झीनी बीनी चदरिया में बुनकरी जीवन से
जुड़े शब्दों पर जो टिप्पणियाँ की हैं, वह
एक नए तरह का अध्ययन है। सुन्दरम् शांडिल्य, मधुरेश, मूलचंद्र सोनकर, सीमा
शर्मा, इकरार अहमद, एम
फ़ीरोज़ खान के आलेख विशेष पठनीय हैं। सुन्दरम शांडिल्य ने अपवित्र आख्यान पर लिखा
है। सीमा शर्मा ने रावी लिखता है पर बहुत गंभीरता से विचार किया है। मधुरेश प्रख्यात
कथा समीक्षक हैं। उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों पर विचार करते हुए
उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह को मुस्लिम जीवन के अन्तरंग का कथाकार कहा है। प्रताप
दीक्षित, नगमा जावेद मलिक, इकरार अहमद, मूलचंद सोनकर, शिवचंद प्रसाद, अमित कुमार
भर्ती और रमाकान्त राय ने उनकी कहानियों पर विचार किया है। कविताओं पर डी एस
मिश्र, जसविंदर कौर बिंद्रा, शशि शर्मा, केवल गोस्वामी आदि ने लिखा है। ख़ास बात यह है कि अब्दुल बिस्मिल्लाह के
सभी रचना पर किसी न किसी ने लिखा है। अब्दुल बिस्मिल्लाह न सिर्फ एक
ख्यातिलब्ध उपन्यासकार हैं, बल्कि
कहानीकार और
कवि भी हैं। उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा पहलू उनका सामाजिक चिंतन है।
कमी
खली कि एक लेख उनके समग्र को रेखांकित करते हुए आना था। एक संस्मरण भी बनता था। झीनी झीनी बीनी चदरिया पर एक
ताजा लेख लिखवाना था। अब इस उपन्यास के कई आयाम खुले हैं। भारत भारद्वाज का
लेख बहुत पुराना है और समीक्षा भर है।
झीनी झीनी बीनी चदरिया बिस्मिल्लाह जी के शब्दों में "केवल मुसलमान बुनकरों की कथा न होकर हस्तशिल्पियों
की कथा है।" तो इसपर ठीक से विचार होना था।
अच्छा
लगा कि एक बृहद साक्षात्कार है अंक में। यह कहकशाँ ए शाद ने संजोया है। इस साक्षात्कार से
बहुत सी गुत्थियाँ सुलझती हैं। साक्षात्कार में एक बात खटकी कि अब्दुल बिस्मिल्लाह
ने अपने नए उपन्यास
'कुठावँ' के
बारे में बताया है कि, "शरीर
का ऐसा अंग जहाँ जोर से चोट
पहुंचाई जाए तो व्यक्ति मर सकता है। जातिवाद हमारे समाज का कुठावँ है, उसपर
चोट करने की जरूरत है।" वास्तव में, कुठावँ का अर्थ गलत जगह है। मारेसि मोहिं कुठावँ गुलेरी जी का प्रसिद्ध निबंध है। मुझे
गलत जगह मारा, अर्थ यह हुआ। वह शरीर का अंग नहीं है। नींद न जाने ठाँव कुठावँ, बहुत
चर्चित लोकोक्ति है। बहरहाल, उनके
नए उपन्यास का स्वागत किया जायेगा।
अंक
में एक लेख मैंने भी लिखा है। यह उनकी कहानी का नया संग्रह 'शादी
का जोकर' पर
है। मेरा मानना है कि बिस्मिल्लाह जी की कहानियाँ औपन्यासिक फलक लिए हुए हैं। उनका मानस उपन्यास लिखने
में ज्यादा सुकूनदेह महसूस करता है।
अंक
में सम्पादकीय कई गंभीर विषय को लेकर चलता है और अपनी चिन्ता जाहिर करता है।
अल्पसंख्यकों को लेकर इन दिनों जो विमर्श चल रहे हैं, उनपर सार्थक हस्तक्षेप करता
हुआ सम्पादकीय सुचिंतित तो है लेकिन इसे और व्यवस्थित होना था। अंक के सम्पादकीय
पृष्ठ पर ही यह सूचना अंकित है कि अगला अंक साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त
कृतियों पर केन्द्रित होगा। जिस संकट में यह पुरस्कार इन दिनों है, उसमें अगला अंक
और भी दिलचस्प होने की संभावना है।
मेरी
सम्मति है कि इस अंक का स्वागत किया जायेगा और वाङ्मय को हाथों हाथ लिया जायेगा।
-डॉ रमाकान्त राय,
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी
भाऊराव
देवरस राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
दुद्धी, सोनभद्र,
9415696300,
9838952426