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शनिवार, 6 जुलाई 2024

अपरुप के कवि : विद्यापति

 विद्यापति अपरूप सौंदर्य के कवि हैं। शृंगार वर्णन के क्रम में जब वह रूप वर्णन करते हैं तो उनकी दृष्टि प्रगल्भ हो उठती है। वह मांसल भोग करने लगते हैं। सौंदर्य वर्णन में वह "सुन्दरि" की अपरूप छवि के बारे में अवश्य ही बताते हैं - "सजनी, अपरूप पेखलि रामा!"

"सखि हे, अपरूप चातुरि गोरि!"

अपरूप अर्थात ऐसा रूप जो वर्णन से परे है। अपूर्व है। अवर्णनीय है। जातक ग्रंथों में अनुत्तरो शब्द आता है। सबसे परे। यह सुन्दरी राधा हैं। राधा की व्यंजना अपने अपने अनुसार हो सकती है। वह राधा के रूप को देखकर कहते हैं कि उन्हें बनाने में जैसे विधाता ने धरती के समस्त लावण्य को स्वयं मिलाया हो।


रूप वर्णन करते हुए विद्यापति अपरूप का व्यक्त करते हैं और उनकी दृष्टि #स्तनों पर टिक जाती है। कुच वर्णन में जितना उनका मन रमा है, हिंदी में ही नहीं, संभवतः किसी भी साहित्य में द्वितीयोनास्ति! जब शैशव और यौवन मिलता है तब नायिका मुकुर अर्थात आईना हाथ में लेकर, अकेले में जहां और कोई नहीं है अपना उरोज देखती है, उसे (विकसित होते) देखकर हंसती है -

"निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहंसइ अपन पयोधर हेरि।

पहिलें बदरि सम पुन नवरंग, दिन दिन अनंग अगोरल अंग।"

पहले बदरि समान अर्थात बैर के आकार का। फिर नारंगी।..

वह वयःसंधि में अपने बाल संवारती और बिखेर देती है। उरोजों के उदय स्थान की लालिमा देखती है।

रूप वर्णन में #विद्यापति का मन इस अंग के वर्णन में खूब रमा है। वह पदावली में अवसर निकाल निकाल कर एक पंक्ति अवश्य जोड़ देते हैं। दूसरा, अंग जिसपर #विद्यापति की काव्य प्रतिभा प्रगल्भ है, वह #नितंब हैं।

"कटिकेर गौरव पाओल नितंब, एकक खीन अओक अबलंब।" कटि अर्थात कमर का गौरव नितम्बों ने पा लिया है। एक क्षीण हुआ है तो अन्य पर जाकर आश्रित हो गया है।

विद्यापति की यह सुन्दरि पीन पयोधर दूबरि गाता है। वह क्षण क्षण की गतिविधि को अंकित करते हैं। सौंदर्य की यही तो परिभाषा कही गई है - प्रतिक्षण नवीन होना। सौंदर्य वहीं है जहां नित नूतन व्यवहार है, रूप है, दर्शन है।


इसी के प्रभाव से जो रूप बना, वह मनसिज अर्थात कामदेव को मोहित कर लेने वाला है। मुग्धा नायिकाओं के चरित्र को विद्यापति बहुत सजल होकर अपने पदों में व्यक्त करते हैं और इसे अपरूप कहकर रहस्यात्मक और अलौकिक बना देते हैं।

विद्यापति का यह रूप वर्णन इतना मांसल है कि कालांतर में यह सभा समाज से गोपनीय रखा जाने लगा।

यह विचार करने की बात है कि जिस समय विद्यापति थे, लगभग उसी समय खजुराहो और कोणार्क के मंदिर बन रहे थे। रूप वर्णन और काम कला के अंकन में कैसी अकुंठ भावना थी। समाज कितना आगे था। फिर बाहरी आक्रमण हुए, स्त्रियों को वस्तु मानने वाले लोगों का आधिपत्य हुआ, समाज में दुराचारी और बर्बर लोगों का हस्तक्षेप हुआ, लुच्चे और लंपट आततायी लोग आए और सामाजिक ताना बाना बिखर गया। नए बंधन मिल गए। घूंघट और पर्दा की प्रथा बन गई। मुक्त समाज बचने के लिए सिकुड़ता चला गया।


विद्यापति के रूप वर्णन को मुक्त मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानना चाहिए। वह बहुत आधुनिक कवि हैं। उनसा कोई और नहीं है। बाद के कवियों ने बहुत प्रयास किया, नख शिख वर्णन में कोशिश की लेकिन वह सहजता, स्वाभाविकता नहीं आई। यह स्वाभाविकता मुक्त सामाजिक व्यवस्था से आती है, जिसकी छवि विद्यापति के यह दिखती है।

विद्यापति : अपरूप सौंदर्य के कवि 

#vidyapati #पदावली #रूप_वर्णन

#सौन्दर्य 

#अपरूप

रविवार, 30 जून 2024

विद्यापति : संस्कृत और देसिल बयना के कवि

वैसे तो विद्यापति की तीन कृतियां, कीर्तिलता, कीर्तिपताका और पदावली की ही चर्चा होती है लेकिन हम उनकी पुस्तक "पुरुष परीक्षा" से आरंभ करेंगे। यह विद्यापति की तीसरी पोथी है जिसको लिखने की आज्ञा शिव सिंह ने दी थी। यह धार्मिक और राजनीतिक विषय पर कथाओं की पोथी है। ध्यान रहे कि इसमें भी शृंगार विस्मृत नहीं है।

पुरुष परीक्षा नामक पोथी का बहुत आदर है। सन 1830 में इसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ और प्रसिद्ध फोर्ट विलियम कॉलेज में यह पढ़ाई जाती थी। बंगला के प्राध्यापक हर प्रसाद राय ने 1815 ई० में इसका भाषानुवाद किया।


कीर्तिलता विद्यापति की प्रथम रचना है। प्राकृत मिश्रित मैथिली, जिसे उन्होंने अवहट्ट नाम दिया है, में राजा कीर्तिसिंह प्रमुख हैं। इसी में विद्यापति ने "देसी बोली सबको मीठी लगती है" जैसा सिद्धांत प्रतिपादित किया है - देसिल बयना सब जन मिट्ठा! इस रचना में जौनपुर का वर्णन है। मेरे मित्र सुशांत झा ने विद्वानों के हवाले से बताया है कि यह जौनपुर असल में जौनापुर है, जो दिल्ली अथवा उसके निकट का कोई उपनगर है। मैं इसकी परीक्षा कर रहा हूं।


दूसरी पोथी नैतिक कहानियों की है -भू परिक्रमा शीर्षक से। चौथी कृति कीर्तिपताका है। इसमें प्रेम कविताएं हैं। पांचवीं लिखनावली है जिसमें चिट्ठी लिखने की विधि बताई गई है। शैव सर्वस्व सार, गंगा वाक्यवलि, दान वाक्यवलि, दुर्गा तरंगिणि, विभाग सार, गया पतन आदि विद्यापति की अन्य प्रमुख कृतियां हैं जो उनकी विद्वता का परिचय देती हैं।

इन सबसे ऊपर है- पदावली! यही विद्यापति की लोकप्रियता का आधार और लंब सब कुछ है। इसमें गेय पद हैं, राग रागिनियों में आबद्ध। कल इसे केंद्र में रखकर चर्चा करेंगे।

#विद्यापति #Vidyapati #maithil

#मैथिल_कोकिल

विद्यापति : संस्कृत और देसिल बयना के कवि

विद्यापति : संस्कृत और देसिल बयना के कवि, तीसरा भाग

विद्यापति : किंवदंतियां

विद्यापति का जीवन जितना प्रमाणिक है, उतना ही किंवदंतियों से भरा हुआ भी। इसमें सबसे प्रमुख है "उगना महादेव" से जुड़ी कथा। मिथिला क्षेत्र में मान्यता है कि भगवान शिव विद्यापति की भक्ति और प्रतिभा से बहुत मुदित थे और उनकी सेवा टहल के लिए रूप बदल कर रहने लगे। विद्यापति के इस टहलुआ का नाम उगना था। विद्यापति जहां जहां जाते, उगना साथ रहता।

एक दिन की बात। विद्यापति कहीं जा रहे थे। उगना साथ था। विद्यापति को प्यास लगी। उन्होंने अपनी चिंता से उगना को अवगत कराया। उगना आंख से ओझल हुआ और कुछ क्षण में ही जल लेकर उपस्थित हुआ। विद्यापति ने जल ग्रहण किया तो उन्हें आश्चर्य हुआ। वह गंगातीरी कवि थे। जल गंगा नदी का था। उन्होंने उगना से इस संबंध में पूछताछ की तब उगना अपने असली स्वरूप में आ गए। विद्यापति से उन्होंने कहा कि यदि इस रहस्य के विषय में किसी को बताया तो अंतर्धान हो जाऊंगा। विद्यापति के समक्ष दोहरा संकट था। भगवान का सानिध्य और उनसे टहल कराना! बस किसी किसी तरह निबाह हो रहा था।

एक दिन किसी कार्य में देरी होने पर विद्यापति की पत्नी ने उगना को डांट लगाई। तब हस्तक्षेप करते हुए विद्यापति ने #महादेव के बारे में बता दिया। भगवान शिव अंतर्धान हो गए। वह #उगना_महादेव कहे गए। आज भी मिथिला क्षेत्र में एक कुआं है, जिसे इससे जोड़कर देखा जाता है।

विद्यापति की शिव के प्रति भक्ति का यह अनूठा उदाहरण है।


आज दूसरे दिन #विद्यापति के जीवन से एक #किंवदंती।

विद्यापति पर डाक टिकट 


कल तीसरे भाग में हम विद्यापति द्वारा विरचित ग्रंथों की चर्चा करेंगे।


#मैथिल_कोकिल #साहित्य #Vidyapati #कविता #मिथिलांचल


विद्यापति : किंवदंतियां - दूसरा दिन

शुक्रवार, 28 जून 2024

विद्यापति : प्रथम भाग

 लंबे समय तक लोग यही मानते रहे हैं कि विद्यापति बंगला भाषा के कवि थे। गौड़ीय संप्रदाय के चैतन्य महाप्रभु के बारे में कहा जाता है कि वह विद्यापति के गीत गाते गाते विशेष मनःस्थिति में चले जाते थे, सुध बुध खो देने वाली स्थिति।


ओड़िया के प्रसिद्ध कवि हुए हैं चंडीदास! चंडीदास ने राधा और कृष्ण को आश्रय बनाकर कविताएं की हैं। उनकी कविता में विरह का पक्ष इतना प्रधान है कि राधा संयोग के क्षण में भी इस चिंता में रहती हैं कि कृष्ण चले जायेंगे। सूरदास का नाम कृष्ण भक्त कवियों में आदर और श्रद्धा से लिया ही जाता है। उनके यहां भक्ति और प्रेम की सीमारेखा ही मिट गई है। चंडीदास, सूरदास और विद्यापति की तिकड़ी में विद्यापति सबसे उज्ज्वल पक्ष हैं।


उज्ज्वलनीलमणि के रचनाकार रूप गोस्वामी ने शृंगार को उज्ज्वल रस कहा है कि यह जीवन का सबसे ललित और उज्ज्वल पक्ष लाता है। समर्पण और प्रेम का शिखर शृंगार में है। ऐसे में विद्यापति के काव्य के उज्ज्वल पक्ष को रेखांकित करने का संदर्भ लेना चाहिए।


जॉर्ज ग्रियर्सन ने इस मान्यता को स्थायित्व प्रदान किया कि विद्यापति मिथिला के थे और उनकी पदावली मैथिली में है। हालांकि ग्रियर्सन को इसका श्रेय भी है कि उसने विद्यापति के परिवार वालों के उत्तराधिकार के अधिकार को विलोपित कर दिया था।


विद्यापति का जन्म दरभंगा जिला के बिसपी नामक ग्राम में हुआ था। कालांतर में उनके प्रिय राजा शिव सिंह ने यह गांव उन्हें जागीर में दे दी थी। इस आशय का एक ताम्रपत्र भी मिला है और यह प्रमाणिक है।


विद्यापति का काल सल्तनत के बादशाह गयासुद्दीन तुगलक का है, जिनके साथ विद्यापति का संवाद भी है। कीर्तिलता नामक ग्रंथ में विद्यापति ने जौनपुर शहर का बहुत सुंदर वर्णन किया है और यवनों के अत्याचार की तरफ संकेत भी। जौनपुर के हाट/बाजार में चहल पहल का भी वर्णन यथार्थपरक है।


आज #विद्यापति शृंखला में हम यह बताना चाहते हैं कि विद्यापति उन चुनिंदा कवियों में हैं जिनका जीवन वृत्त प्रमाणिक साक्ष्यों के आधार पर निर्मित किया जा सका है। वह मिथिला ही नहीं, समूचे बिहार और बंगाल में कितने लोकप्रिय हैं, इसका अनुमान चंडीदास, चैतन्य महाप्रभु के उल्लेख से समझा ही जा सकता है, यह देखकर भी जाना जा सकता है कि लोक में वह गहरे रचे बसे हैं। उनके काव्य में तत्कालीन ऐतिहासिक चरित्र बहुत ठाठ के साथ उपस्थित हैं। पदावली तो शिवसिंह और लखिमा देवी के उल्लेख से भरी हुई है।


यद्यपि विद्यापति को राजा शिवसिंह के साथ काम करने का कम समय मिला लेकिन युवराज शिवसिंह उनके बहुत अभिन्न मित्र थे। पदावली में बहुत से ऐसे पद हैं जो उनकी अभिन्नता की घोषणा करते हैं।


विद्यापति परम शैव थे। यद्यपि शक्ति और वैष्णव मत के प्रति उनके मन में पूरा सम्मान था लेकिन शिव के वह अनन्य उपासक थे। उन्हें गंगा नदी का सानिध्य मिला था और उनका देहावसान लगभग 90 साल की आयु में गंगा तट पर ही हुआ। उनके विषय में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। इनपर चर्चा करेंगे कल।

शिव भक्त विद्यापति


#Vidyapati #साहित्य #पदावली #मैथिल_कोकिल


विद्यापति : प्रथम भाग

विद्यापति : शृंखला आरंभ की सूचना

सूचना -


    हम कल से अगले दस दिन तक अभिनव जयदेव; #विद्यापति, मैथिल कोकिल के जीवन, काव्य और उनसे संबंधित इतिहास, किंवदंतियों आदि पर चर्चा करेंगे। विद्यापति शैव, वैष्णव और शाक्त के संगम हैं। उनके यहां इतिहास बहुत स्पष्ट और अभिलिखित है। कविता में शृंगार योजना ऋषियों को भी विचलित कर देने वाला है। राधा और कृष्ण के प्रेम का अकुंठ और मादक रूप बहुत आकर्षक है। उनकी रचना में मिथिला क्षेत्र के साथ जौनपुर का भी उल्लेख है। विद्यापति की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को गहरे स्तर तक प्रभावित किया है। वह बंगाल और ओडिसा तक में समान रूप से लोकप्रिय हैं। नागार्जुन, रेणु और रामवृक्ष बेनीपुरी पर उनका गहरा प्रभाव है।


तो आगामी दस दिन तक हम विद्यापति पर एक स्वतंत्र पोस्ट लिखेंगे। आपसे अपेक्षा रहेगी कि हमारा उत्साहवर्धन करेंगे।

विद्यापति


कमेंट बॉक्स में बताइए कि क्या आप इस शृंखला के लिए तैयार हैं।


#विद्यापति #Vidyapati #MaithilKokil #मैथिलकोकिल #साहित्य #कविता #पदावली


एक्स पोस्ट से प्रेरणा

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

विद्यापति के पाँच पद

राधा की वन्दना


देख-देख राधा रूप अपार।
अपुरूब के बिहि आनि मिलाओलखिति-तल लावनि-सार॥
अंगहि अंग-अनंग मुरछायतहेरए पडए अथीर॥
मनमथ कोटि-मथन करू जे जनसे हेरि महि-मधि गीर॥
कत कत लखिमी चरन-तल ने ओछरंगिन हेरि विभोरि॥
करू अभिलाख मनहि पद पंकजअहनिसि कोर अगोरि॥


विद्यापति


श्रीकृष्ण प्रेम

जहं-जहं पग जुग धरई। तहिं-तहिं सरोरूह झरई।

जहं-जहं झलकत अंग। तहिं-तहिं बिजुरि तरंग।।

कि हेरल अपरुब गोरि। पैठलि हियमधि मोरि।।

जहं-जहं नयन बिकास। तहिं-तहिं कमल प्रकाश।।

जहं लहु हास संचार। तहिं-तहिं अमिय बिकार।।

जहं-जहं कुटिल कटाख। ततहिं मदन सर लाख।।

हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर।।

पुनु किए दरसन पाब। अब मोहे इत दुख जाब।।

विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि।।


राधा का प्रेम


 सखि पेखलि एक अपरूप। सुनइत मानबि सपन सरूप।।

कमल जुगल पर चांदक माला। तापर उपजत तरुन तमाला।।

तापर बेढ़लि बीजुरि लता। कालिंदी तट धीरे चलि जाता।।

साखा सिखर सुधाकर पाति। ताहि नब पल्लव अरुनक भांति।।

बिमल बिंबफल जुगल विकास। थापर कीर थीर करू बास॥

थापर चंचल खंजन-जोर।  तापर सांपिनी झापल मोर।।

ए सखि रंगिनि कहल निसान। हेरइत पुनि मोर हरल गेआन।।

कवि विद्यापति एह रस भान। सपुरुख मरम तुहुं भल जान।।



(4)


सैसव जौबन दुहु मिली गेल। स्रवन क पाठ दुः लोचन लेल॥

वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिए चाँद कएल परगास॥

मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखी पूछए कइसे सुरत-बिहार॥

निरजन उरज हेरए कत बेरि।बिहंसए अपन पयोधर हेरि॥
पहिलें बदरि समपुनि नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग॥
माधव पेखल अपरुब बाला। सईसव जौबन दुहु एक भेला॥
भनई विद्यापति हे अगेयानी। दुहु एक जोग के कह सेयानी॥
(5)

सखि हे, कि पूछसि अनुभव मोए।
से पिरिति अनुराग बखानिअतिल-तिल नूतन होए॥
जनम अबधि हम रूप निहारलनयन  तिरपित भेल॥
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनलस्रुति पथ परसन गेल॥
कत मधु-जामिनि राभास गमाओलि, न बूझल कइसन केलि॥
लाख लाख जुगहिअ-हिअराखलतइओहि अजर निन गेल॥
कत बिदगध जनरस अनुमोदएअनुभव काहु  पेख॥
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइतेलाखे  मीलल एक॥




सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.