो है ‘रिजनिंग’। किसी मिथ्या की वकालत के लिए जो तर्क बनाए जाते हैं वह है ‘ऊहा’ या ‘रेशनलाइजेशन’। ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकारी इतिहास नीति ‘ऊहा’ की ओर अधिक बल देने वाली है। पर इस निष्कर्ष से पूर्व हम इसके लक्ष्य आदि पर प्रथम विचार करें तो अच्छा है।
जहाँ तक लक्ष्य का प्रश्न है इसकी ईमानदारी में किसी को शक नहीं हो सकता। भूमिति के साध्यों में प्रतिज्ञा कथन के दो भाग होते हैं : कल्पित अर्थ और फल। प्रस्ताव के कल्पित अर्थ से कोई एतराज नहीं।
इतिहास-संशोधन के प्रधान व्याख्याता और हमारी ‘संस्कृति’ के सरकारी विधाता प्रोफेसर हुमायूं कबीर ने हाल ही में एक लेख लिखा है ‘भारत की राष्ट्रीय एकता’ जो इस देश के अनेक दैनिक पत्रों में प्रकाशित हुआ है। उसमें सरकार की इतिहास नीति का भी एक स्पष्ट आकलन मिलता है। लेख का प्रारंभ इस प्रकार होता है- “भारत के इतिहास में एक ओर तो धर्म और संस्कृति के आधार एकत्व की ओर झुकाव दिखायी पड़ता है दूसरी ओर भाषा, रीति-रिवाज, राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ के आधार पर टुकड़े-टुकड़े में विभक्त होने की प्रवृत्ति विद्यमान है।” प्रोफेसर कबीर का यह प्रारंभिक कथन ही भ्रामक और आधारहीन है। भाषा या राजनीतिक आधारों पर देश विगत काल में भी विभक्त था पर उस विभक्तता को हमने कभी भी ‘महसूस’ नहीं किया। हमने कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि तमिलनाडु या बंगाल अलग राष्ट्र हैं-आर्य परंपरा (वैदिक्, द्रविड़, हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आदि), संस्कृत भाषा और उसकी उत्तराधिकारिणी सधुक्कड़ी हिंदी, ये दो सूत्र देश की एकता के विधायक सदैव रहे। भाषा और रीति-रिवाजों के आधार पर नेहरू-युग में संघर्ष का सूत्रपात हुआ और इसका बीज उन लोगों के भाषणों में निहित है जिनमें भारतवर्ष में सर्वप्रथम ‘हिंदी इंपीरियलिज्म’ (हिंदी साम्राज्यवाद) शब्द की रचना की गयी। गांधी युग में भी भाषा के आधार पर संघर्ष का कहीं भी वृहद रूप नहीं दिखाई देता। ऊपर के वक्तव्य में सत्य को उल्टा रखकर देखने की चेष्टा की गयी है। भारत के प्राचीन इतिहास में संघर्ष हुआ है पर विजातीय तत्त्वों के साथ। अंत में वे विजातीय तत्त्व आत्मसात हो गये और शेष आत्मसात होने की प्रक्रिया में हैं। पर यह सब एक स्वाभाविक नियम के अनुसार होगा, न कि सरकारी कानून द्वारा।
आगे चलकर प्रोफेसर कबीर भी विजातीयता को दबी जुबान से संघर्ष का मूल कारण मानते हुए प्रतीत होते है। उनका कथन है कि बहुत थोड़े से भारतीय ऐसे है जो भारत के “संपूर्ण सांस्कृतिक उत्तराधिकार” को अपना निजी समझते हैं और ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं जो अपने वर्ग विशेष की संस्कृति और इतिहास को ही महत्त्व देकर अपने को धन्य मानते हैं। मुसलमान प्राचीन भारत के नायकों यथा राम, कृष्ण, व्यास, अशोक, चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य आदि को अपना नहीं मानते हैं। उनके नायकों की विचारधारा विदेशी आक्रमणकारियों से चलती है- यथा- महमूद गजनवी, गौरी आदि। हिंदू भी शेरशाह, अकबर और बहादुर शाह के प्रति वैसी भक्ति नहीं दिखाते। प्रोफेसर कबीर की स्पष्टवादिता की हम सराहना ही करेंगे। यह देश के लिए दुर्भाग्य-सूचक है कि ‘भारतीय इतिहास’ को हम ‘हिंदू इतिहास’ या ‘मुस्लिम इतिहास’ के रूप में पढ़ें। अतः प्रोफेसर कबीर का यह निष्कर्ष कि भारतीय इतिहास को अ-सांप्रदायिक रूप दिया जाय, इससे असहमत होने का कोई कारण नहीं।
आपत्ति का धरातल
तब प्रश्न उठता है कि आपत्ति और मतभेद की गुंजाइश कहाँ है, जब हम मूलतः स्वीकार कर लेते हैं कि भारतीय इतिहास असांप्रदायिक रूप में लिखा जाय ? मतभेद का सूत्रपात है इस इतिहास के ‘भारतीयकरण’ की प्रणाली पर। व्यक्तिगत और वर्गगत पूर्वाग्रहों से रहित सत्य अर्थात ‘निष्पक्ष सत्य’ का उद्घाटन तो इतिहास का कर्तव्य ही है, इससे कौन इंकार करेगा ? पर जब इसका उपयोग इतिहासकार वकील की तरह करने लगेगा और असत्य की वकालत को ‘सत्य का संशोधन’ का रूप देने लगेगा, तब तो मतभेद अवश्य उपस्थित होगा। प्रोफेसर कबीर ने प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकों की चर्चा की है—उस चर्चा से ही ज्ञात होता है कि सरकार का किस प्रकार के इतिहास की ओर झुकाव है। जो पूर्वाग्रह सरकारी नीति से प्रारंभिक पुस्तकों में पोषित होगा, उसे सरकार उच्च स्तर पर भी प्रोत्साहन निश्चय ही देगी। अतः जब कोई अधिकारी प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकों के स्वरूप पर कोई बात करता है तो उस बात के अंदर सरकार की इतिहास-नीति का लघु-चित्र निहित है। बड़े पैमाने पर वही चित्र बड़ा बनकर आयेगा ही। प्रोफेसर कबीर का कथन है—“स्कूलों की प्रारंभिक इतिहास-पुस्तकें केवल सच्ची बातें ही बतायें, परंतु यह आवश्यक नहीं कि प्रारंभिक इतिहास में ‘पूर्ण सत्य’ दिया जाय। प्रारंभिक इतिहास में केवल गिने-चुने प्रसंग ही रहें और वे सब प्रसंग जो विविध वर्गों या संप्रदायों के संघर्ष एवं घात-प्रतिघात से संबंधित हैं, दिए जाएँ और इतिहास लेखन में भारतीय जीवन और संस्कृति में निहित पारस्परिक सहयोगिता पर बल दिया जाय”। अर्थात प्रारंभिक इतिहास पुस्तकों में (जो हायर सेकन्डरी स्कूलों तक चलेंगी) ‘पूर्ण सत्य’ देना आवश्यक नहीं। उनमें ‘अर्धसत्य’ या ‘संशोधित सत्य’ को ही मान्यता दी जाय, तो अच्छा है।
बात ऊपर से देखने पर उतनी आपत्तिपूर्ण नहीं लगती, जितना उसके परिणाम-चिंतन पर। ‘संशोधित सत्य’ को मान्यता देकर हम ‘निष्पक्ष सत्य’ को उसके चरम अधिकार से वंचित करते हैं। अभी तक तो इतिहास का लक्ष्य था कि जहाँ तक हो सके, वह ‘निष्पक्ष’ और ‘पूर्वाग्रह-हीन’ सत्य उपस्थित करे। अब तो वह बात रही नहीं। अब तो एक माध्यमिक (सेकंडरी) ध्येय उसके बुनियादी ध्येय के ऊपर बैठा दिया गया है। किसी भी घटना या चरित्र के ऊपर ‘समग्रता’ से विचार करना, उक्त ध्येय के अनुसार, कठिन हो जाएगा। अलाउद्दीन खिलजी की लूट और रक्तपात विश्व के इतिहास में अतुलनीय है। उसने चीजों का भाव स्थिर करने की चेष्टा भी की थी। यह उसने किया था अपने लश्कर-खर्च को कम करने और हिंदू व्यापारियों के दमन के लिए। पर आज का इतिहासकार इसे वकील की तरह देखेगा। उसके मर्मांतक अत्याचारों की कथा तो राष्ट्रीयता के नाम पर दबा दी जायेगी, और उसका उक्त प्रयत्न एक अर्थशास्त्री दूरदर्शिता के रूप में देखा जाएगा। फलतः नये इतिहास में आयेगा – जन-नायक, एवं जन-मंगलकारी शासक के रूप में। पर क्या यह ‘सत्य’ का मज़ाक नहीं होगा ?
इतिहास के पुनराकलन एवं पुनर्गठन की आवश्यकता हम भी मानते हैं। पर ‘संशोधित सत्य’ के फार्मूले से इतिहास-लेखक अपने वर्ग के निहित स्वार्थों का भी पोषण कर सकते हैं, एक नये किस्म का पूर्वाग्रह गढ़ सकते हैं। श्री नेहरू ने एक ऐसा ही भ्रामक पूर्वाग्रह गढ़ने की चेष्टा ‘विश्व इतिहास की झलक’ में की है। अलाउद्दीन खिलजी के अध्याय में वे कहते हैं कि उक्त युग में अफगान भारतवर्ष को अपना घर समझकर अपने को भारतीय मानने लगे थे और हिंदुओं से शादी-ब्याह करने की चेष्टा उन्होंने की, एवं अलाउद्दीन की बीवियों में भी कई हिंदू थीं। (यह शब्द-प्रति-शब्द उद्धरण नहीं। पर श्री नेहरू के कथन का सारांश यही है।) गोया ऐसा सब हुआ हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के नाम पर ! पर इतिहास बताता है कि वास्तविकता क्या थी। यदि हिंदू पूर्वाग्रह या मुस्लिम पूर्वाग्रह से सत्य के आधे या चौथाई पहलू को देखते थे तो इस प्रकार के गढ़े पूर्वाग्रह से हमें सत्य का वह भाग भी नहीं दिखाई पड़ेगा। भूषण की कविताएँ आज की पाठ्य पुस्तकों में अनुपस्थित हैं। पद्मिनी हिंदू कुल में जन्म लेने के कारण भविष्य की पुस्तकों में जाति-बहिष्कृत हो जाएंगी। प्रताप एक कबीले का सरदार रह जाएगा और मानसिंह राष्ट्रीय नायक के रूप में आयेंगे। महाराष्ट्र वालों की चढ़ी –त्यौरियों का डर न रहा तो शिवाजी भी काल क्रम से...।
इधर स्वतंत्रता के बाद राजनीति कुछ इस प्रकार से हमारे जीवन के हर एक अंग में घुस गयी है कि हमें सत्य को छिपाना धर्म प्रतीत होने लगा है। किसी भी राष्ट्र के चरित्र की प्रथम एवं अंतिम कसौटी सत्य-ज्ञापन एवं सत्य-सहन की क्षमता। प्रौढ़ता का यही लक्षण है। पर हमें असत्य और सत्य को एक-दूसरे में गड्डमड्ड करना आज के राष्ट्र–कर्णधार ज्यादा सिखाते हैं। अनेक लेखक, नेता और एम.पी. तहे दिल से असत्य और अनर्थकारी तथ्यों को नापसंद करते हैं। वर्ग-विशेष या व्यक्ति-विशेष के नाखुश होने की चिंता अधिक है, उक्त सत्य के पालन और ज्ञापन की कम। इसी सिलसिले में एक “संतुलित निंदा” का नवीन सिद्धांत निकला है, जिसमें वादी-प्रतिवादी दोनों की बराबर निंदा करके सबके तुष्टीकरण की चेष्टा की जाती है। यही अगर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में होता है तो सजा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को भी साथ ही भुगतनी पड़ेगी। अथवा उक्त रक्तपात को ‘राष्ट्रीयता’ के नाम पर “चुप-चुप” करके दबा दिया जायेगा। इस “संतुलित निंदा” के आधार पर ही श्री दिनकर ने पाकिस्तान बनाने का श्रेय हिंदुओं को दिया है। प्रोफेसर कबीर ने औरंगजेब के अत्याचारों (लेखक ने ‘मुस्लिम’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है) का उदाहरण देते हुए उसकी भूमिका में ब्राह्मणों द्वारा किए गये ‘अत्याचारों’ की चर्चा इस प्रकार की है “जब अभिनव-ब्राह्मण धर्म के उदय से बौद्ध धर्म के प्रति अश्रद्धा या दमन का प्रारंभ हुआ तो भारत का पतन शुरू।” यदि दमन का भौतिक अर्थ लिया जाय तो इतिहास साक्षी है कि धर्म के नाम पर ब्राह्मण ने कभी रक्तपात नहीं किया। दो एक स्थानीय संघर्षों को छोड़कर भारत में धर्म के नाम पर हत्याकाण्ड इस्लाम के पूर्व कभी नहीं हुआ। रही अश्रद्धा की बात। वह तो बौद्धिक धरातल की वस्तु है। यदि बुद्धि ने यह सुझाया कि यह तथ्य श्रद्धा का पात्र नहीं तो इसे क्या औरंगजेब के अत्याचार के समानांतर रखा जाएगा ? पर ‘संतुलित-निंदा’ का राष्ट्रीय सिद्धांत यही कहता है।
प्रोफेसर कबीर द्वारा ‘संशोधित’ सत्य
प्रोफेसर कबीर के अनेक भाषणों और पुस्तकों में ऐसे ‘संशोधित सत्यों’ की भरमार है जो उन्होने ‘नवीन राष्ट्रीयता’ के नाम पर प्रसारित किया है। प्रोफेसर कबीर ने अपनी पुस्तक ‘आवर इंडियन हेरिटेज’ (‘भारत की सांस्कृतिक विरासत’ या ‘भारत का सांस्कृतिक उत्तराधिकार’) में हिंदू और इस्लामी संस्कृतियों का ऐक्य दिखाने की चेष्टा करते हुए बताया है कि बहुत संभव है कि शंकराचार्य ने अद्वैत की शिक्षा इस्लाम से ग्रहण की हो। कितनी ज़बरदस्ती है ! दो शताब्दियों तक तो इस्लाम एक ‘अनुशासन संहिता’ मात्र रहा। ‘कुरान’ के वर्तमान संस्करण में भी दर्शन नाम की वस्तु अत्यल्प है। बाद में ग्रीक प्रभाव के फलस्वरूप (या भारतीय प्रभाव के फलस्वरूप) उसमें अद्वैत लाने की चेष्टा इमाम गजाली जैसी प्रतिभाओं ने की जो 10वीं एवं 11वीं शती में उत्पन्न हुई। फिर भी इस चेष्टा से इस्लाम में एकेश्वरवाद को दार्शनिक धरातल मात्र ही मिला। उसे अद्वैत कहना बुद्धि की बलिहारी है। ‘एकेश्वरवाद’ और अद्वैतवाद’ में एक भेद होता है। यह साधारण दार्शनिक भी जानता है। मुहम्मद साहब का जन्म होता है 6वीं शती पूर्व, और उपनिषदों की रचना है गौतम बुद्ध से कम से कम 500 वर्ष पूर्व। ऐसी स्थिति में शंकर को इस्लाम का ऋणी बताना बौद्धिक अराजकता है, चाहे उद्देश्य कितना भी सुंदर क्यों न हो। अराजकता का वास्तविक श्रेय श्री कबीर को नहीं बल्कि “कांग्रेसी” इतिहासकार एवं नेहरू-दरबार के मनसबदार श्री ताराचंद को है।
प्रोफेसर कबीर द्वारा ‘संशोधित सत्य’ का दूसरा उदाहरण उनके “गोहाटी वि.वि.—कमला-लेक्चर” में मिलता है जब उन्होंने अपने शोध का यह तत्त्व प्रस्तुत किया है कि भारत में इस्लाम का प्रवेश आक्रामक रूप में नहीं बल्कि व्यापारी एवं नाविक-संगठन के रूप में हुआ है। इसी संशोधित सत्य का उदाहरण प्रोफेसर कबीर का विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए “हिंदुस्तानी” को विधान-सम्मत राष्ट्र भाषा बताना भी है जिस पर ‘सरस्वती’ संपादक पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने कड़ी टीका की थी।
इसी प्रकार अन्य उदाहरण प्रोफेसर कबीर के श्री मुख से निकले अनेक वचनों से दिए जा सकते हैं। जब श्री सुनीति कुमार चटर्जी और श्री सुकुमार सेन दशकों पूर्व बहुत पहले से ही असमिया को स्वतंत्र भाषा मानते आ रहे हैं, तो हमारे प्रोफेसर ने 1952 में वक्तव्य दिया था कि ‘असमिया’ बंगला की एक बोली-मात्र है। इसका उल्लेख गत वर्ष असमिया के प्रधान साहित्यकार श्री अंबिका गिरि चौधरी ने किया था। इन पंक्तियों का लेखक प्रोफेसर कबीर की व्यक्तिगत प्रतिभा एवं उनकी देशभक्ति का कायल है। पर राष्ट्रीय स्तर पर तथ्यों की तोड़-मरोड़ का विरोध हरेक भारतीय द्वारा होना चाहिए, विशेषतः जब कि तथ्यों का संबंध संस्कृति और इतिहास से है। संस्कृति के विकारों का निराकरण निष्पक्ष होकर करना आवश्यक है, पूर्वाग्रह लेकर नहीं। यदि आज का ‘हरिजनोद्धार’‘ब्राह्मण दमन’ का रूप धारण कर ले, तो उसका समर्थन कोई भी विवेकशील व्यक्ति नहीं करेगा।
ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि सरकार द्वारा प्रसारित नीति की भावी दिशा क्या होगी। जिस देश के नागरिकों का पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, शिव-अशिव दोनों को राजनीति के नाम पर समान पूजा देकर स्वीकृति करने की प्रेरणा दी जाती है, उस राष्ट्र की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक बरबादी निश्चित है।
इतिहास-लेखन : एक कठोर संयम
संन्यासी और इतिहासकार दोनों को चराचर-जितेंद्रिय होना चाहिए। जिस प्रकार संन्यासी व्यक्तिगत भावों और पूर्वाग्रहों का दमन कर के विश्व के प्रति कठोर वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) दृष्टि रखता है उसी प्रकार इतिहासकार को भी व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और वर्गगत स्वार्थों की वंचनापूर्ण मरीचिका में, जल-कमल न्याय से, निर्विकार रहना चाहिए। इतिहास-लेखक के लिए ऐसे आत्म-संयम की घोर आवश्यकता है और इसी अर्थ में वह ‘जितेंद्रिय’ है। इतिहासकार पर साधारणतः तीन प्रकार के पूर्वाग्रह काम करते हैं : धरातल, दिशा और बिंदु। उसके दृष्टिकोण पर इन तीनों तथ्यों का प्रभाव पड़ता है। एक ही तथ्य प्रांतीय धरातल पर एक विशिष्ट प्रकार का महत्त्व रखता है और देशगत धरातल पर दूसरे प्रकार का। प्लासी की हार बंग-धरातल पर नवाब की हार थी, अखिल भारतीय धरातल पर अँग्रेजी साम्राज्य का बीजारोपण बनी तथा विश्व-धरातल पर औद्योगिक क्रांति और आधुनिक सभ्यता के उदय एवं एशिया से मुस्लिम-दर्प के अंत की शुरुआत बन गयी। घटना एक ही रही। पर इतिहास के विविध धरातलों ने उसका महत्त्व अन्य प्रकारों से दिखाया। दूसरा नियामक तत्त्व है दृष्टिकोण की दिशा। आर्थिक दृष्टिकोण से लिखे गये भारतीय इतिहास में वास्कोडिगामा का आगमन पानीपत की तीसरी लड़ाई से कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में आएगा। यदि इतिहासकार की दिशा एक संप्रदाय विशेष का स्वार्थ है तो दूसरे संप्रदाय के चरित्रों पर वह सच्ची कलम नहीं चला सकता। बदायूँनी के दृष्टिकोण से अकबर कोई अच्छा बादशाह नहीं था, क्योंकि वह हिंदू-प्रजा से भी प्रेम करता था। दरबारी इतिहासकार सदैव राजा की तारीफ लिखते है क्योंकि उनका दृष्टिकोण चारु-कथन (या ‘चाटु-कथन’ कहिए) तक ही सीमित होता है। ‘रामचरित मानस’ की रूसी भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया गया है कि तुलसी ने रावण-युग के बहाने मुगल-युग का वर्णन किया है। खेद है कि मुगल-युग के इतिहासकार दरबारी लेखकों बादशाह-नामों पर ही अधिक निर्भर रहते हैं पर मध्य युग के हिंदी साहित्य के भक्तिवादी कवियों ने दैत्य का और जन-पीड़न का जो चित्र रावण या कंस या कलियुग की वक्रोक्ति से दिया है, उसे भूल जाते हैं। मुगल-युग का इतिहास ‘मानस’ के उत्तरकाण्ड के आधार पर रचित होना चाहिए। ‘उत्तरकाण्ड’ ही जनमत की करुणा और आत्म-निवेदन प्रस्तुत करता है। तीसरा इतिहासकार को प्रभावित करने वाला तथ्य है उसका स्थिति-बिंदु। दृष्टि-पथ का सिद्धांत चित्रकला का राजमार्ग है। दूर की चीज बड़ी होने पर भी छोटी नजर आती है। दृष्टिकोण या ‘पर्सपेक्टिव’ का प्रभाव इतिहासकार पर भी पड़ता है। भारत के अंदर साधारणतः लोग समझते हैं कि विश्व में जो कुछ हुआ वह यहीं हुआ। दूरदराज़ के यूरोपियन या गोरे इतिहासकार ‘ग्रीक’ की पुरखागिरी के सामने मिश्र, भारत या चीन की कोई कदर ही नहीं करते। आज के इतिहासकारों में विश्वगत धरातल से हरेक घटना के निरीक्षण करने का फैशन चला है। पर इसी स्थिति बिंदु के कारण वे भयंकर भूलें कर बैठते हैं। सबसे विचित्र निष्कर्ष कभी-कभी प्रोफेसर टॉयनबी देते हैं जिनकी विशालकाय पुस्तक ‘ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ उनकी प्रतिभा का प्रमाण है। टॉयनबी महाशय ने अपनी पुस्तक ‘सभ्यता की परीक्षा’ (सिविलाइजेशन ऑन ट्रायल) में लिखा है कि हिंदू सभ्यता का उदय वैदिक् धर्म पर ग्रीक प्रभावों के कारण हुआ। भारतीय शिल्प पर विशेषतः गांधार शैली की मूर्तिकला पर, ग्रीक प्रभाव अवश्य है। थोड़ा बहुत ज्योतिष का प्रभाव पड़ा हो तो नहीं कह सकते, क्योंकि इस पर पर्याप्त मतभेद है। पर इतने से ही इतना बड़ा निष्कर्ष है कि सभ्यता पर ग्रीक सभ्यता के प्रभाव से ब्राह्मण या हिंदू सभ्यता का उदय हुआ, निरर्थक और अनर्थक प्रयास है तथा घोर पूर्वाग्रह का परिचायक है।
प्रत्येक इतिहासकार को इन धरातल-गत, दिशागत और बिंदुगत पूर्वाग्रहों के बीच ‘निष्पक्ष सत्य’ खोजना पड़ता है। ‘निष्पक्ष सत्य’ ही उसका लक्ष्य बिंदु और आत्मसंयम (संभावित अंशों तक) उसकी साधना है। अभी तक चरम रूप में निष्पक्ष सत्य इतिहासकार को नहीं मिला है और न तो शायद मिलेगा। फिर भी सापेक्ष सत्य के लिए भी निष्पक्षता का आदर्श– “सत्य सत्य के लिए न कि एक नीति विशेष के लिए” यह नारा इतिहासकार के लिए अंधकार की लाठी है। इस लाठी के परित्याग करने पर उसके पास कोई मार्गदर्शक नहीं रह जायेगा।
हम चाहते हैं कि भारतीय इतिहास निष्पक्ष और आत्म-संयम के साथ लिखा जाय, हिंदू और मुस्लिम, भाषा एवं पूर्वाग्रहों का परित्याग करके। मुस्लिम शासनकाल में केवल काले धब्बे ही नहीं, सुनहले बिंदु भी हैं। शेरशाह और अकबर, मीर कासिम और बहादुरशाह ऐसे ही सुनहले बिंदु हैं जिनका अभिनंदन हिंदू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई सभी उसी भांति करें जिस तरह से अशोक-विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी और रणजीत सिंह का करते हैं। उसी भाँति हिंदू-मुसलमान दोनों के अंदर सत्य सहने की इतनी क्षमता हो कि वे अत्याचारी की निंदा सहन कर सकें, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। प्रत्येक भारतीय को यह स्वीकार करना होगा कि मुहम्मद गौरी विदेशी आक्रामक था, पर शेरशाह एक स्वदेशी बंधु। शेरशाह को स्वदेशी स्वीकार करके गौरी के बारें में मौन धारण कर लेना या तो कायरता है अथवा भयंकर चालबाजी। यदि इतिहास सच्चा इतिहास है तो वह पूर्व और उत्तर दोनों पक्षों पर यही निर्भीक निर्णय देगा। यदि इस ऑब्जेक्टिव एवं निर्विकार बौद्धिकता को मानने की क्षमता देश के अंदर नहीं आई तो भावात्मक एकता कभी नहीं आयेगी। महमूद गजनवी को जब एक वर्ग अपना पुरखा मानता रहेगा, तो दूसरा वर्ग अपनी घृणा और अपमान को बिल्कुल भूलकर चुप रहेगा, यह सामाजिक मनोविज्ञान के प्रतिकूल है। कोई भी व्यक्ति जो मुसलमान था इसी से स्वदेशी माना जाना चाहिए, यह दुराग्रह देश को शायद ही स्वीकार होगा। साथ ही कोई भी व्यक्ति मुसलमान है, इसी से वह विजातीय है, यह भी उसी किस्म का दुराग्रह है जो तथ्य-हीन एवं भ्रामक है। नवीन भारतीय इतिहासकार इन दोनों दुराग्रहों से युद्ध कर के राष्ट्र को सत्य-दृष्टि प्रदान करें, यही हमारी कामना है। आज यदि वह इन दोनों दुराग्रहों को ललकारता नहीं है तो द्रोणाचार्य की तरह उसे राष्ट्र का चीरहरण फिर 1947 की तरह, देखना पड़ेगा। “सत्यं वद, धर्मं चर” की जय हो !
(सरस्वती, फरवरी 1962)