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शनिवार, 4 सितंबर 2021

अशोक के फूल : हजारी प्रसाद द्विवेदी

        अशोक में फिर फूल आ गए है। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्‍पों के मनोहर स्‍तबकों में कैसा मोहन भाव है। बहुत सोच समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्‍पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्‍थान देने योग्‍य समझा था। एक यह अशोक ही है।

    लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्‍तुओं को हतभाग्‍य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया, उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा सा मैं भी अनुमान कर सका हूँ। बताता हूँ।

    भारतीय साहित्‍य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्‍प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्‍यापार हैं। ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्‍प का कोई नाम ही नहीं जानता था, परंतु कालिदास के काव्‍यों में यह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था। उस प्रवेश में नववधू के गृह प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता और सुकुमारता है। फिर एकाएक मुसलमानी सल्‍तनत की प्रतिष्‍ठा के साथ ही साथ यह मनोहर पुष्‍प साहित्‍य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो लोग बाद में भी लेते थे, पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्‍य का। अशोक को जो सम्‍मान कालिदास से मिला वह अपूर्व था। सुंदरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृदु आघात से वह फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था। वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्‍मा देवता के एक इशारे पर कंधे पर से ही फूट उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता देवता के एक इशारे पर कंधे पर से ही फूट उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच पर आता है और दर्शकों को अभिभूत करके खप-से निकल जाता है। क्‍यों ऐसा हुआ? कंदर्प देवता के अन्‍य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्‍यों-की-त्‍यों है। अरविंद को किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ा गया और नीलोत्‍पल की माया को कौन काट सका? नवमल्लिका की अवश्‍य ही अब विशेष पूछ नहीं है : किंतु उसकी इससे अधिक कदर कभी थी भी नहीं। भुलाया गया है अशोक। मेरा मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस-साधना के पिछले हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। क्‍या यह मनोहर पुष्‍प भुलाने की चीज थी? सहृदयता क्‍या लुप्‍त हो गई थी? कविता क्‍या सो गई थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफले पेड़ को सारे उत्तर भारत में अशोक कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके।

    लेकिन मेरे मानने-न-मानने से होता क्‍या है? ईसवी सन के आरंभ के आस-पास अशोक का शानदार पुष्‍प भारतीय धर्म, साहित्‍य और शिल्‍प में अद्भुत महिमा के साथ आया था। उसी समय शताब्दियों के परिचित यक्षों और गंधर्वों ने भारतीय धर्म साधना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया था। पंडितों ने शायद ठीक ही सुझाया है कि गंधर्व और कंदर्प वस्‍तुतः एक ही शब्‍द के भिन्‍न-भिन्‍न उच्‍चारण हैं। कंदर्प देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप से एक आर्येतर सभ्‍यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्‍य वरुण थे, कुबेर थे, बज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प कामदेवता का नाम हो गया है, तथापि है वह गंधर्व का ही पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्‍णु से डरते रहते थे और बुद्धदेव से भी टक्‍कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प देवता हार माननेवाले जीव न थे। बार-बार हारने पर भी वह झुके नहीं। नए-नए अस्‍त्रों का प्रयोग करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्‍त्र था। बौद्ध धर्म को इस नए अस्‍त्र से उन्‍होंने घायल कर दिया, शैवमार्ग को अभिभूत कर दिया और शक्ति साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल साधना इसका प्रमाण है और कापालिक मत इसका गवाह है।

     रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को 'महामानवसमुद्र' कहा है। विचित्र देश है यह। असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए - न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं। जिसे हम हिंदू रीति-नीति कहते है, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है। एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्‍मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। अशोक की भी अपनी स्‍मृति परंपरा है। आम की भी है, बकुल की भी है, चंपे की भी है। सब क्‍या हमें मालूम है? जितना मालूम है, उसी का अर्थ क्‍या स्‍पष्‍ट हो सका है? न जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्‍मा देवता ने शिव पर बाण फेंका था। शरीर जलकर राख हो गया और 'वामन-पुराण' (षष्ठ अध्‍याय) की गवाही पर हमें मालूम है कि उनका रत्‍नमय धनुष टूटकर खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ थी, वह स्‍थान रुक्‍म-मणि से बना था, वह टूटकर धरती पर गिरा और चंपे का फूल बन गया। हीरे का बना हुआ जो नाह-स्‍थान था, वह टूटकर गिरा और मौलसरी के मनोहर पुष्‍पों में बदल गया। अच्‍छा ही हुआ। इंद्रनील मणियों का बना हुआ कोटि देश भी टूट गया और सुंदर पाटल पुष्‍पों में परिवर्तित हो गया। यह भी बुरा नहीं हुआ। लेकिन सबसे सुंदर बात यह हुई कि चंद्रकांत मणियों का बना हुआ मध्‍य देश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्‍नतर कोटि बेला बन गई, स्‍वर्ग को जीतनेवाला कठोर धनुष जो धरती पर गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया। स्‍वर्गीय वस्‍तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं।

     परंतु मैं दूसरी बात सोच रहा है या इस कथा का रहस्‍य क्‍या है? यह क्‍या पुराणकार की सुकुमार कल्‍पना है या सचमुच से फूल भारतीय संसार में गंधर्वों की देन हैं? एक निश्चित काल के पूर्व इन फूलों की चर्चा हमारे साहित्‍य में मिलती भी नहीं। सोम तो निश्चित रूप से गंधर्वों से खरीदा जाता था। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विधि में यह विधान सुरक्षित रह गया है। ये फूल भी क्‍या उन्‍हीं से मिले?

     कुछ बातें तो मेरे मस्तिष्‍क में बिना सोचे ही उपस्थित हो रही हैं। यक्षों और गंधर्वों के देवता कुबेर, सोम, अप्‍सराएँ यद्यपि बाद के ब्राह्मण ग्रंथों में भी स्‍वीकृत हैं, तथापि पुराने साहित्‍य में अपदेवता के रूप में ही मिलते हैं। बौद्ध साहित्‍य में तो बुद्धदेव को ये कई बार बाधा देते हुए बताए गए हैं। महाभारत में ऐसी अनेक कथाएँ आती है जिनमें संतानार्थिनी स्त्रियाँ वृक्षों के अपदेवता यक्षों के पास संतान कामिनी होकर जाया करती थी। यक्ष और यक्षिणी साधारणतः बिलासी और उर्वरता जनक देवता समझे जाते थे। कुबेर तो अक्षय निधि के अधीश्‍वर भी है। 'यक्ष्‍मा' नामक रोग के साथ भी इन लोगों का संबंध जोड़ा जाता है। भरहुत, बोधगया, साँची आदि में उत्‍कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी स्त्रियों का यक्षों के सान्निध्‍य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों के पास अंकित मूर्तियों की स्त्रियाँ प्रायः नग्‍न हैं, केवल कटिदेश में एक चौड़ी मेखला पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्‍यमय है। सुंदरियों के चरण-ताड़न से उसमें दोहद का संचार होता है और परवर्ती धर्म-ग्रंथों से यह भी पता चलता है कि चैत्रशुक्‍ला अष्‍टमी को व्रत करने और अशोक की आठ पत्तियों के भक्षण से स्‍त्री की संतान-कामना फलवती होती है। 'अशोक-कल्‍प' में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं - सफेद और लाल। सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझकर व्‍यवहृत होता है और लाल स्‍मरवर्धक होता है। इन सारी बातों का रहस्‍य क्‍या है? मेरा मन प्राचीन काल के कुंझटिकाच्‍छन्‍न आकाश में दूर तक उड़ना चाहता है। हाय, पंख कहाँ हैं?

     यह मुझे प्राचीन युग की बात मालूम होती है। आर्यों का लिखा हुआ साहित्‍य ही हमारे पास बचा है। उसमें सबकुछ आर्य-दृष्टिकोण से ही देखा गया है। आर्यों से अनेक जातियों का संघर्ष हुआ। कुछ ने उनकी अधीनता नहीं मानी, वे कुछ ज्‍यादा गर्वीली थी। संघर्ष खूब हुआ। पुराणों में इसके प्रमाण हैं। यह इतनी पुरानी बात है कि संघर्षकारी शक्तियाँ बाद में देवयोनि जात मान ली गईं। पहला संघर्ष शायद असुरों से हुआ। यह बड़ी गर्वीली जाति थी। आर्यों का प्रभुत्‍व इसने कभी नहीं माना। फिर दानवों, दैत्‍यों और राक्षसों से संघर्ष हुआ। गंधर्वों और यक्षों से कोई संघर्ष नहीं हुआ। वे शायद शांतिप्रिय जातियाँ थीं। भरहुत, साँची, मथुरा आदि में प्राप्त यक्षिणी-मूर्तियों की गठन और बनावट देखने से यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि ये जातियाँ पहाड़ी थीं। हिमालय का प्रदेश ही गंधर्व, यक्ष और अप्‍सराओं की निवास भूमि है। इनका समाज संभवतः उस स्‍तर पर था, जिसे आजकल के पंडित 'पुनालुअन सोसाइटी' कहते हैं। शायद इससे भी अधिक आदिम। परंतु वे नाच गान में कुशल थे। यक्ष तो धनी भी थे। वे लोग वानरों और भालुओं की भाँति कृषिपूर्व स्थिति में भी नहीं थे और राक्षसों और असुरों की भाँति व्‍यापार वाणिज्‍यवाली स्थिति में भी नहीं। वे मणियों और रत्‍नों का संधान जानते थे, पृथ्‍वी के नीचे गड़ी हुई निधियों की जानकारी रखते थे और अनायास धनी हो जाते थे। संभवतः इसी कारण उनमें विलासिता की मात्रा अधिक थी। परवर्ती काल में यह बहुत सुखी जाति जाती थी। यक्ष और गंधर्व एक ही श्रेणी के थे, परंतु आर्थिक स्थिति दोनों की थोड़ी भिन्‍न थी। किस प्रकार कंदर्प देवता को अपनी गंधर्व सेना के साथ इंद्र का मुसाहिब बनना पड़ा, वह मनोरंजक कथा है। पर यहाँ वह सब पुरानी बातें क्‍यों रटी जाएँ? प्रकृ‍त यह है कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था। जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्‍तुत नहीं थी, परवर्ती साहित्‍य में उनका स्‍मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा। असुर, राक्षस, दानव और दैत्‍य पहली श्रेणी में, तथा यक्ष, गंधर्व, किन्‍नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं। परवर्ती हिंदू समाज इन सबको बड़ी अद्भुत शक्तियों का आश्रय मानता है, सबमें देवता बुद्धि का पोषण करता है।

     अशोक वृक्ष की पूजा इन्‍हीं गंधर्वों और यक्षों की देन है। प्राचीन साहित्‍य में इस वृक्ष की पूजा के उत्‍सवों का बड़ा सरस वर्णन मिलता है। असल पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके अधिष्‍ठाता कंदर्प देवता की होती थी। इसे 'मदनोत्‍सव' कहते थे। महाराजा भोज के 'सरस्‍वती-कंठाभरण' से जान पड़ता है कि यह उत्‍सव त्रयोदशी के दिन होता था। 'मालविकाग्निमित्र' और 'रत्‍नावली' में इस उत्‍सव का बड़ा सरस मनोहर वर्णन मिलता है। मैं जब अशोक के लाल स्‍तबकों को देखता हूँ तो मुझे वह पुराना वातावरण प्रत्‍यक्ष दिखाई दे जाता है। राजघरानों में साधारणतः रानी ही अपने सनूपुर चरणों के आघात से इस रहस्‍यमय वृक्ष को पुष्पित किया करती थीं। कभी-कभी रानी अपने स्‍थान पर किसी अन्‍य सुंदरी को भी नियुक्‍त कर दिया करती थीं। कोमल हाथों में अशोक-पल्‍लवों का कोमलतर गुच्‍छ आया, अलक्‍तक से रंजित नूपुरमय चरणों के मृदु आघात से अशोक का पाद देश आहत हुआ नीचे हल्‍की रुनझुन और ऊपर लाल फूलों का उल्‍लास। किसलयों और कुसुम स्‍तबकों की मनोहर छाया के नीचे स्‍फटिक के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर सुंदरियाँ अबीर, कुंकुम, चंदन और पुष्‍प संभार से पहले कंदर्प देवता की पूजा करती थीं और बाद में सुकुमार भंगिमा से पति के चरणों पर वसंत पुष्‍पों की अंजलि बिखेर देती थीं। मैं सचमुच इस उत्‍सव को मादक मानता हूँ। अशोक के स्‍तबकों में वह मादकता आज भी है, पर पूछता कौन है? इन फूलों के साथ क्‍या मामूली स्‍मृति जुड़ी हुई हैं? भारतवर्ष का सुवर्ण-युग इस पुष्‍प के प्रत्‍येक दल में लहरा रहा है।

     कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्‍कड़ है। केवल उतना ही याद रखती है, जितने से उसका स्‍वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है। शायद अशोक से उसका स्‍वार्थ नहीं सधा। क्‍यों उसे वह याद रखती? सारा संसार स्‍वार्थ का अखाड़ा ही तो है।

     अशोक का वृक्ष जितना भी मनोहर हो, जितना भी रहस्‍यमय हो, जितना भी अलंकारमय हो, परंतु है वह उस विशाल सामंत-सभ्‍यता की परिष्‍कृत रुचि का ही प्रतीक, जो साधारण प्रजा के परिश्रमों पर पली थी, उसके रक्‍त से स-सार कणों को खाकर बड़ी हुई थी और लाखों-करोड़ों की उपेक्षा से समृद्ध हुई थी। वे सामंत उखड़ गए, समाज ढह गए, और मदनोत्‍सव की धूमधाम भी मिट गई। संतान कामिनियों को गंधर्वों से अधिक शक्तिशाली देवताओं का वरदान मिलने लगा - पीरों ने, भूत-भैरवों ने, काली दुर्गा ने यक्षों की इज्‍जत घटा दी। दुनिया अपने रास्‍ते चली गई, अशोक पीछे छूट गया।

     मुझे मानव जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हजारों वर्ष का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्‍य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्‍यता और संस्‍कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्‍वासों, उत्‍सवों और व्रतों को धोती बहाती यह जीवन धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्‍य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्‍याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्‍क‍ृति केवल बाद की बात है। सबकुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्‍य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की इच्‍छा) वह गंगा की अबाधित अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्‍यता और संस्‍कृति का मोह क्षण भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संसार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्‍कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सबकुछ बह जाते हैं। जितना कुछ इस जीवनी-शक्ति को समर्थ बनाता है, उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक दिया जाता है। धन्‍य हो महाकाल, तुमने कितनी बार मदनदेवता का गर्व-खंडन किया है, धर्मराज के कारागार में क्रांति मचाई है, यमराज के निर्दय तारल्‍य को पी लिया है, विधाता के सर्वकर्तृत्‍व के अभिमान को चूर्ण किया है। आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्‍कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्मांचार और सत्‍यनिष्‍ठा के नाम पर जो जड़िमा है, उसमें का कितना भाग तुम्‍हारे कुंठनृत्‍य से ध्‍वस्‍थ हो जाएगा, कौन जानता है। मनुष्‍य की जीवन धारा फिर भी अपनी मस्‍तानी चाल से चलती जाएगी। आज अशोक के पुष्‍प स्‍तबकों को देखकर मेरा मन उदास हो गया है, कल न जाने किस वस्‍तु को देखकर किस सहृदय के हृदय में उदासी की रेखा खेल उठेगी। जिन बातों को मैं अत्यंत मूल्‍यवान समझ रहा हूँ और जिनके प्रचार के लिए चिल्‍ला-चिल्‍लाकर गला सुखा रहा हूँ, उनमें कितनी जिएँगी और कितनी बह जाएँगी, कौन जानता है। मैं क्‍या शोक से उदास हुआ हूँ? माया काटे कटती नहीं। उस युग के साहित्‍य और शिल्‍प मन की मसले दे रहे हैं। अशोक के फूल ही नहीं, किसलय भी हृदय को कुरेद रहे हैं। कालिदास जैसे कल्‍प कवि ने अशोक के पुष्‍प को ही नहीं, किसलयों को भी मदमत्त करनेवाला बताया था -अवश्‍य ही शर्त यह थी कि वह दयिता (प्रिया) के कानों में झूम रहा हो - 'किसलयप्रसवो S पि विलासिनां मदयिता दयिता श्रवणार्पितः।' परंतु शाखाओं में लंबित वायुलुलित किसलयों में भी मादकता है। मेरी नस-नस से आज अरुण उल्‍लास की झंझा उत्थित हो रही है। मैं सचमुच उदास हूँ।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

     आज जिसे हम बहुमूल्‍य संस्‍कृति मान रहे हैं, क्‍या ऐसी ही बनी रहेगी? सम्राटों सामंतों ने जिस आचार-निष्‍टा को इतना मोहक और मादक रूप दिया था, वह लुप्‍त हो गई, धर्माचार्यों ने जिस ज्ञान और वैराग्‍य को इतना महार्ध समझा था, वह समाप्‍त हो गया, मध्‍ययुग के मुसलमान रईसों के अनुकरण पर जो रस राशि उमड़ी थी, वह वाष्‍प की भाँति उड़ गई तो क्‍या यह मध्‍य युग के कंकाल में लिखा हुआ व्‍यावसायिक युग का कमल ऐसा ही बना रहेगा? महाकाल के प्रत्‍येक पदाघात में धरती धसकेगी। उसके कुंठनृत्‍य की प्रत्‍येक चारिका कुछ-न-कुछ लपेटकर ले जाएगी। सब बदलेगा। सब विकृत होगा - सब नवीन बनेगा।

     भगवान बुद्ध ने मार-विजय के बाद वैरागियों की पलटन खड़ी की थी। असल में 'मार' मदन का ही नामांतर है। कैसा मधुर और मोहक साहित्‍य उन्‍होंने दिया। पर न जाने कब यक्षों के वज्रपाणि नामक देवता इस वैराग्‍यप्रवण धर्म में घुसे और बोधिसत्‍वों के शिरोमणि बन गए। फिर वज्रयान का अपूर्व धर्म-मार्ग प्रचलित हुआ। त्रिरत्‍नों में मदन देवता ने आसन पाया। वह एक अजीब आँधी थी। इसमें बौद्ध बह गए, शैव बह गए, शाक्‍त बह गए। उन दिनों 'श्री सुंदरी साधनतत्‍पराणां योगश्‍च करस्‍थ एवं' की महिमा प्रतिष्ठित हुई। काव्‍य और शिल्‍प के मोहक अशोक ने अभिचार में सहायता दी। मैं अचरज से इस योग और भोग की मिलन लीला को देख रहा हूँ। यह भी क्‍या जीवनी शक्ति का दुर्दम अभियान था। कौन बताएगा कि कितने विध्‍वंस के बाद इस अपूर्व धर्म मत की सृष्टि हुई थी? अशोक-स्‍तबक का हर फूल और हर दल इस विचित्र परिणति की परंपरा ढोए आ रहा है। कैसा झबरा सा गुल्‍म है।

     मगर उदास होना भी बेकार है। अशोक आज भी उसी मौज में है, जिसमें आज से दो हजार वर्ष पहले था। कहीं भी तो कुछ नहीं बिगड़ा है, कुछ भी तो नहीं बदला है। बदली है मनुष्‍य की मनोवृत्ति। यदि बदले बिना वह आगे बढ़ सकती तो शायद वह भी नहीं बदलती। और यदि वह न बदलती और व्‍यावसायिक संघर्ष आरंभ हो जाता - मशीन का रथ घर्घर चल पड़ता - विज्ञान का सवेग धावन चल निकलता, तो बड़ा बुरा होता। हम पिस जाते। अच्‍छा ही हुआ जो वह बदल गई। पूरी कहाँ बदली है? पर बदल तो रही है। अशोक का फूल तो उसी मस्‍ती से हँस रहा है। पुराने चित्त से इसको देखनेवाला उदास होता है। वह अपने को पंडित समझता है। पंडिताई भी एक बोझ है - जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है। तब वह बोझ नहीं रहती। वह उस अवस्‍था में उदास में उदास भी नहीं करती। कहाँ। अशोक का कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है। कितनी मस्‍ती में झूम रहा है। कालिदास इसका रस ले सके थे। अपने ढंग से। मैं भी ले सकता हूँ, अपने ढंग से। उदास होना बेकार है।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष




मंगलवार, 25 अगस्त 2020

कथावार्ता : आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी : हिन्दी के संवेदनशील महात्मा जिन्हें मुख्यधारा ने कभी गले नहीं लगाया


-आदित्य कुमार गिरि
मैं ठीक-ठीक सोचकर कह रहा हूँ कि आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी के बड़े लेखक थे/हैं। मेरे मन में उनके प्रति अपार श्रद्धा व आदर है। उनके लेखन ने मुझे बहुत समृद्ध किया है, संवेदनशील बनाया है और मुझे मेरी अल्पज्ञता का एहसास कराया है और इसका भी कि विद्या केवल विनम्र होकर ही अर्जित की जा सकती है। द्विवेदी जी विनम्रता और सीधेपन को मनुष्य के लिए बेहद जरूरी मानते थे। और उन्हें इसका एहसास भी था कि सीधा होना, बहुत टेढ़ा काम है। तभी तो उन्होंने लिखा कि सीधी लकीर खींचना सबसे टेढ़ा काम है। उन्होंने स्वयं की तलाश में, विद्यार्जन के मार्ग पर निडर होकर आगे बढ़ने को नियम की तरह ज़रूरी माना है। वे कहते हैं किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।

मैं द्विवेदी जी को हिन्दी आलोचना में शुक्ल जी की अगली कड़ी मानता हूँ। हिंदी में बहुत संकीर्ण सोच के तहत शुक्ल जी और द्विवेदी जी को लड़ा दिया गया जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। शुक्ल न होते तो द्विवेदी भी न होते। द्विवेदी जी के लेखन का एक अंश शुक्ल जी से संवाद के क्रम में विकसित हुआ है। और शुक्ल जी जो नहीं कह सके हैं द्विवेदी जी ने उन बिंदुओं को बेहतरीन ढंग से प्रकट किया है। ये दोनों हमारी हिन्दी की थाती हैं। संवाद के क्रम में ही दुनिया और ज्ञान का विकास होता है।

  अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास दर्शनमें दोनों की दृष्टियों के अंतर को स्पष्ट करते हुए जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं कि शुक्ल जी की इतिहास दृष्टि का केंद्र हिंदी प्रदेश था जबकि द्विवेदी जी ने पूरे भारत के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयत्न किया है।

  शुक्ल जी का आलोचकीय विवेक छायावादी साहित्यिक आंदोलन से निर्मित हुआ था जबकि द्विवेदी जी का प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से। दोनों के बीच का यह बुनियादी फर्क ही उनके लेखन की धुरी थी लेकिन आधुनिक आलोचना जगत (जिसमें डॉ रामविलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह प्रमुख है) ने शुक्ल-द्विवेदी स्कूलों की कल्पना कर दोनों के बीच एक कृत्रिम लड़ाई खड़ी कर दी और बाद में पूरा हिन्दी जगत इसी फ्रेम में फ्रेम्ड हो गया और दो खेमे बन गए- शुक्ल-खेमा और द्विवेदी खेमा। शुक्ल को ब्राह्मणवादी और द्विवेदी को ब्राह्मणवाद का विरोधी कहकर खूब प्रचारित किया गया जबकि इस तरह की ज़मीन पर दोनों ही महात्मा लेखक लेखन नहीं कर रहे थे।

  एक लेखक का लेखकीय विवेक किस पृष्ठभूमि में तैयार होता है, बिना उसे समझे लेखक के लेखन और दृष्टि को कभी भी समझा नहीं जा सकता है। लेखक अपने निर्णयों से ज़्यादा अपनी संवाद शैली के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। वह किन विषयों को छूता है और किन्हें छोड़ता है वह उसका निजी फैसला नहीं होता अथवा वह किसी गैंगवॉर की दृष्टि से लेखन नहीं करता बल्कि उसका लेखन उसके समकालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज होता है। असल में उसका मानस ही ऐसे तैयार होता है।

  जो लेखक छायावादीन साहित्यिक आंदोलन से आप्लावित था उसके आदर्श में लोककल्याण और तुलसीदास थे और जो लेखक प्रगतिशील आंदोलन के आलोक में तैयार हुआ उसके आदर्श कबीर और नाथपंथ था। द्विवेदी जी अपने युगबोध को रिप्रेजेंट कर रहे थे। हर लेखक यही करता है। प्रतिरोध की जो हवा उनके युग में चल रही थी उसका मध्यकालीन वैचारिक संबल कबीर में ही था। इसलिए वे कबीर और उनके युगबोध को इतनी सजीवता से प्रकट कर सके। जबतक प्रगतिशील आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में द्विवेदी जी का लेखन कसकर नहीं देखा जाएगा तबतक वे शुक्ल जी तो इस जी या उस जी के विरोध करते तुक्कों में फिट होते देखते रहेंगे।

  द्विवेदी जी ने अपने एक उपन्यास में लिखा है- एकांत का तप बड़ा तप नहीं है। संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है, लोग दुःख से व्याकुल हैं। उनमें जाना चाहिए। उनके दुःख का भागी बनकर उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। यही वास्तविक तप है।

  यह तप और कष्टों को केन्द्र में रखकर लेखन किस मस्तिष्क की उपज हो सकती है, यह पाठक तय करें। अगर भारत में विराट प्रगतिशील आंदोलन न हुआ होता तो द्विवेदी जी का ऐसा स्वर भी न होता। द्विवेदी जी तो खैर, दूर की बात है; छायावाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि सुमित्रानंनदन पंत और निराला तक पर प्रगतिशील आंदोलन का भयंकर प्रभाव पड़ा। इतना कि छायावाद को छोड़ प्रगतिशीलता में आकंठ डूब गए।

  द्विवेदी जी का यह स्वर देखिए जब वे खुद को कोसते हुए कहते हैं- मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ विराट रिक्तता। जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है।

'छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा है, पेट पालने के लिए छीना-झपटी को कर्म माना है, झूठी प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं- इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े को लक्ष्य को समर्पित नहीं हो सका, किसी के दुःख दूर करने के लिए अपने को उलीचकर नहीं दे सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया।यह कितना तीव्र और ब्लंट आत्मसाक्षात्मकार है। इसकी तुलना मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंकी पंक्ति अब तक क्या किया, जीवन क्या जियासे कर सकते हैं। समाज के लिए जीने और कुछ करने की इतनी तीव्र छटपटाहट और भूख प्रगतिशील आंदोलन में तैयार मानस की ही हो सकती है।

  इसकाल के विवेक के लिए साहित्य अभिव्यक्ति का साधन मात्र नहीं है बल्कि समाज कल्याण का शस्त्र है। यह काल औसा ही विवेक तैयार करता है जिसे चाँद में प्रेमिका का चेहरा नहीं बल्कि रोटी का टुकड़ा दिखता है।

  द्विवेदी जी इसी कारण प्रगतिशील आलोचक थे उनका साहित्य कर्म समाज को केंद्र में रखकर चल रहा था। वे अपने युग को दरकिनार करके नहीं चल सकते थे। कोई भी नहीं चल सका। वे सच्चे मायने में मानवतावादी लेखक थे। उनका मानवतावाद नारा नहीं था, बल्कि वह उनके अंदर गहरे पैठा था। उनका समूचा लेखन वंचितों की दृष्टि से लिखा तो गया ही है लेकिन साथ ही वह उपेक्षित एवं विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके खड़े हुए अनुभवों और व्यक्तियों के पक्ष में भी रहा है।

यह उनकी पृष्ठभूमि का परिणाम थी जिसकी ओर ऊपर मैंने इशारा किया है। तो दो अलग-अलग काल के, अलग-अलग परिस्थितियों के, अलग-अलग विवेक के, अलग-अलग सरोकारों के लेखकों को एक ज़मीन पर खड़ा करके एक दूसरे के शत्रु के रूप में चित्रित करना कितना बड़ा पाप है, यह आप खुद तय कीजिए।

  द्विवेदी जी के भीतर शुक्ल जी के प्रति अगाध प्रेम और आदर था। एक विद्वान दूसरे विद्वान का अनादर कर भी नहीं सकता। जब भी कोई चरित्रहनन का प्रयास होता है तब असल में वह छोटे मन और व्यक्तित्वों द्वारा किए प्रयास होते हैं।

कहते हैं एकबार रवींद्रनाथ ठाकुर ने द्विवेदी जी को अपने कमरे में बुलाया। शांतिनिकेतन में उसदिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। इतनी कि घुटने-घुटने भर पानी था। कलकत्ते की बारिश तो ऐसे ही मशहूर है। द्विवेदी जी को लेकिन उस अँधेरी रात में कोई भ्रम नहीं था कि बारिश है, कि पानी है, कि अँधेरा, कि कैसे जाएँ और न जाएँ। गुरुदेव ने बुलाया है, तो जाना तो है ही। अतः भीगते-भागते वे रवींद्रनाथ के कमरे तक पहुंचे।

देखा, रवींद्रनाथ आराम कुर्सी पर लेटे खिड़की के परे उस छप्पनों कोट हो रही बारिश को देख रहे थे। द्विवेदी जी वहीं, एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए। कोई आधे घण्टे बाद रवींद्रनाथ की तंद्रा भंग हुई और उनकी नज़र द्विवेदी जी पर गयी। उन्होंने बच्चों के से उत्साह से आह्लादित होकर कहा 'देख चो, एतो शुन्दोर बृष्टि।' (देख रहे हो, कितनी अच्छी बारिश हो रही है।)

द्विवेदी जी ने खिड़की के बाहर नज़र घुमाई और एकटक देखते रह गए। द्विवेदी जी ने उस पल को अपनी आत्मा में क़ैद कर लिया।

यह कथा सुनाने के पीछे मेरी एक मंशा है। वह यह कि कोई साधारण व्यक्ति होता तो कमरे में घुसते ही कहता कि हाँ सर, आ गया। क्यों बुलाया आपने ?’

लेकिन द्विवेदी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। वे वहाँ गए और चुपचाप खड़े हो गए। क्यों ? क्योंकि वे एक लेखक थे, एक संवेदनशील व्यक्ति थे। एक लेखक और एक संवेदनशील व्यक्ति ही दूसरे लेखक की संवेदनाओं को समझ सकता है। और उसपर रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति को।

द्विवेदी जी देखकर समझ गए होंगे कि रवींद्रनाथ इतनी तल्लीनता से बाहर देख रहे हैं तो दृश्य को देखकर अपनी किसी काव्यात्मक संवेदना में खोए गए होंगे। अतः उन्होंने उन्हें टोका नहीं। लेखक को टोकना उसे उसके भावलोक से खींचना होता है। उसकी तंद्रा में बाधा पहुँचाना होता है। इसे द्विवेदी जी जैसा व्यक्ति ही समझ सकता है।

  लिखने वाला हर आदमी लेखक नहीं होता। लेखक बनाती है उसकी संवेदनशीलता, उसकी सूक्ष्मता और अन्यको समझने और सम्मान देने की उसकी दृष्टि और मनःस्थिति।

  मैंने इसलिए ही कहा कि एक विद्वान कभी भी दूसरे विद्वान की उपेक्षा या अनादर कर ही नहीं सकता। द्विवेदी जी जैसा प्रकांड पंडित तो और नहीं कर सकता था। उनके लेखन में शुक्ल जी के प्रति यदा-कदा आदर झलकता रहता है।

अज्ञेय ने अपनी डायरी में एक जगह लिखा है कि किसी व्यक्ति को समझना हो तो उसे किसी की बुराई करते सुनो। दूसरों की बुराई करते समय एक आदमी कैसी भाषा, कैसा टेम्परामेंट, कैसी उदारता या अनुदारता बरतता है, उसी से उसके चरित्र और स्वभाव का पता चलता है।

लेकिन मैं अज्ञेय से सहमत होते हुए भी इसकी आगे की कड़ी में कहना चाहूँगा कि अगर किसी व्यक्ति के चरित्र को समझना हो तो उसे किसी की प्रशंसा करते सुनो। आप देखेंगे कि उस समय व्यक्ति उदार है या काईंयाँ, इसका सबसे ज़्यादा पता चलता है। क्योंकि प्रशंसा भी उदारता की निशानी है, कृपण व्यक्ति तो प्रशंसा करने में भी कंजूसी करता है।

तो इस दृष्टि से देखें तो द्विवेदी जी जैसा उदार तो कोई है ही नहीं। द्विवेदी जी का समूचा आलोचकीय और नैरेटिव लेखन उठाकर देख लीजिए। वे जब-जब किसी की प्रशंसा करते हैं कलम तोड़ देते हैं। एकदम मुक्त कंठ से,खुले हृदय से , उच्छावासित होकर प्रशंसा करते हैं।

तुलसीदास पर लिखते समय उन्होंने उनकी प्रशंसा में जो-जो लिखा है वह तो शुक्ल जी ने भी नहीं कहा है। हिन्दी का हर विद्यार्थी, हर आलोचक तुलसीदास पर लिखते समय द्विवेदी जी को बिना उद्धृत किए पार ही नहीं पा सकता।

उनके तमाम उद्धरणों में से एक यह है- भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना-भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। वे स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। ब्राह्मणवंश में उनका जन्म हुआ था, दरिद्र होने के कारण उन्हें दर-दर भटकना पड़ा था, गृहस्थ-जीवन की सबसे निकृष्ट आसक्ति के वे शिकार हो चुके थे, अशिक्षित और संस्कृतिविहीन जनता में वह रह चुके थे और काशी के दिग्गज पंडितों तथा संन्यासियों के संसर्ग में उन्हें खूब आना जाना पड़ा था।

  'नाना-पुराण-निगमागम का अभ्यास उन्होंने किया था और लोकप्रिय साहित्य और साधना की नाड़ी उन्होंने पहचानी थी। पंडितों ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि उस युग में प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य-पद्धति नहीं थी, जिसपर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो।

इसी तरह कबीर की प्रशंसा में उन्होंने जो कहा वह हिन्दी में मील का पत्थर बन गया। कबीर पर अनपढ़ता और विद्वता के आलोक में हुए आघातों के इस उद्धरण से परखच्चे उड़ सकते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी के पाठकों को आलोचना की सभ्य तमीज़ दी। उद्धरण है- हिन्दी साहित्य के हज़ार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है-तुलसीदास।

(नामवर सिंह लॉबी ने जिन द्विवेदी जी को प्रो-कबीर दिखाया है वे कबीर और तुलसी को लेकर क्या सोचते थे देखिए।) भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।कबीर के अशास्त्रीय लेखन का दुनिया में इससे बड़ा डिफेंस हो नहीं सकता। असल में द्विवेदी जी सकारात्मकता के लेखक थे। द्विवेदी जी जिस गद्गद भाव से प्रशंसा करते थे वह उनके निश्छल हृदय का परिचायक है। ऐसा आदमी किसी के प्रति विद्वेष रखकर लिखता हो, यह शिष्यमंडली ने कैसे देख लिया, भगवान जाने।

  द्विवेदी जी गरीबी के उस स्तर से आए थे जहाँ कई-कई दिन भूखे रातें कटती हैं। वे बलिया के भोजपुरी भाषी थे। पूजा करके घर चलता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या की पढ़ाई ही इसलिए की ताकि उन्हें कमाने का ज़रिया मिल सके। उनके गुरु ने कहा कि संस्कृत सीख लो फिल कभी भूखे नहीं मरोगे। अतः कालीदास के साहित्य को चिखुर जाओ। (चिखुरना एक भोजपुरी शब्द है जिसका अर्थ गाय या बकरी द्वारा ज़मीन से घास चरने के तरीके से है।) बस द्विवेदी जी कालीदास को चिखुर गए। उनके संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही कलकत्ते के शांतिनिकेतन में उन्हें बुलाया गया था लेकिन बाद में उन्हें हिन्दी-विभाग का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। रवींद्रनाथ का द्विवेदी जी पर विशेष स्नेह था।

द्विवेदी जी सही मायने में विराटता के पूजक थे। उन्होंने खंड में अखंड के होने की बात को मज़बूती से स्वीकारा है। वे मानते थे कि सत्य एक और अखंड है। इसके एक भी पहलू को सही-सही पकड़ लेने पर बाकी साफ हो जाते हैं।द्विवेदी जी साहित्य या समाज को संपूर्णता में देखने वाले जीव थे, वे किसी को भी निंदा या रिजेक्शन की नज़र से नहीं देखते थे।

उनका विमर्श विपरीत फल देने पर भी किसी को छोड़ने या उपेक्षा करने के पक्ष में नहीं था। तभी तो शुक्ल जी द्वारा त्याज्य साहित्य(सिद्ध्-नाथ-जैन साहित्य) को भी साहित्य के विमर्श में ले आए। द्विवेदी जी का लेखकीय विवेक संप्रदाय के संकुचित घेरे में रहकर नहीं सोचता था। वह अखिल भारतीय था।

वे जिस सांस्कृतिक-पृष्ठभूमि से आए थे वह किसी दलीय हित के परे मानवता को केंद्र में रखकर सोचता था इसीलिए वे सबको गले लगाते गए लेकिन तमाम पूर्वग्रहों और संकीर्णताओं वाले इस मुख्यधारा ने सदैव उनकी उपेक्षा की, तिरस्कार किया।

वे सच में फफ्कड़ थे, शिरीष के फूल थे, अशोक के फूल, कुटज थे। विपरीत परिस्थितियों में, बेतरह गरीबी में रहकर, पलकर अपनी योग्यता के बल पर न सिर्फ खुद को बल्कि अपने सारे विद्यार्थियों को स्थापित किया। हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जहाँ द्विवेदी जी की षिष्य परंपरा का कोई एक प्रतिनिधि न हो। द्विवेदी जी ने अपने लेखन में घृणा और रिजेक्शन्स को कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने ही लेखन को संवाद शैली से जोड़ा वर्ना आलोचना एक सूत्रयुक्त गूढ़ लेखन था। द्विवेदी जी के बाद आलोचना में उपन्यास का सा मज़ा प्रविष्ट हो गया।

आचार्य द्विवेदी की सकारात्मक आलोचना दृष्टि को उनकी पुण्यतिथि पर स्मरण करते हुए उनके प्रति आदर और कृतज्ञता से भरकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।


आदित्य कुमार गिरि

(युवा चिंतक आदित्य कुमार गिरि एक सजग पाठक, मौलिक चिन्तक और सुधी आलोचक हैं। वह कोलकाता स्थित जयपुरिया गर्ल्स कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं। विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों पर उनका विवेचन और विश्लेषण मौलिक और तथ्यपरक होता है। यह आलेख उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के जन्मदिवस पर हमारे विशेष अनुरोध पर लिखा था।

हमारे ब्लॉग पर आदित्य कुमार गिरि की यह दूसरी प्रस्तुति!)

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