१
निसि द्यौस खरी उर माँझ अरी, छबि रंगभरी मुरि चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की।
चट दै कटि पै बट प्रान गए, गति सों मति में अवगाहनि की।
घन आनंद जान लख्यो जब तें, जक लागियै मोहि कराहनि की।।
२
कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की वेदन जानौ कहा तुम ?
हौ मनमोहन, मोहे कहूँ न, बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम ?
बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वै, हाय कछू उर आनौ कहा तुम ?
आरतिवंत पपीहन को, घन आनंद जू ! पहिचानौ कहा तुम ?
३
मंतर
में उर अंतर मैं सुलहै नहिं क्यों सुखरासि निरंतर,
दंतर
हैं गहे आँगुरी ते जो वियोग के तेह तचे पर तंतर।
जो
दुख देखति हौं घन आनंद रैनि-दिना बिन जान सुतंतर,
जानैं
बेई दिनराति बखाने ते जाय परै दिनराति कौ अंतर।
४
सावन
आवन हेरि सखी, मनभावन आवन चोप विसेखी।
छाए
कहूँ घनआनंद जान, सम्हारि की ठौर लै भूलनि लेखी।
बूंदैं
लगै, सब अंग दगैं, उलटी
गति आपने पापनि पेखी।
पौन
सों जागत आगि सुनी ही, पै पानी सों लागत आँखिन देखी॥
५
निसि द्यौस खरी उर माँझ अरी, छबि रंगभरी मुरि चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की।
चट दै कटि पै बट प्रान गए, गति सों मति में अवगाहनि की।
घनआनंद जान लख्यो जब तें, जक लागियै मोहि कराहनि की।।
६
वहै
मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै
लड़कीली
बानि आनि उर मैं अरति है।
वहै
गति लैन औ बजावनि ललित बैन,
वहै
हँसि दैन, हियरा तें न टरति है।
वहै
चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि,
वहै
छैलताई न छिनक बिसरति है।
आनँदनिधान
प्रानप्रीतम सुजानजू की,
सुधि
सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।
७
बहुत
दिनान की अवधि-आस-पास परे,
खरे
अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ।
कहि-कहि
आवन सँदेसो मनभावन को,
गहि-गहि
राखत हैं दै-दै सनमान कौ।
झूठी
बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब
न घिरत घन आनंद निदान कौ।
अधर
लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत
चलन ये सँदेसो लै सुजान कौ।।
८
छवि
को सदन मोद मंडित बदन-चंद
तृषित
चषनि लाल, कबधौ दिखाय हौ।
चटकीलौ
भेष करें मटकीली भाँति सौही
मुरली
अधर धरे लटकत आय हौ।
लोचन
ढुराय कछु मृदु मुसिक्याय, नेह
भीनी
बतियानी लड़काय बतराय हौ।
बिरह
जरत जिय जानि, आनि प्रान प्यारे,
कृपानिधि, आनंद को धन बरसाय हौ।।
९
घन
आनंद जीवन मूल सुजान की, कौंधनि हू न कहूँ दरसैं।
सु
न जानिये धौं कित छाय रहे, दृग चातक प्रान तपै तरसैं।
बिन
पावस तो इन्हें थ्यावस हो न, सु क्यों करि ये अब सो
परसैं।
बदरा
बरसै रितु में घिरि कै, नितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं॥
१०
अति
सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ
साँचे चलैं तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।
घन
आनंद प्यारे सुजान सुनौ, यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम
कौन धौं पाटी पढ़े हो कहौ, मन लेहु पै देहू छटाँक नहीं।।
११
भोर
तें साँझ लौ कानन ओर निहारति बावरी नेकु न हारति।
साँझ
तें भोर लौं तारनि ताकिबो तारनि सों इकतार न टारति।
जौ
कहूँ भावतो दीठि परै घनआनँद आँसुनि औसर गारति।
मोहन-सोहन
जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति।।
१२
प्रीतम
सुजान मेरे हित के निधान कहौ
कैसे
रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।
तुम
तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार
सुनियै
पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।
चातिक
है रावरो अनोखो मोह आवरो
सुजान
रूप-बावरो, बदन दरसायहौ।
बिरह
नसाय, दया हिय मैं बसाय, आय
हाय
! कब आनंद को घन बरसायहौ।।
१३
मीत
सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही!
डीठि
कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही!
एक
बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही!
हौं
घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही !!
~ घनानंद