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गुरुवार, 25 जुलाई 2024

ए सखि पेखल एक अपरूप! : विद्यापति

ए सखि पेखल एक अपरूप!


विद्यापति के अपरूप वर्णन में ध्यान जैसे कच, कुच, कटि पर टिक गया हो। पीन पयोधर और नितंब पर वह मुग्ध हैं। राधा आश्रय हैं तो वह कृष्ण से मिलन का प्रसंग निकालते हैं। प्रथम दर्शन पाने के बाद कृष्ण व्यथित से, उद्विग्न हैं। सजनी को अच्छी तरह देख न पाया! और सजनी के उन्हीं अंग प्रत्यंग का उल्लेख है। 

इस गजगामिनी कामिनी को देख श्रीकृष्ण कहते हैं - उसके चरणों का जावक, मेरे हृदय को पावक की तरह दग्ध कर रहा है- "चरन जावक हृदय पावक, दहय सब अंग मोर।" चरणों का जावक, आलता। वह लाल रंग जिसे महावर की तरह प्रयुक्त करते हैं, को देखकर उनका अंग अंग जलता है। लाल रंग का कितना सुघड़ बिम्ब है।

और राधा! वह बायां पैर रखती हैं और दाहिना उठाती हैं तो लज्जा होती है। क्यों? रूप की राशि जैसे खनक जाती है। विद्यापति के पद पढ़कर, उन्हें प्रत्यक्ष कल्पित कर ही इस आनंद की कल्पना हो सकती है।

पहले भी कहा था हमने कि संयोग के प्रसंग में विद्यापति अति प्रगल्भ हैं। यह प्रगल्भता अंतरंग क्षणों में चुकती नहीं। राधा कृष्ण को देखकर पुलकित हो उठती हैं। इस पुलक में "चूनि चूनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बलआ भांगु।" वाणी कंपित हो गई है, बोली नहीं फूटती।

विद्यापति के यहां प्रेम का इतना सरस और उन्मुक्त वर्णन उन्हें घोर शृंगारी बनाता है।


कुछ दूसरे पदों की सहायता से इस शृंगारी पक्ष को और स्पष्ट करेंगे।


#6thDay 


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