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मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

अज्ञेय की तीन कविताएँ, नदी के द्वीप, कलगी बाजरे की और यह दीप अकेला

(कविता पाठ और उसका अर्थ ग्रहण साहित्यालोचन का एक विशेष पक्ष है। हम हिन्दी की कुछ विशेष कविताओं का भाष्य करने और पाठालोचन करने का प्रयास कर रहे हैं। इस क्रम में हमारी टीम विभिन्न काव्य मर्मज्ञों और सुजान अध्येताओं से अनुरोध कर रही है। समय समय पर हम इन विभिन्न कविताओं की व्याख्या और भाष्य लेकर उपस्थित होंगे। हमने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' की प्रसिद्ध और जरूरी कविता "नदी के द्वीप" से इसका आरंभ करना तय किया है। इस कविता का भाष्य सुधी आलोचक और चिन्तक डॉ गौरव तिवारी करेंगे। उनका "पाठ" मई दिवस पर प्रस्तुत किया जाएगा। यहाँ प्रस्तुत है वह प्रसिद्ध कविता। - संपादक)




1. नदी के द्वीप


हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।

इलाहाबाद, 11 सितम्बर, 1949

 


2. कलगी बाजरे की

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद् के भोर की नीहार-न्हायी कुँई।
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है

बल्कि केवल यही: ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के
निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ-

बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?

आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है
या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती
कलगी अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।

शब्द जादू हैं-
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?

 

3. यह दीप अकेला

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो 

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित : 

 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो 

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो 

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो 

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

 -सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'


सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.