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सोमवार, 4 जनवरी 2021

कथावार्ता : गोपालदास नीरज : कारवां गुजर गया


डॉ रमाकान्त राय

        नीरज उनका उपनाम था। वह इटावा के थे। उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के पुरावली नामक ग्राम में उनका जन्म 04 जनवरी, सन 1925ई० को हुआ था। यह गाँव इटावा जनपद मुख्यालय के निकट स्थित इकदिल रेलवे स्टेशन से बहुत निकट है। गोपालदास नीरज का बचपन सामान्य नहीं था। छः वर्ष की उम्र में पिता स्वर्गवासी हुए तो किसी किसी तरह हाईस्कूल पास किया। इटावा कचहरी में टाइप करना शुरू किया। सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की, सफाई विभाग में रहे, कलर्की की और इस सबके साथ प्राइवेट परीक्षाएँ पासकर एम ए उत्तीर्ण कर लिया। तब मेरठ में अध्यापक बने। वहाँ से निकाले गए तो अलीगढ़ में धर्म समाज कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक बने। उन्होंने जब कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे 1958 में पहली बार आकाशवाणी लखनऊ से प्रस्तुत किया तो उसे सुनकर उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का आमंत्रण मिला। नीरज ने गीत विधा में साहित्य के स्थापित प्रतिमानों को अपने तरीके से तोड़ा।

          कवि प्रदीप, गोपालदास नीरज और पण्डित नरेंद्र शर्मा हिन्दी फिल्मों की ऐसी त्रिमूर्ति थे जिन्होंने सही मायने में गीत लिखे। इससे पहले के फिल्मों वाले गीत नज्म अधिक थे। उनमें हिन्दी के शब्द कम उर्दू के शब्द अधिक थे। नीरज हिन्दी शब्दावली से युक्त गीत लेकर आए और उन्हें सुमधुर बनाए रखकर कई वहम दूर किए। एक मान्यता थी कि हिन्दी शब्दों में वह माधुर्य नहीं है, जो गीत की कोमलकान्त पदावली के अनुकूल हो। नीरज ने अपने शब्द विन्यास से इस भ्रम को तोड़ा।

          गोपालदास नीरज रोमांटिक गीत लिखकर बहुत शीघ्र ही मंचों की शान बन गए। उनके गीत बहुत जल्दी लोगों की जुबान पर चढ़ जाते थे और कंठाहार बन जाते थे। उनके गीतों का पहला संग्रह 1944 में संघर्ष नाम से आया। फिर अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत आदि संकलन आए। 1970, 71 और 1972 में लगातार उनके गीतों को प्रतिष्ठित फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामांकन हुआ और 1970 में काल का पहिया घूमे रे भैया के लिए यह पुरस्कार मिला भी।

          नीरज का कविता के प्रति दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट था। वह मानते थे कि कविता आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है। यदि मानव जीवन मिलना अच्छे भाग्य का प्रतिफल है तो कवि होना सौभाग्य का। वह अपनी कविताओं में भारतीय परंपरा के देवताओं, ऋषियों और भक्त कवियों का अभिनन्दन करते हैं। दोहा को वह कविता रूपी वधू का वर मानते थे। यह दोहा ही है जिसने सभी भावों और विचारों को सार्थकता प्रदान की। यद्यपि आज के काव्यशास्त्रीय मान्यताओं के आलोक में यह बातें बहुत मूल्यवान नहीं जान पड़तीं तथापि इंका महत्त्व इस बात से है कि नीरज ने कविता लेखन के प्रति यही दृष्टिकोण रखा।

गोपालदास नीरज

          नीरज प्रेम की वेदना और मस्ती के कवि हैं। उनके गीतों में बाली उम्र का प्रेम बहुत परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुआ है, वह प्रेम गलदश्रु भावुकता वाला प्रेम नहीं है बल्कि जीवन के झंझावातों से टकराकर निःसृत जीवन दर्शन वाला है। इसीलिए नीरज अपने को शृंगार के कवि नहीं दर्शन का कवि मानते थे। उन्हें शृंगार का कवि कहलाना पसंद नहीं था क्योंकि वह अपनी कविताओं में ब्रह्म को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते रहते थे। -

          कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो।

          जिंदगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह॥

          गोपालदास नीरज के गीतों में मस्ती और रोमानी अंदाज तो है ही, उनके गीतों में अभिव्यक्त दर्शन भारतीय परंपरा से जुड़ा हुआ था। वह अपने गीतों के लिए संदर्भ भारतीय परिदृश्य से चुनते थे, इसलिए उनका एक विशेष संदर्भ बनता है। जब वह इंसान के लिए अलग मजहब की चर्चा करते हैं तो वह सामूहिकता के दर्शन के विपरीत निजी अनुभूति को प्रमुख मानते हैं। इसीलिए वह छद्म धर्मनिरपेक्षता के कटु आलोचक भी हैं- उनका यह दोहा-

          सेक्युलर होने का उन्हें, जब से चढ़ा जुनून।

          पानी लगता है उन्हें,  हर  हिन्दू का खून॥

वह बहुत साफ साफ लिखते हैं कि यह देश बहुसंस्कृतिवादी है किन्तु इस बहुलता की रक्षा का दायित्व सब पर है। अगर किसी एक समुदाय का हस्तक्षेप बढ़ता जाएगा तो यह लोकतन्त्र के खिलाफ होगा। उनका दोहा है-

          यदि यूं ही हावी रहा, इक समुदाय विशेष।

          निश्चित होगा एक दिन, खंड-खंड ये देश॥

          जीवन के उत्तर काल में गोपाल दास नीरज को राजनीतिक दलों ने खूब सम्मान दिया। समाजवादी पार्टी ने उन्हें मंत्री का दर्जा दिया। वह पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किए गए तथा उन्हें यश भारती सम्मान भी मिला। इटावा में नीरज को लोग आत्मीयता से याद करते हैं लेकिन अकादमिक स्तर पर ठोस प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। गोपालदास नीरज हिन्दी फिल्मों में लिखे गए हिट गीतों से बहुत लंबे समय तक याद किए जाते रहेंगे। 19 जुलाई, 2018 को उनका निधन हुआ।

         

          जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनके दो प्रसिद्ध गीत-

 

1.     कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठें कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहां
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे

सांस की शराब का खुमार देखते रहे,
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और सांस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे
नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वह गिरी
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी
और हम अजान-से
दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

 

2.    जलाओ दिए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,

उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,

लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,

निशा की गली में तिमिर राह भूले,

खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,

ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,

कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,

मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,

कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,

चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,

भले ही दिवाली यहाँ रोज आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,

नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,

उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,

नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,

कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,

स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०, २०६००१

9838952426, royramakantrk@gmail.com

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